एकल नाटक
(अभिनेता
मंच पर आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने जबरदस्ती से मंच पर धकेल दिया है।
दर्शकों को देख कर असमंजस में दिखता है। अब मंच पर कुछ तलाश कर रहा है। विंग्स की
तरफ जाकर कुछ ढूँढता है। थोड़ी बेचैनी बढ़ती है तो अपनी जेबों को बारी-बारी से देखता
है। लगभग जेबों को उलट ही देता है। दर्शक की बेचैनी व थोड़ी ऊब तक यह क्रिया चले।
अब दर्शकों को देखता है। खिसियाई-सी हंसी।)
आप पूछेंगे नहीं
मैं क्या कर रहा हूँ? मुझे उम्मीद थी कि नहीं पूछेंगे। नहीं न पूछा आपने! न
पूछ कर आपने साबित कर दिया कि आपकी और मेरी बीमारी एक ही जैसी है। आम तौर मैं भी
नहीं पूछता... कई बार सवाल मेरे अंदर एड़ियाँ उठाए बाहर आने को मचल रहा होता है
लेकिन पूछता नहीं... इससे पहले कि सवाल
बाहर आने की जुर्रत करें, मैं कस के अपने दिमाग का ढक्कन बंद
कर देता हूँ। ये ढक्कन लगाने में हम जबरदस्त सिद्धहस्त हैं। हम रोज़ अपनी इच्छाओं
पर ढक्कन लगाते रहते हैं... अब वैसा ही सलूक सवालों के साथ भी करने लगा हूँ। यकीनन,
आप भी अपने सवालों के साथ कुछ ऐसे ही करते होंगे?
हाँ…हाँ, तरीका शायद कोई
दूसरा इस्तेमाल करते होंगे! घबराएँ नहीं, आपका तरीका मैं
नहीं पूछूंगा। बिलकुल नहीं...अरे भाई! बड़े जतन से ‘न पूछने’ की आदत पाली है मैंने। प्रबल जिज्ञासा होने बावजूद भी नहीं पूछूंगा। शर्तिया
आप भी नहीं पूछते होंगे। अब आपने यहीं कहीं ऑडिटोरियम के बाहर लिखा देखा होगा, “कृपया यहाँ न थूकें”। क्या कहा ? यहाँ लिखा नहीं
देखा! चलो कहीं और देखा होगा। किसी पोशीदा-सी दीवार पर तो यह
जरूर देखा होगा, “यहाँ न मूतें”। अब आप कहेंगे कि बात सवालों
की चल रही थी और आप थूकने-मूतने को कहाँ ले आए? अरे भाई बात
समझने की है। अब इस पर सवाल होना चाहिए कि नहीं? पर नहीं है!
जबकि इस लिखावट में सवाल नहीं बल्कि सवालों की पूरी शृंखला है। पहला सवाल तो यही बनता
है कि हर बात क्या लिखनी जरूरी है? दूसरा सवाल है कि जहां
लिखा होता है कि ‘यहाँ न थूकें’ सब लोग
वहीं जाकर ख़्वामख़्वाह क्यों थूकते हैं? इसी प्रश्न का एक
प्रति प्रश्न यह है कि जब आम आदमी एक जगह थूकने के लिए बहुत आतुर व सहज है और उस जगह
को आम थुकाई रुतबा दे चुका है, तो वहाँ ऐसा लिखने से किसी को
क्या सुख मिलता है? अब इतने सारे प्रश्न हैं लेकिन मजाल है
कि जेहन में एक भी आए। जेहन में आ भी जाए तो जबान पर नहीं! बहुत कौशल और हिम्मत का
काम होता है कि सवाल आपके सिर में जूँ की तरह काट रहा हो और आप कूल्हे पर खुजला कर
उसे शांत कर दें। यह एक जबरदस्त मनोदैहिक क्रिया है।
या यूं कहें कि एक प्रकार की यौगिक क्रिया है। अरे, आप इस क्रिया
से अपना साधारणीकरण
करने मत बैठिए। ऐसा करेंगे तो आप निस्संदेह बुरा मान जाएंगे... मैं नाटक शुरु होने
से पहले ही दर्शकों को नाराज़ नहीं करना चाहता। यद्यपि टिकट बिक चुके हैं, स्मारिका के लिए विज्ञापन मिल चुके हैं, अकादमी से
ग्रांट का जुगाड़ भी... खैर छोड़ो...वह भी पक्का ही समझो। डायरेक्टर की पहुँच
मंत्रालय में... इस बार अकादमी पुरस्कार पक्का समझो। इन सबके बावजूद भी दर्शक का
सम्मान तो होना चाहिए न। दर्शक
के साथ अभिनेता का रिश्ता केवल इतना ही नहीं होता। अरे हम तो फ्री-पास वालों से भी
स्थायी रिश्ते बनाए रखने की बात करते हैं। उन्हें बड़ी इज्ज़त से बुलाते हैं, आगे की पंक्ति में बैठाते हैं। (थोड़ा झेंप कर ) अरे साहब, आप बिलकुल आगे वाले नाराज न हों। इतना आगे भी नहीं बैठाते... मतलब... आगे
से थोड़ा पीछे... अब बहुत आगे वाले भी इसे खुशामद न समझ लें... दरअसल बात यह है कि नाटक
शुरू होने से पहले ही नाराज़ हो गए तो आप अपने दिमाग का स्विच-ऑफ कर लेंगे। ये अलग बात है कि निर्देशक के बार-बार कहने पर भी आप में से अधिकतम अपने
मोबाइल को स्विच ऑफ नहीं करते हैं।
(एक दर्शक
को लक्ष्य करते हुए)
अरे भाई साहब,
आप जेब में हाथ क्यों डाल रहे हैं,
आपका मोबाइल तो भाभी जी के हाथ में है। मैं आश्वस्त हूँ कि आपने
फ्लाइट मोड में लगा कर ही दिया होगा... पैटर्न लॉक भी बदला होगा?
और कॉल हिस्ट्री, चैट हिस्ट्री वगैरह? खैर आप स्वयं जाने! इतने समझदार तो आप होंगे ही न। (बाकी
दर्शकों से मुखातिब होता है।) ये थियेटर वाले भी
गजब होते हैं न साहब... नहीं...म-म... हूँ तो मैं भी थियेटर वाला ... पर थोड़ा
अलग... कितना अलग, उस पर बाद में बात करूंगा.... हाँ तो मैं
कह रहा था... अब कितनी मुश्किल से दर्शक
मिलते हैं नाटक के लिए… और ये थियेटर वाले आते ही उन्हें जलील करने लगते हैं,
(उद्घोषक वाले अंदाज में ) “देखिए नाटक शुरू होने वाला है, आप अभी अपने मोबाइल
के स्विच ऑफ या साइलेंट कर लें…" अरे भाई नाटक शुरू कर
रहे हो या हवाई जहाज! जनाब, कहने के अंदाज़ का फर्क भी देखो
वहाँ एयर होस्टेस होती है। आवाज में मिश्री घोल के बोलती है,
“प्लेन टेक ऑफ होने वाला है, कृपया अपनी सीट बेल्ट बाँध
लें।” अरे ऐसी मधुर आवाज हो तो कमर पर क्या गले पर बेल्ट बांधने को... और ये थियेटर वाले खडूस! दर्शक को अज्ञानी समझ
कर मखौल बनाने लगते हैं, (उद्घोषक
के अंदाज में) "स्विच ऑफ या साइलेंट करना नहीं आता है
तो पड़ौसी से ही करा लें…"अरे भाई ये तब की बात थी जब
बटन वाला फोन होता था। तब वाट्सएप्प और फेसबुक नहीं होता था। अब पड़ौसी के हाथ में मोबाइल
देने के रिस्क हैं जनाब। प्राइवेसी भी कोई चीज है। वायरल होने के डर बने रहते हैं।
एक बार तो एक उद्घोषक ने तो हद ही कर दी, नाटक शुरू होने से
पहले मोबाइल को साइलेंट मोड में कैसे करते हैं, इस पर पूरा
ट्यूटोरियल ही दे डाला। “ऐसे सेटिंग में जाइए...फिर सिम कार्ड सिलेक्ट
कीजिए...वहां से बैक दबाइए… फिर साउंड में आइए… आदि -आदि, इत्यादि-इत्यादि।”
उद्घोषक जी तो तब मुश्किल में आ गए जब लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ‘नोकिया में कैसे करना है?’ ‘एंड्रॉइड में कैसे करना
है?’ ‘आई फोन में कैसे करना है?’ (हँसता
है।) अब आईफोन और थियेटर वालों की तो कुंडली ही नहीं
मिलती तो फंक्शन कैसे मिलेगा... अरे भाई, मैं तो कहता हूँ कि
दर्शकों को डांट कर ही नाटक शुरू करना हो तो कोई और जेन्यूइन वजह निकालिए। यही कह
दीजिए कि आप समय से नहीं आते हैं, पचास रुपये के टिकट के लिए
आनाकानी करते हैं। गुटका थूक के कारपेट गंदा करते हैं। चिप्स-कुरकुरे बच्चों को
दिलवाते हैं और नाटक के बाद खाली रैपर कुर्सी के नीचे छोड़ चले जाते हैं। बाद में ऑडिटोरियम
का मालिक इसी बिना पर अमानत राशि जप्त कर लेता है। बस, इतना
ही कह दो दर्शकों से। इतने में ही बेचारे पानी-पानी हो जाएंगे। मुझे तो यह समझ में
नहीं आता कि जब मोबाइल नहीं था तब क्या कह कर एक्टर दर्शकों पर धौंस जमाते थे?
मैं यह बात तजर्बे से कह रहा हूँ। तजर्बा! हाँ, मुझे पता है कि आप कहेंगे कि ‘आपको पहले कभी तो
स्टेज पर देखा नहीं’। सही सोच रहे हैं। आज तक मैंने कभी किसी
नाटक में कोई भूमिका की ही नहीं। केवल एक्टिंग का ही तजुरबा कोई तजुरबा नहीं होता...
(विंग में देखकर) कोई है तो नहीं यहाँ डायरेक्टर का चमचा? प्रोंप्टर यहीं विंग में चिपका रहता है। कलाकारों को तो प्रोंप्टिंग है
सो है डायरेक्टर को भी बराबर प्रॉम्प्ट करता है। (आश्वस्त होकर) खैर, नहीं है! इसे आप यूं भी समझ सकते हैं कि मुझे कभी कोई भूमिका दी ही नहीं
गई... लेकिन लंबे समय से जुड़ा रहा हूँ थियेटर से। बिलकुल इसी बगल वाली विंग में
बैठ कर दसियों नाटकों के पर्दे खींचे है। नाटक की रिहर्सल में बुट्लर और थावर की
दुकान से चाय लेकर आता रहा हूँ, दस मीठी, डाइरेक्टर की एक फीकी और हीरोइन के लिए कॉफी अलग से पैक कराकर। नाटक के
सेट के लिए हमेशा लगने वाला सोफा कौन उठा कर लाता है? अपने
आप नहीं आ जाता! पिछले नाटक में पेड़ बनाने के लिए पड़ौसी की दीवार फांद कर नीम की डाली
कौन काट कर लाया था! ये कम तजर्बा नहीं है। इसलिए, हूँ तो मैं
भी नाटक मंडली का हिस्सा किन्तु काफी समय से दर्शक और अभिनेताओं को बराबर दूरी से
देख रहा हूँ। इसलिए अभी मेरा कोई पक्ष-विपक्ष नहीं है। इतने दिनों से एक तरह से
दर्शक ही हूँ। इसलिए दर्शकों से सच्ची हमदर्दी है। मंच पर तो पहली बार आया हूँ। वो
भी एक्टर नहीं उद्घोषक की भूमिका में। और शायद आखिरी बार भी! अंदर की बात बताऊंगा, दर्शकों को ऐसे बर्गलाऊंगा तो मंडली से अगली बार बाहर ही समझो। लेकिन
इसका मतलब ये नहीं कि अपने स्वार्थ की वजह से दर्शक की पीड़ा को न समझूँ, सच से मुंह फेर लूँ! आप सोच रहे होंगे ऐसा है तो अभी मैं स्टेज पर क्यों
हूँ। मैं कोई एक्टर के तौर पर नहीं भेजा गया हूँ। यहाँ मैं उद्घोषक की भूमिका में
हूँ। यह भूमिका भी कोई आसान नहीं। उद्घोषक के पास एक्टर की तरह कोई स्क्रिप्ट नहीं
होती है। आपको बोलना होता है। कितना बोलना होता है, किसी को
पता नहीं! ऑडिटोरियम में पहले दर्शक के आने और आखिरी दर्शक या मुख्य अतिथि के आने
बीच जो वक्त फैला होता है उसे उद्घोषक की जबान ही पाटती है। इस बार मुझे भी जब
उद्घोषक की ज़िम्मेदारी दी तो मैंने मना कर दिया था। क्यों? मैं
भी यहाँ अभिनेता बनने का सपना लेकर आया हूँ। मैं भी चाहता हूँ कि आप मेरी प्रतिभा को
देखें उसे सराहें। मैंने इसलिए मना कर दिया कि मैं इस नाटक में भूमिका चाहता था। मंडली
के दूसरे अभिनेताओं ने मोटिवेट किया, “बेवकूफ यह मौका है
दर्शकों के सामने मंच पर आने का... जाओ और साबित कर दो अपनी प्रतिभा को।” तय तो
मैंने भी कर लिया कि आज मौका है तो साबित कर ही दूंगा। किन्तु कैसे साबित करूँ? इसी उधेड़बुन में ही समय चला गया। उद्घोषणाओं को लिख-लिख कर कई ड्राफ्ट
बनाए। पहले भाग में “बहनो-भाइयो... मित्रों... लेडीज...एंड... इत्यादि ... आप
ताज्जुब करेंगे कि इसी चिंतन में मैंने पूरा एक दिन लगा दिया कि ‘भाइयों-बहनों’
बोलूँ या ‘बहनों-भाइयों’ बोलूँ। जेंडर बराबरी का अच्छा खासा विमर्श दिमाग में शुरू
हो गया। उसके बाद इबारत में आए खास मेहमानों के नाम, फिर
थोड़ा कम खास मेहमान, आभार, पात्र परिचय
... और फिर वही मोबाइल स्विच-ऑफ वाली वही बात... नहीं-नहीं,...
यकीन मानिए फाइनल ड्राफ्ट में मैंने यह बात सिरे से ही हटा दी थी। थोड़ी देर बाद मैंने
तो पूरी इबारत को ही रद्दी की टोकरी में डाल दिया। क्योंकि ये सभी बातें तो दो
मिनट में ही खत्म हो रही थीं लेकिन कई बार इंतज़ार तो बड़ा लंबा हो जाता है। कुछ
एक्टर कॉस्टयूम वाला पाजामा घर भूल कर आ जाते हैं, फिर घर लेने
भागते हैं। इसमें घंटा भर तो लग ही जाता है। पाजामे के आने तक रोके रखिए दर्शकों
को। खुद में ट्राफिक हवलदार की सी फिलिंग आती है। पाजामा रूपी किसी वीआईपी काफिले की
तरह इंतजार में दर्शकों के ट्रैफिक को रोके रखिए। कई बार तो इंतज़ार फुल लेंथ के
ड्रामा से भी अधिक होता है। मैंने इस लेख लिख कर तैयारी करने के आइडिया को डिलीट कर दिया, दिमाग के री-साइकिलबिन से भी रिमूव करके रिफ्रेश की कमांड दी... अब मुझे
गज़ब का आइडिया आया! और सच मानिए इस आइडिये ने दर्शकों की इज्जत और मेरा मान दोनों बढ़ा दिया। मैंने तय
किया कि कुछ सवालों की सूची बनाई जाए और उन सवालों के माध्यम से दर्शकों से बात की
जाए। अपना वक़्त युटिलाइज हो जाएगा और दर्शकों को भी बुद्धिजीवी टाइप फीलिंग आएगी। आखिर
सही भी है। ये अभिनेता दर्शकों को केवल अंधेरे में चौंधियाई हुई दो आँखें ही क्यों
समझ बैठते हैं। इसी पर एक कहानी याद आ गई। एक बार शहर में एक NCC का राष्ट्रीय कैंप लगा। उन्होंने हमें नाटक मंचन के लिए कहा। हम सहर्ष
राज़ी हो गए। नाटक के समय लाइट के नाम पर वहाँ दो हेलोजन थी जिन्हें हमने 45-45
एंगल से स्टेज पर लगा दिया और नाटक के शुरू होने का इंतजार करने लगे। कैंप के
कर्नल साहब यह इंतजार कर रहे थे कि इन दो लाइट में से एक दर्शकों की तरफ हो तो
नाटक शुरू करवाऊँ। मतलब दर्शकों में युवा लड़के और लड़कियां दोनों थे। ऐसे में 360
डिग्री पर लाइट होना जरूरी होता है। आखिर में एक लाइट अभिनेताओं पर और एक लाइट
दर्शकों पर थी। भाई इसलिए ऐसा भी सोचो कि दर्शक और अभिनेता दोनों उजाले में क्यों
न रहें? उनका भी अपना दर्शन है, भाई
उनके भी अपने विचार होते हैं। विचारों का उजाला होता है। सारा ज्ञान एक्टर के पास
ही नहीं होता। इसलिए मैंने दर्शकों के पोटेन्शियल पर भरोसा कर यक्ष प्रश्नों की
लंबी सूची बनाई और जेब में रख ली। (जेब को निकाल कर दिखाता है, जो कि फटी हुई है।) इस जेब में ! क्या करूँ सभी
सवाल इस फटी जेब से कब निकल गए पता ही नहीं चला। सारी की सारी तैयारी उड़न छू हो
गई। मैंने ठहरकर सोचा तो मुझे समझ आया कि हमारी जेब आज नहीं बल्कि बरसों से फटी
हुई है। इसी में से होते हुए हमारे सवाल ही नहीं जिंदगी भी धीरे-धीरे रिस गई है।
बस यही नहीं पता चल रहा कि सवाल पहले निकले या जिंदगी। यह आज अचानक नहीं हुआ है।
मुझे बहुत पहले से मालूम है कि जेब फटी हुई है लेकिन हमेशा अपने सवालों को इसी के
हवाले करता आया हूँ। वे हमेशा इस में से होकर बिखरते रहे हैं... बहुत अभ्यास के बाद
ये अवस्था आती है कि आपकी जेब फटी है और फिर भी आप उसमें अपनी पूंजी रख कर
निश्चिंत हैं। (एक दर्शक से) जनाब यहाँ मत चेक कीजिए जेबों को, घर जाकर इतमीनान कर लीजिएगा। गलती से दूसरे की जेब में हाथ न चला जाए !
अब साड़ी वालों को चिंतित होने की जरूरत ही नहीं। साड़ी में जेब का कोई कान्सैप्ट
शुरू से ही नहीं रहा। साड़ी वालों ने बहुत पहले से अपनी चिंताओं और सवालों को पतलून
वालों की जेब में डाल कर रख छोड़ा है।
(विंग की तरफ
देखता है, किसी के साथ इशारों में बात होती है)
हाँ प्रोंप्टर जी, क्या है? पाजामा आ गया क्या ... मतलब ... मतलब
तैयारी पूरी हो गई? अरे थोड़ा ऊँचा बोलो यार प्रोंप्टिंग नहीं
कर रहे हो। टीक है। आता हूँ। मुझे अपनी बात कनक्लूड करने दो पहले । (दर्शकों
से) वही प्रोंप्टर महोदय हैं। कुछ बताना चाह रहे थे। लेकिन प्रोंप्टिंग का
इतना अभ्यास कर लिया है इन्होंने कि हर बात को फुसफुसा के ही बोलते है। पता नहीं
घर पर इनका कैसे काम चलता होगा। फुसफुसाते रहो। हम तो अपनी बात जारी रखते हैं। क्या जारी रखूँ? कहाँ से जारी रखूँ। अब देखो मैं यही भूल गया कि क्या बात चल रही थी। ... हाँ
तो बात मोबाइल की थी शायद। स्विच ऑफ वाली?
(फुसफुसा
कर लेकिन स्पष्ट)
एक बात बताऊं,
जब मैं भी दर्शक होता हूँ तो कभी भी स्विच ऑफ नहीं करता। कुछ बातें
दर्शकों के नज़रिये से भी देखनी चाहिए। अब देखो दर्शक भी तो इंसान ही है न... उसे
भी घर जाकर यह सबूत भी देना है कि वह नाटक देखने ही गया था,
कहीं और नहीं। इसलिए एविडेंस के तौर पर दो-चार तस्वीरों को क्लिक करना तो बनता है
न, वह भी सेल्फी में अपनी मुंडी दिखाते हुए। थियेटर करने
वालों के अपने अभिव्यक्ति के जोखिम हैं, तो देखने वालों के
भी जोखिम कम नहीं हैं। अब ये तो रही आम दर्शक की बात, दर्शकों
में भी एक और विशिष्ट श्रेणी होती है। इस श्रेणी में आते हैं अभिनेताओं के
रिश्तेदार। अभिनेताओं के रिश्तेदार सीधे नाटक देखते ही नहीं। ये नाटक मोबाइल से
होकर देखते हैं। जैसे ही लल्ला की स्टेज पर एंट्री होती है तो पास से आवाज आती है, “अजी लल्ला की रिकॉर्डिंग बनाओ न... आपके मोबाइल से अच्छी बनती है।” इतना
होते ही अंकल जी सामने वाले की गर्दन के पास से मोबाइल तान देते हैं तमंचे की तरह।
जितने अभिनेता, उससे अधिक रिश्तेदार और उतने ही मोबाइल हवा
में तने रहते हैं। लल्ला की एग्जिट होते ही फिर आंटी जी की ये आवाज आती है, “अरे पूरी फिलिम बनाने का क्या ठेका ले रखा है?
रिकॉर्डिंग भेज भी दो न दिल्ली वाली जिज्जी को।” इसके बाद अंकल जी दर्शक से
ब्रोडकारस्टर में बदल जाते हैं, पहले दिल्ली वाली जिज्जी, फिर आगरे वाली मौसी फिर ग्वालियर वाली बुआ .... एक – एक करके टैग करते
जाते हैं... दे दनादन ... दे दनादन... हर डिलिवरी के साथ डिलिवरी रिपोर्ट की
टिंग... टिंग... की आवाज सुनाई देती है...
(अचानक
मैसेज टोन ‘टिंग’ की आवाज होती है। एकदम
चौंक कर जेब में हाथ डालता है और मोबाइल निकाल लेता है)
अब देखो अपने
दर्शकों में से ही कोई मुहतरमा फेसबुक पर अभी-अभी लाइव हैं। ऑडिटोरियम के अंदर भले
ही दर्शक अलाइव न हों किन्तु सोशल मीडिया पर लाइव रहना चाहिए।
खैर छोड़ो जी होने
दो लाइव। अब देखिए, असली बात तो मोबाइल की भी नहीं थी। मोबाइल की बात
में असली बात छूट गई है। दरअसल बात बीमारी की थी। न पूछने वाली बीमारी! वही बीमारी जब सवाल सिर
में जूं की तरह काटे और आप उसे कूल्हा खुजला कर शांत कर दें। यह जरूरी भी नहीं कि आप भी अपने सिर की सरसराहट
मिटाने के लिए कूल्हा खुजलाते ही हों। क्या?....
हाँ, मैंने यह कहा जरूर था कि हमारी बीमारी एक है...
किन्तु एक ही बीमारी के लिए अलग सिंपटम भी तो हो सकते हैं। आपने अपनी दिमागी
खदबदाहट को मारने के लिए कोई अलग और नायाब तरीका निकाल रखा होगा। अगर अभी आप से
पूछने लगूँ कि आप अपने सवाल को कैसे मारते हैं, तो तरीकों पर
एक किताब लिखने का मसाला निकल सकता। एक से एक नायाब तरीके ! अपनी जिज्ञासा को
मारने के 108 तरीके... क्या शानदार शीर्षक सूझा है किताब का
! अरे भाई साहब आप क्यूँ नोट कर रहे है?
किताब लिखना मैंने पहले ही शुरू कर दिया है। खैर, आप आश्वस्त हैं कि न तो मैं पूछने वाला हूँ और न आप बताने वाले...क्योंकि
‘न पूछने’ का बहुत अभ्यास किया है तब
जाकर ये आदत बनी है।
दरअसल, मैं यहाँ कर क्या रहा हूँ ? मैं यहाँ सवालों को
मारने के एक तरीके का अभ्यास आपके साथ कर रहा हूँ। मैं एक बात आपके जेहन से
खिसकाने में अब तक कामयाब रहा हूँ। आप चाहने के बाद भी यह पूछने की जहमत से अपने
को बचा के रखे हैं कि “नाटक शुरू क्यों नहीं हो रहा?” इस
सवाल को व्यवस्थित तरीके से दर्शक के जेहन से हटाया जा सकता है। यही नहीं किसी भी
सवाल को लोगों के जेहन से व्यवस्थित रूप से हटाया जा सकता है। जैसे “महंगाई क्यों
है, बेरोजगारी किस लिए है व खुशहाल दिन कहाँ है? ये ऐसे सवाल हैं जो आपके दिमाग से एक वक्त तक हटा दिये जाते हैं। यह बहुत
मनोवैज्ञानिक युक्ति है। यह तभी हो सकता है जब कोई आपके सवाल के बुलबुले में हवा
भरने से पहले आपकी ही किसी ऐसी नुकीली चीज से उसे फोड़ दें। दरअसल, यह सवालों का एक तरह से अपहरण ही है। सवालों का अपहरण करने का एक तरीका
यह भी है। आप चाहे तो नोट कर सकते हैं इस तरीके को... जो लोग राजनीति में आना
चाहते हैं उनके लिए स्पेशल रेकोमोंडेशन है। आप नोट करेंगे तो मैं सवालों के अपहरण
का तरीका और उसके पीछे का सिद्धान्त दोनों बताऊंगा... अब समझ में नहीं आ रहा कि सिद्धान्त पहले बताऊँ
या तरीका? खैर मैं तो बताना शुरू करता हूँ, आप देख लेना कि सिद्धान्त कहाँ है और तरीका कहाँ ... मसलन, छोटा बच्चा जब किसी ऐसी चीज़ को पकड़ लेता है, जो उसे
नहीं दी जानी है, तो माँ-बाप उससे लेने की कोशिश करते हैं। बच्चा उसे किसी भी सूरत में नहीं छोड़ता ... फिर
सारी कोशिशों के बाद हम उसका ध्यान किसी आकर्षक चीज़ की तरफ लाते हैं और उससे पहली
चीज़ छीन लेते हैं... बच्चा चूँ तक नहीं करता है। जब भी हमें इंजेक्शन दिया गया
तब-तब कोई न कोई आसमान की चीज़ दिखाई गई, “वो देखो चिड़िया” “
वो देखो चंदा” ध्यान उधर जाते ही खच से सुई लग जाती थी। यह तरीका अपनाओ बच्चे के
साथ शुरू से ही अपनाओ... फिर देखो बचपन,
किशोरावस्था, जवानी, प्रौढ़ावस्था
तक कोई प्रश्न आ जाए क्या मजाल है! किशोरावस्था में वह सपने देखने लगते हैं मुहब्बत
और अपने मुस्तकबिल के, हम बड़ी चतुराई से उसके सामने अपना खुद
का पिटा-पिटाया हुआ सपना फ्रेम में जड़ कर टांग देते हैं और वह मुहब्बत व मुस्तकबिल
दोनों से आँखें फेर लेते हैं! जवानी तक आते-आते वो उसका पूरा अभ्यास कर लेते हैं।
वह सोचना चाहता है कि मेरी बेरोजगारी क्यों है? उसका भविष्य
अंधकार में क्यों है? बस उसे कह दो कि हिन्दू खतरे में है या
मुसलमान खतरे में है... यकीन मानिए वह दाल-रोटी की मांग छोड़ कर नारों से पेट भरने
लग जाएगा। देखिए सिद्धान्त यह है कि बचपन से लेकर पूरा जीवन हमारे दिमाग का विकास दरअसल
होता ही नहीं है। एक चीज को भूलने के लिए तुरंत दूसरी दिखाना जरूरी होता है, चाहे बचपन हो या जवानी। सवाल अपने आप खो जाता है बशर्ते कोई दूसरी चीज़ हो
भरमाने को। सारे सवाल अपने आप नहीं रिसे। हम सब की जेबें गुरबत के कारण जीर्ण
शीर्ण नहीं हुई हैं। आपकी सवालों से भरी जेब बाकायदा काटी गई है। बहुत फ़ाइन कट
लगाया है जेबकतरे ने। कट लगाने वाला जेबकतरा आपका कोई नजदीकी या सबसे भरोसे वाला
ही रहा होगा, निश्चित रूप से।
(बैठता है।
लंबी सांस लेकर फिर दर्शकों से मुखातिब होता है।)
दरअसल,
इन दिनों मुझे पूरी शिद्दत से यह महसूस हुआ है कि मेरे सवाल लगातार कहीं
खोते जा रहे हैं। अपने गुमशुदा सवालों को यहाँ-वहाँ खोजता फिरता हूँ। जी हाँ,
मिले।... अपने सवालों को एक नजर में पहचान जाता हूँ। मेरे अपने हैं, यह जान कर उनको उठा भी लेता हूँ । उठा लेने का मतलब आप वस्तुतः किसी चीज
को उठा लेने के संदर्भ में ही ले तो बेहतर है। ‘सवाल उठाने’ के अर्थ में न लें। हाँ तो ... उन्हें हाथ में पकड़ लेता हूँ... उनकी धूल
साफ करता हूँ। सामने रखता हूँ तो सवाल नजर नहीं मिलाते हैं – मैंने अपने सवाल से
पूछा, “ ऐसी भी क्या बेरुखी है?
सवाल नाराज़ तो था ही। बोला,
“तुमने मुझे फेंका,
छोड़ा और नज़रअंदाज़ किया, कोई बात नहीं वह तो तुम करते आए हो। “ मैंने कहा,
“ तो फिर क्यों गुस्सा हो,
“ सवाल ने कहा,
“ गुस्सा नहीं अफसोस है कि तुमने मुझे सही समय पर नहीं ‘उठाया’। मूर्ख! सवाल वही होता है जो सही समय पर
उठाया जाए। मैंने कहा सवाल नहीं हो तो फिर तुम कौन हो ?
सवाल बोला, “ मैं
सवाल की सीपी हूँ , खोल हूँ इसमें से समय का मोती निकल चुका
है।”
मैंने कहा,
“मैं समझा नहीं”
वह बोला,
“कैसे समझोगे? सवाल किए बिना तुम समझ भी तो नहीं
सकते। समझ का रास्ता सवालों की बस्ती से होकर ही गुजरता है। मूर्ख! मैं वह सवाल
हूँ जिसे तूने पाँच साल पहले फेंका था। वहीं पोलिंग बूथ के बाहर... जब तू वोट देने
जा रहा था... मैंने तेरे कान में चिल्ला के पूछा था कि किसे वोट देने जा रहे हो? तुम बोले उसे जिसे सब देने जा रहे हैं। मैंने पूछा उसे क्यों चुन रहे हो?
तुमने कहा था कि इसलिए कि उसे सब चुन रहे हैं। मैंने फिर पूछा था कि
सब क्यों चुन रहे हैं? तुम झल्ला गए थे, तुमने कहा था, “सब इसलिए चुन रहे हैं क्योंकि ‘वही आएगा’ वही क्यों आएगा?
तुमने कहा, ‘क्योंकि दूसरा कोई है नहीं’...फिर चुनने से क्या होगा जब आएगा तो आ ही जाएगा... इससे आगे तुम सुनने की स्थिति में नहीं लगे ... ”
और मुझे कंधे पे से उतार फेंका था तुमने.... मैं कोई बेताल तो था
नहीं जो तुम्हारे कंधे से चिपका तुम्हें कहानियाँ सुनाता तुम्हें एंटरटेन करता।
केवल मैं ही नहीं मेरे भाई बंधु,
‘क्यों’, ‘कब’,
‘कैसे’ भी उतर गए थे तेरे दिमाग से। क्योंकि
अब उनका कोई स्कोप नहीं बच्चा था... अब मैं सवाल नहीं उसका शव हूँ। मेरी एक्सपायरी
डेट निकल चुकी है। जहां पड़ा हूँ वहीं रहने दो।”
(एक पल चुप्पी) दरअसल हमारे चारों तरफ
क्षत-विक्षत सवाल बिखरे पड़े है... हाथ बढ़ाओ तो वह घायल सवाल से टकराएगा...
(दर्शकों
से)
अरे भाई साहब आप
हाथ मत बढ़ा देना... बगल में वो मैडम बैठी हैं... उधर से सवाल तो नहीं कोई सॉलिड
जवाब आ सकता है। अंधेरे में नहीं, हाथ उजाले में
बढ़ाइएगा।
(थोड़ी देर
चुप्पी)
हमने खुद भी सवालों
को बड़ी मेहनत से खत्म किया है। इतना आसान नहीं है यह काम। सवाल कोई सर नहीं कि
काटा और समझो कि खत्म... सवाल कोई युद्ध नहीं कि जीता और समझो कि खत्म ... सवाल
कोई रावण नहीं कि फूंका और खत्म... सवाल रक्त बीज की तरह होते हैं,
एक से अनेक निकल आते हैं... इन्हें समाप्त करने में पीढ़ियाँ लगी हैं...
बाकायदा चेचक व प्लेग की तरह अभियान चला कर समाप्त किया गया है सवालों को। जन्म
लेते ही जैसे थोड़े-थोड़े अंतराल पर टीकाकरण शुरू हो जाता है वैसे ही हम लग जाते हैं
व्यक्ति के सवालों को मारने में। जीवन भर यही क्रिया चलती रहती है। पूरा सिस्टम
लगा हुआ है सवालों के कत्लेआम में...
अगली बार जब आप
किसी को हथकड़ी लगी देखें
तो ये भी हो सकता
है कि वह हथकड़ी
व्यक्ति की जगह
किसी सवाल को लगी हो...
जब किसी आदिवासी
को
देखें पुलिस व फौज
के बूट के नीचे
तो हो सकता है कि
वह सवाल रौंदा जा रहा हो...
अगली बार
किसी किसान के गले
में फंदा लगा देखें
तो हो सकता है कोई
सवाल
ख़्वामख़्वाह लटक
गया हो पेड़ की डाल या कुएं की जगत से
अपनी बेंच पर
मुर्गा बने किसी बच्चे को देखें
तो हो सकता है किसी
सवाल का बदन झुक कर दोहरा हो रहा हो....
गली के बीच में
अपने पति से खामोश पिटाई सह रही औरत की शक्ल में कोई सवाल चीत्कार कर रहा हो ....
अपनी तरुणाई की
पहली सीढ़ी पर पाँव रखने जा रही किशोरी
एक दिन अचानक
चुप्पी औढ़ ले
इसमें यह भी
संभावना है कि उसकी खामोशी में घुट कर किसी सवाल ने दम तोड़ा हो…
(कुछ क्षणों
की खामोशी)
इस लिए अपने
गुमशुदा सवालों को तलाशता फिरता हूँ। हर उस जगह, जहां
उनके अवशेष पाए जाने की संभावना है। सच तो यह है कि ये हर जगह हैं। हर उस जगह हैं
जहां उसे फेंका गया है। अब सवाल यह भी है कि कहाँ से उसकी तलाश शुरू की जाए। वह
पहला गुमशुदा सवाल कौनसा था? क्या उसे पकड़ा जा सकता है? क्या उस जगह को देखा जा सकता है? सोचा तो जा सकता
है (आँखें बंद करके बैठ जाता है। लंबी साँसे लेता है। अचानक जल्दी – जल्दी
साँसे लेने लगता है। अपनी दोनों हथेलियाँ आगे कर देता है। नेपथ्य से ऐसी ध्वनियाँ
आती हैं। जैसे उसके हाथों पर डंडों की चोट हो रही हो। एक हाथ आगे करता है। फिर उसे
पीछे ला कर झटकता है। फिर दूसरा हाथ आगे करता है। यही क्रम बार-बार दोहराता है।)
नहीं सर...नहीं पूछूंगा... ( डंडा पड़ता है। इस बार कूल्हे सहलाता है) बिलकुल
नहीं पूछूंगा... मम्मी कसम नहीं ( डंडा पड़ता है। इस बार टखना सहलाता है।)
... बनता हूँ ... मुर्गा बनता हूँ... (बनता है। अब पीठ पर डंडा पड़ता है)...
सर फैराडे का नियम सुन लो याद है... ( फिर डंडा पड़ता है) ... अच्छा लेंज का
ही सुनाता हूँ ... विद्युत चुम्बकीय प्रेरण ... प्रेरण अ... अ... (डंडा)
प्रेरण की प्रत्येक अवस्था में प्रेरित विद्युत वा... वा.... (डंडा)
विद्युत वाहक बल और विद्युत धारा की दिशा इस प्रकार होती है ... होती है ... होती
है... (डंडा) वे उन कारणों का विरोध करते है जिनके कारण उनकी उत्पत्ति होती
है। ( डंडा। खड़े होकर कूल्हों को सहलाते हुए ज़ोर से चिल्लाता है।) लो सुनो। सब सुनो ... पाइथो गोरस... आधार का वर्ग जब लम्ब के वर्ग में
जमा होता है तो वह कर्ण के वर्ग के बराबर हो जाता है... अर्जुन और भीम के वर्ग के
बराबर बिलकुल नहीं होता.... अगर होता भी तो क्या होता... फिर भी ये गणित तो गणित
ही होता... वो भी न होता तो कुछ तो होता जिसकी वजह से मैं पीट रहा होता ... (
काफी लंबी चुप्पी। शांत होता है फिर दर्शकों से मुखातिब होता है) ये मेरे शिक्षक
का मुझ पर ऑपरेशन था। कारण? ... कारण था मेरा एक दिन पहले
पूछा गया सवाल... सवाल क्या था... हम तो सरकारी स्कूल में पढ़ें हैं। स्कूल में चपरासी
तो होता ही नहीं था। शिक्षक-स्टाफ के लिए चाय बनाने का काम विद्यार्थी ही करते थे।
किन्तु चाय बनाने का प्रिविलेज कुछ ही
विद्यार्थियों को मिलता था। अरे भाई साहब
आप गलत जगह पहुँच गए ये उस प्रिविलेज वाली बात नहीं जिसमें प्रधानमंत्री बनने का
स्कोप था। यहाँ तो इतना सा था किसी विषय में चार अंक कम रह गए तो अनुग्रह हम चाय
बनाने वाले चेलों को मिल जाता था। संक्षेप में किस्सा यह है कि उस दिन अपने
हेडमास्टर जी स्वयं सामाजिक विज्ञान पढ़ा रहे थे। पाठ था जाति व्यवस्था पर।
हेडमास्टर जी अछूतोद्धार के बारे में भाव विभोर होकर बता रहे थे। विद्यार्थी दत्तचित्त
होकर सुन रहे थे। वो कह रहे थे, “अस्पृश्यता अर्थात छुआछूत
अमानवीय है। जाति व्यवस्था अभिशाप है हमारे देश के लिए। गांधी जी और अंबेडकर जी ने
इस क्षेत्र में बहुत काम किया है। हमें उनकी सीख को मानना चाहिए।” मैं भी सुन रहा
था। इसी दौरान एक सवाल सिर से जूं की तरह रेंगता हुआ मेरे कान पर आकर टपका और ज़ोर
से काटा। मैंने हेडमास्टर साहब को लगभग इंटरेप्ट करते हुए भावुकता में पूछ लिया, “सर एक सवाल है।” उन्होंने कहा, “शाबाश, पूछो सवाल पूछने से ज्ञान की वृद्धि होती है।” मेरे पैर अब जमीन पर न थे
मैंने सवाल दागा, “गुरु जी, आप कहते
हैं कि छुआछूत अमानवीय है तो फिर स्कूल में चाय बनाने के लिए कभी स्वीपर के बच्चे
मोहना और आइचुकी को क्यों नहीं कहा जाता?” मेरा सवाल सुन कर
हेडमास्टर का रंग लाल हो गया और मेरा सफ़ेद। उनके माथे का तिलक तनाव में चटक गया।
फिर वो लाल से थोड़ा कम लाल भी हुए और बोले, “अरे सब लोग यहाँ
चाय बनाने के लिए ही नहीं आते जो सबको अवसर दिया जाए.... ये लो किताब, बाकी का अब खुद पढ़ लेना। सभी ज्ञानी हो।
हेडमास्टर साहब कमरे के दरवाज़े की तरफ निकल गए फिर मेरी ओर मुड़ कर बोले, “अपनी पढ़ाई पर ध्यान दिया करो... कोर्स से बाहर के सवाल पूछने से पास
नहीं होते। हाँ... नेता जरूर बन जाओगे।”
इसके बाद आए दिन मेरे
सवालों की शल्य क्रिया शुरू हो गई। गणित, विज्ञान, साहित्य व भाषा के शिक्षकों ने बारी-बारी से मेरे भूगोल से सवालों को निकाल कर समतल बनाया। बाकायदा चमड़ी
उधेड़ कर। जो सवाल नहीं निकल सके उन्हें रंदा लगाकर सीधा किया गया। सभी विषयों की
अवधारणाएँ व परिभाषाएँ मेरी इस चमड़ी के रास्ते शरीर में पहुंचाईं। वैसे ही जब
बच्चा दवाई को मुंह से लेने में इंकार करता है तो उसे इंजेक्शन से शरीर में पहुंचा
दो। इस पूरी कवायद का एक नतीजा यह निकला कि मैंने अपनी ज़िंदगी के लिए कुछ स्थायी
सीखें गढ़ लीं। मसलन – ‘सवाल करने’ और ‘सवाल उठाने’ में बड़ा बुनियादी फर्क होता है। सवाल
सीखने के लिए किया जाता है और सवाल उठाने के बाद....जाने क्या हो.... मैंने शायद
सवाल उठा दिया था! यह भी गांठ बाँध लिया कि सारे के सारे सवाल कोर्स के भीतर ही
होते हैं। सिलेबस के बाहर कोई सवाल होता ही नहीं है। यदि है तो उसे नहीं होना
चाहिए। कोर्स के बाहर का सवाल केवल बवाल ही होता है। सब सवाल पाठ्यपुस्तक में हैं
और उनके जवाब भी उसी में हैं। मैंने अपने दिमाग में दो तहखाने बिलकुल अलग-अलग बना
लिए। एक में मैंने किताबों की विद्या को व दूसरे में जिंदगी के तजर्बों को रखना
शुरू कर दिया। दोनों को कभी मिलने नहीं दिया ताकि फिर कोई नया बवाल न हो जाए। और
यकीन मानिए ज़िंदगी बहुत आसान भी हो गई। गुरुजी यह परिवर्तन देख कर गदगद हो गए। खूब
पढ़ाई की। जमकर पढ़ाई की। सही समय पर नौकरी भी मिल गयी... क्या छोकरी! मुझे पता था नौकरी
के साथ आपके दिमाग में यह बात आएगी ही। नौकरी के बाद भारतीय पुरुषों के दिमाग में
यह शब्द राइम करता हुआ आता है। हाँ भाई इसमें भी कोई सवाल नहीं किया। कोई बवाल
नहीं किया। सब माँ-पिता पर छोड़ दिया था... खुद टेंशन नहीं लिया। सब ठीक-ठाक हो
गया। हाँ तो, स्कूल की शल्य क्रिया घर पर भी काम में आईं। और
इस तरह की दो-चार शल्य क्रियाएँ घरवालों के द्वारा भी की गईं और जीवन आसान कंटक
रहित हो गया। थोड़े समय व अभ्यास के बाद ही मैं सवाल शून्य अवस्था में पहुँच गया। अब
भी कोई सवाल कभी सर में चुभता है तो वही क्रिया अपनाता हूँ जो शुरू में कहा था...
वही कूल्हे को खुजलाना। यदि फिर भी सवाल सिर उठाए तो उसे इस जेब में डाल देता हूँ।
उसी फटी जेब में जिसमें आदतन मैंने अपने सवालों की लिस्ट को भी डाल दिया। फटी जेब
के नुकसान हैं तो फायदे भी कम नहीं। मैं तो कहता हूँ कि सबको कम से कम अपनी एक जेब
तो फाड़ कर रखनी ही चाहिए। अब देख लो बाज़ार में घुटनों से फटी पतलूनें बिक रही हैं।
लोग पहन भी रहे हैं। देख लेना कुछ दिन बाद बाज़ार में फटी जेब वाली पतलूनें
बिकेंगी। बाकायदा विज्ञापन भी देंगी। (अचानक विंग में देखता है, जैसे किसी ने धीरे से पुकारा हो) क्या है? ज़ोर से बोलो। (दर्शकों से) अपने प्रोंप्टर महोदय हैं, ऐसे फुसफुसा रहे हैं जैसे प्रेमिका को प्रपोज
कर रहे हों। (फिर विंग की तरफ) अरे प्रोंप्टर जी, आप
क्यों बार-बार आते हैं। मैं कोई स्क्रिप्ट के संवाद तो बोल नहीं रहा हूँ जो आप को
आपत्ति हो। अरे – अरे क्या करते है ! (विंग में से प्रोंप्टर कुछ फेंक कर मारता
है। अभिनेता एक तरफ हट कर खुद को बचाता है। फिर उस वस्तु को देखता है जो कि कागज
का बनाया हुआ एक गोला है।) प्रोंप्टिंग का यह कौनसा तरीका है। अभिनेता प्रोंप्टिंग
सुने न तो फेंक के मार दो। अरे भाई आप भी
आजकल नवाचार कर रहे हैं। ये क्या हो सकता है? (कागज को खोलता है पर उसे देखता
नहीं।) हो सकता है कि मेरे सवालों वाला पन्ना ग्रीन रूम में मिल गया हो। प्रोंप्टर
उसे ही फेंक कर गया हो! थैंक्स प्रोंप्टर जी। अरे वाह, मेरे
सवाल मिल गए! (थोड़ा सोचकर।) यदि ये
मेरे वही सवाल हैं भी तो किस काम के। इनका समय निकल चुका है। तो फिर इनका क्या
करूँ। हाँ, सही पहचाना इनकी सही जगह वही ... फटी जेब है। (कागज को जेब के हवाले
कर देता है।) डाल दिया। आपको ताज्जुब
होगा कि आपकी जेब दरअसल उसी समय ही काट दी जाती है जब आप ढीली निकर को सम्हालने की
जद्दोजहद में लगे होते हैं। जी हाँ घर पर ही। स्कूल तो आप फटी जेब के साथ दाखिल
होते हो। स्कूल आपको अभ्यास कराता है इस जेब से पेश आने का। दरअसल ये जो शिक्षा
शास्त्र है न, यह इसी तरह से आपको अर्थशास्त्र के लिए तैयार
करता है। या यूं कहें कि आप अर्थ व्यवस्था
के बिलकुल अनुकूल बन जाते हैं। क्या ? समझे नहीं?
मेरा उदाहरण ही
लीजिए मेरा रंग काला नहीं तो बहुत गोरा भी नहीं। इसे कन्फ़्यूजन कलर भी कह सकते
हैं। हम अधिकतर भारतीय इसी कलर की श्रेणी में आते हैं। स्कूल से निकल कर कॉलेज की तरफ कदम बढ़ाया तो एक
कंपनी वाले क्रीम बेचने आए। उसने पहली बार अहसास कराया कि मेरे लिए गोरा होना बहुत
जरूरी है। उन्होंने कहा कि हमारी यह क्रीम आपको दो सप्ताह में गोरा कर देगी। मैंने
कहा क्या बकवास है, मैं गोरा हूँ, मेरी मम्मी तो
यही कहती है। इसीलिए रोज़ मेरी नज़र उतारती है। फिर एक दिन टीवी की स्क्रीन पर एक संगमरमर
जैसी सफ़ेद सिने तरीका क्रीम का डब्बा लिए दिखाई दी जो गोरा होने की हसरत लिए हुए
थी। मुझे पहली बार अहसास हुआ कि माँ झूठ बोलती है। मुझे अचानक कालेपन का भान हुआ। मैंने
झटपट क्रीम का एक डब्बा खरीद लिया। पूरा दो सप्ताह क्रीम को दिन में तीन-तीन बार
चेहरे पर मला। फिर अपने को आईने में देखा आईने ने अंगूठा दिखा दिया। मैंने सोचा
जाने दो यारों... लेकिन इन्हीं दिनों देखे चलचित्रों ने इस बात को जाने नहीं दिया।
इन्हीं चलचित्रों के गोरे चिट्टे लड़के आँखों के सामने घूमने लगे। इन लड़कों के आगे
पीछे दूधिया रंगत वाली लड़कियां डांस कर रही थीं,
रेटस्टोरेंट, डिस्को में जा रहीं थीं,
आलिंगन कर रहीं थीं, चुंबन जड़ रहीं थी। और मेरी जैसी रंगत के
लड़के चलचित्र में विलेन के ड्राइवर थे, माली थे, चौकीदार थे, बेलदार थे और कुली थे। मैंने अपने को
धिक्कारा, “क्या मैं क्रीम का एक डब्बा और नहीं खरीद सकता? मैंने दुकानदार से एक और डब्बा खरीद कर अपने चेहरे पर मला। उसके बाद एक
और डब्बा खरीद के मला और मलता ही रहा। हर बार नया चलचित्र आता रहा नए रूमानी सपनों
के साथ और मैं क्रीम का डब्बे पर डब्बा खरीदता रहा। इस सिलसिले में यह सवाल “मैं
गोरा क्यूँ नहीं हो रहा हूँ” मेरी जेब से कब का फिसल कर निकल गया था। मैं अब भी
क्रीम घिस रहा था मेरे चेहरे पर। मुझे पता था कि मैं गोरा नहीं हो रहा था लेकिन
प्रयास बंद नहीं हो रहे थे। क्रीम अब भी बाकायदा महज दो सप्ताह में गोरा बनाने का
दावा कर रही थी राष्ट्रीय टीवी पर। यह वह दौर था जब दो बातों को सच माना ही जाता
था, जो रेडियो या टीवी पर आई हो। ये प्री-गोदी मीडिया का समय
था। एक दिन अचानक टीवी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। मेरे लैंगिक अहम के गुब्बारे में
हवा भरते हुए कहा, “आप कैसे मर्द हैं?
छी-छी! आप औरतों वाली क्रीम लगा रहे हैं? आपको शर्म नहीं
आती!” और सच में मुझे बहुत शर्म आने लगी। मुझे लगा कि मुझे नंगा करके फिर लहंगा
चोली पहना दिया हो। और साथ ही मुझे गोरा न हो पाने का कारण भी समझ में आया। मैं
अपने नजदीक के रिटेलर के पास भागा और उससे मर्दों वाली क्रीम खरीद ली। अब मैं दो
सप्ताह में गोरा करने वाली मर्दो वाली क्रीम दो साल से लगा रहा हूँ। गोरा होने की
चाहत अभी वैसे ही बाकी है। लेकिन ‘मैं गोरा क्यों नहीं हुआ’ मजाल है कि कोई प्रश्न अब दिमाग में आए! उन्हें व्यवस्थित तरीके से खत्म
कर दिया गया है। सरकार चाहे तो एक दो साल के आगे पीछे के साथ ‘हमारा प्रश्न-मुक्त नौजवान’ की घोषणा कर सकती है। इसका
असर यह हुआ कि यहाँ तक आते-आते मुझे इस प्रश्न से भी मुक्ति मिल चुकी थी की मैं
कौन हूँ? हमारे ऋषि-मुनि इस सवाल पर परेशान हो रहे थे। वेदांतों में इसकी चरम अभिव्यक्ति करते हुए कहा
“ अहम ब्रह्मास्मि”। सूफी संत बुल्ले शाह अभी तक कंफ्यूज से लगे और कहते रहे
“बुल्ला की जाणा मैं कौण?” भाई, इस
सवाल का जवाब न त्रेता में, न द्वापर में मिलना था, इसका जवाब तो इस युग में मिलना था जहां प्रश्न ही बाकी नहीं रहना था।
दरअसल जवाब वही होता है जो सवालों को खत्म कर दे। आज मुझे अपनी सही पहचान मिली कि मैं
और कुछ नहीं, सिर्फ “कंजूमर हूँ, उपभोक्ता हूँ, सब्सक्राइबर हूँ”। ताज्जुब हो रहा है न
मेरे व्यक्ति से उपभोक्ता में तबदील हो जाने पर। क्यों भाई साहब, क्यों मैडम, ये रूपांतर मेरा अकेले का ही हुआ है क्या? आप सभी का भी हुआ है। यकीन नहीं हो रहा! अभी यकीन करा देते हैं। जरा अपना
मोबाइल नंबर बताइए। घबराएँ नहीं रात को ब्लैंक कॉल नहीं करूंगा... जी............ ओके अब अपना नाम बताइए ...... जी
ओके। मैं अब आपको मतलब(नाम) को कॉल करता हूँ। आप उसे उठाना मत। ( स्पीकर ऑन
करने का अभिनय। पार्श्व में आवाज आती है ) “आपने जिस उपभोक्ता से संपर्क किया
है वह अभी जवाब नहीं दे रहा है। कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें।” सुन लिया। आप केवल
उपभोक्ता भर रह गए हैं सिस्टम की नजर में। हमारे वजूद के साथ जुड़े शब्द बदल गए
हैं। उन शब्दों के मतलब बदल गए हैं। और फिजा में कोई सवाल बाकी नहीं रहा। एक –एक
करके हमारे सवाल हमारी जेबों से रिसते रहे और हमें पता भी नहीं चला। इस
प्रश्नहीनता ने हमारे पूरे वजूद को चपेट में ले लिया है। हमारा शब्दबोध, अर्थ बोध मूल्य बोध सब पलट कर रख दिया है। इस नए बोध में शब्दों के कोई
अर्थ नहीं रह गए हैं। यहाँ अनंत का भी कोई छोर है। अबाध भी बाधित है। मैं पिछले 3
साल से मोबाइल में इंटरनेट का अन-लिमिटेड डेटा पैक डलवा रहा हूँ जो की 1.5 जीबी का
होता है। मतलब अनलिमिटेड डेटा शाम तक डेढ़ जीबी तक लिमिटेड है। 4 -5 साल पहले तक
आपको आपकी टेलिकॉम कंपनी लाइफ टाइम वैलिडीटी भी दिया करती थी जो 1935 तक होती थी।
समझ नहीं आता था कि 1935 तक कंपनी अपनी जीवन अवधि बता रही थी या ग्राहक की
जीवनलीला समाप्ति की। इस प्रश्न हीनता ने हमारे समय बोध तक को नहीं छोड़ा। समय तो
शाश्वत चीज़ थी। दुनिया भर में महीना 30 या 31 दिन का होता है। टेलिकॉम कंपनियों ने
आपके महीने को कुतर कर 28 दिन का कर दिया है। अब आपका हर महीना उन्होंने फरवरी के
बराबर कर दिया है। लेकिन हम अपनी बीमारी से इतना ग्रसित हैं कि सवाल नहीं है कहीं
भी। हम सब कुबूल करते जा रहे हैं। आत्मसात करते जा रहे हैं। उसका अभ्यास करते जा
रहे हैं। अभ्यास न पूछने का। (विंग से फिर फुसफुसाने की आवाज आती है।) ओह
प्रोंप्टर महोदय जी, सॉरी मैं तो भूल ही गया था। (उद्घोषक
के अंदाज़ में) प्यारे दर्शको, अब आपका इंतजार खत्म होता
है। अब नाटक शुरू करने के लिए मंच अभिनेताओं को सोंपता हूँ और प्रस्थान करता हूँ। (जाने
लगता है। विग तक जाता है।) अब क्या है?... नहीं जाऊँ...
मतलब मंच पर ही रहूँ। … अरे प्रोंप्टिंग मत करो ज़ोर से
बोलो... क्या कागज़! ... कौनसा कागज... लेना था तो फेंका ही क्यों था? क्या करूँ, उसे पढ़ूँ ? भाई
उसे तो फटी जेब के हवाले कर दिया। (कागज को जेबों में टटोलता है। मिल जाता है।)
मिल गया। ये तो मेरे सवाल वाला पेज नहीं है। ये राइटिंग तो निर्देशक महोदय की है।
क्या लिखते हैं? (पढ़ता है। अंदाज़ निर्देशक वाला है।)
“तुम बहुत काबिल ज़हीन
हो। अभिनेता हो या नहीं अभी यह कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात यकीनन कह सकता हूँ
कि उद्घोषक का काम बहुत कठिन है। यह मैं इसलिए दावे के साथ कह पा रहा हूँ, क्योंकि अभी तुम जो घोषणा करने जा रहे हो वह बहुत कठिन है। तुम्हारी बहुत
चाह थी कि लिखे हुए संवाद बोलो। लो तुम्हें आज बोलने के लिए लाइन देता हूँ, “ क्षमा करें आज नाटक नहीं होगा।” (एक झटके में कागज को नीचे फेंक
देता है) क्या मतलब? ये क्या बात है? नाटक नहीं तो क्या होगा? शायद पढ़ने में गलती लग गई। (कागज को दुबारा फिर पढ़ता है) ‘आज... नाटक... नहीं... होगा’....(दुबारा कागज को
फेंककर) क्या मज़ाक है... (विंग की
तरफ देखता है। किसी के भागने की आवाज आती है।) ठहर तो सही प्रोंप्टर के
बच्चे... (दाहिनी विंग की और उसके पीछे भागता है। कुछ क्षणों की देरी लगाकर
बायीं विंग से होकर पुनः मंच पर आता है।) कमाल है, कोई
भी नहीं! एक्टर्स, मेकअप, सेट, डाइरेक्टर कोई भी तो नहीं। ये प्रोंप्टर भी अचानक कहाँ
गायब हो गया? सबको धरती निगल गई या आसमान खा गया।? कहाँ गए सब के सब? कैसे पता करूँ ? शायद कागज में लिखा हो। नहीं कागज में कोई और मुसीबत लिखी हो तो क्या
करूंगा? (डरते–डरते कागज को उठता है और पढ़ना शुरू करता है।)
“जब तुम यह घोषणा कर रहे होगे तो हम यहाँ नहीं होंगे। हम तुम्हें रिहर्सल रूम
में मिलेंगे।” लेकिन डायरेक्टर साहब ऐसा गैर ज़िम्मेदारी का काम आप कैसे कर सकते
हैं। नाटक तो होना था। आप ही सिखाते रहे हमेशा ‘शो मस्ट गो
ऑन’ (कागज में पढ़ता है।) “शुरू में मुझे लगा था की
तुम्हें मंच पर भेज कर मैंने भारी चूक कर दी... लगा कि तुम सब कबाड़ा कर दोगे।
लेकिन थोड़ी देर बाद तुम्हारी बकवास के अर्थ निकालने लगे। एक वक्त तो ऐसा आया कि हम
सब कुछ छोड़ कर सिर्फ तुम्हारी बकवास ही सुन रहे थे।” (दर्शकों से।) वह तो ठीक है। आप
बुद्धिजीवी हैं। अर्थ निकालने पर आयें तो कहीं से भी निकाल लें। लेकिन नाटक से
पलायन क्यों? (कागज पढ़ता है।) “चिंता अब यह देखने की
है कि सवाल कहाँ – कहाँ से गायब हुए हैं? तुम्हारी बात पर
यकीन करें तो हर जगह से सवाल गुमशुदा है? तो क्या नाटक से भी
सवाल गायब है? कुछ अभिनेता कह रहे हैं कि नाटक में सवाल नहीं
होता बल्कि नाटक तो खुद सवाल का जवाब है। कुछ अभिनेताओं का कहना है कि जब पूरा आलम
ही प्रश्नहीन है तो ऐसे में नाटक जवाब किस सवाल का है? ऐसे
प्रश्नहीन वक्त में जवाब की क्या प्रासंगिकता है। हम अजीब पशोपेश में हैं। इसलिए
हमने हम ने तय किया है कि नाटक दिखाने से पहले हम ठहर कर यह देख लें कि वह सवाल है
या जवाब? दोनों है
या फिर कुछ भी नहीं। यह एक सवाल हमारे हाथ लगा है। इसी कड़ी के सहारे हम बाकी
सवालों को भी खोज लेंगे। तब तक माफ़ी चाहते हैं।.... और हाँ,
आते वक्त थावर से एक्टर्स के लिए दस मीठी और मेरे लिए एक फीकी चाय पैक करा कर ले
आना... साथ में हीरोइन के लिए कॉफी अलग से... (कागज को फ़ोल्ड करता हुआ दर्शकों
को देखता है) भाइयों और बहनों...
नहीं...बहनों और भाइयों... आपने सब सुन ही लिया है। फिर भी उद्घोषक होने के नाते
मुझे यह उद्घोषणा करते हुए बहुत खेद है कि आज नाटक नहीं होगा। नहीं.... ये वाक्य नाटक के संदर्भ में उचित नहीं है। नाटक के लिए
तो कहा जाता है, “शो मस्ट गो ऑन।” मैं अपना कथन आंशिक रूप से
वापस लेता हूँ और उसका संशोधित संस्करण आपके सामने रखता हूँ,
“आज का नाटक स्थगित है।” ... कब तक... जब तक हमारी मंडली को अपने सवाल नहीं मिल
जाते। तब तक आप क्या करेंगे? आपसे सादर प्रार्थना है कि घर
के लिए प्रस्थान करें। और हाँ रास्ते में देखते जाएँ क्या पता कोई गुमशुदा सवाल ही
मिल जाए!
समाप्त
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दलीप वैरागी
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