Monday, December 3, 2012

एक (अ)कवि मित्र के लिए (अ)कविता

कविता में
कवि –
“न्याय सत्त
बराबरी सत्त
प्यार सत्त
वफा सत्त
विश्वास सत्त
यह भी सत्त
वह भी सत्त”
कविता के बाहर –
सत्त का
“राम नाम सत्त...”

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दलीप वैरागी 
09928986983 









Wednesday, September 12, 2012

CCE (सतत एवम समग्र मूल्यांकन): कुछ नोट्स, क्लासरूम के अंदर व कुछ क्लासरूम के बाहर

 
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कल्पनाशीलता कहाँ देखें

कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में शनिवारीय स्टाफ बैठक... यह बैठक विशेषकर सतत व व्यापक मूल्यांकन लागू होने के बाद अस्तित्व में आने लगी है। इस बैठक में शिक्षिकाएँ एक मंच पर बैठ कर प्रत्येक लड़की की प्रगति का जायजा लेती हैं और मिलकर लड़की की प्रोफ़ाइल व पोर्टफोलियो को अपडेट करती हैं। डेमोंस्ट्रेशन के तौर पर किसी एक लड़की की प्रोफ़ाइल को अपडेट करने की बात आई। कक्षा 6 की रानी जाट की प्रोफ़ाइल भरी गई। रानी जाट विषय कि समझ में ए ग्रेड लिखित- मौखिक अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण में ए ग्रेड। इन ग्रेडिंग के सबूत रानी जाट की वर्क शीट्स, नोटबुक, पोर्टफोलियो में खूब सारे हैं। बात कल्पनाशीलता पर आकार कुछ अटकती जान पड़ी। “इसको कैसे भरेंगे?” एक शिक्षिका ने कहा। दूसरी ने कहा कि “कल्पनाशीलता के लिए हमने किया क्या है?” “कविता में देखते हैं जो रानी ने अपनी कॉपी मे लिखी है।“ “लेकिन यह क्या .... हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजर बद्ध न रह पाएंगे / कनक तीलियों से टकराकर .... ये तो किताबी कविता है। इसमे रानी की कल्पना कहाँ है?” “चलो किसी पेंटिंग में देखते हैं जो रानी ने बनाई हो .... यह क्या यह भी पुस्तकालय की किताब से देख कर बनाई हूबहू नकल है... रानी की अपनी कल्पना कहाँ है?” क्या रानी सपने देखती है, क्या रानी सपने देख सकती है, क्या रानी कल्पनाएँ करती है, क्या रानी कल्पनाएँ कर सकती है? इसकी कोई विश्वसनीय जानकारी शिक्षिकाओं के पास आज नहीं है। इन सब जानकारियों को जुटाने के लिए फिर से पढ़ना पड़ेगा नई संकल्पनाओं के साथ, नई योजनाओं के साथ, फिर क्लास रूम में जाना ही पड़ेगा।

बात कुछ यूं शुरू हुई

साफ सुथरा कक्षा-कक्ष, उसमें बैठी स्वस्थ व प्रसन्नचित्त दिखाई देती लड़कियां, लड़कियों के चेहरों पर रोनक से साफ पता चलता है कि वहाँ मेरी उपस्थिति व कक्षा का वातावरण बोझिल नहीं है। चेहरों के अलावा कमरे की दीवारों पर अब दृष्टि पड़ रही है। दीवारों पर कुछ जरूरी चार्ट व नक्शे चस्पा हैं। सॉफ्ट बोर्ड पर लड़कियों का आर्ट वर्क प्रदर्शित है। नज़र ठिठकती है बायीं दीवार की ऊपर की तरफ मोटे नीले अक्षरों में लिखी इबारत पर “असफलता सफलता की पहली सीढ़ी है।” दाहिनी दीवार पर भी एक इबारत वैसे ही लिखी है लेकिन अब स्मृति-पटल पर धूमिल हो गई है। शायद ‘ईमानदारी ही सर्वोत्तम नीति है’ नही शायद ‘सदा सच बोलो’ पता नहीं... लेकिन सामने की दीवार पर लिखा सुभाषित वाक्य बिलकुल साफ दिखाई दे रहा है। “अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो।” क्या मतलब हैं इन सुभाषित वाक्यों के ? अभी इनकी जरूरत पर बात नहीं करेंगे। किससे पूछें इनके मतलब? शिक्षिकाओं से ? निसंदेह उनको ज़रूर पता होंगे लेकिन मेरा तजुर्बा बताता है कि सब मतलब टीचर को पता होते हैं लेकिन वे मतलबों के करीब रहते हुए भी उतने ही असंपृक्त रहते हैं। क्या इनके मतलब बच्चों से पता किए जाएँ, क्या उन्होने इन परिभाषाओं की कोई व्याख्याएँ बना रखी हैं? वैसे ही जैसे अपने बचपन मे हमने अपनी सोच, सामर्थ्य व अपनी युग(उम्र) चेतना के हिसाब से प्रार्थना, प्रतिज्ञा व दैनिक इस्तेमाल होने वाले श्लोकों के अपने निजी अर्थ गढ़ रखे थे। चलो पूछते हैं।

दीवार से कुछ यूं उतरा सुभाषित

मैंने लड़कियों से सवाल किया, “इस लाइन का क्या अर्थ है?” एक सन्नाटा पूरे कमरे में पसर गया। अभी तक कमरे में बातचीत का जो स्वाभाविक कोलाहल था उस पर इस सवाल ने लगभग रोलर फेर दिया। सवाल के जवाब में मेरे सामने हैं लड़कियों की सवालिया नज़रें ‘ये कैसा सावल है?’ बिलकुल अप्रत्याशित सवाल था। दीवारों पर लिखी बातों पर सवाल थोड़ी होते हैं! ये तो स्वयं सिद्ध कथन हैं! मैंने सवाल फिर दोहराया। इस बार सवाल ने सन्नाटे को तार-तार कर दिया। सन्नाटा काँच के मानिंद चटक कर ढेर हो गया। अब लड़कियो में कुनमुनाहट हुई। आपस में बातों का सिलसिला चल निकला। जवाब बताने के लिए दो-तीन हाथों में जुंबिश हुई। एक लड़की, “सर इसका मतलब यह होना चाहिए कि अगर हम खेल में जीत जाएँ तो जो हार गया है उसकी इन्सल्ट कभी नहीं करनी चाहिए।” कुछ हाथ उसके समर्थन में तने लेकिन कुछ ने कहा “दो लड़ेंगे तो एक को तो हराना ही पड़ेगा” बहस चल पड़ी। चलना लाज़मी भी है और उसको बीच मे रोकना उतना ही गैर वाजिब। लिहाजा इसे एक सौंदर्यबोधीय मोड़ देने की सूझी। मैंने वाक्य को फिर दोहराया - अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो। और फिर कहा, “मुझे ऐसा लग रहा है कि यह किसी कविता की पहली लाइन है। इसी तरह इसकी दूसरी, तीसरी, चौथी.... लाइनें भी होनी चाहिए।” मैंने लड़कियों से कहा कि इसी लाइन की तुक मिलते हुए कोई दूसरी लाइन गढ़ो। इस बार फिर एक मंथन शुरू हो गया लड़कियों के दरम्यान। लेकिन तत्परता दिखाई एक शिक्षिका ने मैंने बोर्ड पर पहले से ही उस पंक्ति को लिखा था। उसके ठीक नीचे उन्होने दूसरी पंक्ति लिख दी। बिलकुल ऐसे –
अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो।
वह इंसान ही कैसा जिसके मन मे प्यार न हो।
लगता है लड़कियों का काम अब थोड़ा आसान हो गया है। शायद मेरा भी। मैंने सवाल किया कि बताइये दोनों लाइनों में क्या समानता है? लड़कियों ने कहा आखिर कि आवाज़ों ‘हार न हो’ और ‘प्यार न हो’ में समानता है। मुझे लगा कि अब लोहा गरम है और उसे आसानी से ढाला जा सकता है। मैंने कहा कि कविता लिखना आसान हो जाएगा अगर हम ऐसे आवाज़ों को पहले से ही सोच के रख लें जो कविता की लाइनों के अंत में आ सकती हों।
एक लड़की            सर मैं बताऊँ, परोपकार न हो
टीचर                   विस्तार न हो
दूसरी लड़की         पार न हो
तीसरी लड़की        प्रचार न हो
चौथी लड़की         हथियार न हो
पाँचवी लड़की        विचार न हो
छठी लड़की           आकार न हो
इस तरह से एक अनंत सिलसिला निकल पड़ा, जिसमे टीचर व लड़कियां बराबर शामिल थी ... संसार न हो, परोपकार न हो, इंतज़ार न हो, जिम्मेदार न हो, उपकार न हो, अधिकार न हो, तैयार न हो, पहरेदार न हो, चौकीदार न हो, प्रहार न हो, व्यवहार न हो…. इस तरह मैं बताऊँ – मैं बताऊँ का शोर और शब्दों आवाज़ों का मिश्रण सरापा एनर्जी में तब्दील हो गया। इस कोलाहल में कहीं एक स्वर शिक्षिकाओं का भी सुनाई पड़ा “अब मुश्किल नहीं है कल्पना शीलता को देखना।” अब लड़कियों को पाँच-पाँच के समूहों में काम करने को कहा कि आप इन आवाजों सहित कुछ और पंक्तियाँ लिख कर लाएँ।

मेरे हाथ में चंद कागज है

जिनमें चंद लाइनें हैं। लाइनों में कविताएं हैं और नहीं भी है। उन लाइनों का खुलसा यहाँ नहीं करना बेहतर है। यदि खुलासा होता है तो कविता पर कला के पंडित शिक्षा के जानकार फतवा दे सकते हैं। फतवे चाहते हैं कि चीज़ें सिर्फ सीढ़ी लाइन में ही चलें। लेकिन सीढ़ी लाइन में दोनों ही नहीं चलते ज़िंदगी और न कविता।

तो फिर कविता कहाँ है ?

पहली लाइन और मिलाए गए काफ़ियों में जो रिक्त स्थान है उसमे असीम संभावनाएं हैं, अर्थ की, संगीत व कल्पनाशीलता की। कविता के लिए ये खाली जगह है। कागज के इस छोर से उस छोर तक, इस पन्ने से नोट बुक के आखिरी पन्ने तक... इस कक्षा के कमरे से लेकर क्षितिज की ओर तक या फिर क्षितिज से आगे संसार के छोर तक अनंत जगह बिछी पड़ी है कविता के लिए। कविता का क्या है, कहीं भी, कभी भी उतर आएगी। एक पकड़ उनके हाथ में आ चुकी है.... काफिया मिल जाना एक तरह से बारिश से पहले की शदीद गर्मी या कभी सौंधी महक-सा होता है। वीरान रेगिस्तान में मिले इंसानी पदचाप सा होता है।
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दलीप वैरागी 
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Monday, July 2, 2012

थिएटर ज़िंदगी के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना मॉर्निंग वॉक या वर्जिश

किशोर–किशोरियों के साथ अकसर जीवन कौशल के मुद्दों पर काम करने के मौके मिलते रहते हैं। उनके साथ जिन बुनियादी कौशलों पर काम किया जाता है उनमे से एक है – सम्प्रेषण का कौशल। ये ऐसा कौशल है जिसको साधने से इंसान के सब सामाजिक रिश्ते सध जाते हैं। पर ये कौशल आसानी से सधता नहीं है। प्रशिक्षणों में किशोरों के साथ इस कौशल पर काम करते तो हैं लेकिन दिल को संतुष्टि नहीं होती। कम्यूनिकेशन की जो गतिविधियां अकसर की जाती हैं, वे महज अटकलबाज़ी भर होती हैं जिनसे सामने वाले को थोड़ा चमत्कृत करके सम्प्रेषण के मुद्दे पर लाना और उसके महत्व को बताना भर होता है। बात कोई जमती नहीं। सब ऊपरी तौर से होता है, खोखला! कौशल पकड़ में नहीं आता। कौशल के स्तर पर वैक्यूम ही रह जाता है। इसमें सबसे हास्यास्पद स्थिति यह होती है कि यह वैक्यूम दोनों तरफ होता है, ट्रेनी में और ट्रेनर में भी।
clipart_communicationकिशोर उम्र में हमारी परंपरा से ही रिश्तों में एक लिमिट तक ही संवाद की गुंजाइश होती है। माँ – बाप के साथ आदेशों, हिदायतों और जरूरतों तक ही संवाद होता है। कुछ मुद्दों पर बात करने की सख्त मनाही है। एक दोस्ती का रिश्ता ऐसा होता है जहा बराबरी के स्तर पर दो तरफा संवाद होता है। इसमे भी जरा सी चूक हो जाने पर रिश्तों के दरम्यान अबोला आ बैठता है। बहुत गहरे यारानों में भी देखने में आया है कि बातचीत ऐसी टूटी कि फिर ताउम्र जुड़ ही नहीं पाई। ऐसा नहीं कि ये अबोला सिर्फ दोस्तों में ही होता है। यह खून के रिश्तों में भी होता है। मेरे कॉलेज के दिनों में मेरे एक दोस्त की अपनी माँ से साल डेढ़ साल तक बातचीत बिलकुल बंद रही। ऐसी संवादहीनता कि स्थिति में मुश्किल यह होती है कि लंबी अवधि तक बातचीत बंद रहने से अबोले का इतना अभ्यास हो जाता है कि जिन स्थितियों की वजह से बातचीत टूटी थी उन के खत्म हो जाने पर भी वह सूत्र नज़र नहीं आता, जिससे दुबारा जोड़ा जाए। कौन शुरू करे ? कहाँ से शुरू करें? इसी ऊहापोह में सारी ज़िंदगी अबोले में ही कट जाती है। अबोला सब स्तर पे है। दो इन्सानों में, दो कुनबों में और दो पीढ़ियों में भी। दो मुल्कों मे जब बातचीत रुकती है तो सिर्फ गोलियां और शमशीरें चलती हैं और रेल, बसें, जहाज़ बहुत कुछ है जो थम जाते है। बरसों तक सब कुछ थमा रहता है और हम बोलचाल शुरू होने के लिए इंतज़ार करते हैं एक गैरवाजिब सी वजह का, जब कोई भूकंप, सुनामी या कोई आपदा आती है तो फिर मदद के लिए हाथ बढ़ते हैं। बात भी शुरू होती है। इसमें बुरा कुछ नहीं लेकिन इस बातचीत की पहल शांति काल में भी हो सकती है लेकिन इस तरह का अभ्यास नहीं है।
हमारी ज़िंदगी की ज़्यादातर मुश्किले सम्प्रेषण से जुड़ी हुई हैं। लेकिन हमारी पूरी शिक्षा में इसको साधने की कोई कोशिश दिखाई नहीं देती है। शिक्षा व्यवस्था में जो कोई भी कम्यूनिकेशन की ट्रेनिग के प्रयास हैं उनका मतलब अँग्रेजी भाषा बोलने और इसके साथ-साथ एक खास तरह की कृत्रिमता औढने से ही लिया जाता है। प्रभावी सम्प्रेषण के मायने ये हैं कि कौन किसको कितनी आसानी से साबुन या टूथपेस्ट बेच सकता है। सम्प्रेषण का कौशल अपनी ही बात कहने से कुछ ज्यादा होता है। यह दो के बीच का मसला है। इसलिए दूसरे के नजरिए से भी देखने की जरूरत होती है। दूसरे के नजरिये से देखना हम कहाँ सीखते हैं?
हमारी विडम्बना यह है कि यहाँ ज़िंदगी और शिक्षा अलग-अलग पटरी पर चलती हैं। रिश्ते तो ज़िंदगी का विषय हैं तो सम्प्रेषण की समस्याओं के समाधान के लिए कोई ऐसा शिक्षा का माध्यम चाहिए जो ज़िंदगी की तरह ही जिंदा और सच्चा हो। जो ज़िंदगी के साथ गलबहियाँ डाल कर चले। जहां सब कुछ रुक जाए लेकिन बातचीत नहीं रुके।
निसंदेह ऐसा माध्यम है रंगमंच। लेकिन इसकी ताकत को पूरी तरह से नहीं पहचाना गया। यहाँ ज़िंदगी तो है लेकिन यह शिक्षा व्यवस्था से बहिष्कृत है। वो लोग जो शिक्षण प्रक्रियाओं के नवाचरों से जिनका वास्ता रहता है या एनजीओ सेक्टर से हैं वहाँ रंगमंच के माध्यम के प्रयोग नुक्कड़ नाटक के रूप में दिखाई देते हैं। यहाँ भी फोकस अपनी बात कहने पर ही होता है। इसके अलावा कुछ उत्साही शिक्षक अपने रोज़मर्रा के शिक्षण कर्म में विषयवस्तु को बेहतर तरीके से समझने के टूल के रूप में थियेटर के प्रयोग करते दिखाई देते हैं। बेशक यह बहुत ही नवाचारी व विद्वत्तापूर्ण काम है लेकिन रंगमंच का वह रूप, जो कि उसका असली रूप है, वह हजारों सालों से होता हुआ हम तक पहुंचा है। वह उपेक्षित दिखाई देता है। इंसान में सामाजिक कौशल विकसित करने में अगर कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है वह है - फॉर्मल थिएटर। यूं तो फॉर्मल थिएटर का फोकस फाइनल प्रोडक्ट पर रहता है। ऑडिएंस के सामने जो प्रस्तुति जाती है उसमें कोई कमी नहीं होनी चाहिए। प्रस्तुति के प्रति ये जो जवाबदेही आती है वह हमारे कला के प्रति पेशेवरना रुख से आती है। और यह दर्शक के प्रति उत्तरदायित्व बोध इस रंगमंच की प्रक्रिया को बहुत महत्वपूर्ण बना देता है। अगर इसके निर्माण की प्रक्रिया पर गौर किया जाए तो इसमें जुड़े हर कलाकार के इंसान बनने में यह महत्वपूर्ण रोल अदा करती है।
सम्प्रेषण के संदर्भ में सिर्फ इतना कहना भर ही काफी नहीं कि थिएटर में कहने-सुनने की बहुत सारी तकनीकें और अभ्यास हैं। जिनको सीख कर सम्प्रेषण में धार आ जाएगी। इस मुगालते से निकलना जरूरी है। जो लोग रंगमंच से जुड़े हैं उनके सामने यह बात अक्सर आती है कि “फलां व्यक्ति के बोलने की पिच ठीक नहीं, उच्चारण साफ नहीं... तुम कुछ एक्सर्साइज़ करवाओ इनकी आवाज़ ठीक करने के लिए।” शुरू-शुरू में मैंने बीड़ा उठा लिया था दोस्तों के उच्चारण को ठीक करने का। लगा उनको बताने कि आप कहाँ ‘स’ और ‘श’ के उच्चारण का घपला करते हैं। और शुरू हो गया ध्वनियों का खालिस अभ्यास। इसका उल्टा असर हुआ। दोस्त लोग उन शब्दों में भी गफलत करने लगे जिन्हें वे पहले आसानी से उच्चरित करते थे। इसकी वजह थी ध्वनियों के प्रति सावचेती का अतिरिक्त आग्रह। जल्दी ही समझ में आ गया की भाषा का मसला जिंदा भाषा मे ही हल हो सकता है। मतलब शब्दों में, वाक्यों के अंदर न कि निरपेक्ष रूप से ध्वनियों की निरर्थक कवायद। मर्ज तो पकड़ में आ गया।लेकिन समाधान का रास्ता कहाँ है? समाधान के रास्ते अनवरत अभ्यास में होकर जाते हैं। और हमारी ज़िंदगी में रंगमंच के अलावा कोई लाइव मंच नहीं जहा इस तरह के अभ्यास के पर्याप्त मौक़े हों।
नाटक में ही इतनी फुर्सत होती है जहां आप एक ही पंक्ति को बोलने के सैकड़ों अभ्यास कर सकते हैं। एक ही संवाद को अलग-अलग अंदाज़ से बोल कर देख सकते है। तब तक जब तक आपके चरित्र और भाव के मुताबिक न हो ओर उसके सहयोग मे आपके शरीर के अन्य अंग भी एक सुर होकर जुट जाते हैं। इसमें यह प्रभावी तरीके से इस लिए भी हो जाता है कि इसमे आप अपने आप से निकल कर खुद को देखते हैं। खुद से तभी निकला जा सकता है जब आप पहले खुद को तटस्थ भाव से देख सको। यह सम्प्रेषण का वह पहलू है जिसमें आप अपने बात कहने के औजारों को धार दे सकते हैं। और ये अभ्यास किसी स्पीकिंग क्लास की निरर्थक ड्रिल के जैसे नीरस नहीं होते। यह नाटक मे एक समझ को लेकर होते हैं। और इसमें नाटक की प्रस्तुति के सुख का जबरदस्त मोटीवेशन और रसास्वादन भी जुड़ जाता है।
सम्प्रेषण का दूसरा और महत्वपूर्ण पहलू होता है सामने वाले को सुनना। कोई भला दूसरे को क्यों सुने? दूसरे को सुनने के लिए यह ज़रूरी है सामने वाले का रेस्पेक्ट हो। हम किसी का रेस्पेक्ट कब करते हैं? जब हम खुद को सामने वाले की जगह पर रख कर देखते हैं। नाटक या अभिनय का बीज तत्व ही दूसरे की जगह खुद को रखना ही होता है। दूसरे की जगह पर खुद को रखने की पहली शर्त होती है खुद से मुक्त होना यानि अहम से मुक्त होना। अभिनय का संस्कार हमें संवेदनशील बनाता है। सिर्फ अहसास के स्तर पर ही नहीं सामने वाले को सुनने के बारीक अभ्यास रंगमंच निर्माण प्रक्रिया में हैं, जो कि इसकी कथोपकथन की बुनियादी परिकल्पना में ही शामिल है। नाटक में आप अपना संवाद बोल ही नहीं सकते जब तक कि आप अपने सामने वाले अभिनेता सुनते नहीं। सामने वाले की लाइन खत्म किए बिना आप अपनी लाइन नहीं बोल सकते। यही बुनियादी अभ्यास जो रंगमंच निर्माण प्रक्रिया में आद्यांत अनवरत चलते हैं। यही जबरदस्त अनुशासन सामने वाले में आस्था व सम्मान का बीज डालता है। यही अनुशासन हममें विरोधी विचार को भी सुनने की तमीज़ व शिष्टाचार विकसित करता है। जब हम रंग प्रक्रिया में अनायास जुड़े होते हैं तब ये संस्कार हमारे अवचेतन पर अंकित हो रहे होते हैं।
यह संस्कार एक अभ्यास से नहीं आएगा, यह थियेटर की एक वर्कशॉप से नहीं आएगा, एक प्रोडक्शन से भी नहीं आएगा, एक महीने या साल में भी शायद न आए... रंगमंच कोई एक घटना भर नहीं है जो एक बार घट गई और खत्म। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। वैसे ही जैसे शिक्षा निरंतर चलती है। जैसे जिंदगी निरंतर चलती है। जैसे ज़िंदगी के रास्ते पर हम निकलते हैं तो शरीर को साधने की बेहतर तैयारी के लिए मॉर्निंग वॉक पर रोज़ सुबह निकलते हैं, जिम जाते हैं, वैसे ही थियेटर हमारे लिए जरूरी है। हमारे सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों को संभालने की तैयारी में। क्योंकि थियेटर ही एक ऐसी जगह है जहां किसी भी स्थिति में बातचीत नहीं रुकती। क्यों कि नाटक नहीं रुक सकता.... शायद ज़िंदगी भी....
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दलीप वैरागी 
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Tuesday, January 31, 2012

पत्र लेखन : ज़िन्दगी का व्याकरण

globalpg01बात उन दिनों की है जब मैंने कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय टोंक में जाना शुरू किया, था। यूं तो हम वहाँ अकादमिक सहयोग के लिए जाते थे लेकिन लड़कियों के लिए काम करते हुए सबसे ज्यादा हमारा खुद का सीखना ही होता था। कस्तूरबा विद्यालय पूर्णतया आवासीय विद्यालय हैं। यहाँ उन किशोरी बालिकाओं को रह कर पढ़ने का अवसर मिलता है जो या तो कभी स्कूल गई ही नहीं या फिर किसी वजह से उनका स्कूल बीच मे ही छूट गया था। इनमे ज़्यादातर लड़कियां अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक या दूरदराज़ क्षेत्रों की होती हैं जहां उनकी पहुँच मे स्कूल नहीं है। यहाँ ये लड़कियां कक्षा 6 से 8 तक की निशुल्क शिक्षा प्राप्त करती हैं। इन लड़कियों मे शुरुआत मे ज़्यादातर निरक्षर होती हैं।

सातवीं कक्षा में व्याकरण चल रहा था। जब मैं कक्षा में दाखिल हुआ तब शिक्षिका लड़कियों को पत्र लेखन सिखा रही थी। टीचर के हाथ में व्याकरण की कि किताब थी। टीचर ने बोर्ड पर खत का मजमून लिखा था जो इस प्रकार था – “ अपने को जयपुर निवासी सुनीता मानते हुए एक पत्र लिखिए कि हमारे स्कूल की लड़कियां शैक्षणिक भ्रमण के लिए जा रही हैं। इस बाबत पत्र लिख कर अपने पिता को सूचित करें।” किताब में लिखा पत्र टीचर ने बोर्ड पर लिख दिया और लड़कियों को उतार लेने के लिए कहा। लड़कियों ने पत्र ज्यों को त्यों उतार लिया। मुझे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। अपने को कोई दूसरा मानते हुए कहानी या उपन्यास तो शायद लिखे जा सकते हों परंतु क्या पत्र लिखा जा सकता है। पत्र तो नितांत व्यक्तिगत होता है। जिसमे व्यक्त भावनाएँ दिल की असीम गहराइयों से निकाल कर आती हैं। यह खुद को दूसरा मानने से कैसे हो सकता है? क्या पत्र लेखन का मामला बस इतना ही है? मैंने अपनी पढ़ाई के दिनों को याद किया। क्या मैंने अपने वक़्त मे जो पत्र लिखे और जो मैंने क्लास मे पढे क्या उनमे कोई संगति थी? क्या यहाँ भी वही कवायद शुरू हो रही है? मैने टीचर को साथ लेते हुए लडकियों से बातचीत शुरू की। लड़कियों से पूछा कि आपने क्या अब तक किसी को पत्र लिखा है? लड़कियों ने मना किया। मैने दूसरा सवाल किया, क्या आपने कभी कोई पत्र पढ़ा है? सिर्फ एक लड़की ने कहा कि उसे मामा के लड़के ने पत्र लिखा था। इन लड़कियो में बहुत सी लड़कियां ऐसी है जो स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी हैं। इस स्थिति में लड़कियों से बात की कि अगर आप परिवार वालों या सहेली को पत्र लिखना चाहो तो उसमें क्या-क्या लिखेंगी? लड़कियों ने कहा कि हम बताएंगे, “हमारी परीक्षा की तैयारी अच्छी चल रही है। भवन की पुताई हो गई है। हमारे केजीबीवी में बड़ा टी वी आगया है। डिश एंटीना भी लग गया लग गया है। हम रोज टीवी देखते हैं। हमारे केजीबीवी में मेला लगा था जिसमें खूब मजा आया। मेले मे पूरे ज़िले कि लड़कियां आई थीं।“ इत्यादि
हमने कहा कि अगर हम सभी अपने घर पर पत्र लिखें तो कैसा रहे? लड़कियों के चेहरे खिल गए। हमने प्रधानाध्यापिका मनीषा मीणा से बात की उन्होंने बिना देर लगाए पास ही पोस्ट ऑफिस में चौकी दार को भेज कर ५० पोस्ट कार्ड मंगवा लिए। पोस्ट कार्ड लड़कियों को दे दिए। अब लड़कियों से दूसरा सवाल किया कि आप यह पत्र किसको लिखना चाहोगी? लेकिन यह भी ध्यान रखना कि घर पर कौन-कौन पढ़ना जानते हैं। सबके रिश्तेदार अलग-अलग थे। कोई भाई को, कोई बहन को, कोई पिता को, कोई मामा को, तो कोई सहेली को, कोई मां को लिखना चाहती है लेकिन मां पढ़ नहीं सकती ‘‘कोई बात नहीं भाई पढ देगा‘‘ इस कार्य व्यापार में पहला मोड आया था जब बोर्ड पर लिखी इबारत की बंधी बंधाई गिरफ्त से पाठ ज़रा बाहर झाँका।
माता-पिता को आदरणीय लिखेंगे तो बड़े भाई और छोटी बहन को क्या लखेंगे। सहेली को क्या लिख कर संबोधित करेंगे? बात संबोधनों पर भी आकार थोड़ी देर रुकी लेकिन जब रिश्तों ऊष्मा हो तो सम्बोधन महज औपचारिकता ही लगते हैं। संबोधनों की उहापोह से उबरने के बाद लड़कियां लिखने लगीं। सब लड़कियां अपना ही पत्र लिख रही थीं। कोई भी दूसरे की नकल नहीं कर रही थी। कोई रटा रटाया नहीं लिख रही थी। सबका मौलिक पत्र था। अपना पत्र था बिलकुल निजी। पूजा चावला लिखना नहीं जानती थी। उसने जबरदस्त जुगत भिड़ाई। अपने मन की बात सहेली से कह कर अपनी कॉपी में लिखवा ली और उसको बाद में अपनी हाईंड्राईटिंग में खत पर उतार लिया। यह वही पूजा है जिसके बारे मे कहा जाता था कि उसका शैक्षणिक प्रक्रियाओं में मन नहीं लगता था । आज उसकी सक्रियता देखने लायक थी।
जिस मुश्किल के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे वह पत्र पर पता लिखते वक्त आई। लड़कियों को अपने गाँव के नाम तो पता थे लेकिन उनको पोस्ट ऑफिस कौनसा लगता है तथा उनके क्षेत्र का पिन कोड क्या है, लड़कियां को पता नहीं था। कुछ लडकियों को तो ठीक से ब्लॉक भी पता नहीं था। यह शायद पहलीबार हुआ था कि शिक्षिका एक गतिविधि के माध्यम से उन लड़कियों की सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को बड़े निकट से देख रही थी।
इस समस्या के समाधान के लिए हमने सब लड़कियां से कहा कि “स्कूल के पास ही में जो जिला पोस्ट ऑफिस है वहां चल कर पता करते हैं। तब वहीं खत को लाल डब्बे में भी डालेंगे।“ लड़कियां ने टीचर्स के साथ जाकर उनके पोस्ट ऑफिस तथा पिन कोड पता किए। लड़कियों ने अपने कार्ड पर अपना पता लिखा, अपना पूरा पता, ‘परमानेंट पोस्टल एड्रेस’। इसके बाद उन्होने खत को लाल डब्बे को सुपुर्द किया। । डाकखाने से लड़कियों ने एक चार्ट भी प्राप्त किया जिस पर पूरे जिले के पिन कोड लिखे हुए थे। टीचर्स ने वह चार्ट रख लिया कि कक्षा ६ के साथ भी जब यह गतिविधि करेंगे तो यह चार्ट काम आएगा।
भले ही आज कम्प्यूटर-ईमेल, मोबाइल- एसएमएस ने चिट्ठी लिखने को चलन से बाहर कर दिया हो। लेकिन फिर भी जब भी पत्र जैसे मुद्दे को हम बच्चों के साथ रखे तो वैसे ही पूरी उत्सव के रूप में जैसा ही पहले हमारी आपकी ज़िंदगी मे होता था। यह अनुभव इस समझ को पक्का करता है कि पत्र लेखन महज व्याकरण का एक पाठ ही नहीं, यह सम्प्रेषण के माध्यम से भी कुछ ज्यादा है। बल्कि अपनी इस विधा के साथ-साथ अपनी स्थिति, अपने परिवार, रिश्तों की ऊष्मा को महसूस करना व समझना है। हमारे रिश्तों की गर्माहट व अनुभूति की तीव्रता हमें पत्र लिखने को प्रेरित करती है। इस अनुभव में लड़कियां पत्र लेखन के साथ-साथ अपनी जिन्दगी, अपने आस-पास व अपने गाँव को समझने के साथ-साथ नई जानकारियाँ प्राप्त करने के झरोखों को भी खोल रही हैं।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें।  इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा  मेरे  लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। ) 

दलीप वैरागी 
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Tuesday, January 3, 2012

रंगमंच : मेरी समझ...

मैंने इस ब्लॉग पर समय-समय पर अलग-अलग संदर्भों में अपने विचार  छोटे-छोटे लेखों मे रखे हैं। सभी लेखों के शीर्षकों को सुविधा की दृष्टि से इस पृष्ठ पर दिया जा रहा है। उन्हें खोलने के लिए शीर्षक पर क्लिक कर

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...