Friday, August 18, 2023

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव



 रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंचन हुआ। यह नाटक रंगसंस्कार थियेटर ग्रुप की प्रस्तुति थी। 

पार्क नाटक की इस प्रस्तुति पर क्यों लिखा जाना चाहिए, इसकी कुछेक वजह हैं जो लिखने को प्रेरित करती हैं। पहला कारण तो यह है कि पिछले दिनों इसी रंगमंच पर 75 दिवसीय थियेटर फेस्टिवल अलवररंगम आयोजित हुआ था। जनवरी मध्य में शुरू हुआ यह आयोजन मार्च के अंत में समाप्त हुआ। इस आयोजन ने देशभर  में अलवर थियेटर को एक विशिष्ट पहचान दी और अलवर के दर्शकों के लिए लगभग 90 विविधतापूर्ण नाटकों से रूबरू करवाया। यह सीधा-सीधा एक उपलब्धि के तौर पर देखा जा सकता है। यह निर्विवाद है कि यह आयोजन एक मात्र व्यक्ति देशराज मीणा के प्रयासों से संभव हो पाया। 

लेकिन पार्क की इस प्रस्तुति को ‘अलवररंगम’ के बाई प्रोडक्ट के रूप में देखा जा सकता है। क्यों कि इस लंबी अवधि के आयोजन ने अलवर रंगमंच के वातावरण में जो ऊष्मा पैदा की थी, उस ऊष्मा से यह उम्मीद की जा रही थी कि वह युवा रंगकर्मियों में एक कलात्मक बेचैनी अवश्य पैदा करेगी। यह उसी बेचैनी भरी ऊष्मा से प्रस्फुटित पहला मशरूम जमीन तोड़ कर बाहर निकल कर बाहर आया है। यह प्रस्तुति अपने आप में पूर्णतया ऑर्गैनिक है, जिसे हवा पानी मिले तो यह रचनात्मता कुछ ही दिनों में लहलहाएगी। दूसरी वजह है कि हितेश जैमन पिछले चार - पांच वर्षों से रंगमंच पर सक्रिय हैं। एक अभिनेता के रूप में हितेश जैमन ने बहुत ही उल्लेखनीय भूमिकाएं निभाई हैं लेकिन पार्क नाटक के माध्यम से पहली बार निर्देशन में हाथ आजमा रहे हैं। हितेश जैमन की रंगकर्म को लेकर गंभीरता को देखते हुए लगता है कि उनसे अभी और प्रयासों की उम्मीद की जा सकती है। इसलिए जरूरी है कि इन प्रयासों का मूल्यांकन समीक्षकों द्वारा किया जा सके। 


‘पार्क’ साधारण से कथानक के कलेवर में असाधारण नाटक है। एबसर्ड नाटकों की तरह इस नाटक की शुरुआत एक साधारण से पार्क की तीन बेंचों के इर्दगिर्द होती है तथा इसी सेटिंग पर नाटक समाप्त भी होता है। तीन किरदार अपनी पसंद की बेंच पर एक गैर वाजिब सी लगने वाली बहस करते दिखाई देते हैं। लगभग लगभग एक घंटे की अवधि का यह नाटक अपनी अभिधा और व्यंजना दोनों स्तर पर दर्शकों से मुखातिब होता है। नाटक शुरू में मनोविज्ञान के गहरे सिद्धांतों, मनोग्रंथियों तथा समस्याओं को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करते हुए एक जमीन तैयार करता है और  अचानक वहाँ से टेक ऑफ करते हुए उड़ान भरता है और देश दुनिया के हालत पर नजर डालता चलता है। 


नाटक का प्रारंभ ही मनोवैज्ञानिक धरातल पर होता है। फ्रायड में जब साइकोएनलिसिस के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और मानोविश्लेषणात्मक पद्धति से वह मनोरोगियों का इलाज करते थे। इससे मरीज ठीक तो हो जाता था लेकिन वह अपने डॉक्टर के साथ अलग तरह का जुड़ाव महसूस करने लगता था। बिल्कुल इसी परिघटना को इस नाटक के पहले दृश्य में दर्शाया गया है । उदय पार्क में बैठ कर डॉक्टर की प्रतीक्षा कर रहा है। डॉक्टर कहती है कि अब आपको मेरी जरूरत नहीं है दरअसल आप ठीक होना ही नहीं चाहते हैं। आप मेरे मरीजों में अपने आपको विशिष्ट महसूस करना चाहते चाहते हैं। इसके अलावा वे मतिभ्रम, ओसीडी यानी ऑबसेसिव कॉम्पलशन डिसॉर्डर की बात करते हैं जिसके एक प्रकार में व्यक्ति के मन में आराध्य की मूर्तियों के प्रति अजीब- अजीब विचार आते हैं। नाटक के क्लाइमेक्स में 15 वर्षीय मानसिक विमंदित बच्चे का दृश्य बहुत मार्मिक है। जिसमें हुसैन एक पांचवी कक्षा का विद्यार्थी है और आज वह परीक्षा देने आया हुआ है। हुसैन और उसके पिता पिछले कई सालों से उसके पांचवी पास होने की कोशिश कर रहे हैं। यह बताता है कि आज किस प्रकार विकलांगता से युक्त बच्चों के साथ किस प्व्यवहार किया जाता है। असंवेदनशील व्यवहार इन विशेष बच्चों को समावेशित होने से रोक देता है, जिससे उन्हें विशेष विद्यालयों पर निर्भरता के लिए मजबूर करता है। इससे समावेशी शिक्षा का सपना पीछे छूट जाता है। 

नाटक विस्थापन के मुद्दे को बैंचों की अदला बदली के रूपक से बखूबी बयान करता है। केवल कहने के स्तर पर नहीं बल्कि समानुभूति के स्तर पर। काफी जद्दोजहद के बाद नवाज जब अपनी बेंच मदन के लिए छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है जब उससे विनम्रता से उठने का आग्रह करता है। लेकिन उदय अपनी बेंच खाली करने को तैयार नहीं होता। वह कहता है कि उठाना महत्वर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है उठाया जाना, आप उन्हें थोड़ा गुस्से से उठाइए। इस प्रकार मदन यकायक नवाज का गिरेबान पकड़ कर झटके से उठा देता है। पूरा प्रेक्षागृह स्तब्ध रह जाता है। सहज ही दर्शक आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने के दर्द को समानुभुति के स्तर पर महसूस कर लेते हैं। अपने कथ्य तथा शिल्प की इन्हीं विशेषताओं के कारण यह नाटक बहुमंचित नाटकों में शुमार है।

इस मंचन के अभिनेताओं की रंगमंच पर उपाथिति  पिछले एक दो वर्ष से है। सभी में ताजगी है। निखिल कुमार , हरीश और राहुल गुप्ता नाटक की मुख्य भूमिकाओं में थे। तीनों ही पिछले दिनों से मंच व मंच पार्श्व की भूमिकाओं में रंगसंस्कार के देशराज मीणा के साथ सक्रिय है। इनके साथ मंच पर डॉक्टर की भूमिका में दीक्षा सोनी थीं। दीक्षा नई हैं और उन्होंने अपनी छोटी भूमिका में भी उपस्थिति दर्ज कराई। बाल कलाकार के रूप में सुहास बत्रा ने दर्शकों का ध्यान अपनी ओर बखूबी खींचा। उदय की भूमिका में हरीश को टेक ऑफ करने में थोड़ा व्यक्त जरूर  लगा लेकिन वे जब गति पकड़ते हैं अपने अभिनय से नाटक को अंत तक बांधे रखते हैं। राहुल सोनी का अभिनय प्रभावशाली रहा। उनकी भूमिका की बुनावट ही ऐसी है कि वह गुदगुदाता भी है और गहरी बात भी कहता है। यह राहुल का अभिनय में पहला प्रयास था। मदन के चरित्र को निखिल ने बखूबी निभाया। उनके अभिनय में परिपक्वता दिखाई देने लगी है। यद्यपि वे क्लाइमेक्स वाले दृश्य में, जिसमे वे कहते हैं, “... आप लोगों ने सब कुछ खत्म कर दिया॥” इस दृश्य  में उनका दर्द और फूट कर सामने आ  सकता था। सभी अभिनेताओं को इस तरह की गंभीर भूमिकाओं के और अवसर मिलने चाहिए। 

हितेश जैमन का निर्देशन में यह पहला प्रयास बहुत उम्दा था। पूरी प्रस्तुति में कसावट और गति थी। वे पहले भी इस नाटक में बतौर अभिनेता काम कर चुके हैं। यह बहुत मुश्किल होता है कि पूर्व अनुभव को अपने व अपने अभिनेताओं पर हावी न होने देना। उन्होंने सेट व संगीत में भी अभिनव प्रयोग किए। इसलिए उनकी प्रस्तुति में ताजगी दिखाई देती है। यद्यपि नाटक के कलैमेक्स वाले सीन में जहां मदन और उदय बैंच हासिल करने के लिए गुत्थम गुत्था होते हैं, वह दृश्य थोड़ा लाउड हो गया था। इससे नाटक के चरम बिन्दु पर नाटक की दार्शनिक गंभीरता थोड़ा समय के लिए बाधित होती है। यदि समेकित टिप्पणी करें तो नाटक संतुलित था और वे अपने पहले प्रयास में सफल दिखाई देते हैं। देशराज मीणा की प्रकाश व्यवस्था ने इस चा क्षुस अनुभव को और रमणीय बनाया। विनीत भारती व दिनेश चंदनानी की मंच व्यवस्था सराहनीय थी। दीक्षा सोनी की वस्त्र और रूप सज्जा ने मदन के चरित्र को रूपायित करने में बहुत मदद की । 


लेखन : दलीप वैरागी 

मोबाइल 9928986983 




Thursday, September 24, 2020

रसोड़े में कौन था : कविता

#Rasode_Mein_Kaun_Tha

रसोड़े में कौन था?

इस सवाल का जवाब इंसानियत की पीठ में 

धंसा हुआ है बेशर्म इतिहास -सा। 

वर्तमान की छाती पर है किसी अतार्किक चट्टान-सा। 

देख सको तो भविष्य की पेशानी पर भी 

उभर आता है कभी - कभी

भयानक सपने की तरह।  


रसोड़े में कौन था ?

रसोड़े में "था" कभी कोई न था 

वहाँ केवल "थी" थी 

वहाँ केवल "थी" है आज भी 

वह हमेशा से है 

दुनिया के  पहले कैलेंडर की पहली तारीख से भी पहले 

शायद सभ्यता के पहले बिंदु से 

रसोड़े में केवल वही 'थी'

उसने चूल्हे पर 'खाली कूकर' चढ़ा रखा है 

जिसमे वह खौला रही है - 

अपने सपने 

अपनी अपनी इच्छाएँ 

अपनी आकांक्षाएँ 

अपने सुख 

इससे जब भी फुर्सत मिलती है  वह प्रसव करती हैं -

संततियाँ  

आगे बढ़ाती  हैं वंशबेलें 

सेती हैं उनके  सपने 

सींचती हैं उनकी की इच्छाएँ 

उनकी  महत्वकांक्षाएँ  

पालती-पोसती है निरंकुश तानाशाह भी

अपने पूजक 

अपने भंजक 

अपने प्रवंचक 

रसोड़े में आत्म प्रवंचना का विधान है।   


रसोड़े में कौन है ?

रसोड़े में एक अर्थशास्त्र है 

जो चुराता आ रहा है 

आधी आबादी का श्रम

अर्थशास्त्र का कोई भी शब्द -

बंधुआ मजदूरी, बेगारी, बेकारी बेरोजगारी .... 

नाकाफी हैं इस लूट को व्यक्त करने के लिए 

श्रम की इस लूट से

गिरता उठता नहीं है 'सकल घरेलू उत्पाद' 

इस लूट पर  नहीं है किसी भी राष्ट्रीय मीडिया पर  वाद-विवाद 

रसोड़े में श्रम की चोरी का अर्थशास्त्र है। 


रसोड़े में कौन है ? 

रसोड़े में एक पाँच - छः साल की छोटी महिला है 

उसके हाथ में किचन-सेट के छोटे खिलौना बर्तन हैं

खेलते- खेलते वह बड़ी हो रही है 

उसके किचन सेट भी उसके साथ बड़े हो गए हैं 

जो  बाहर  की ओर जाने वाली राह में खड़े हो गए है।

अब उसके लिए दो दुनिया हैं 

एक रसोड़े के अंदर और दूसरी उससे बाहर 

रसोड़े में दुनिया का विभाजन है।  

 

रसोड़े में कौन है ?

देगची में छोंक की मधुर झंकार है 

रोटी से उठती   महक  का अम्बार है

इन दोनों से निर्लिप्त दो आंखे दीवार पर टंगे कैलेंडर पर टिकी हैं

जिसमे रचे गए हैं उसके लिए - 

अमावस पूनम 

तीज,  चौथ, 

ग्यारस बारस 

सोमवार , शनिवार... 

सप्ताह में तीन बार, चार बार  

निराहार, अल्पाहार 

निर्जला व्रत और त्योहार 

दरअसल रसोड़े में आधी आबादी को भूखा रखने का 

एक समाज शास्त्र है।  

लेखन : दलीप वैरागी 

मोबाइल 9928986983 

 




 


 

Thursday, September 17, 2020

बहुभाषी भारत और हिन्दी

 यह ब्लॉग 14 सितंबर 2020, हिन्दी दिवस के उपलक्ष पर लिखा था। इसे आपके लिए पोस्ट कर रहा हूँ। 

यदि आप इस विषय पर ही मेरा वीडियो देखना चाहते हैं तो यहाँ उसका लिंक भी दिया जा रहा है। 



आप सभी को हिंदी दिवस की बहुत - बहुत शुभकामनाएं। उम्मीद है कि हिंदी शीघ्र ही जन भाषा के रूप में आगे बढ़े।

किन्तु हिंदी दिवस पर केवल शुभकामनाए देने व नारा लगा देने भर से काम नहीं चलेगा। हिंदी के बारे में सोचना होगा। हिंदी भाषा की क्या ताकत है? उसका दूसरी भाषाओं से क्या रिश्ता है?

आज के ब्लॉग में हम हिंदी के बारे में बात करेंगे। 

हिंदी दिवस के आसपास हम स्कूलों व कालिजों में हिंदी दिवस पर कार्यक्रमों को इस भावनात्मकता के साथ आयोजित करते हैं कि हिंदी भाषा को मातृभाषा का पर्याय ही बनाकर बच्चों के सामने स्थापित कर देते हैं। एक स्तर पर यह सच्चाई भी लगती है। क्योंकि हमारे स्कूलों में अधिकतर बच्चे हिंदी बोलने वाले ही होते हैं। लेकिन सब बच्चे हिंदी बोलने वाले हैं तो इसका कतई यह पर्याय नहीं कि सब बच्चों की मातृभाषा भी हिंदी ही हो। 

यूँ भी मातृभाषा का नोशन अब बदल गया है। वह दिन अब नहीं रहे जब बच्चे की माँ से सुनी भाषा बच्चे के परिवार व परिवेश की भाषा एक ही होती थी। अब समाज व समय बहुत बदल गए हैं। आज बच्चे बहुभाषी परिवार व समाज में बड़े हो रहे हैं। बहुत से परिवारों में माँ की भाषा अलग है पिता की भाषा अलग है तथा जिस परिवेश में बच्चे रह रहे हैं वहाँ की भाषा अलग है। बच्चा बहुत सहजता से तीनों भाषाओं को सीख लेता है। बच्चा उन सभी भाषाओं में अंतर करके समझ लेता है लेकिन भेद नहीं करता। भेदभाव तो आरोपित किए जाते हाँ बड़ों के पूर्वाग्रहों से भरे व्यवहार के द्वारा। जब बच्चा समांतर रूप से तीन चार भाषाओं को बचपन में ही सीख लेता है, तब मातृभाषा किसे कहेंगे ?

क्या माँ की भाषा को मातृभाषा कहेंगे?

पिता की भाषा को मातृ भाषा कहेंगे?

परिवेश की भाषा को मातृभाषा कहेंगे?

जिन परिवारों में साल-छह महीने के लिए पलायन होता है उन परिवारों के बच्चे एक अतिरिक्त भाषा सीख जाते हैं। 

कहने का मतलब यह है कि हिंदी भाषा के साथ जुड़ी अपनी प्रेमभरी भावना के बावजूद यह कहना चाहता हूं कि हिंदी बच्चे पर या किसी दूसरे समुदाय पर थोपी हुई भाषा बनकर आगे न बढ़े। वह बच्चे की नेटिव भाषाओं के साथ मिलकर आगे बढ़ सकती है। भाषाओं का आपस में गजब का आदान-प्रदान होता है। उनमें टकराव नहीं होता। दुनिया कि किसी भी भाषा का दूसरी भाषा से स्वाभाविक कोई टकराव नहीं होता है। वे एक साथ आगे बढ़ सकती हैं। हिन्दी व अँग्रेजी भाषाओं को विस्तार हुआ है तो इसलिए कि इनहोने अपने दायरों को संकीर्णता में नहीं बांधा बल्कि जिस भी भाषा से जो शब्द आया उसका स्वागत किया और अपना बना लिया। सारा का सारा टकराव राजनैतिक है। यह कोई जरूरी नहीं कि एक भाषा को मार कर दूसरी भाषा आगे बढ़े। किन्तु अफसोस यही है कि भाषाएं रोज मर रही हैं। यह तब होता है जब भाषाओं में सीमाओं में बांधने की कोशिश की जाती है। जब कोई भाषा किसी धर्म, जाति या समुदाय की पहचान से बांध दी जाती है तो उसका विकास रुक जाता है।

अंत में पुनः सभी को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं।l

https://youtu.be/iZGpGt7RqmY


Saturday, August 15, 2020

दुनिया एक रंगमंच है : जुमले के निहितार्थ स्तानीस्लावस्की (Stanislavsky's The Unbroken Line) के बहाने से

रंगमंच से अपेक्षा है कि यहां स्वतंत्र चिंतन होता रहना चाहिए । स्वतंत्र चिंतन से एक आशय यह ही है कि रंगमंच पर वैचारिक मंथन के पश्चात ही चीजों को लोगों तक ले जाएँ। आशय यह भी है प्रचलित जुमलों नारों को पहले समझें और उनके निहितार्थ लोगों के सामने भी रखें। 

एक जुमला है जिसे रंगमंच के संबंध में हर कोई प्रयोग करता है, "दुनिया एक रंगमंच है और हम उसके किरदार हैं।" आज हम इस जुमले को समझेंगे। जैसे एक वीडियो में हमने "जय रंगकर्म" पर विचार किया था। 

यदि आप उस वीडियो को देखना चाहते हैं तो यहाँ उसका लिंक दिया गया है।



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"दुनिया एक रंगमंच है" या फिर "जीवन एक रंगमंच है" जैसे वाक्य अक्सर लोगों द्वारा प्रयोग किए जाते हैं। इसका आशय लोक के संदर्भ में तो सब समझते हैं । हम इसको नाट्य सिद्धांतों के संदर्भ में देखेंगे। इस संदर्भ में आप अपने रोजमर्रा की जिंदगी को देखेंगे तो अभिनय के लिए आपको बहुत-सी अंतर्दृष्टि मिलेगी। उदाहरण के तौर पर आप इसे ऐसे समझें। आप अपने दोस्त के साथ कभी स्कूल में होते है, फिर बाजार में भी कुछ समय साथ होते हैं और कभी-कभी आप अपने दोस्त के साथ उसके घर भी चले जाते हैं। अब आप अपने तीनों जगह होने को विश्लेषित कीजिए। वहाँ किए गए व्यवहार को देखिए। एक-सा रहता है या संदर्भ के साथ बदलता है?

क्या तीनों जगह दोस्त के साथ आपकी भाषा एक जैसे होती है? तीनों जगह आपका शब्द चयन कैसे बदल जाता है। क्या आपकी अपने मित्र के साथ बॉडी लैंग्वेज वैसी ही उसके घर पर भी होती है जैसी कि बाजार या रास्ते में थी? आप देखेंगे कि आपका किरदार तीनों जगह चमत्कारिक रूप से बदल जाता है। 

यह अलग-अलग रूप धरने में हम इतने सिद्धहस्त कैसे हो जाते हैं? जगह, संदर्भ बदलते ही कैसे अलग भाषा, अलग शब्दावली, अलग टोन, अलग मुहावरे, अलग भंगिमाएं अपना लेते हैं? अगर इसे हम समझ जाएं तो हमें अपनी नाट्य भूमिका में जाने का बीज यहां से कुछ हद तक मिल सकता है। दरअसल यह हम इसलिए कुशलता से कर लेते हैं क्योंकि दोस्त के साथ साहचर्य से हम उसके संदर्भ, पर्यावरण को समझने लगते हैं। उसके साथ व्यवहार के विभिन्न बिंदु निर्धारित करते चलते हैं। इन्ही बिंदुओं को मिलाकर विभिन्न एक्शन की एक अविभाज्य रेखा का निर्माण कर लेते हैं। इसी कार्यशृंखला के साथ दूसरी चीजें जो अचेतन में पहले से विद्यमान हैं, जुड़ती चली जाती हैं। जैसे भाषा, शब्द, टोन, शारीरिक भंगिमाएं। इसी कार्य श्रृंखला को ही तो स्तनिस्लावस्की The unbroken line of actions कहते हैं। सतानिस्लावस्की कहते हैं आप अपनी भूमिका में तब जा सकेंगे जब आप उस कार्यशृंखला की अटूट रेखा को बना सकेंगे। उनका कहना है कि स्क्रिप्ट में दिया गया किरदार अधूरा होता है। उसके जीवन का बहुत छोटा हिस्सा ही आलेख में होता है जबकि किरदार के जीवन का कैनवास विशाल व विस्तृत है। वो कहते हैं कि आप देखिए कि आपका किरदार तब क्या करता है जब वह दृश्य में नहीं होता है। यानि स्टेज पर नहीं होता है। जो दृश्य दिया हुआ है, उस वर्तमान के साथ अतीत से होते हुए भविष्य तक एक अविभाजित रेखा गुजरती है। यह रेखा वर्तमान में तो दिखती है लेकिन अतीत व भविष्य में अदृश्य है। इस रेखा को अभिनेता को अपनी किरदार की समझ के आधार पर कल्पना के सहारे उभरना होता है, अपने मन में। मसलन उसकी भूमिका का किरदार सभी काम करता है - सोता है, दौड़ता है, तैरता है, नहाता है, खाता है, पीता है। उन सभी क्रियाओं पर आपको गौर करना होगा कि वह यह सब कैसे करता होगा। तभी आप unbroken line ऑफ एक्शन तैयार कर सकेंगे। जब आपके मन में यह तरतीब बन जाती है तो आप सहज पात्रानुकूल भूमिका में जाकर अभिनय करने का एक मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। अपने वास्तविक जीवन में हम सम्पूर्ण जीवन के फ़लक से परिचित होते हैं तो यह unbroken line अनायास ही बन जाती है किन्तु नाटक में अभिनय के लिए हमें पाठ से बाहर झांकना पड़ता है। 

इसके अतिरिक्त भी स्तनिस्लावस्की ने और भी तकनीकें बताई हैं उनका अभी किसी और संदर्भ से जिक्र करेंगे।

(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें।  इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा  मेरी नाट्यकला व  लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। यदि आप चाहते है कि भविष्य में भी ब्लॉग पोस्ट मिलते रहें तो पोस्ट की दायीं ओर Follow बटन को दबाएँ) 

दलीप वैरागी 
09928986983 

 



Tuesday, August 4, 2020

नुक्ते का उच्चारण और उच्चारण का नुक्ता

इस विषय पर वीडियो देखने के लिए क्लिक करें

बात शायद लगभग 20 साल पहले की है जब हम एक जुनून के साथ थियेटर में लगे हुए थे। थोड़ा वरिष्ठता का भान भी हो चला था और हर नए जने को सिखा देने वाला जोश  भी था। एक बार एक नाटक का चयन किया जिसमें उर्दू के शब्द अधिक थे।  उच्चारण में परेशानी होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि अरबी फारसी की कुछ ध्वनियां हिंदी में नहीं हैं। 

हमने भी एक दिन भाषा की पाठशाला खोल दी। बताया कि बहुत उर्दू की पांच वर्णमाला की पांच ध्वनियों पर उर्दू के शब्दों पर नुक्ता लगाकर उच्चरण किया जाता है-क़, ख़ ग़, ज़, फ़ और फिर ध्वनियों के उच्चारण की लंबी कवायद शुरू हो गई। लगा कि सब कुछ ठीक रहा। कुछ दिन रिहर्सल की भी आई गई हो गई। फिर एक दिन अभिनेताओं से मिले तो एक-दो के उच्चारण अपनी बातचीत में नुक्तों की बौछार कर रहे थे। जिन शब्दों में नुक्ते नहीं लगते वे शब्द भी नुक्तों से सुशोभित हो रहे थे।

समझ मे आया कि यह गफलत भाषा की पाठशाला में ही हो गई। 

  1. दअसल उच्चारण में शुद्ध अशुद्ध जैसा कुछ नहीं होता है। भाषा में हमेशा ताजगी बनी रहती है। वह कभी बासी नहीं होती क्योंकि वह बदलती रहती है। 

  2. हमे लगा कि भाषा एक जीवंत माध्यम है और हमने उसके साथ छेड़छाड़ कर दी। दरअसल हमें करेक्टर की भाषा के बदले में एक्टर की भाषा में छेड़छाड़ कर दी। जबकि एक्टर की भाषा एक जीवंत भाषा है जो सदियों की यात्रा तय करके उस तक पहुंची है। उसको हम सुधारने बैठ जाते हैं। उसके जीवन मे गजल और ग़ज़ल दोनों शब्द एक साथ रह सकते हैं। हो सकता है उसका गजल उसकी बोली में किसी लोक कलाकार की गायकी से आया हो। हो सकता है अरबी फारसी का कोई शब्द कबीर की सधुक्कड़ी इंजिनयरिंग से उसकी भाषा मे आया हो तो अब आप उसकी मरम्मत करने मत बैठिये। अब आप उसे ग़ालिब  वाला ग़ज़ल का भी उच्चारण बता दीजिए। हम सब मल्टीकिंगऊअल होते हैं दोनों को एक साथ सहेज का रख सकते हैं और प्रयोग भी कर सकते हैं। यहीं इंसान का जबरदस्त भाषाई कौशल है। हमें अभिनेता की अपनी भाषा का एहतराम करना चाहिए।

  3. दरअसल इन अभिनेताओं ने ध्वलियों का निरर्थक अभ्यास कर लिया

  4. आम तौर पर हम भाषा मे शब्दों का उच्चारण करते हैं, ध्वनियों का नहीं ध्वनियों को हम समझने के लिए अलग करके देखते हैं। इसलिए ध्वनियों का उच्चारण अभ्यास शब्दों में ही हो शब्दो से बाहर नहीं। शब्द ही भाषा की सार्थक उच्चारण इकाई है। 

  5. हमें यह कहने से बचना होगा कि नुक्ता ग, ख, फ पर लगा है बनिस्पत यह बताना चाहिए कि ये अलग ही ध्वनियां हैं। अन्यथा अभिनेता अनावश्यक नुक्ताकरण की प्रवृत्ति पकड़ लेगा। 

Sunday, July 19, 2020

Why newly joined actors don't like to do backstage

नए अभिनेता बैकस्टेज (Backstage) नहीं करना चाहते हैं ?

Why newly joined actor don't like to do backstage

अभी पिछले दिनों थियेटर की एक वेबिनर से जुड़ा था। वहाँ किसी रंगकर्मी ने प्रश्न किया था। थियेटर से नए - नए जुड़ने वाले अभिनेता Backstage क्यों नहीं करना चाहते हैं ? इस प्रश्न का उस समय जो जवाब बना मैंने देने की कोशिश की थी किन्तु मुझे लगा कि इस प्रश्न पर एक रंगमरमी के तौर पर और मंथन करना चाहिए। 

भाषा की दृष्टि से समस्या का बयान 

अगर शब्दावली पर गौर की जाए तो Backstage शब्द में ही दिक्कत है।  क्योंकि Back एक तुलनतमक शब्द है  जो पीछे होने का आभास कराता है। इसके मतलब को समझने के लिए उस स्थिति को समझना पड़ता है कि किससे पीछे ? .... दरअसल हमारे यहाँ आगे-पीछे .... ऊपर-नीचे... बड़ा-छोटा जैसी शब्दावलियों के शब्दकोशीय अर्थों के अलावा समाजशास्त्रीय पर्याय भी होते हैं और ये समाज शास्त्रीय पर्याय अलग संदर्भों में भी अर्थ ग्रहण को प्रभावित कर जाते है। यह अर्थ भंगिमा हमारे चिंतन और चीजों को देखने के दृष्टिकोण को भी प्रभावित करती हैं। यह तो समस्या को भाषा वैज्ञानिक रूप से देखना हुआ। अब नाट्यशास्त्र के अनुसार देखते हैं। 

नाट्यशास्त्र क्या कहता है 

नाट्यशास्त्र के अनुसार देखें तो वहाँ अभिनय को Onstage या Backstage में बाँट कर नहीं देखा गया है। यहाँ हर चीज़ सेंटर स्टेज है। कोई आगे-पीछे नहीं, ऊपर-नीचे नहीं। यहाँ नाटक का एक बड़ा छाता है, जिससे भरत मुनि ने विविधरूपा कलाओं को  पूरे सम्मान के साथ आच्छादित कर दिया है। 
थियेटर से नए जुडने वालों का Backstage की गतिविधियों से न जुड़ पाने का एक और कारण अभिनय को लेकर भ्रांत धारणा है। उनकी नजर में अभिनय का आलंबन केवल मंच के ऊपर आकर चल फिर रहा तथाकथित अभिनेता ही है। उसके अलावा जो भी कार्यव्यापार है वह अभिनय नहीं है। जाने अनजाने में हम तथाकथित वरिष्ठ रंगकर्मी भी उनकी इस धारणा को मजबूत ही करते हैं। दरअसल नाट्यशास्त्र रंगमंच की परिधि में लगभग सभी आयामों को अभिनय के चार रूपों यथा आंगिक, वाचिक, आहार्य तथा सात्विक में ही समेट  कर रख देते हैं। फिर यह आगे व पीछे का भाव ही समाप्त हो जाता है।   नए शामिल होने वाले अभिनेताओं को शुरू में ही थियेटर की यह  वृहद तस्वीर दिखानी चाहिए। केवल अभिनेता ही रंगमंच का केंद्र नहीं जैसा कि दिखाई देता है। यद्यपि Stanislavsky भी अभिनेता को केंद्र में रख कर अपना अभिनय सिद्धान्त रचते हैं लेकिन वे अभिनेता को मंच दूसरी चीजों से इस कदर बांधते हैं कि उसमें वह अलगाव पैदा ही नहीं हो सकता है। 

क्या होना चाहिए  

जब भी नए अभिनेता थियेटर से जुडते हैं तो वे अपने साथ एक समृद्ध कलात्मक अनुभव या कौशल लेकर आते हैं। निर्देशक उन्हें रिक्त पात्र मान कर नए ज्ञान से स्नान करना शुरू कर देते हैं। जबकि निर्देशक को नए जुडने वाले कलाकार का एक Baseline assessment करना चाहिए कि 
वह किस विशेष हुनर को अपने में धारण किए हुए है?
वह हुनर किस स्थिति में है?
उस हुनर को किस दिशा में आगे बढ़ाया जा सकेगा?
रंगमंच पर वह दक्षता किस रूप में अपना योगदान दे सकेगी?
यदि निर्देशक उपरोक्त बातों पर गौर करके आगे बढ़े तो वह उस यक्ष प्रश्न का समाधान पा जाएगा कि "क्यों लोग Backstage नहीं करना चाहते? 
यदि नए जुडने वाले कलाकार की रुचियाँ, रुझान व कौशलों को रंगमंच की प्रक्रिया (प्रस्तुति निर्माण ) में स्थान व महत्व मिलेगा तो वे अवश्य जुड़ना चाहेंगे।  

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दलीप वैरागी 
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अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...