Sunday, June 12, 2011

दंड व अनुशासन

पिछले पांच सालों में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हुए लगभग सौ सवा सौ स्कूलों में जाने का मौका मिला | इनमे कुछ ऐसे हैं जिनमे दो तीन दिन व कुछ ऐसे हैं जहाँ साल-साल भर जाकर बारीकी से अवलोकन किये | इन सब स्कूलों में शिक्षक व शिक्षण को लेकर खूब सारी विविधताएं है | कहीं नामांकन कम है, कहीं टीचर ज्यादा है और कहीं पर पांच कक्षाओं को एक ही शिक्षक देख रहा है | सिर्फ एक चीज़ है जो सब स्कूलों में सामान है वह है दण्ड | मुझे आज तक एक भी ऐसा स्कूल नहीं मिला जहाँ किसी न किसी रूप में बच्चों को प्रताड़ित न किया जाता हो | इन स्कूलों में उन स्कूलों का भी नाम है जिनकी बाहर की दीवारों पर 'आदर्श रा. प्रा. विद्यालय ' का इश्तिहार लगा है और इनमें वो स्कूल भी हैं जिनकी दीवार के बाहर Quality assurance के तहत ' ए ' ग्रेड लिखा है | सब स्कूलों में बकायदा बच्चे पिट रहे हैं प्रार्थना स्थल, कक्षा कक्ष, खेल मैदान, पोषाहार के वक़्त सर्वत्र ! हथकंडे जुदा - जुदा है ... कोई गाली से , कोई चांटों से, कोई छड़ी से तो कोई मुर्गा बना रहा है | जब से शिक्षकों को यह पता चला है कि बच्चों को पीटना अपराध है और जबसे पिटाई एक शैक्षिक मूल्य से अपदस्त हुई है (जी हाँ अभी कुछ पहले तक पीटकर पढाने को हमारी शिक्षा परम्परा में एक मूल्य के रूप में माना जाता रहा है | कुछ तो अब भी मानते हैं | ) अब ऐसे शिक्षकों ने पिटाई का एक अनोखा तरीका इज़ाद कर लिया है | जब किसी बच्चे से कोई शिक्षक सवाल पूछता है तो उसका जवाब ना बता पाने पर टीचर उसे स्वयं नहीं पीटता बल्कि उस बच्चे से थप्पड़ लगवाता है जिसने सही जवाब बताया है | अब आप ही सोचें कि यह स्वयं पीटने से भी कितना जघन्य है ? जिस बच्चे की पिटाई हो रही है उसका आत्मसम्मान तो चकनाचूर हो ही रहा लेकिन सबसे बड़ा शिकार तो वह है जिसने सही जवाब दिया है | उसकी संवेदनशीलता, अहिंसा, सहभागिता जैसे नैसर्गिक मूल्यों को यहाँ टीचर की इस तरह की एक कारगुजारी कुचल कर रख देती है | बच्चे के लिए साथ मिलकर सीखना एक मूल्य नहीं रह जाता है | बल्कि पूरा मूल्यबोध उलट जाता है | अब बच्चे का मोटिवेशन सीखने में नहीं बल्कि दूसरे को कुचल कर आगे बढ़ने हो जाता है |
शिक्षकों से बात करने पर एक ही जवाब मिलता है ' भाई ये सब बातें तो है; लेकिन इन बातों से काम नहीं चलता ! हमें स्कूल का अनुशासन बनाना पड़ता है |' यह वाक्य मैंने कोई सैकड़ों बार सुना है | बच्चे की हर बार की पिटाई होने पर जब कारण जानना चाहा तो इसे हर बार अनुशासन के डब्बे में डाला गया | आज के इस लेख का प्रयोजन इस डब्बे को खोल कर देखना है कि दरअसल इसमें है क्या ? अनुशासन का मतलब क्या है ? जब हम स्कूलों में अनुशासन को देखने की कोशिश करते हैं तो कुछ इस तरह की शक्ल हमारे मानस पटल पर बनती है - सीधी - सीधी कतारों में कमर अकडाए बैठे बच्चे, आंख मूंद कर प्रार्थना करते बच्चे, टीचर के सवालों के शब्दशः जवाब देने वाले बच्चे और आगे से न बोलने वाले बच्चे ... टीचर के मुहं से बात निकलते ही एक की जगह छह बच्चे हुक्म बजा लाएँ ... टीचर के चाय पीकर प्याला ज़मीन पर रखने से पहले धोने के लिए लपकते बच्चे ..... कुल जमा टीचर की हर बात का समवेत स्वर में ' यस सर ' कह कर जवब देने वाले बच्चे |
अगर ऊपर दी गई स्थिति किसी सैनिक टुकड़ी की होती तो कोई बात नहीं वहाँ इस तरह के कायदे कानून ज़रुरी हो सकते हैं लेकिन फोजी कानून की स्कूल में मौजूदगी है तो इसके होने पर सवाल उठा कर देखना होगा | इसके प्रयोजन को समझना होगा | स्कूल में भी इस शब्द का सही मतलब पकड़ में नहीं आ रहा है | अब हम इसके शब्दकोशीय अर्थ को समझते हैं | वस्तुतः यह शासन शब्द में अनु उपसर्ग जुड़ने से बना है | शासन संस्कृत का शब्द है जिसका मतलब होता है कोई प्रचलित व्यवस्था और अनु संस्कृत का उपसर्ग है जो पीछे या साथ-साथ के अर्थ का द्योतक है | अत: अनुशासन शब्द का मतलब हुआ कि किसी व्यवस्था या निज़ाम के साथ चलना और उसके प्रति जवाबदेहियों को निभाना | किसी भी निज़ाम को मानने के पीछे सबसे बड़ा हेतु यह होता है कि उसे हम अंगीकार करते हैं | जब हमने भारत के संविधान को अंगीकृत किया है इसके एवज में संविधान हमारे अधिकारों और कल्याण की गारंटी देता है और हमारे कुछ दायित्व भी है जिनके प्रति हम जवाबदेह है | वक्त के साथ जब निजाम बदलता है तो अनुशासन के मापदंड भी बदलते हैं और अवमानना की स्थिति में दण्ड की प्रकृति भी बदलती है |
चलो इस बात को साहित्य कला के निज़ाम के संदर्भ में समझते हैं | एक जमाना था जब लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था सारा ज्ञान ज़बानी ही चलता था | सारा वैदिक साहित्य ही सुनने सुनाने की प्रक्रिया से ही हमारी पीढ़ी तक पहुंचा है | इसीलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है | श्रवण प्रक्रिया में रहने के लिए कुछ चीज़ें बेहद जरुरी थी; एक यह कि वह जल्दी याद हो जाए और उसमें अलग से प्रक्षेप नहीं जुड़ें | इस हेतु के लिए यह ज़रुरी समझा गया कि सारा साहित्य कविता में लिखा जाए | कविता में क्यों ? क्योंकि कविता में गेयता होती है, लय होती है | ये दोनों तत्व किसी चीज़ को स्मृति में पक्के तौर पर अंकित करने के लिए बेहद मददगार हैं| आप किन्ही गीतों पर विचार करें जो आपको पूरे याद हैं और फिर यह भी देखें कि वे कब से आपकी याददाश्त में बैठे हुए हैं ? शायद बचपन से ! बिना एक अक्षर और मात्रा के हेर फेर के | दरअसल कविता में लय और गेयता लाने के लिए छन्दों का विधान हुआ | कविता में मात्राएँ , काफिया , रदीफ तुकबन्दियाँ निश्चित की जाने लगीं | जो कवि इस छंद विधान में रचना करता था वही स्वीकार्य था | उस वक्त छंद ने कविता को लम्बी उम्र बख्श दी | कालांतर में लिपि का अविष्कार हुआ कविता ग्रंथो में लिपिबद्ध होते हुए कम्प्युटर की हार्ड डिस्को में स्टोर होकर आबे हयात पी रही है | आज कविता छंद और बिना छंद दोनों रूपों में लिखी जा रही है | लेकिन यह छंद से बाहर आना इतना आसान नहीं था | जब लोगों ने छन्दों के बंधन तोड़ने की कोशिश की तो विरोध हुआ | निराला जैसे कवियों की रचनाएँ सम्पादकों ने छापने से इनकार कर दिया क्योंकि वो मुक्त छंद में लिख रहे थे | हेतु बादल गया लेकिन लोग नहीं बदले |
बिलकुल यही स्थिति हमारे स्कूलों के साथ है | हमारे यहाँ पुरानी शिक्षा परम्परा में यह विचार कहीं गहरे बैठा हुआ था कि सम्पूर्ण ज्ञान गुरु के पास है और शिष्य का कर्तव्य है कि वह उसके उपदेशों को जैसे भी हो चाहे समझकर या रट कर ग्रहण कर ले | इसमें एक बात और निहित है कि जब ज्ञान का सम्पूर्ण स्रोत शिक्षक है तो इसमें सहपाठियों की कोई भूमिका नहीं सारी अंत: क्रिया विद्यार्थी और शिक्षक में है वो भी एक तरफ़ा | जब हेतु किसी भी तरह सबक याद कर लेने का है तो उसके लिए समय और स्थान की भी बाध्यता जरूरी है | एक ही अपेक्षा बनी कि चाहे आनंद हो या निरानंद आपको सबक उदरस्थ करना है | और इस कडवी गोली को गुटकने के लिए कठोर नियम बने और साथ में ही दंड विधान | जो शरीरिक प्रताड़ना से लेकर विद्यालय से निष्काषित करने तक का हो सकता था |
अब शिक्षा व्यवस्थ का पूरा ढांचा ही बदल चुका है नवीन शोध यह साबित कर चुके है कि हर बच्चा सीख सकता है | बच्चा बहुत सारी बातें अपने साथी बच्चों से सीखता है | अगर बच्चों को आज़ादी दी जाये तो वे तेज गति से सीखते है और अपने परिवेश से सीखते हैं | ये सारी मान्यताएं हैं जो आधुनिक शिक्षा व्यवस्ता की रीढ़ हैं जो पूर्व की मान्यताओं को उलट देती हैं | राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रुपरेखा में इन्ही मान्यताओं के अनुसार प्रावधान किये गए हैं | टीचर या तो इन बातों से परिचित ही नहीं या फिर उसने सुन या पढ़ रखा है लेकिन यथार्थ में इसकी प्रक्टिस नहीं की है | एक बार करने पर ही उसमे निराशा आ जाती है | यह बार -बार करने से आएगा | मूल बात बच्चे कि क्षमताओं पर भरोसा करने की है| टीचर का पुराना मूल्यबोध उसे भरोसा करने नहीं देता है| उसे ज़रा सा भी सक्रिय बच्चा उद्दंड और उच्छृंखल जान पड़ता है फलस्वरूप दण्डित करता है | हर पिटाई से पहले अगर टीचर उसकी सही वजह की पड़ताल करे तो उसको ये सारी बातें समझ में आने लगेंगी | दरअसल हर पिटाई में टीचर अपने सीखने की सम्भावनाओं को खुद कुचल देता है | टीचर को यह विश्वास करने में मुश्किल आ रही है कि बच्चे खुद की सक्रियता और डाइमेंशन से सीख सकते हैं |
मुख्तसर में यही बात है कि अगर मूल्यबोध बदला है , निजाम बदला है तो हमारे तौर तरीके बदलने चाहिए अनुशासन और दंड के मानक भी बदलने चाहिए | नहीं तो आज की तारीख में शारीरिक दंड केवल हमारे स्कूलों में ही दिखाई देता है जबकि थानों कचहरियो में इसकी कोई वैधानिक स्थिति नहीं है | गंभीर किस्म के अपराधी को भी मेडिकल जाँच कराने का हक है कि उसकी थाने में पिटाई नहीं हुई है | जेलें सुधार शिविर में बदलने जा रही है| एक मोटी बात है कि न्यायिक व्यवस्था में दंड देने से पहले मुल्ज़िम को मुकम्मल सुनवाई का अधिकार है लेकिन हमारे स्कूलों में बच्चे बिना माकूल वजह और सुनवाई के पिट रहे हैं |
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दलीप वैरागी 
09928986983 

1 comment:

  1. लेखक महोदय ,आपने सही विश्लेषण किया है कि हमारे स्कूली बच्चों को तो वो हक भी नही पता जो अपराधियों को न्याय के फ्रेम में रख कर दिया जाता है | आज भले ही दंड की मनाही हो गयी हो लेकिन बच्चों की पिटाई करना तो जैसे टीचर्स ने अपना हक समझ रखा है| अनुशासन को अपनी ढाल बनाकर बच्चों के साथ शारीरिक और मानसिक प्रताडना करना अपना अधिकार समझ रखा है |में तो आशा करती हू इस लेख को वे टीचर्स जरुर पढ़े जो ये समझते है कि पिटाई के बिना तो पढ़ाई सम्भव ही नही है |

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