Wednesday, June 29, 2011

अखबार या इश्तिहार !

इलैक्ट्रोनिक मीडिया के चेहरे के बारे में मुख्तसर सी जानकारी मैंने पिछले पोस्ट में दी थी. आज प्रिंट मीडिया के बारे में लिखने के लिए मुझे आज के अखबार ने मजबूर कर दिया . दरअसल आज सुबह जब मैंने अखबार उठाया तो उसके मुख पृष्ठ एक भी ख़बर नहीं थी. पहले पन्ने पर पूरे पेज का इश्तिहार था. पिछले साल भर से अखबारों का चेहरा इतनी जल्दी से बदला है कि अब कोई चेहरा रहा ही नहीं महज इश्तिहार हों गया है. यह किसी एक अखबार की बात नहीं है बल्कि यह हर नेशनल मीडिया कहलाने वाले अखबार की कहानी है चाहे वह हिंदी का हों या अंग्रेजी वाला. अखबार का मुख पृष्ठ उसका मैनिफेस्टो होता है. हर सुबह पाठक जब सारे दिन की भागदौड़ में शमिल होने जाने से पहले नजर भर अखबार को देखना चाहता है कि उसके अखबार ने किस घटना को प्रमुखता देते हुए सुर्खियों में रखा है; चाय की गुमटी और बस की सीट पर बैठा कोई व्यक्ति जब अपना सिर जब अखबार में दे पढ़ रहा होता है तो बगल में बैठा भी कोई  तिरछी नजर से अखबार की सुर्खियाँ देख लेता है. लेकिन आज पाठक को हर तरफ इश्तिहार ही दिखाई देते है चाहे अखबार का पहला पन्ना हों या सडक का किनारा . अखबार और होर्डिंग में कोई फर्क नहीं रह गया है . जब मुख पृष्ठ के पूरे पन्ने पर किसी बिल्डर, सीमेंट, गाइड बुक और कोचिंग संस्थान के इश्तिहार से पूछता हूँ की खबरें कहाँ हैं तो ऐसा लगता है कि मानो वह इश्तिहार कह रहा हों , ‘कंगाल तेरे खर्चे हुए तीन रुपयों से यह अखबार नहीं चलता है; यह चलता है इस विज्ञापन से.’  सही बात है कि जिनके पैसे से अखबार चलता है पहला पन्ना भी उसका ही होगा . यह सही है कि आज मीडिया में विज्ञापनों से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन एक बुनियादी तमीज़ तो रहनी चाहिए कि क्या कहाँ छपना चाहिए.  ऐसी स्थिति में कैसे कहा जा सकता है कि अखबार जनता आवाज है? अखबार लोकतंत्र की आवाज़ है ? कहने को कह सकते हैं लेकिन कहने से आवाज़ में असर नहीं आएगा. आवाज़ में असर के लिए तो मुख पृष्ठ पर अखबार के असली चेहरे को ही आना होगा . उस चेहरे को जो होना चाहिए. अखबार जनता के सरोकारों से तभी जुड़ेगा जब उसका काम पाठक की जेब से निकले पैसे चलेगा.

Monday, June 27, 2011

मीडिया का असली चेहरा कौनसा है ?

आज शाम को जब मैं टीवी पर न्यूज़ देख रहा तब बड़ी अज़ीब व हास्यास्पद स्थिति पैदा हों गई.  मैं पहले उस टीवी स्क्रीन के बारे में आपको बता दूँ जो किसी भी न्यूज़ चैनल पर दिखाई देती है . दरअसल समाचार चैनल टीवी स्क्रीन को दो तीन भागों में बाँट देते हैं, एक विंडो का मुख्य भाग होता है जहाँ ख़बर का विडियो  दिखाई देता है. दूसरा भाग वह पट्टी है जो मुख्य विंडो के नीचे होती है जिसमे ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलती रहती है या फिर सारा दिन प्रसारित होने वाले न्यूज बारी-बारी से ब्लिंक होते रहते हैं. मसला दरअसल यह है कि आज शाम से ही सभी न्यूज़ चैनलों पर उत्तर प्रदेश पुलिस अफसरों द्वारा टीवी पत्रकारों की पिटाई की ख़बर प्रमुखता से आ रही थी. निसंदेह यह बहुत ही निंदनीय घटना है. समाचर प्रस्तुतकर्ता लगातार उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को  कोस रहे थे.  यह गिन-गिन कर बताया जा रहा था कि पिछले दिनों यू.पी. में कहाँ व कितने अपराध हुए हैं.  ये सभी चल रहा था तभी एक लंबा विज्ञापन मुख्य विंडो पर प्रकट होता है जिसमे यू.पी. सरकार के विकास कार्यों का महिमामंडन था . इस विज्ञापन ने मुख्य समाचार जो कि एक पत्रकार से बदसलूकी का था, को नीचे की पट्टी पर धकेल दिया . टीवी की स्क्रीन पर दो जगह पर दो विपरीत बाते चल रही थीं -
मुख्य विंडो पर विज्ञापन के रूप में  -
यू.पी. में सुराज आया है …लोगों को रोजगार मिले … सड़क निर्माण… शिक्षा, चिकित्सा, आवास … अमन चैन कायम हुआ… मजदूरों, किसानों, व्यापारियों के हित की रक्षा …कानून व्यवस्था तथा पक्षपात रहित न्याय लोगों को मिला है …इत्यादि .
नीचे की पट्टी पर -
पत्रकार पर हमला … यू.पी. पुलिस द्वारा पत्रकारों को पीटकर धमकाया … लोकतंत्र पर पर हमला … जनता की आवाज पर हमला …जंगलराज …इत्यादि .
ये दोनों संदेश एक ही स्क्रीन पर एक साथ चल रहे थे .  मैं दोनों में किसी को सही या गलत नहीं ठहरा रहा मैं तो यह जानना चाह रहा हूँ कि इसमें से मीडिया का असली चेहरा कौनसा है ?

Friday, June 24, 2011

“जूनियर बच्चन आने वाला …” उर्फ़ शर्म मीडिया को मगर आती नहीं !

अमिताभ बच्चन ने ट्वीट करके यह घोषणा की है कि वे दादा बनने  वाले हैं | जैसा कि ऐसी ट्वीट के साथ होता है इसे न्यूज चैनल वाले तुरंत ले उड़े और जोर शोर से प्रसारित किया | एक प्रमुख न्यूज चैनल की खबर कुछ इस तरह थी, “ जूनियर बच्चन आने वाला वाला है |”  यह समाचार प्राइम टाइम में मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में चैनल पर दिखाई देता रहा | चैनल वालो की नज़रें क्या अब इतनी रेडियोधर्मी हों गयी हैं कि वो गर्भ में ही जान लेती हैं कि लड़का आने वाला है | क्यों क्या यह वाक्य ऐसा नहीं हो सकता , “ जूनियर बच्चन आने वाली है |” या यहाँ कोई और भाषाई विकल्प हो सकता है जिसमे जेंडर को लेकर पूर्वाग्रह नहीं हों | क्या न्यूज चैनल वालों के पास कायदे के पढ़े लिखे लोग नहीं बचे हैं जो भाषा का सतर्कता से इस्तेमाल कर सकें ? मुझे अच्छी तरह याद है कि अभिषेक – ऐश्वर्या  की शादी के बाद किसी मंच से अमिताभ ने कहा था की ‘ मुझे जल्दी से एक पौता दे दो …’ उस वक्त इन्हीं चैनल वालों ने जमकर अमिताभ की खिंचाई की थी कि इस देश का सुपर स्टार लड़के की कामना कर रहा है ना की लड़की की | अमिताभ बहुत विचक्षण व्यक्ति हैं वे एक गलती को दुबारा नहीं दोहराते इस बार उन्होंने बहुत सोच समझ कर वक्तव्य दिया है भले ही वे चाहते कुछ भी हों |  लेकिन एक बात जरूर है कि इस बार मिडिया वालों की वैचारिक गरीबी पर हँस जरूर रहे होंगे | बहुत दिनों बाद कुछ मसाला मिला था चैनल वालों को इसलिए वे इस खबर को खूब खींचना  चाह  रहे थे | फील्ड से लाइव रिपोर्टिंग भी शुरू हों गई; रिपोर्टर पूछता है ‘ बिग बी के घर किलकारी गूंजेगी इस बारे में आपको क्या कहना है |’ जनता भी आखिर जनता है … लोग कह रहे थे ‘ बच्चन साब के पौता आ रहा है हमें इस बात की बहुत खुशी है …|’  सुपर स्टार, जनता, मिडिया इनमे और चाहे हजारों विविधताएं हों लेकिन इस दिमागी कंगाली में सब बराबर हैं | सारी तथाकथित तरक्की के बावजूद आज भी हमारे घरों में लड़की की पैदाइश अयाचित है | दरअसल जेंडर विभेद की जड़ें हमारे सामूहिक अवचेतन में इतनी गहरी है कि हमारा एक नजरिया बन गया है | खासकर हिंदी भाषा में तो यह कई स्तर पर है | जहाँ हमारी परवरिश में तो यह घुट्टी की तरह तो आता ही है इसके अलावा भाषा में हर चीज़ के लिए जेंडर है संज्ञा में जेंडर, क्रिया में जेंडर विशेषण में भी जेंडर… यहाँ सब वाक्य ता या ती पर खत्म होते हैं | आपको हर स्टेटमेंट को किसी पाले में रखना ही होगा | न्यूट्रल जेंडर स्टेटमेंट बनाने के लिए बहुत जोर आता है | भाषा सोचने का टूल होती है और जब टूल ही ऐसा हों तो सोच में एक बेचारगी तो दिखाई देगी ही | इसी लिए जब हम किसी भूमिका या काम का नाम लेते हैं तो उनके लिए हमने शक्ले पहले ही सोच  रखी है | किसान का नाम लेते ही कोई लंगोटी वाला पुरुष दिमाग में क्यों आ खड़ा होता है कोई महिला क्यों नहीं ? नर्स के नाम पर महिला का ही पोर्ट्रेट क्यों उभरता है | क्यूँ आज भी हमने भूमिकाएं महिला पुरुष के नाम पर फिक्स कर रखी हैं | जबकि महिलाऐं हिमालय चढ़ चुकी हैं, समन्दर लाँघ चुकी हैं | दरअसल इस जहालत से निकलने की जद्दोजहद कई तरह की होगी -विचार भाषा और व्यवहार | तब जाकर हम एक समता मुल्क समाज की स्थपना कर सकते हैं |

Sunday, June 19, 2011

आदतें हमारे शरीर में किसी अंग-सी उग आती हैं |


“पोलिथिन के संदर्भ में मैं इतना ही कहूँगा की जब यह समझ आता है ‘फला चीज बेकार है तब तक वह जन-जन की आदत बन चुकी होती हैं’| जब तक आदत में आने से पहले पता नहीं किया जाता यह हानिकारक है या नहीं तब तक इस तरह की दुविधाओं से सामना होता रहेगा |”
उपरोक्त टिप्पणी भँवर लाल जी ने कितना मुश्किल है रोजमर्रा की जिंदगी में क़ानून का पालन ... शीर्षक वाली ब्लॉग पोस्ट पर की थी।  सही कहते हैं आदतें अचानक नहीं आती हैं एक लंबा वक्त लेती हैं हममें पनपने में।  ये हमारे शरीर में वैसे ही उग आती है जैसे कि हमारे अंग हमारे शरीर के साथ विकसित होते हैं; जैसे हमारे हाथ, हमारे पैर।  हम आदतों के साथ बहुत सहज हो जाते हैं ।  जैसे आपके कन्धों को अपने हाथों का और गर्दन को सिर का बोझ नहीं लगता वैसे ही आदते हममें सहज होती हैं ।  स्वयं को इनका अहसास ही नहीं हो पाता है । लेकिन जब हमें पाता चलता है कि हमें अच्छी/बुरी आदत पड़ चुकी है तो हम उसको छोड़ने का प्रयास करते हैं तो वैसा ही दर्द होता है जैसे शरीर से किसी अंग के अलग होने का। 
दरअसल इंसान का शरीर एक मशीन की तरह व्यवहार करता है।  साँस लेना, दिल का धडकना इत्यादि।  सिर्फ एक बात है जो इंसान को मशीन से अलग करती है वो यह है कि इंसान चाहे तो अपनी गतिविधियों को कंट्रोल कर सकता है।  आदतें भी दरअसल इंसान का यंत्रवत व्यवहार होती हैं। उसका सीधे चेतन मन से कंट्रोल हट जाता है वह अवचेतन से संचालित होती हैं।  हम रोज दिन की बातचीत में बहुत सारे शब्दों या उक्तियों को तकिया कलाम के रूप में इस्तेमाल करते हैं।  जैसे मतलब… दरअसल …जो है सो… इत्यादि।  ऐसे ही बात करते हुए एक निश्चित अंदाज में अंग संचालन भी है।  मैं एक ऐसे सज्जन को जनता हूँ जो अकसर बात करते हुए आँखों और भंवो को सिकोड़ कर अपने चेहरे पर जमा जो भाव लाते हैं जो एक अश्लील इशारे के रूप में बनता है।  पहली बार मिलने पर कोई भी उनके चरित्र के प्रति विभ्रम की स्थिति में आ सकता है जबकि सच में ना तो उस व्यक्ति का कुछ ऐसा आशय होता है और ना ही उनको इसका पता है।  यह व्यवहार उनके कंट्रोल की जद से निकल गया है। 
आदतों के बारे में एक निश्चित बात है कि इनके बनने में दो चीजों को बड़ा योगदान होता है, एक इच्छा शक्ति और दूसरा अभ्यास।  कोई शब्द हमें किसी वक़्त बोलने में मुख को सुख देता है तो मन उसे बार-बार इस्तेमाल करने को प्रेरित करता है। यह सुख शुरू में तो हमें चेतन रूप में शब्द को इस्तेमाल करने देता है लेकिन कालान्तर में अभ्यासों  की यही श्रंखला इसकी डोर चेतन से छुड़ा कर अचेतन को थमा देती है।  इस प्रकार वह शब्द विशेष यंत्रवत हमारे नियमित व्यव्हार में शुमार हो जाता है जिसे हम आदत कह सकते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह आदत मुझे कैसे पड़ी ? पोलीथीन के संदर्भ में भी ऐसा ही है | इसके शुरुआती दौर को देखें तब दूकानदार हर सामान के साथ पॉली बैग नहीं देता था कुछ विशिष्ट वस्तुओं को ही उसमे डाल कर देता था।  ग्राहक सामान पॉली बैग में ही लेने की ज़िद करता था और इसके एवज में दूकानदार अतिरिक्त चवन्नी वसूल कर लेता था।  अब यह इतना सुलभ है कि हमारा हिस्सा बन चुका है कि मुक्त होना मुश्किल है। 
आदतों से मुक्त होना बहुत मुश्किल होता है।  अगर बिना सही पहचान और विश्लेषण के हम इन्हें छोड़ते हैं तो कई बार यह बहुत त्रासद भी हों जाता है। इसे सआदत हसन मंटो के रेडियो ड्रामे ‘ जेब कतरे ’ के कथानक से आसानी से समझ सकते हैं।  जेबकतरा लड़का अपनी जेब काटने की आदत छोड़ना चाहता है लेकिन छोड़ नहीं पाता है। उँगलियाँ उसके कंट्रोल में नहीं है, कहते हुए भी वह उनको रोक नहीं पाता है। आखिर वह अपनी आदत से से मुक्ति का एक यातनादायी मार्ग चुनता है और अपने दोनों हाथों की उंगलियां रेल की पटरी पर रख देता है … दरअसल आदतों से मुक्त होने के लिए संकल्प शक्ति तो बेहद जरूरी लेकिन सिर्फ यही काफी नहीं। यहाँ भी अभ्यासों को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता है।  आदतों के मूल में भी जहां अभ्यास होते हैं वहीँ इनको निर्मूल करने में भी अभ्यास अपरिहार्य हैं | आदतों की पहचान में दूसरे लोग बहुत मदद कर सकते हैं | लेकिन उनका सही विश्लेषण करके उनसे मुक्त होने के सचेत प्रयास इंसान को खुद करने होते हैं | किसी भी आदत को छोड़ने से पहले यह पता कर लेना जरूरी है कि उस आदत की कील आपके अंदर किस जगह पर धंसी हुई है ?

Tuesday, June 14, 2011

कितना मुश्किल है रोजमर्रा की ज़िन्दगी में कानून का पालन कर पाना …


(1) Polythene पर रोक के संदर्भ में
अभी पाँच - छह महीने पहले राजस्थान सरकार ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय किया जिसके तहत पूरे प्रदेश में पोलीथिन के इस्तेमाल पर रोक लगा दी | आम आदमी ने इस निर्णय का स्वागत किया कि अब शायद पारिस्थितिकी संतुलन में कुछ मदद मिलेगी | पोलीथिन हर तरह से पर्यावरण को दूषित कर रहा था | कानून लागू होने के अगले दिन इसका असर भी दिखाई दिया | जो लोग बजाए जाते वक्त घर से थैला लेकर नहीं गए थे उनकी तस्वीरें अखबार में छपी थीं कोई झोली में सब्ज़ी ला रहा था तो कोई अपने हैलमेट में ही डाल कर ला रहा था | सरकारी अमले ने चार-छह व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर छापे मार कर कार्यवाही की | लगने लगा कि अब धरती पर स्वर्ग आने ही वाला है | दूकानदारों ने पन्नियाँ काउंटरों से हटा कर छुपा दीं और पन्द्रह-बीस दर्जन कागज के लिफ़ाफे रख लिए शायद यह सोच कर कि देर सवेर कानून की हवा तो निकलनी ही है  |  बात सच भी निकली अगले ही दिन से इसकी नाफरमानी शुरू हो गई | 
इन दिनों जो विचित्र बात हुई वह यह कि मेरे अपने परम्परागत दूकानदार से रिश्ते बदलने लगे | वही दुकानदार जो मुझे सड़क पर देख कर ही आवाज लगा लेता था अब देख कर उपेक्षा से मुह फेर लेता है | बात दरअसल यूँ है कि  सरकारी आदेश के अगले दिन ही जब मैं घर से महीने भर के राशन की लिस्ट लेकर दूकान पर पहुंचा तो देखा कि दूकानदार धड़ल्ले से polythene की थैलियों में सामान बांध कर दे रहा था | मेरे दूकान पर पहुँचते ही ग्राहकों से कहने लगा “ आप लोग घर से थैला लेकर आया करो आगे से थैली बंद हो गयी हैं |” फिर मुझे देखकर बोला “भाई साहब क्या करें पुराना स्टॉक तो खत्म करना पड़ेगा |”  मेरी लिस्ट लेकर सामान लिकालने लगा | मैंने कहा कि मैं तो पॉली बैग में सामान नहीं लूँगा | मेरी बात सुन वह अजीब स्थिति में आ गया | महत्वपूर्ण ग्राहक छोड़ना भी नहीं है लेकिन सामान किसमें दे | मेहनत से खोज कर दर्जन भर लिफाए निकले | मुश्किल पहले तो पांच किलो चीनी एक थैली में ही डल जाती थी अब वही दस लिफाफों में आई | कुछ सामान लिफाफों में भरा तो अधिकतर अखबारी पुड़ियों में लपेटा और सारे सामान को एक बोरे के सपुर्द किया | बिल थमाते वक्त दूकानदार के चेहरे पर एक रहस्यमई मुस्कान थी जो शायद कह रही थी कि आप हमारे लिए सबसे मुश्किल ग्राहक हो | खैर, दुकानों पर पॉलीबैग कभी नहीं रुके | अगले महीने जब मैं सामान लेने गया तो मैं भी मैं ही था, बनिया भी वही था लेकिन हमारे रिश्ते बदल चुके थे | वही जो सड़क पर से आवाज लगा देता था अब उसने मुझे कोई तवज्जो नहीं दी | दुकान पर खड़ी ग्राहकों की भीड़ को निपटता रहा | मैं अपनी बारी आने का इंतजार करता रहा | उसकी उपेक्षा से मुझे लग रहा था जैसे वो कह रहा हो ‘  सामान लेना है तो ऐसे ही लो ज्यादा नखरे हैं तो बिग बाज़ार या सुपर मार्केट जाओ |’ आज मैं बनिये की दूकान पर खड़ा सबसे अयाचित और अवांछित ग्राहक होता हूँ |
जैसा लग रहा था कि स्वर्ग आ जायेगा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ पूरे जयपुर शहरभर में पॉलीबैग धड़ल्ले  से चल रहे हैं सब्जी बाजार में , थानों के इर्द गिर्द , अस्पतालों, स्कूलों, बस स्टैंड सब जगह | दूकानदार भी दे रहे है और ग्राहक भी ले रहे हैं और सरकारी अमला भी देख रहा है | किसी पर भी कोई कार्यवाही नहीं है | अख़बारों में भी कोई खबर नहीं है | इसे लागू करवाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति दिखाई नहीं दे रही है | उत्साही लोगों को सूचना के अधिकार के तहत अर्जी लगा कर पता करना चाहिए कि अब तक कितने दुकानदारों व ग्राहकों पर कार्यवाही हुई है | प्रशासन की गंभीरता का पता उसी से चल सकता है
(2) चौराहे का सिग्नल और मैं
रोज़ ऑफिस आने के लिए रास्ते में मुझे दो ट्रैफिक सिग्नल पार करने होते हैं | दोनों ही सिग्नल ऐसे हैं जहाँ सुबह के वक्त कोई ट्रैफिक पुलिस का सिपाही खड़ा नहीं होता है | लेकिन सिग्नल अपना काम अच्छे से करता है | सुबह ९-१० बजे के लगभग ट्रैफिक खूब होता है |  मैं जिन सिग्नल की बात कर रहा हूँ उसके बारे में दरअसल मेरी मुश्किल यह है कि जब लाल बत्ती होती है तो मैं रुक जाता हूँ और  उसका हरा होने तक इन्तेजार करता हूँ | अधिकतर लोग फर्राटे से मेरी बगल से निकल जाते हैं | कभी-कभी इक्का-दुक्का और होते है जो लाल बत्ती देख कर रुक जाते हैं | सामान्यतः मैं अकेला ही होता हूँ | मैं जब आगे खड़ा होता हूँ तो पीछे वाले वाहनों के होर्न कान फोड़ देते है |  और बगल से निकलते वक़्त पलटकर मुझे देखते हैं उनके देखने से ऐसा ध्वनित होता है जैसे कह रहे हों ‘ अज़ीब प्राणी है ! भला खाली सिग्नल पर भी कोई खड़ा होता है ?”  मुझे ऐसा लगता है कि लोग समझ रहे हों कि मैं इस महानगर का वाशिंदा ना होकर किसी अर्धविकसित सभ्यता का व्यक्ति होऊं | चलो अपने लिए यह उपमान भी बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन मुझे सबसे बड़ा खतरा यह लगता है कि कहीं ऐसा ना हों कि मैं इस देश के कानून की पालनार्थ रेड सिग्नल पर रुका होऊं और कोई तेज रफ़्तार वाहन पीछे से ….. आप ही बताओ कि मेरे जैसा व्यक्ति जिसकी आस्था कानून में है ऐसी स्थिति में क्या करे ? इन छोटी - छोटी बातों से कई सवाल उठते है | क्या नियमों का पालन करने के लिए हमेशा डंडे की जरूरत है | क्या हर सिग्नल पर सिपाही खड़ा करना लाजमी है  तकनीक का इस्तेमाल तो इसलिए किया गया था कि कम मानव संसाधन लगाना पड़े | लेकिन इस तरह तो यह और खर्चीला हों जायेगा | क्या आज आम आदमी का राष्ट्रीय चरित्र ऐसा हों गया है कि उसे अब रोजमर्रा कि जिंदगी में कानून तोड़ने में कोई झिझक नहीं होती है |  जब आम इंसान कि स्थिति ऐसी है तो फिर भ्रष्ट नेता और अफ़सर की क्या कहें | प्रधानमंत्री तक पर अन्ना हजारे लोकपाल बैठना चाहते है | मैं पूछता हूँ ऐसे लोगों के लिए क्या तैयारी है जो सौ-पचास नहीं करोड़ों की संख्या में हैं ?
चलो एक काम करें और सुबह से शाम तक पता करें कि जाने अनजाने में हम कितने कानून तोड़ते हैं | निसंदेह लिस्ट लंबी बनेगी | फिर हम आत्मावलोकन करें कि हम कितने अच्छे नागरिक हैं ?

Sunday, June 12, 2011

दंड व अनुशासन

पिछले पांच सालों में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हुए लगभग सौ सवा सौ स्कूलों में जाने का मौका मिला | इनमे कुछ ऐसे हैं जिनमे दो तीन दिन व कुछ ऐसे हैं जहाँ साल-साल भर जाकर बारीकी से अवलोकन किये | इन सब स्कूलों में शिक्षक व शिक्षण को लेकर खूब सारी विविधताएं है | कहीं नामांकन कम है, कहीं टीचर ज्यादा है और कहीं पर पांच कक्षाओं को एक ही शिक्षक देख रहा है | सिर्फ एक चीज़ है जो सब स्कूलों में सामान है वह है दण्ड | मुझे आज तक एक भी ऐसा स्कूल नहीं मिला जहाँ किसी न किसी रूप में बच्चों को प्रताड़ित न किया जाता हो | इन स्कूलों में उन स्कूलों का भी नाम है जिनकी बाहर की दीवारों पर 'आदर्श रा. प्रा. विद्यालय ' का इश्तिहार लगा है और इनमें वो स्कूल भी हैं जिनकी दीवार के बाहर Quality assurance के तहत ' ए ' ग्रेड लिखा है | सब स्कूलों में बकायदा बच्चे पिट रहे हैं प्रार्थना स्थल, कक्षा कक्ष, खेल मैदान, पोषाहार के वक़्त सर्वत्र ! हथकंडे जुदा - जुदा है ... कोई गाली से , कोई चांटों से, कोई छड़ी से तो कोई मुर्गा बना रहा है | जब से शिक्षकों को यह पता चला है कि बच्चों को पीटना अपराध है और जबसे पिटाई एक शैक्षिक मूल्य से अपदस्त हुई है (जी हाँ अभी कुछ पहले तक पीटकर पढाने को हमारी शिक्षा परम्परा में एक मूल्य के रूप में माना जाता रहा है | कुछ तो अब भी मानते हैं | ) अब ऐसे शिक्षकों ने पिटाई का एक अनोखा तरीका इज़ाद कर लिया है | जब किसी बच्चे से कोई शिक्षक सवाल पूछता है तो उसका जवाब ना बता पाने पर टीचर उसे स्वयं नहीं पीटता बल्कि उस बच्चे से थप्पड़ लगवाता है जिसने सही जवाब बताया है | अब आप ही सोचें कि यह स्वयं पीटने से भी कितना जघन्य है ? जिस बच्चे की पिटाई हो रही है उसका आत्मसम्मान तो चकनाचूर हो ही रहा लेकिन सबसे बड़ा शिकार तो वह है जिसने सही जवाब दिया है | उसकी संवेदनशीलता, अहिंसा, सहभागिता जैसे नैसर्गिक मूल्यों को यहाँ टीचर की इस तरह की एक कारगुजारी कुचल कर रख देती है | बच्चे के लिए साथ मिलकर सीखना एक मूल्य नहीं रह जाता है | बल्कि पूरा मूल्यबोध उलट जाता है | अब बच्चे का मोटिवेशन सीखने में नहीं बल्कि दूसरे को कुचल कर आगे बढ़ने हो जाता है |
शिक्षकों से बात करने पर एक ही जवाब मिलता है ' भाई ये सब बातें तो है; लेकिन इन बातों से काम नहीं चलता ! हमें स्कूल का अनुशासन बनाना पड़ता है |' यह वाक्य मैंने कोई सैकड़ों बार सुना है | बच्चे की हर बार की पिटाई होने पर जब कारण जानना चाहा तो इसे हर बार अनुशासन के डब्बे में डाला गया | आज के इस लेख का प्रयोजन इस डब्बे को खोल कर देखना है कि दरअसल इसमें है क्या ? अनुशासन का मतलब क्या है ? जब हम स्कूलों में अनुशासन को देखने की कोशिश करते हैं तो कुछ इस तरह की शक्ल हमारे मानस पटल पर बनती है - सीधी - सीधी कतारों में कमर अकडाए बैठे बच्चे, आंख मूंद कर प्रार्थना करते बच्चे, टीचर के सवालों के शब्दशः जवाब देने वाले बच्चे और आगे से न बोलने वाले बच्चे ... टीचर के मुहं से बात निकलते ही एक की जगह छह बच्चे हुक्म बजा लाएँ ... टीचर के चाय पीकर प्याला ज़मीन पर रखने से पहले धोने के लिए लपकते बच्चे ..... कुल जमा टीचर की हर बात का समवेत स्वर में ' यस सर ' कह कर जवब देने वाले बच्चे |
अगर ऊपर दी गई स्थिति किसी सैनिक टुकड़ी की होती तो कोई बात नहीं वहाँ इस तरह के कायदे कानून ज़रुरी हो सकते हैं लेकिन फोजी कानून की स्कूल में मौजूदगी है तो इसके होने पर सवाल उठा कर देखना होगा | इसके प्रयोजन को समझना होगा | स्कूल में भी इस शब्द का सही मतलब पकड़ में नहीं आ रहा है | अब हम इसके शब्दकोशीय अर्थ को समझते हैं | वस्तुतः यह शासन शब्द में अनु उपसर्ग जुड़ने से बना है | शासन संस्कृत का शब्द है जिसका मतलब होता है कोई प्रचलित व्यवस्था और अनु संस्कृत का उपसर्ग है जो पीछे या साथ-साथ के अर्थ का द्योतक है | अत: अनुशासन शब्द का मतलब हुआ कि किसी व्यवस्था या निज़ाम के साथ चलना और उसके प्रति जवाबदेहियों को निभाना | किसी भी निज़ाम को मानने के पीछे सबसे बड़ा हेतु यह होता है कि उसे हम अंगीकार करते हैं | जब हमने भारत के संविधान को अंगीकृत किया है इसके एवज में संविधान हमारे अधिकारों और कल्याण की गारंटी देता है और हमारे कुछ दायित्व भी है जिनके प्रति हम जवाबदेह है | वक्त के साथ जब निजाम बदलता है तो अनुशासन के मापदंड भी बदलते हैं और अवमानना की स्थिति में दण्ड की प्रकृति भी बदलती है |
चलो इस बात को साहित्य कला के निज़ाम के संदर्भ में समझते हैं | एक जमाना था जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था सारा ज्ञान ज़बानी ही चलता था | सारा वैदिक साहित्य ही सुनने सुनाने की प्रक्रिया से ही हमारी पीढ़ी तक पहुंचा है | इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है | श्रवण प्रक्रिया में रहने के लिए कुछ चीज़ें बेहद जरुरी थी; एक यह कि वह जल्दी याद हो जाए और उसमें अलग से प्रक्षेप नहीं जुड़ें | इस हेतु के लिए यह ज़रुरी समझा गया कि सारा साहित्य कविता में लिखा जाए | कविता में क्यों ? क्योंकि कविता में गेयता होती है, लय होती है | ये दोनों तत्व किसी चीज़ को स्मृति में पक्के तौर पर अंकित करने के लिए बेहद मददगार हैं| आप किन्ही गीतों पर विचार करें जो आपको पूरे याद हैं और फिर यह भी देखें कि वे कब से आपकी याददाश्त में बैठे हुए हैं ? शायद बचपन से ! बिना एक अक्षर और मात्रा के हेर फेर के | दरअसल कविता में लय और गेयता लाने के लिए छन्दों का विधान हुआ | कविता में मात्राएँ , काफिया , रदीफ तुकबन्दियाँ निश्चित की जाने लगीं | जो कवि इस छंद विधान में रचना करता था वही स्वीकार्य था | उस वक्त छंद ने कविता को लम्बी उम्र बख्श दी | कालांतर में लिपि का अविष्कार हुआ कविता ग्रंथो में लिपिबद्ध होते हुए कम्प्युटर की हार्ड डिस्को में स्टोर होकर आबे हयात पी रही है | आज कविता छंद और बिना छंद दोनों रूपों में लिखी जा रही है | लेकिन यह छंद से बाहर आना इतना आसान नहीं था | जब लोगों ने छन्दों के बंधन तोड़ने की कोशिश की तो विरोध हुआ | निराला जैसे कवियों की रचनाएँ सम्पादकों ने छापने से इनकार कर दिया क्योंकि वो मुक्त छंद में लिख रहे थे | हेतु बादल गया लेकिन लोग नहीं बदले |
बिलकुल यही स्थिति हमारे स्कूलों के साथ है | हमारे यहाँ पुरानी शिक्षा परम्परा में यह विचार कहीं गहरे बैठा हुआ था कि सम्पूर्ण ज्ञान गुरु के पास है और शिष्य का कर्तव्य है कि वह उसके उपदेशों को जैसे भी हो चाहे समझकर या रट कर ग्रहण कर ले | इसमें एक बात और निहित है कि जब ज्ञान का सम्पूर्ण स्रोत शिक्षक है तो इसमें सहपाठियों की कोई भूमिका नहीं सारी अंत: क्रिया विद्यार्थी और शिक्षक में है वो भी एक तरफ़ा | जब हेतु किसी भी तरह सबक याद कर लेने का है तो उसके लिए समय और स्थान की भी बाध्यता जरूरी है | एक ही अपेक्षा बनी कि चाहे आनंद हो या निरानंद आपको सबक उदरस्थ करना है | और इस कडवी गोली को गुटकने के लिए कठोर नियम बने और साथ में ही दंड विधान | जो शरीरिक प्रताड़ना से लेकर विद्यालय से निष्काषित करने तक का हो सकता था |
अब शिक्षा व्यवस्थ का पूरा ढांचा ही बदल चुका है नवीन शोध यह साबित कर चुके है कि हर बच्चा सीख सकता है | बच्चा बहुत सारी बातें अपने साथी बच्चों से सीखता है | अगर बच्चों को आज़ादी दी जाये तो वे तेज गति से सीखते है और अपने परिवेश से सीखते हैं | ये सारी मान्यताएं हैं जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्ता की रीढ़ हैं जो पूर्व की मान्यताओं को उलट देती हैं | राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा में इन्ही मान्यताओं के अनुसार प्रावधान किये गए हैं | टीचर या तो इन बातों से परिचित ही नहीं या फिर उसने सुन या पढ़ रखा है लेकिन यथार्थ में इसकी प्रक्टिस नहीं की है | एक बार करने पर ही उसमे निराशा आ जाती है | यह बार -बार करने से आएगा | मूल बात बच्चे कि क्षमताओं पर भरोसा करने की है| टीचर का पुराना मूल्यबोध उसे भरोसा करने नहीं देता है| उसे ज़रा सा भी सक्रिय बच्चा उद्दंड और उच्छृंखल जान पड़ता है फलस्वरूप दण्डित करता है | हर पिटाई से पहले अगर टीचर उसकी सही वजह की पड़ताल करे तो उसको ये सारी बातें समझ में आने लगेंगी | दरअसल हर पिटाई में टीचर अपने सीखने की सम्भावनाओं को खुद कुचल देता है | टीचर को यह विश्वास करने में मुश्किल आ रही है कि बच्चे खुद की सक्रियता और डाइमेंशन से सीख सकते हैं |
मुख्तसर में यही बात है कि अगर मूल्यबोध बदला है , निजाम बदला है तो हमारे तौर तरीके बदलने चाहिए अनुशासन और दंड के मानक भी बदलने चाहिए | नहीं तो आज की तारीख में शारीरिक दंड केवल हमारे स्कूलों में ही दिखाई देता है जबकि थानों कचहरियो में इसकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है | गंभीर किस्म के अपराधी को भी मेडिकल जाँच कराने का हक है कि उसकी थाने में पिटाई नहीं हुई है | जेलें सुधार शिविर में बदलने जा रही है| एक मोटी बात है कि न्यायिक व्यवस्था में दंड देने से पहले मुल्ज़िम को मुकम्मल सुनवाई का अधिकार है लेकिन हमारे स्कूलों में बच्चे बिना माकूल वजह और सुनवाई के पिट रहे हैं |
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दलीप वैरागी 
09928986983 

Friday, June 3, 2011

रटना और समझना

मौजूदा शैक्षिक विमर्श में एक यह शब्द ‘रटना' बहुतायात में प्रयोग किया जाता है | अधिकतर इस शब्द का नाम pejorative term के रूप में ही किया जाता है | जो लोग  इसको इस रूप में देखते हैं उनका मानना है कि rot learning समझ कर सीखने में बाधक है | निसंदेह यह सही बात है | जब किसी भी शिक्षण प्रक्रिया में अवधारणाओं को ठीक से नहीं समझाया जाता है तो बच्चे चीजों को बिना समझे ही रटना शुरू कर देते हैं | वस्तु को इस तरह से कंठस्थ याद कर लेते हैं कि काफी समय तक तो टीचर को पता ही नहीं चलता कि दरअसल बच्चा जो जवाब दे रहा है वे समझे हुए नहीं बल्कि रटे हुए हैं | मेरा अकसर स्कूलों में जाना होता है वहाँ पर प्राइमरी लेवल पर हर कक्षा में ऐसे बच्चे होते हैं जिनको अभी शब्द, वर्ण और मात्राओं की बिलकुल जानकारी नहीं है लेकिन उन्होंने अपनी पाठ्यपुस्तक के पन्नों जो जबानी याद कर रखा है | जब शिक्षक उनसे पढ़ने के लिए कहता है तो वे निरर्थक ही टेक्स्ट पर ऊँगली घुमाता रहता है और याद किये हुए को ऐसे बोलते हैं जैसे  वाचन कर रहे हों | बच्चे इस तरह का एक डिफैंस मकेनिज्म डवलप कर लेते हैं जो कि एक जबर्दस्त कौशल है लेकिन उसके आयाम अलग हैं उसपे फिर कभी चर्चा होगी | इसमें बच्चे और टीचर दोनों की विवशता यह है कि इसके बिना काम चल नहीं रहा है | टीचर के पास text book के आलावा और कोई टेक्स्ट मौजूद नहीं है जिनको विविध रूप से बच्चों के सामने रख कर वह इस रट्टा लगाने को तोड़ सके | आकलन के लिए भी टीचर के पास वही पुरानी परीक्षा पद्धति है, अब बच्चा समझ कर पास हो या रट कर | बच्चे इस लिए खुश हैं कि रटने का  काम चाहे मानसिक यातनादायी ही सही लेकिन टीचर की शारीरिक प्रताडना से तो बच जाएँगे और किसी तरह पास भी हो जाएँगे | यह केवल प्राथमिक स्तर तक ही नहीं चलता है बल्कि रटने कि गुंजाईश माध्यमिक व कालेज स्तर तक है | अपनी जरूरत और सामर्थ्य के हिसाब से बच्चे अपने इस कौशल को आयाम दे लेते हैं | मुझे अच्छी तरह याद है कि माध्यमिक स्तर पर मैंने लेन्ज, फैराडे, न्यूटन और  आइंस्टीन के नियम की परिभाषाएँ कंठस्थ याद थीं लेकिन इनका अवधारणात्मक पहलु क्या था यह बिलकुल पता नहीं था और ज्यादातर का आज तक भी नहीं है | आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धान्त तो तब समझ में आया जब वर्तमान  शैक्षिक और साहित्यिक डिस्कोर्स से जुड़ा | जब यह समझ आया तब क्या नशा चढा,  अंदर से क्या आनंद की अनुभूति हुई वह अनिर्वचनीय है | लेकिन जब इन परिभाषाओं को याद करने के लिए हम सिर फोड़ रहे थे तब आनंद कहाँ था ? थी केवल कोरी कवायद अक्षरों, वाक्यों, पैरों और डॉयग्रामो की फोटो खींच-खींच कर चित के चौखटे में फिट बैठाने की | टीचर का भी स्पष्ट आग्रह इसी पर रहता था कि हम उन्हें रट लें क्योंकि नम्बर उसी से ही मिलेंगे |
इस विमर्श में एक वर्ग ऐसा है जो सीखने में समझ को तो दरकिनार नहीं करता लेकिन उनका मानना है कि रटना कोई बुरी बात नहीं है | ऐसे लोग नाटक, शास्त्रीय संगीत और शास्त्रीय नृत्य का उदाहरण देकर कहते है कि इन क्षेत्रों में बिना रटे काम काम चल ही नहीं सकता है | जो रटने के पक्ष में नाटक की दलील देते हैं वे केवल नाटक के लंबे आलेख को देखते हैं और उसके फिनिश्ड प्रोडक्ट को देखकर कहते हैं | उनको मंच पर आकर लंबे-लंबे संवाद बोलता अभिनेता दिखाई देता है | दर्शक को लगता है कि ये सब लाइनें अभिनेता ने रट ली हैं | क्या अभिनेता मंच पर केवल लाइनें बोल रहा होता है | दरअस्ल वह संवादों के साथ देह  भाषा का भी प्रयोग कर रहा होता है | क्या यह देहभाष महज लाइनें रटने से आ जाती है ? यह समझने के लिए आप किसी थियेटर ग्रुप की रिहर्सल में चार-छह दिन जाकर बैठें और देखें कि एक अभिनेता अपनी भूमिका पर कैसे काम करता है ? दरअसल नाटक के नेपथ्य में निर्देशक व लेखक के साथ बैठ कर नाटक के अर्थ पर लंबी चर्चाएं और बैठकें होती हैं | जिसमे अभिनेता समूह में अपनी भूमिका की चारित्रिक विशेषताएँ, संवादों के टेक्स्ट को समझना और टेक्स्ट का सब् टेक्स्ट को भी पकड़ कर देखना और उसके बाद भूमिका में उतरना  ये सारी अर्थ को समझने की महीने भर के अभ्यास होते हैं | इन अभ्यासों में ही अभिनेता अपनी लाइनों को सहज ही हृदयस्थ कर लेता है | आजकल जो निर्देशक गंभीर किस्म का रंगमंच कर रहे हैं वे आलेख को मात्र कथा के मार्गदर्शक तौर पर देखते हैं | अर्थों को समझने के पश्चात अभनेता पर छोड़ते हैं कि वह चरित्र के अनुकूल अपने संवादों को इम्प्रोवाइज करे | थियेटर तो दुनिया को समझने का बेहतरीन टूल है यहाँ महज रटने से काम नहीं चलेगा | ऐसा नहीं कि रटंत वीर यहाँ नहीं हैं ऐसे यहाँ भी बहुत हैं जो दूसरे या तीसरे अभ्यास तक अपनी लाइनें याद कर लेते हैं और ये यह भी बड़ी कुशलता से याद कर लेते हैं कि साथी कलाकार के किस शब्द के बाद उसे अपनी लाइन बोलनी है | अब सोचो अगर साथी कलाकार अपनी लाइन सही जगह पर अपना संवाद  नहीं करे तो ऐसे रटंत वीर का क्या हो ? जहाँ इस तरह के कलाकार होते हैं उस ग्रुप में नाटक में एक भूमिका का ओर सृजन करना पड़ता है जो है प्रोम्प्टर की भूमिका ताकि प्रोम्प्टर विंग में खड़ा होकर अभिनेता को प्रोम्प्ट करता रहे कि आगे उसे अब कौनसी लें बोलनी है | इस प्रकार के अभिनेता अभिनय नहीं कर रहे होते बल्कि लाइनें ही पढ़ रहे होते हैं |
एक दलील यह दी जाती है कि अगर बच्चों को पहाड़े नहीं याद कराएं तो आगे चल कर बच्चे गणित की संक्रियाएं कैसे करेंगे ? बच्चे को पहाडा रटाया जा सकता है लेकिन उससे पहले गुना की अवधारणा की समझ बच्चे को होनी चाहिए | उसे यह पता तो होना चाहिए कि पहाडा बनता कैसे है ? उसके बाद पहाड़े याद करें | लेकिन यहाँ तो दाखिले के पहले दिन से ही गिनती और पहाड़े शुरुआत टीचर कर देता है | इसके विपक्ष में लोग दलील देते हैं कि जब बच्चे को जब गणित की संक्रियाएँ करने के लिए कहा जायेगा तो क्या बच्चा कॉपी पेन लेकर पहाड़ा बनाने बैठेगा ! दरअसल ऐसा होता नहीं है | इंसान का मस्तिष्क कुछ अलहदा कार्य करता है जब बच्चा  पहाड़ा बनाने की छोटी-छोटी संक्रियाएँ करता है तो संख्याओं में रिलेशन को देखता है, बारम्बारता को देखता है, उनमे पैटर्न ढूँढता है | अभ्यासों में पहचाने पैटर्न और संख्याएं अवचेतन में दर्ज हो जाती है जो फिर कभी भी उन संख्याओं रिलेशन सामने आता है तो तो गुणन फल की संख्या चेतन मस्तिष्क में प्रकट हो जाती है | बिलकुल ऐसा ही भाषा सीखने में होता है | शुरू में बच्चा जब पढ़ना सीख रहा होता है तो वर्ण और मात्राओं को तोड़-तोड़ कर पढता है फिर शब्द को पहचानता है लेलिन पठन के बहुत से अभ्यासों में सारे शब्द अचेतन में दर्ज हो जाते है | जब भी उसके सामने कोई लिखित शब्द आता है तो वह उस सम्पूर्ण शब्द चित्र को ही पढता है ना कि वर्णों और मात्राओं के सम्बन्धों की खोजबीन करने बैठता है |  इस प्रक्रिया के तहत लगभग दो तीन हजार शब्द तो बच्चे की मेमोरी में होंगे | तो क्या हम यह कहेंगे कि ये सारे शब्द बच्चे के रटे हुए हैं ? नहीं , ये सारे शब्द उसने अर्थों की अवधारणाओं के साथ सीख कर हृदयस्थ कर लिए हैं | 
दरअसल सीखना-समझना एक आनंद देने वाली प्रक्रिया है | इस आनंद के साथ ज्ञान का सृजन होता है | जो सीख या ज्ञान भावनाओं को छू जाता है उसे मस्तिष्क संजो लेता है, याद कर लेता है | छूती हुई चीजों को  याद कर लेना मस्तिष्क का सहज धर्म है | ध्यान रहे इंसान चाहे रटे या समझे मस्तिष्क उसी चीज़ की  स्मृति पर अमिट छाप लगता है जो भावनाओं से जुडी हो या आनंदायी हो |
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दलीप वैरागी 
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अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...