Saturday, October 31, 2015

अभिव्यक्ति अपना व्याकरण खुद रच लेती है।

राजस्थान के पाली ज़िले के फालना में किशोरियों के आवासीय शिक्षण शिविर में अकादमिक सम्बलन हेतु आया था। चार महीने के इस शिविर में गरासिया जनजाति की पचास किशोरियाँ आवासीय रूप शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। अभी इस शिविर को शुरू हुए लगभग सप्ताह का समय हुआ था। जब मैंने शिक्षिकाओं से पूछा कि किस तरह के सपोर्ट की जरुरत है। सबने एक ही बात कही कि इन लड़कियों के साथ अभिव्यक्ति पर काम करने की जरुरत है।
मैंने लड़कियों से बातचीत शुरू की। लड़कियां मुखर नहीं थीं। वे बातचीत में नहीं जुड़ रही थीं। मैंने कुछ ऐसी गतिविधियाँ शुरू की जिससे लड़कियाँ बोलचाल में शामिल हों, सहज हों। पर इस सहजता के माने क्या हैं कई बार हमें खुद नहीं पता होते और अभिव्यक्ति के भी... लड़कियां हिंदी समझती हैं लेकिन ज्यादातर बातचीत मारवाड़ी में ही करती हैं। हिंदी वे बोलती नहीं तो फिर क्या किया जाए? सोचा जहाँ से वे मुखर हैं वहीँ से ही उन्हें सुना जाए। अभिव्यक्ति का भी एक जबरदस्त राजनैतिक रिश्ता होता है शिक्षक और विद्यार्थी के दरम्यान - जब उन्हें उनकी मातृ भाषा से अलग शिक्षक की भाषा या अन्य भाषा में सिखाया जाता है तो अनायास ही शिक्षक सत्ता के और भी ऊँचे शिखर पर जा बैठता है तथा विद्यार्थी हीनताबोध की गहरी खाई में। फलस्वरूप शिक्षक इस मुगालते को जुमले की तरह उछलता है कि विद्यार्थी अभिव्यक्ति में कमज़ोर है। यह मुगालता चेतन व अवचेतन दोनों में पलता है।
नाट्यकला ऐसी स्थिति में बहुत मदद करती है। नाट्याभिव्यक्ति का बहुत बड़ा हिस्सा शारीरिक भाषा का होता है। शारीरिक अभिव्यक्ति की भाषा कमोबेश सार्वभौमिक-सी होती है। उन लड़कियों से संवाद बनने की शुरुआत हो और वे बराबरी की हैसियत में आकर, होंसले से प्रक्रिया में शामिल हों, इन लड़कियों के साथ “शूज शफल” गतिविधि करवाई। शूज शफल एक बहुप्रचलित थियेटर एक्सर्साइज़ है। इसमें कोई वस्तु मंच पर रखी जाती है जिसे अभिनेता को अपनी कला से उसे अन्य वस्तु मान कर अभिनय करना होता है।
मैंने ऑब्जेक्ट के रूप में ढपली को रखा और लड़कियों से आकर अभिनय करने के लिए कहा। सन्नाटा। एक बार को मैंने मान ही लिया था कि यह गतिविधि भी अब तक आजमाई गई गतिविधियों में एक बन कर रह गई। फिर मैंने सोचा शायद यह मेरी हिंदी की सम्प्रेषणीयता का ही नतीजा तो नहीं। तो क्या मारवाड़ी में बोला जाए? या अनुवादक की भूमिका तय की जाए। अचानक मैंने शारीरिक अभिव्यक्ति के विकल्प को बेहतर माना और गतिविधि को एक बार डेमोन्सट्रेट कर दिया। इससे जैसे ठहरे पानी में लहरें उठीं और लड़कियां बारी-बारी से उठ कर आने लगीं। फेरी वाले की टोकरी, आरती का थाल, भिखारी का कटोरा, आटे की परात, चकला, बैठने की चौकी, आइना,आटा छलनी और जाने कौन-कौनसे रूपों में ढपली ढलने लगी।
एक तरफ ढपली है, दूसरे छोर पर लड़कियाँ और उनका शारीर इन दोनों को जोड़ते हुए एक विचार प्रवाहित हो रहा है दरम्यान। और यह विचार कल्पना को जन्म दे रहा है। और वह कल्पना अवचेतन की अँधेरी गलियों में से एक चरित्र को खोज लाई और उस चरित्र का जामा ओढ़कर लड़की खड़ी होती है और एक झीना पर्दा डाल देती है दर्शक की चेतना पर। उसी विचार की सरिता में  दर्शक भी डुबकी लगता है। अभिनेता की कल्पना दर्शक की छवि से एकाकार हो जाती है। जिससे चीजें जड़ होते हुए भी अलग-अलग रूपाकारों में नमूदार होने लगती हैं। शायद इसी कवायद को हम अभिनय कह देते हैं। छोटे बच्चे इस फन के उतने ही बड़े उस्ताद होते हैं। वे अपने नाटकीय खेलों में घंटो तक लकड़ी के चौकोर टुकड़े से हाथी के संवाद बुलवा  देते हैं और कोट के पुराने बटन की कश्ती बना सागर की लहरों पर छोड़ दें। मज़ाल है कोई चीज़ उनकी हुक्मउदूली कर दे। यहाँ दर्शक और अभिनेता वही होता है।
खैर, शूज शफल की गतिविधि चल निकली। अब वे लड़कियां भी सामने आने लगीं जो अब तक अपेक्षकृत कम सक्रीय थीं। कई तो दो तीन बार भी आ गईं। गतिविधि लंबी खिंच गई। मैं इसे समाप्त करना चाहता था या कोई नया मोड़ देना चाहता था। ऊब कही से भी प्रवेश कर जाती है।
इससे पहले मैं कोई तरीका सोचूं लड़कियों ने स्वयं ही एक बदलाव कर दिया। अचानक दो लड़कियाँ एक साथ उठकर आईं और रखे हुए ऑब्जेक्ट के साथ एक्ट करने लगीं। इसके साथ एक नया आयाम जुड़ गया जो विचार की नितांत आंतरिक निःशब्द यात्रा थी अब वह दो में साझा प्रक्रिया बन गया। फलस्वरूप इस साझा तैयारी ने शब्दों का ताना बाना भी बुनना शुरू कर दिया। विचार शब्दों के समुच्चय में उतरने लगा। इधर मैंने भी एक नया आयाम जोड़ दिया और ढपली के आलावा एक झाड़ू को भी रख दिया। अब झाड़ू भी उनकी साझा अभिनय यात्रा में शामिल हो गई। मैंने एक और वस्तु को शामिल कर दिया। पास रखी ढोलक को मंच पर सरका दिया। वस्तुएं बढ़ी तो चुनौती भी। पहले विचार में दो ही सहयात्री थे अब अन्य सिर भी आपस में जुड़ने लगे। धीरे-धीरे चीजें इस्तेमाल होने लगीं, अपने से जुदा रूपों में। धीरे-धीरे एक्ट में भाग लेने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ने लगी। अपने आप जरुरत के अनुसार अन्य वस्तुएं भी जुड़ने लगीं और लोग भी। अब चौकोर (प्रोसिनीयम) रंगमंच गोल दायरे (एरिना) में बदलने लगा। गोल रूपाकार शायद लोगों के जुड़ने के लिए ही होता है। परिधि में कोई भी जुड़ जाए तो केंद्र नहीं बदलता। और चौखटे में केंद्र की कोई स्थिति कहाँ? किसी एक बाजु का घट बढ़त दूसरी तरफ का गणित गड़बड़ कर जाता है। शायद इसी लिए आदिवासी नृत्यों का फॉर्म वृत्ताकार परिधि में ही होता है। जबकि शास्त्रीय नृत्यों की कसावट एक चौखटे में कसी होती है। यहाँ आपके लिए दर्शक दीर्घा से मंच तक का फासला मीलों लंबा हो सकता है। लोक कलाओं में महज वृत्त की लकीर भर लाँघनी है।
गतिविधि में शामिल लड़कियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि दर्शक और अभिनेता के बीच की रेखा धूमिल हो गई। अब गोल दायरे के बीच में विचार और बड़ा आकार ले चुका था एक क्षीण कथासूत्र के रूप में। प्रॉप्स भी यूज हो रहे थे अलहदा रूप में और अपने वास्तविक रूप में भी। खेल के नियम पीछे छूट गए। प्रारूप की जकड़न छूट गई। खेल अब खेला बन गया। सहज अभिव्यक्ति अपनी प्रकृति में ही विद्रोही होती है शायद। वह बाँध में नहीं बाँधी जा सकती।  वह अपने व्याकरण खुद रच लेती है। हॉल में अब अभिनय था, ऊर्जा थी और थी सरापा अभिव्यक्ति और सब उसमें सराबोर। मैं(निर्देशक) वहां होते हुए भी ओझल हो चुका था शायद अप्रासंगिक भी। कुछ था तो पूरे कमरे में तैर रहा था एक नाटक। अपने आप मिटटी में ऊगा हुआ सा। पूरे कमरे में अभिनय और ऊर्जा का सागर हिलोरें ले रहा था।उसने निर्देशक को नेपथ्य पर ला पटका।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें।  इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा  मेरी नाट्यकला व  लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। ) 



दलीप वैरागी 
09928986983 

Thursday, October 22, 2015

नाट्यकला पर एक प्रश्नावली

यूं तो हिन्दी रंग मंच की स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है, फिर भी इसकी वास्तविक स्थिति को जानना उन लोगों के लिए जरूरी होता है जो हिन्दी रंगकर्म को आगे ले जाने के लिए व्यवस्थित प्रयास करना चाहते हैं। यहा सवाल दर सवाल एक प्रश्नावली तैयार की है जिससे यह जानने का प्रयास किया गया है कि रंगकर्मियों, दर्शकों व अन्य जो नाट्यकला से अभी नहीं जुड़े हैं उनके मानस में नाटक को लेकर क्या छवि है। इस अध्ययन में यही जानने का प्रयास किया गया है। यह तभी हो सकता है जब ज्यादा से ज्यादा लोग इस फॉर्म को भरें। और इसे शेयर करें ताकि अधिक लोग इस अध्ययन का हिस्सा बन सकें।
इस प्रश्नावली को ऑनलाइन भरा जाना है। 
इसका लिंक नीचे दिया जा रहा है। 
क्लिक करके खोलें - 

Monday, October 12, 2015

स्वरांजलि संगीत क्लब की एक सुरमयी शाम

यूँ तो हर तरह का संगीत जबरदस्त अनुशासन का उदहारण है। जब कोई गान किसी पहले से तैयार म्यूजिकल म्यूजिकल ट्रैक पर करना हो तो वह और भी ज्यादा अनुशासन की मांग करता है। साजिंदों की संगत में लाइव वाद्य यंत्रों के साथ गाना गायक को शायद थोड़ी छूट देता है। वह छूट होती है फ्रेम से थोडा बाहर जाकर कोई नवाचार करने की यहाँ गायक और संगत दोनों जीवंत माध्यम हैं, दोनों एक दूसरे का सहयोग करके आगे बढ़ते हैं। दोनों के लिए ही उत्कृष्टता का आग्रह मोटिवेशन का उत्स है। यहाँ उत्कृष्टता के मापदंड परिभाषित नहीं, दोनों ही, गायक और संगत प्रत्यक्ष प्रस्तुति के वक़्त खुद उत्कृष्टता के मापदंड रचते हैं। म्यूज़िक ट्रैक पर गायन में फ्रेम से बहार जाने की छूट नहीं है। यहाँ आपको यन्त्र के साथ दौड़ना है। और किसी ने  पहले से उत्कृष्टता के मापदंड तय कर रखे हैं, उनके साथ न्याय करना ज़रूरी होता है, इससे कम पर काम नहीं चलेगा। बहरहाल कोई भी तरीका हो दोनों का आउटकम संगीत का लुत्फ़ ही होता है, श्रोता के लिए और गायक के लिए भी।
पिछले लगभग डेढ़ साल से म्यूजिकल ट्रैक पर इस तरह की गायकी से अलवर के संगीत प्रेमी रूबरू हो रहे हैं "स्वरांजलि संगीत क्लब की मार्फ़त।
गत 10 अक्टूबर 2015 को स्वरांजलि संगीत क्लब ने "गाता रहे मेरा दिल..." एक संगीतमय शाम आयोजित की। इस संगीत संध्या के बहाने से अलवर के गायक कलाकारों ने किशोर कुमार की यादों को ताज़ा किया। इसी कार्यक्रम में जानेमाने संगीतकार रवीन्द्र जैन के निधन पर सबने मौन धारण करके श्रद्धांजलि दी। इस संगीत संध्या में अलवर के कलाकारों ने किशोर कुमार के गानों को अपनी आवाज में गाकर शाम को सुरमयी बना दिया। कार्यक्रम को फरमाइशी स्वरुप भी दिया गया था। श्रोताओं के अनुरोध पर कलाकारों ने गीत सुनाकर अपनी गायकी की परिपक्वता का परिचय दिया। नए पुराने सभी कलाकारों ने एकल, युगल, सामूहिक व मेंडली विधाओं में अपनी प्रस्तुतियाँ दी। इसी के समान्तर सञ्चालन भी बहुत सधा हुआ था। सरला जैन व महिपाल सिंह जी की उद्घोषक जुगलबंदी लगातार कार्यक्रम को रोचक बनाते हुए चल रही थी। दर्शकों के साथ सीधे संवाद बनाना व संगीत के गुरुओं चीनू जी व विनीत जी से किशोर कुमार जी के जीवन के विभिन्न रोचक प्रसंगों को सुनना जहाँ नयी पीढ़ी के लिए ज्ञानवर्द्धक रहा वहीं इन उस्तादों के लिए सम्मान स्वरुप भी था। विनीत जी व चीनू जी ने पिछले 10-15 वर्षों में एक पीढ़ी को तराशा है जिसके नतीजे दिखाई देते हैं।

स्वरांजलि संगीत क्लब अब तक सात ऐसी संध्याएं आयोजित कर चुका है। यह अब संगीतप्रेमियों का इतना बड़ा कुनबा बन गया है कि आदिनाथ कॉलेज का सभागार खचाखच भरने के लिए काफी है। इस संगीत क्लब ने अलवर के गायकों को एक माला में तो पिरोया ही है वहीं एक रसिक दर्शकों का एक समुदाय भी खड़ा किया है। यह क्लब आज एक बड़ी टीम है लेकिन निःसंदेह इसके प्रणेता गायत्री म्यूजिक के सचिन जी हैं। पिछले डेढ़ दशक से सचिन इस तरह के कार्यक्रम की पृष्ठभूमि रच रहे थे। उन्होंने एक-एक करके बरसों से म्यूजिक ट्रेक्स का संग्रह किया है। इसके साथ ही वे हमेशा लोगों को इन ट्रेक्स के साथ गाने की तालीम भी देते रहे हैं। जब भी कभी अलवर में इस शैली के गायन का मूल्याङ्कन होगा तो सचिन जी इसके प्रारम्भ में अकेले खड़े दिखाई देंगे। आज उन्होंने अपने सतत प्रयासों व इस तरह के कार्यक्रमों की बारंबारता से गायकों के समूह को एक मंच प्रदान किया है।
इस कार्यक्रम से जुडी कुछ उल्लेखनीय बाते है -
  • यहाँ कोई वीआईपी कल्चर नहीं हैं। खास और आम मेहमानों वाला फर्क नज़र नहीं आता।
  • कर्यक्रम में बच्चों से दीप प्रज्ज्वलन करवाना एक एक नयी पहल है।
  • एक ही जगह पर कार्यक्रम की बारंबारता से इवेंट व स्थान दोनों को पहचान मिलती है। निःसंदेह स्वरांजलि ने ही रंगकर्मियों के सामने यहाँ गतिविधियाँ करने का एक विकल्प दर्शाया। आज रंगकर्मी आदिनाथ सभागार को एक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं।
पिछले दिनों स्वरांजलि की तरफ से यह आवाज आ रही थी कि वे अपने साथ नाट्य गतिविधियों को भी जोड़ने जा रहे हैं। अभी उसकी कोई रूपरेखा उभर कर सामने नहीं आई है। यदि ऐसा संभव होता है तो दोनों को फायदा होगा। संगीत और नाट्यकर्म में
बहुत कुछ है जो साझा हो सकता है।
स्वरांजलि परिवार को सफल प्रस्तुति के लिए बधाई।
दलीप वैरागी 
9928986983 
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Sunday, October 11, 2015

कहाँ है चौथी कक्षा के निबंध वाली गाय

गाय पर शायद दूसरी बार लिख रहा हूँ। एक बार तब लिखा था जब चौथी क्लास में था। या फिर आज लिख रहा हूँ। गाय पर लिखना मेरे लिए उस वक़्त भी मुश्किल था और अब भी है। तब गाय इतनी सरल थी और हमारी लेखनी बहुत ऊबड़खाबड़ " गाय के चार पैर,दो सींग होते हैं... गाय घास खाती है और हमें दूध देती..." ये चार पंक्तियों का निबंन्ध तब भी न सधता था। जरा सा हेर-फेर और मास्टर की छड़ी। आज जब लेखनी कुछ सधी है तो गाय पहले जैसी नहीं रही है।
बहरहाल गाय जब आज राजनैतिक चर्चा का मुद्दा बन गया है, अचानक मुझे तीन साल पुराना एक अनुभव याद आ गया।
बात राजस्थान की ही है। शिक्षा में काम कर रही एक संस्था के कार्मिकों के प्रशिक्षण चल रहा था। प्रशिक्षक दल में मैं भी था। उसी शहर के नजदीक एक बहुत बड़ी गौशाला है और उसका बहुत नाम भी। लोगों ने कहा कि आए हो तो एक बार गौशाला को भी देखो। एक शाम को हम पांच साथी गौशाला देखने निकल पड़े। सच में बहुत बड़ी गौशाला थी। वहां हजारों गाय थीं। बहुत व्यवस्थित रूप से प्रबंधन था। प्रबंधन के एक व्यक्ति ने हमें गौशाला का बड़े उत्साह से एक गाइड के रूप में भ्रमण कराया। उसने गौशाला की परिधि से बताना शुरू किया। जहाँ पर हजारों गाय थीं। गायों का अस्पताल, गायों का आइसीयू वार्ड, गायों का ऑपरेशन थियेटर व गायों का एम्बुलेंस। एक तरफ गायों के चारे का भंडार। बीमार गायों की सेवा में लगे अस्पताल के कार्मिक। हम अंदर की व्यवस्थाओं से बहुत प्रभावित हुए।
अब घूमते हुए थोड़ा भीतर की ओर आ गए। गाइड ने कहा कि इस भाग में सभी भारतीय नस्ल की गाय हैं। उन्होंने हमें तमाम देशी नस्लों के नाम व पहचान बताईं जो अब विस्मृत हो चुकी हैं। अभी तक हममे पूरी गौशाला देखने का उत्साह कायम था।
अब हम गौशाला के केंद्र के पास आ गए। गाइड ने हमें वहाँ रोक कर कहा, "अब हम गौशाला के मुख्य भाग में प्रवेश कर रहे हैं। यहाँ जो गाय हैं वे सब उस गाय की संतति हैं जिसे बरसों पहले इस गौशाला के संस्थापक लेकर आए थे।" यह भाग चारदीवारी के भीतर था। गाइड ने कहना जारी रखा, "इस हिस्से में मुस्लमान को प्रवेश की इजाजत नहीं!" यह सुन कर हमारी नींद खुली। हमें पहली बार अहसास हुआ कि हमारे प्रशिक्षण टीम में सलमा भी हमारे साथ है जो अब तक भ्रमण को उतना ही एन्जॉय कर रही थी जितना कि सब। पहली बार टीम दो हिस्सों में तकसीम होती दिखी। हम सन्निपात की स्थिति में थे। अचानक हमारे एक साथी ने सलमा को सुनीता संबोधित करते हुए कहा, "सुनीता तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, गाड़ी में आराम कर लो..."
आगे जाने का उत्साह अब नहीं था केवल जिज्ञासा भर थी कि अंदर का गौधन बहार से कितना भिन्न है जिसे प्राचीर में रखा है। गाइड के निर्देशानुसार जूते बहार खोल कर हम अंदर दाखिल हुए। अंदर भी केवल गाय ही थीं बिलकुल गाय जैसीं। वैसी ही जैसी चौथी क्लास के निबंध में होती थी - वही गाय, जिसकेे चार पैर और दो सींग होते थे... गाय घास खाती है और दूध देती है।" मुझे तो कोई भेद नज़र नहीं आया बाहर और भीतर की गायों में। भेद सिर्फ यहाँ के निज़ाम की सोच में ही नज़र आ रहा था। यह यात्रा दिमाग में कई सवाल छोड़ गई। इंसानों ने जो संकीर्ण दायरे खुद के लिए बना रखे हैं, उनके प्रतिबिम्ब वह इन बेजुबानों में क्यों देखना चाहता है? अपनी समाज व्यवस्था जानवरों पर क्यों आरोपित करना चाहता हैं?
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दलीप वैरागी 
09928986983 

Monday, October 5, 2015

हास्य नाट्य समारोह के ठहाकों की गूंज अलवर की फिज़ाओं में कई दिन तक रहेगी

कल 4 अक्तूबर 2015 का दिन अलवर रंगकर्म में काफी महत्त्व का था। वह इस लिए कि अलवर में नवनिर्मित प्रताप ऑडिटोरियम में पहली बार कोई नाट्य गतिविधि संपन्न हुई। यूँ तो यह ऑडिटोरियम बने हुए लगभग दो साल का वक़्त हो गया है लेकिन रंगकर्मियों के लिए यह आज भी मरीचिका बना हुआ है। इसको बुक करने का शुल्क इतना अतार्किक है कि रंगकर्मी इसको बुक करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। अंततः यह काम रंग संस्कार थियेटर ग्रुप के देशराज मीणा ने कर दिखाया। और उन्होंने "हास्य नाट्य महोत्सव" के रूप में एक खूबसूरत शाम का अनुभव अलवर के दर्शकों के लिए रच दिया।
कल शाम प्रताप ऑडिटोरियम पर तीन नाटकों का मंचन हुआ जिसका विवरण इस प्रकार है -
पहला नाटक – “निठल्ला”
हरिशंकर परसाई के व्यंग्य रचनाओं पर आधारित इस नाटक का निर्देशन देशराज मीणा ने किया। इस नाटक में दो अभिनेताओं दीपक पाल सिंह व अंकुश शर्मा ने अपने सधे हुए अभिनय से दर्शकों को आद्यंत जोड़े रखा। दोनों अभिनेताओं ने सादगी से मंच पर कथा का नैरेशन भी किया और विभिन्न चरित्रों को भी निभाकर दर्शकों को गुदगुदाया और  परसाई जी के व्यंग धार से कहीं दर्शकों के मानस पर नश्तर भी छोड़े। यह सधे हुए अभिनय की मिसाल ही है कि कोई अभिनेता बड़ी चतुराई से दर्शक दीर्घा में बेबाकी से फोन पर बात करते हुई दर्शक की भी खबर ले डाले, बिना अपनी भूमिका से विचलित हुए। इस व्यंग नाटक ने जहाँ इन अभिनेताओं ने नेता, नौकरशाह व संतों की पोल खोली वहीं आखिरी संवाद तक आकर दर्शक को भी नहीं छोड़ा और गिरेबां में झांकने के लिए मज़बूर कर दिया।
दूसरे नाटक " उसके इंतज़ार में" के लेखक निर्देशक प्रदीप प्रसन्न हैं । इन्होंने नाटक में अभिनय भी किया। प्रदीप इन दिनों अहमदाबाद में रहकर शोध कर रहे हैं तथा वहां रहते हुए उन्होंने वहां शौकिया रंगकर्मियों की एक अच्छी खासी टीम बना ली है, जो वास्तव में बहुत बड़ी बात हैं। अपनी टीम के साथ अलवर में मंचन के लिए आए थे। उसके इंतज़ार में एक पूर्णतया हास्य नाटक है।  इस नाटक में एक परिवार की कहानी है, जहाँ लड़की को देखने के लिए आए हैं। विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से प्रदीप हास्य रचते हैं। पारिवारिक नोकझोक है, नौकरानी से इश्क है, बेरोजगारी है व मनुष्य की सहज दुर्बलताएँ हैं । इन छोटी-छोटी स्थितियों के माध्यम से प्रदीप जहाँ गुदगुदाते हैं वहीं गंभीर चोट भी कर जाते हैं और अगले ही पल हास्य की मसाज भी कर देते हैं। एक नाटककार के रूप में प्रदीप प्रसन्न विधा की नब्ज़ पकड़ चुके हैं। उनसे इसी तरह और लेखन की आगे भी उम्मीद है।
तीसरे नाटक के रूप में मोलियार की रचना "बिच्छू " का मंचन किया गया। इस नाटक का निर्देशन अंकुश शर्मा ने किया। अंकुश इस नाटक में भी प्रमुख भूमिका में थे। मोलियार की इस क्लासिक कृति के हिंदुस्तानी अनुवाद में दो परिवारों की कहानी है। जहाँ रूढ़िवादी कंजूस पिता भी हैं तो उनकी तथाकथित तरक्कीपसंद इश्कमिज़ाज़ सन्तानें भी।  इस पीढ़ी अंतराल और इस खाई को अपने अजीबोगरीब कौशल से सामंजस्य बनाने और उनकी खबर लेते हुए रहमत के किरदार को पूरी ऊंचाई पर लेकर जाते हैं अंकुश शर्मा। रहमत का किरदार सबको अपने इर्द-गिर्द मौज़ूद तुर्प के इक्के की याद दिलाता है जो किसी भी गाँव मौहल्ले के लिए उतना ही अपरिहार्य है जितना कि वह तिरस्कृत भी है। ये सारी परिस्थितिया गजब का हास्य रचती हैं। उर्दू ज़बान के शब्दों के साथ सभी कलाकारों ने उच्चारण की शुद्धता का ख्याल रखते हुए यह साबित किया कि वे प्रशिक्षित व पेशेवर अभिनेता हैं।
यह आयोजन एक दिन में कई बाते अलवर रंगकर्म को कह गया -
  • ऑडिटोरियम की शुल्क कम करने के लिए प्रशासन से मांग करना जरुरी तो है लेकिन उसके कम होने के इंतज़ार में बैठे रहना भी ठीक नहीं। जब तक उस जगह पर कोई गतिविधि नहीं होगी तो प्रशासन को उसकी जरुरत भी समझ नहीं आएगी।
  • यहाँ आयोजन होने से ही इसकी अंदर की खामी पता चली कि उसकी बनावट में बुनियादी चूक भी हुई हैं। साईक मंच के इतने पीछे चिपका कर लगाई गई है कि अभिनेता के मूवमेंट के लिए भी पर्याप्त स्थान नहीं। पंखे हैं नहीं, एसी लगे नहीं। दो घंटे की अवधि दर्शको को गर्मी में तलने के लिए काफी हैं।
  • नाटक को समय पर शुरू करना बहुत जरुरी है। लेकिन यह उतना ही दुर्लभ भी है। लेकिन कल का शो समय पर शुरू होने के पीछे निसंदेह देशराज की जिद को ही माना जा सकता है। इसके लिए देशराज साधुवाद के पात्र हैं। उन्होंने विशिष्ठ अतिथियों को भी आमंत्रित किया लेकिन उनके आदर सत्कार को बरक़रार रखते हुए उन्होंने दर्शको के समय व रसास्वादन को बाधित नहीं होने दिया।
  • इतनी महत्वपूर्ण गतिविधि की अगले दिन किसी अख़बार में कोई खबर नहीं मिलने पर अच्छा नहीं लगा। प्रिंट मिडिया की यह  दूरी समझ में नहीं आई।
  • इस रंग अनुभव को रचने में हालाँकि देशराज व प्रदीप अलवर के रंगकर्मी हैं लेकिन इनके अतिरिक्त पूरे अभिनेता दिल्ली जयपुर व  अहमदाबाद से थे। निःसंदेह इन अभिनेताओं ने अलवर के रंगकर्म को एक्सीलेंस के मापदंडों से परचित अवश्य करवाया। उम्मीद है भविष्य में अलवर के रंगकर्मी भी इस ऑडिटोरियम पर शिरकत करते दिखाई देंगे।
सारांशत: यह कहा जा सकता है कि रंग संस्कार थियेटर ग्रुप द्वारा आयोजित "हास्य नाट्य समारोह" के ठहाके की गूंज काफी समय तक अलवर रंगमंच की फिजा में गूँजेगी। अपनी तमाम मज़बूतियों के बावज़ूद यह कहे बिना बात ख़त्म नहीं की जा सकती कि यह हास्य का ओवरडोज़ भी था। काश! ये तीनो नाटक, तीन दिन क्रमिकता से मंचित होते तो माहौल और सघन बन सकता था। कुछ अधिक दर्शक जुटाए जा सकते थे। फिर भी आयोजकों बधाई , दर्शकों को बधाई !
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दलीप वैरागी 
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Friday, October 2, 2015

मोहन से महात्मा और नाटक

आज 2 अक्टूबर की तारीख है। पूरी दुनिया में इसे महात्मा गांधी जी की जयंती के रूप में मनाया जा रहा है। भारत सरकार  गांधी के जन्मदिन को स्वच्छ भारत अभियान के साथ जोड़ कर मना रही है। वह इसलिए कि स्वच्छता गांधी जी के लिए एक बड़ा मूल्य था।
Image result for gandhiमैं एक नाट्यकर्मी हूँ और यह सोच रहा हूँ क्या गांधी जी को रंगकर्म के योगदान के लिए भी याद कर सकता हूँ? अक्सर देखा है कि इन महान विभूतियों ने साहित्य, समाज संस्कृति या राजनीति पर अपने विचार रखे हैं तो नाटक पर भी कुछ न कुछ कहा होगा। इस सन्दर्भ में देखने पर उनकी जिंदगी का एक प्रसंग याद आता है जो यह बताता है कि गांधी जी के मोहनदास से महात्मा बनने में नाटक का बहुत योगदान है।
अपने बचपन में गांधी जी ने 'हरिश्चंद्र' नाटक देखा था। इस नाटक ने गांधी जी के बाल मन पर इतना असर डाला कि उन्होंने इस नाटक को बार-बार देखा। इस नाटक ने गांधी जी के जीवन की दिशा बदल कर रख दी। उनकी जिंन्दगी में सत्य के प्रति जो अटल आस्था थी उसका बीजारोपण हरिश्चंद्र  नाटक ने कर दिया। नाटक से ही बालक मोहन ने शायद बचपन में यह मूल्य ग्रहण किया कि चाहे कितनी ही विकट स्थिति ही क्यों न हो सत्य के मार्ग पर अटल रहना चाहिए। इस मूल्य को गांधी जी ने आपने पूरे जीवन में डेमोन्सट्रेट करके दिखाया।
इसी तरह एक दूसरी महान विभूति ईश्वरचंद विद्यासागर का एक प्रसंग याद आता है। एक बार एक नाटक मण्डली नील के किसानों पर अंग्रेज अफसरों के अत्याचार को प्रदर्शित करते हुए नाटक कर रही थी। ईश्वरचंद विद्यासागर जी भी नाटक में आमंत्रित थे और अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। अंग्रेज अफसर का पात्र निभाने वाले अभिनेता ने किसान पर अत्याचार का इतना जीवंत अभिनय किया कि विद्यासागर जी अपनी सीट से उठकर आए और अफसर का अभिनय करने वाले अभिनेता को जूते से दनादन पीटने लगे। बाद में अभिनेता ने उस जूते को अपने सात्विक अभिनय के उपहारस्वरूप अपने पास रख लिया।
इन दोनों ही नाटकों से एक बात साबित होती है कि इंसान के व्यवहारगत परिवर्तन का नाटक जबरदस्त माध्यम है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों में अहिंसा, सत्यनिष्ठा व संवेदनशीलता के मूल्य स्थापित हों तो हमें इस माध्यम की ताकत को समझना होगा। पहले उदहारण से जहाँ यह पता चलती है कि नाटक की कथावस्तु में अन्तर्निहित विचार (सन्देश या उपदेश नहीं) किस तरह दर्शक के मूल्यबोध का निर्माण करता है। यह कार्य केवल नाटक ही मजबूती से कर सकता है। क्योंकि ये मूल्य हम जिंदगी की राह पर चलते हुए ही सीखते हैं और हमारे इर्दगिर्द जो जिंदगी है उसमे इस हद तक मूल्यहीनता की मिसालें हैं जो हमारे मूल्यबोध को शीर्षासन करवाने के लिए काफी हैं। केवल नाटक ही ऐसा माध्यम है जो कृत्रिम रूप से आपके इर्दगिर्द एक जिंदगी सृजित कर देता है और आप एक सुनियोजित कथा के साथ लिपटे विचार यात्रा के सहयात्री होते हैं। एक सत्य की विजय और मूल्य की स्थापना में अनायास ही एक हिस्सेदारी हासिल कर लेते हैं।
नाटक न केवल विचारधारा को ही प्रभावित करता है बल्कि विचार का भावनात्मक रूप से परिष्कार करके कर्म में भी प्रवृत करता है जिसे ईश्वरचंद विद्यासागर जी के उदहारण से समझा जा सकता है।
उपरोक्त दोनों उदाहरण बताते हैं कि एक नाटक दर्शकों पर किस प्रकार असर डाल कर उन्हें शिक्षित करता है और ज्ञान आधारित व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। जरा सोचिए जो मंच के ऊपर होते हैं और जो दर्शक के लिए नाट्यानुभव सृजित करने की तैयारी में लगे होते हैं, जो महीनों चर्चाओं पूर्वाभ्यासों में अपने मन व शारीर को साधते हैं उनके लिए नाटक का अनुभव दर्शक से कुछ ज्यादा होता है। किसी पाठशाला सरीखा।
दरअसल नाटक अपनी सम्पूर्णता में किसी पाठ्यचर्या से कम नहीं होता। अगर उसे सूझबूझ के साथ किया जाए तो वह गुणवत्ता युक्त शिक्षा का एक पैकेज ही होता है।
विडम्बना यही है कि नाटक में शिक्षा की जितनी संभावनाएं हैं यह उतना ही शिक्षा व्यवस्था से बहिष्कृत भी है। मेरा अनुभव तो यही कहता है शिक्षा चाहे किसी भी स्तर की हो, किसी भी डिसिप्लीन की हो उसमें नाट्यकला जरूर शामिल होनी चाहिए। और वे केवल एक पुस्तक सरीखे साहित्य की किताब में न होकर बल्कि अपने जीवंत रूप में होने चाहिए। जिस दिन ऐसा हो पाया उस दिन फिर से शायद कोई मोहनदास  से महात्मा बन जाए। एक नहीं अनेक, अपने-अपने मौलिक स्वरूपों में।
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दलीप वैरागी 
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