Thursday, December 18, 2014

थियेटर ( Theatre) : फ़र्क तो पड़ता है

मैं घर जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर  था। ट्रेन आने के इंतज़ार में प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहा था। इतने में सामने से धीरज आते दिखाई दी। साथ में उनका बेटा भी था। धीरज आईसीआईसीआई फाउंडेशन में काम करती हैं व जयपुर शहर के स्कूलों में क्वालिटी एजुकेशन के लिए प्रयासरत हैं।

संक्षिप्त अभिवादन के बाद धीरज तुरंत बोली, "आपको याद है वो लड़की? जो समर कैंप में तुम्हारे ग्रुप में थी।" इस बार गर्मियों की छुट्टियों में जयपुर शहर के 8 सरकारी स्कूलों के बच्चों के साथ समर कैम्प का आयोजन किया गया था। जिसमें बच्चों के साथ संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला व कंप्यूटर जैसे विषयों पर काम किया गया था। इसके पीछे संस्था का सोच यह था कि प्राइवेट स्कूल तो बच्चों के साथ छुट्टियों में तरह-तरह की गतिविधियाँ आयोजित करते है लेकिन सरकारी स्कूलों के साथ कोई गतिविधि नहीं हो पाती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इन समर कैम्पस  का आयोजन किया गया था।
धीरज के सवाल के साथ ही मेरे मानस पटल पर उन बीस लड़कियों के चहरे एक के बाद एक आने लगे। इससे पहले कि सारे चेहरे आँखों के सामने आयें और उसके बाद उनके नाम भी, मुझे लगा धीरज जल्दी से उस लड़की के बारे में बता देना चाहती है। धीरज मेरे याद कर लेने तक धीरज नहीं रख पायी। यह अधैर्य ट्रेन पकड़ने की वजह से था या लड़की के बारे में जल्दी से बता देने की वजह से था, क्या पता। वह बोली, "अरे वही सबसे छोटी, दुबली व सांवली सी लड़की" इतना सुनते ही मैंने कहा, "नाजिश?" धीरज बोली, "हाँ, नाजिश!" मैंने तुरंत पूछा, "क्या हुआ उसे?" धीरज ने कहा, "वह बिलकुल बदल गई है।" "ऐसा क्या बदलाव आया उसमें?" मेरी जिज्ञासा बढ़ी। "सीमा मै'म कह रहीं थी की थियेटर कार्यशाला ने इस लड़की को बिलकुल चेंज कर दिया है। अब यह आत्मविश्वास से बात करती है। सभी गतिविधियों में भाग लेती है। मन लगाकर पढ़ने लगी है।" नाजिश की टीचर सीमा मैम के शब्दों को धीरज बयां कर रही थी।
दृश्य को फ्लेश बैक में ले चलते हैं। वहां भी सीमा मैम के चंद शब्द मुझे सुनाई दे रहे हैं। जिन्हें सुनने के बाद यह आसानी से समझ आएगा कि बदलाव अकेले नाजिश में नहीं आया बल्कि उसकी सहयात्री सीमाजी भी हैं।
मेरी थियेटर की क्लास के बाद लड़कियों के पास एक घंटे का समय होता था। इस एक घंटे में तय यह हुआ कि लड़कियां कंप्यूटर क्लास में जाकर कंप्यूटर सीखेंगी। एक दिन क्लास ख़त्म होने पर सभी लड़कियां कंप्यूटर  सीखने जा चुकी थीं। अगले दिन की योजना पर काम करने के बाद मैं जब क्लासरूम से बाहर आया तो देखा कि नाजिश रो रही थी। मैंने नाजिश से पूछा कि क्या हुआ। वह कुछ नहीं बोली, बस रोती रही। उसके पास बैठी एक लड़की ने बताया, "मैडम ने इसे कम्प्यूटर क्लास से निकाल दिया है।" मैंने सोचा कि इसने कोई गलती की होगी इसलिए इसे क्लास से बाहर कर दिया होगा। "चलो, मैं बात करता हूँ मैडम से।" मैं जाकर सीमा जी से मुखातिब हुआ, "मै' म आपने नाजिस को कंप्यूटर क्लास से क्यूँ निकाल दिया?"
"हाँ सर, मैंने निकाल दिया है... ये क्या सीखेगी कंप्यूटर.... इसे तो हिंदी पढनी नहीं आती और कंप्यूटर का सब काम अंग्रेजी में होता है।"
मैंने अपने अनुभव के उदाहरणों से समझाने की कोशिश की' "आप इसे बैठने दीजिये हो सकता है यह कंप्यूटर की वजह से ही पढना लिखना सीख जाए।"
मैडम ने कहा, "रहने दें सर, यह कुछ नहीं कर सकती... वो तो पता नहीं क्यों मैंने इसे आपके थियेटर वाले समूह में रख दिया।"

मैंने ज्यादा बहस नहीं की और नाजिश के बारे में सोचने लगा। खैर नाजिश मेरे ग्रुप में अभी है। मेरे पास अवसर भी है और समय भी इस किवदंती को झूठा साबित करने के लिए कि नाजिश कुछ नहीं कर सकती। अभी तक मैंने अपनी कक्षा में नाजिश को लेकर खोई खास आकलन शुरू नहीं किया था। लेकिन अब नाजिश मेरी रोज़ की नियोजन प्रक्रिया का आवश्यक बिंदु बन गई। यह सही था कि नाजिश पर स्कूल में एक लेबल चस्पा था की वह कुछ नहीं कर सकती। उस लेबल ने उसके पूरे वजूद को भी ढांप रखा था। उसकी वजह से नाजिश की हर मामले में एक स्थाई अरुचि झलकती थी। यहाँ थियेटर वाले समूह में भी वह खुद से कोई पहल नहीं करती थी। उसकी दो बड़ी बहनें भी इसी समूह में थी। एक और जहाँ दोनों बहने साफ सुथरे तरीके से इस्तरी किये कपडे पहन कर आती थी वहीँ नाजिश के कपड़े  सफाई में लापरवाही स्पष्ट दृष्टिगत होती थी। मैंने नाजिश को कई बार आगे लाने कोई कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। फिर मैंने उसे सामूहिक गतिविधियों में शामिल करना शुरू किया। ताकि समूह का हाथ थाम कर ही सही वह अपने सन्नाटे को तोड़े तो सही। मैंने उसे कोरस गायन का हिस्सा बना दिया। अब वह रोज कोरस में धीरे-धीरे सहज होने लगी। एक दिन मुझे लगा कि वह कोरस गायन को बेहतर तरीके से समझ रही है व उसका स्वर भी ठीक लग रहा है। मैंने दो अंतरे गायन में और जोड़ कर उसे स्वतंत्र रूप से कोरस के आलावा गाने को दिया। अब उसका अत्म्विश्वास बनने लगा। कुछ दिन बाद जब कोई लड़की अनुपस्थित हो जाती तो नाजिश कहती, "आज रुखसार के डायलोग मैं बोलू?" और जब कभी कोई लड़की संवाद सही नहीं बोलती तो नाजिश की कोशिश रहती कि उसे बोलने दिया जाए। इस तरह की कवायद में नाजिश नाटक के बनने व मंचन तक पहुँचने में तीन चार संवाद अपने नाम कर चुकी थी। एक बात जो नाजिश में देखने को मिली की उसने पूरी कार्यशाला में एक भी दिन छुट्टी नहीं की।
 इस समर कैम्प की थियेटर वर्कशॉप ने इस लड़की को थोड़ा बदला और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की इस बदलाव के साक्ष्य उस शिक्षिका के पास हैं जो बहुत पहले ही उम्मीद छोड़ चुकी थी। एक छोटी सी अवधि की रंगमंच की गतिविधि भी इस सिस्टम से उम्मीद के निशान छोड़ जाती है। कैसा हो अगर रंगमंचीय गतिविधियाँ अगर नैरन्तर्य के साथ स्कूल में हों। और केवल एक गतिविधि या प्रस्तुति बनकर न रह जाएं बल्कि इसकी प्रक्रिया पर भी गौर किया जाए। निसंदेह फ़र्क तो पड़ता है।
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दलीप वैरागी 
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