Wednesday, March 21, 2018

World Theatre Day : आओ, लोगों को नाटक का चस्का लगाएँ


International Theatre Day (अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस) अगर जवाब है तो फिर सवाल क्या हैआज इस मौके पर रंगकर्मियों को उस सवाल को तलाश कर पकड़ना चाहिए। हाथ लगने पर सबसे पहले खुद पर  ही दागना चाहिए। तब कहीं जाकर यह दिन मनाने या न मनाने की सार्थकता समझ में आएगी। मेरा जब सवाल से सामना हुआ। उससे उपजी बेचैनी में कुछ जांच पड़ताल की तो पता चला कि कोई International Theatre Institute (ITI) नाम का एक गैर सरकारी संगठन है, जिसने यह दिन 27 मार्च को मनाने की शुरुआत की थी। सबसे पहला अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस 1961 में मनाया गया था। तब से ITI इस दिन को मनाने की अगुवाई व अह्वान हर वर्ष करती है। विश्व भर में इसके लगभग 90 से ज्यादा क्षेत्रीय केन्द्रों व अनगिनत रंग मंडलियों द्वारा आयोजन किए जाते हैं। ITI हर वर्ष नाटक की किसी प्रसिद्ध हस्ती द्वारा लिखित संदेश जारी करती है। गौरव की बात यह है कि पिछले वर्ष 2018 यह रंग-संदेश भारत के  रंग निर्देशक राम गोपाल बजाज ने जारी किया था। इससे भी पहले 2002 में भी नाटककार गिरीश कारनाड ने भी यह संदेश जारी किया था।  इस वर्ष Theatre day message क्यूबा के रंग निर्देशक Carlos CELDRÁN ने जारी किया है।  
ये तो इतिहास की बात हो गई। लेकिन सवाल तो वहीं वर्तमान में है कि अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस क्यों मनाया जाए ?
हम क्यों मनाएँ इस सवाल को चंद क्षणों के लिए होल्ड पे रखते हैं और पहले यह देखते हैं कि ITI क्या सोच कर इसे आधी से भी ज्यादा सदी से मानती चली आ रही है। ITI ने अपने उद्देश्य स्पष्ट कर रखे है -
  1.          दुनिया में जितने भी तरह का रंगकर्म हो रहा है उसे बढ़ावा देना।
  2.         रंगमंच की अहमियत लोगों को बताना।
  3.          सरकार व नीति निर्धारक रंगमंच की अहमियत को समझ कर इसकी मदद कर सकें, इसके मद्देनजर रंग मंडलियों को अपने काम बड़े स्तर पर प्रस्तुत करने में सक्षम बनाना।  
  4.          नाट्यकर्म करने में आनंद महसूस करना।  तथा
  5.          इस आनंद को दूसरों के साथ साझा करना

ऊपर बताए गए बिन्दुओं की रोशनी में हम अपने आयोजनों को भी देख सकते हैं। हो सकता इनमें से कोई एक बिन्दु आपको हो। दो-तीन या सब भी हो सकते हैं। ये भी हो सकता है कि आपके इससे दो अधिक भी हों। लेकिन किसी भी आलोक में आत्मवलोकन अवश्य करें कि क्यों मानना है। मनाने की वजह और तरीका भी अपना खुद तय करें।  
तरीके से याद आया कि एक तरीका चल निकला है विचार-गोष्ठी वाला। इसके चल निकलने के पीछे हींग और फिटकरी वाली कहावत यदि पूरी नहीं तो थोड़ी तो जरूर लागू होती है।  यह सच कि इस तरीके में हींग और फिटकरी के इनपुट से तो बच जाते हैं लेकिन चौखा रंग भी तो नहीं चढ़ता। अब रंग के अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का कोई भी अर्थ लिया जा सकता है। सबको पता है कि गोष्ठी से रंग जमता नहीं, पर दिल है कि फिर भी मानता नहीं। गोष्ठी के लिए पचास जनों को बुलाओ, पंद्रह पहुंचेंगे, पाँच बोलेंगे बाकी चाहे तो सो लेंगे। इसके आउटकम के रूप में भी एक कहावत है जिसका सारांश आखिर तीन पात ही होता है। अब आप कहेंगे कि कहावत की पूरी अभिव्यक्ति क्यों नहीं की जा रही है। वह इसलिए कि आपको तो पता है कि अभिव्यक्ति के खतरे बहुत हैं आजकल। आप पर तो भरोसा किया जा सकता है , लेकिन ढाक तो बुरा मान सकता है कि भाई तीन पात होने में उसका क्या कसूर!  
यह सवाल भी देखो कितना बहरूपिया है,  हमें यहाँ उलझा खुद कपड़े बदल कर आ गया। खड़ा है मेरे बर अक्स और पूछ रहा है कि किसको मानना चाहिए अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस? अरे भाई, जो मानना चाहे उसे मानना चाहिए। जिसका प्रदर्शन कला या नाट्यकला की ताकत में यकीन है, जिसका मनुष्यता में यकीन है। आप कहीं के भी हों कोई भी हों। यदि आप गाते हैं तो आज कोई नई तान छेड़िए। इंकलाबी हैं तो फेफड़ों में पूरी हवा भर कर जय रंगकर्म का नारा बुलंद कीजिए। स्कूल में कभी ड्रामा किया है तो अब शहर में भी कीजिए। किसी नाटक मंडली को जानते हैं तो उसे अपने शहर में भी नाटक करने को बुला लाइए। शहर में नाटक है तो देखने जाइए, साथ में किसी और को भी ले जाइए। चार पैसे हों और हाथ खुला हो तो रंगकर्म की तंगी दूर कर आइए। पढ़ते लिखते हैं तो आज कोई दास्ताँ मित्र मंडली में बैठ कर भावपूर्ण तरीके से सुनाइए। अभी तक देखने नहीं गए तो नाटक देख कर आइए। पसंद आए तो सराहिए नहीं तो नुक्ताचीनी ही कर आइए। यदि रंगकर्मी हो हजार तरीके से मनाइए।
यदि अकेले हो तो दो हो जाएँ। किसी तीसरे को भी ढूंढ लाएँ। हर नए को नाटक का चस्का लगाएँ। फिर भी कुछ समझ में न आए तो गोष्ठी करके ही सही लेकिन मनाएँ। आइये अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस मनाएँ। इसे सिर्फ रंगकर्मियों का दिवस न बनाएँ। अन्यथा रंगकर्मी इतिहास की विलुप्त प्रजातियों में शुमार होगी और प्रकारांतर से इंसानियत भी।
क्योंकि इंसानियत के साथ गलबहियाँ करते हुए अभिनय कला आई है, यह गई तो इंसानियत का क्या हो, कोई क्या जाने? यही मूल प्रश्न है ?

Tuesday, March 13, 2018

जीवन कौशल शिक्षा क्या है


शिक्षा आज इंसानी जरूरतों में सर्वोपरि है। इसी सोच के तहत इसे इंसान के बुनियादी अधिकारों में शुमार किया गया है। क्योंकि इंसान के रोज़मर्रा के सरोकार भोजन, सेहत, सौंदर्यबोध व व्यवहार  को शिक्षा गहरे से प्रभावित करती है या कर सकती है। इसलिए गुणवत्ता शिक्षा का एक पर्याय यह भी माना गया है कि इंसान ज्ञान आधारित व्यवहार करे। इस शब्दावली में दोनों ही शब्द काबिले गौर हैं। और सीधे ही पता चलता है कि कार्य दो स्तर पर अपेक्षित है।
इसी सन्दर्भ में जब हम मौजूदा शिक्षा प्रक्रिया को देखते हैं तो एक विडंबना साफ नज़र आती है कहीं ज्ञान का बोलबाला है तो कहीं केवल व्यवहार की उपदेशमाला है। ज्ञान को लेकर दृष्टिकोण भी सूचनाओं को किसी भांति रट लेने न कि उसके निर्माण अथवा उसकी निर्मिति के मनोवैज्ञानिक अप्रोच के तहत ग्रहण से है।
ज्ञान और व्यवहार के मध्य गहरी खाई  है। वहीं मनुष्य के समक्ष समस्याएं अपने वास्तविक रूप में वर्तमान हैं और ज्ञान का आभासी स्वरुप है, जो अजस्र (लगातार) भविष्योन्मुखी पर्वतारोहण सरीखा है। जब शिक्षा वर्तमान समस्याओं को अनदेखी करके आगे बढ़ती है, तो या तो उस प्रक्रिया से विश्वास और आनंद समाप्त होता है और टूटन आती है अथवा हम शिक्षा के संकीर्ण हेतु तलाश लेते हैं और उनके साथ आगे बढ़ जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में जीवन के वास्तविक संघर्ष शिक्षा की जद से छूट जाते हैं।
हम पुनः शिक्षा के उसी सूत्र को पकड़ने की कोशिश करते हैं - शिक्षा दरअस्ल ज्ञान आधारित व्यवहार है। यह शब्दावली इंसानी फ़ितरत के दो अलग-अलग छोर पकड़ कर खड़ी है। इसके स्वरुप को समझना जितना आसान हो सकता है इनका परस्पर रूपांतरण एक बेहद जटिल मनोदैहिक (psychosomatic) प्रक्रिया है। इस मनोदैहिक सम्बन्ध को समझ कर उसे शिक्षाशास्त्र में ढालना ही जीवन कौशल शिक्षा का उपक्रम है।
कौशल और उसका निर्माण
औपचारिक शैक्षणिक प्रक्रियाओं में और कभी- कभी जीवन कौशल शिक्षा की प्रक्रियाओं में एक गफलत होने की सम्भावना रहती है कि वह कौशल में तबदीली तक न पहुँच कर मुद्दे की समझ तक ही न रह जाए। प्राय: मूल्यांकन प्रक्रिया में मुद्दे तक आसानी से पहुँच जाती है, व्यवहार तक पहुँचने के लिए फुर्सत वर्तमान मूल्यांकन प्रक्रियाओं में शायद नहीं है, फलस्वरूप प्रक्रिया को मुकम्मल समझ लिया जा सकता है।
कौशल एक मायने में इंसानी सक्रियता का बाईप्रोडक्ट होता है। यह इंसान की चेतन सक्रियता से प्रारम्भ होता है तथा उसकी गतियों-क्रियाओं के अभ्यास के नैरन्तर्य के पश्चात आदतों के रूप में अवचेतन में डुबकी लगा जाते हैं। आदतें मनुष्य के चेतन प्रयासों के पश्चात वे परिष्कृत क्रियाकलाप हैं जिन पर चेतना के नियंत्रण की जरुरत नहीं होती है। इसलिए वे अवचेतन को हस्तगत होते हैं। कौशल वह नियंत्रण है जो इंसान की आदतों या उनके अद्भुत समिश्रणों का प्रयोग किसी कार्य को साधने के लिए करता है। और यह नियंत्रण चेतना से ही किया जाता है। इस तरह कौशल इंसान के चेतन मन का फंक्शन है न कि अचेतन का। इंसान के व्यवहार में कौशल के स्तर पर पैठ के लिए जरूरी है कि उसकी सक्रियता के उत्स व प्रेरण को भी समझा जाए।
ये रूपांतरण जटिल है तो फैसियानेटिंग भी है। यह हर प्रकार के कौशल के लिए सामान है।
बुनियादी जीवन कौशल क्या हैं?
यह निर्धारित करने का विषय स्वयं व्यक्ति का जीवन ही है। इसके आगे यह भी तय करना होगा की जीवन की कौनसी समस्याएं हैं जो उसे गहरे प्रभावित करती हैं। शायद यह भी देखना होगा कि क्या इन समस्याओं में कोई पैटर्न है। ऐसी कौनसी समस्याएं हैं जो उम्र, देशकाल, वर्ग के हिसाब से कॉमन हैं। क्या इनको हल करने के लिए कॉमन संक्रियाएं निर्धारित हो सकती हैं। यदि हाँ, कहीं ये मूलभूत संक्रियाएँ बुनियादी जीवन कौशल तो नहीं। जब हम ऐसे कौशल को पाते और देखते हैं जो बहुत बुनियादी किस्म का हो तो वह निसंदेह बाह्य की बनिस्पत आभ्यंतरिक ही होते हैं।
इंसान अपने जीवन में ज्यादातर जिन समस्याओं से दो चार होता है वे उसके अन्तर्वैयक्तिक संबंधो से जुडी होती है। इन समस्याओं को बेहतर समझने के लिए सोचने समझने के आधारभूत कौशल आधारभूत है। यूँ तो इंसान की विचार प्रक्रिया उसकी सहजवृत्ति है। वह बाह्य जगत को देखकर उसे विचारों में निरंतर रूपांतरित करता रहता है। सोचने समझने को कौशल जिसे रिफ्लेक्टिव स्किल की संज्ञा दी जाती है, वह इंसान की इस विचार प्रक्रिया को सौद्देश्य नियंत्रित व नियोजित करती है। यह एक व्यवस्थित वैचारिक परिघटना है, जिसे इंसान प्रयास व अभ्यास से अर्जित करता है। यह कौशल किसी नए अनुभव को अपने पूर्व अनुभवों व ज्ञान से जोड़कर समझने की सामर्थ्य प्रदान करता है। चूँकि इन अन्तर्व्यक्तिक संबंधो से व्यक्ति स्वयं भी जुड़ा होता है। इसलिए यह अपेक्षा रहती है कि वह तटस्थ होकर भावनाओं से निरपेक्ष स्थिति पर विचार करे।
इंसानी रिश्तों की भी बड़ी द्वंद्वात्मक स्थिति है। इनमें समस्याओं का जाला भी है तो साथ में सहयोग का ताना बाना भी है। इन सहयोग के सूत्रों को पकड़कर रिश्तों में सद्भवनापूर्वक सामंजस्य बैठना वह सामर्थ्य है जिसे प्रभावी सम्प्रेषण कौशल से ही हासिल किया जा सकता है।
सोचना समझना
सहयोग लेना व करना तथा
सद्भावपूर्वक रिश्तों के दरम्यान सामंजस्य बनाना।
ये तीन बुनियादी कौशल हैं जो निःसंदेह इंसान को सामर्थ्यवान बनाते है जिंदगी की राहों पर चलने के लिए।





अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...