Tuesday, September 6, 2011

नाटक, स्कूली बच्चे और हम !

थियेटर पर मैंने ये अनुभव अलग-अलग समय में यहाँ वहाँ लिखे थे। Irom Sharmila Vimarsh ने फेसबुक पर जो बहस शुरू की है उसी बहाने से मैं अपने रंगमंच संबंधित लेखों को नेक जगह एकत्र कर रहा  हूँ । यह मैंने अपने दूसरे ब्लॉग बतकही से निकाला है। बहरहाल नया-पुराना चलता रहेगा ...
अभी हाल ही शिक्षा के क्षेत्र के आला लोग विद्यालयों का निरीक्षण करके लोटे उन्होंने वहाँ से लौट कर एक बहुत ही विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट बनाई जिसमे अधिकतर यह लिखा था कि बच्चों को क्या नहीं आता | क्या आता है , यह नहीं देखा गया । ... इसमें एक बात प्रमुखता से यह थी कि बच्चों को नाटक करना नहीं आता | बच्चों से कहने पर उन्होंने नाटक नहीं दिखाया | यह बात उस स्कूल के लिए कही गयी जहाँ नियमित रूप से सैटरडे थियेटर होता है | फिर मामला क्या हो सकता है ? ''आप नाटक करके दिखाओ '' क्या किसी ग्रुप को नाटक करने के लिए इतना भर कह देना काफी होता है ? क्या यह केवल इतना ही है "चलो बेटा पोएम सुनाओ ..." नाटक सिर्फ इतना नहीं होता बल्कि इससे बहुत ज्यादा होता है | बच्चो के अकादमिक कौशल और कला कौशल को आंकने का एक ही टूल नहीं हो सकता कला को आंकना कक्षा में जाकर नौ का पहाड़ा या पर्यायवाची पूछने जैसा नहीं है | अगर ऐसा नहीं होता तो करिकुलम निर्धारित करते वक्त इनको सहशैक्षिक गतिविधियों में न रख कर अकादमिक में ही रखा गया होता | हर कला का अपना एक अनुशासन होता है उसी में उसको आंकने के टूल भी होते हैं | उस अनुशासन को समझे बिना आप आप कला का आकलन नहीं कर सकते | नाटक के सन्दर्भ में मोटी--मोटी दो तीन बातें निहित हैं कि यह टीम के बिना नहीं होता और प्रदर्शन से पहले टीम का एक सुर में होना भी बेहद जरूरी है | दूसरी बात यह है कि प्रदर्शन से पहले नाटक लंबे अभ्यासों को मांगता है तब जाकर मंच तक पहुंचता है | तीसरे यह कि प्रदर्शन से तुरंत पहले तयारी के लिए बहुत कुछ सामान मंच के लिए जुटाना पड़ता है | ये बाते स्कूल के बच्चों के लिए भी उतनी ही लागु होती हैं जितनी कि एक प्रोफेशनल दल के लिए होती हैं | अब सोचें कि जब आप किसी स्कूल का निरीक्षण करने जाते हैं तो क्या इतनी फुर्सत निकाल कर जाते हैं ? जब आप बच्चों से नाटक करने के लिए कह रहे होते हैं तब आप उनसे किस तरह का रिश्ता कायम करते हैं ? आपके शब्दों में आग्रह होता है या आदेश , बहुत कुछ आपकी उस वक्त कि मुख मुद्रा पर भी निर्भर करता है | हां , बच्चे नाटक कि जिस विधा के जबर्दस्त माहिर होते वह है रोल प्ले | उन्हें कोई स्थिति बताइए वे मिनटों में नाटक इम्प्रोवाइज कर के ले आते हैं | अत : जब भी आप बिना नोटिस के दो घंटे के लिए किसी स्कूल में जाएँ तो आप कक्षा में जाकर सत्रह का पहाड़ा तो जरूर पूछें लेकिन नाटक के लिए कहने से पहले बहुत बाते ध्यान रखनी पड़ेंगी | आप खुद अपने घर में ही छोटे बच्चे से पूछ कर देख लें कि जब महमान आने पर उससे कहते है कि बेटा चल अंकल-आंटी को पोएम सुना तब वह कैसा महसूस करता है ? सच जाने सबसे निरानन्द कि स्थिति में वह बच्चा ही होता है | हमारे यहाँ स्कूल- कॉलेजों में कलाएं विद्यार्थियों के लिए ऐच्छिक ही रहती आयीं हैं ताकि बच्चे अपनी रूचियों के हिसाब से जुड सकें | सांस्कृतिक समारोह में किसी बच्चे को जबरन किसी एक्टिविटी में भाग लेने के लिए नहीं कहा जाता था | लेकिन अब देखने में आया है कि शहरो के कुछ अंग्रेजी स्टाइल के स्कूलों में हर बच्चे को भाग लेना ही पड़ता है चाहे बच्चे कि रुचि है या नहीं | मै शहर के एक नामी प्राईवेट स्कूल में नाटक तैयार करवाने गया था नाटक के आलेख के बारे में पूछने से पहले उनकी दिलचस्पी इस बात में थी कि क्या मैं इस नाटक में उनके स्कूल के अस्सी बच्चों को खपा सकता हूँ या नहीं | आखिर अभिभावकों को उनका बच्चा मंच पर नज़र आना चाहिए | बच्चे का आनंद कहाँ है इसकी परवाह किसको है?
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दलीप वैरागी 
09928986983 

2 comments:

  1. दिलीप जी, कला के साथ किये जाने वाले निर्मम बरताव पर आपकी चिंतायें वाजिब है लेकिन इसके बहाने आप 17 के पहाड़ा पूछने को किस बुनियाद पर ठीक ठहरा रहे हो. आज के वक्‍त में इंसान का काम सिर्फ 10 तक के पहाड़ों से चल जाता है ओर खाली पहाड़े जानने वाले की गणित अच्‍छी हो यह भी तो जस्‍री नहीं. जिस तरह नाटक के बारे में जानने के लिये समझ जरूरी है उसी तरह गणित के बारे में जानने के लिये भी समझ जरूरी है. इसी तरह कला को दूसरे तो रखें सो रखें आप इसे सहशैक्षिक वाले खाने में क्‍यों रख रहे हैं. गणित, विज्ञान हिंदी आदि तो शैक्षिक और कला खेल हाथ के काम सहशैक्षिक किस आधार पर तय हो रहे हैं ओर क्‍या वो आधार सही हैं? बाकी विषयों की ही तरह क्‍यों न शिक्षा में कला को भी अनिवार्य बनाया जाये.

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  2. @Ravi Kant सर ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद । आपके साथ जुड़ने से निसन्देह मुझे बहुत फायदा होने वाला है... आपने जो बातें उठाई है हैं बिलकुल हम भी उन्हीं मान्यताओं को लेकर काम कर रहे हैं चाहे वह गणित हो या कला...मुझे भाषा प्रयोग मे सावधानी ज़रूर रखनी चाहिए .... कला निसंदेह अनिवार्य होनी चाहिए लेकिन हम बच्चों को अनिवार्य कला के नाम पर कहीं किसी एक कला रूप को तो नहीं थोप देंगे ... मैं जब कॉलेज मे पढ़ रहा था तो पाठ्यक्रम मे यह प्रावधान था कि मुझे किसी भी एक कवि को ऐच्छिक रूप से चुन कर पढ़ने की स्वतंत्रता है ... लेकिन कॉलेज मे कहा गया कि यहाँ तो आपको सूरदास ही पढ़ाया जाएगा... सर प्लीज़ आप दूसरे लेखों को भी देखें और मार्गदर्शन करेंगे आपकी बहत मेहरबानी होगी ।

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