Friday, September 2, 2011

मैं, मेरा गाँव, मेरे सपने

यह स्टोरी  इससे पहले " अनौपचारिका " (समकालीन शिक्षा चिंतन की मासिक पत्रिका) के मई 2011 अंक मे प्रकाशित हो चुकी है। मार्च के आखिर महीने में उरमूल सीमांत, बीकानेर मे उन वंचित वर्ग किशोरियों का सम्मेलन आयोजित किया गया जो पिछले एक दशक मे उरमूल के शिविरों मे पढ़ी हैं  या प्रेरणा केन्द्रों से जुड़ी रही हैं । यहाँ  कुछ किशोरियों की केस स्टडी लिखने के लिए उनसे साक्षात्कार किए, जिनमे यह जानने का प्रयास किया गया कि उरमूल से जुडने के बाद उनकी ज़िंदगी में क्या बदलाव आया है। अनौपचारिका में यह कुछ काट-छांट के साथ छपी थी, यहाँ पूरी दी जा रही है ।  

द्वारिका, उम्र 19 वर्ष
गाँव - डीवाईके, बीकानेर
बी ए प्रथम वर्ष की पढ़ाई स्वयंपाठी के रूप मेन पढ़ाई कर रही हैं

यह कहानी उस जगह की है जो हिंदुस्तान की पश्चिमी सीमांत पर है, जहां गाँवों के नाम नहरों के नाम पर रखे जाने का चलन है । पर अब शायद द्वारिका के नाम पर गांवों के रखे जाएँ  । 19 वर्षीय द्वारिका विश्नोई से बात करके मैंने खुद को जितना गौरवान्वित महसूस किया शायद इतना पहले कभी नहीं। किशोर उम्र के लड़के-लड़कियों के साथ काम करने का जो मेरा अनुभव रहा है उसके अनुसार जहां इस उम्र मे रूमानी कल्पनाओं के सतरंगी सपनों मे ही अधिकतर वक़्त जाता है वहीं इस लड़की से बात करके पता चला कि इस छोटी सी उम्र मे भी किशोर सामाजिक मुद्दों जेंडर, हैल्थ और लोकतन्त्र पर गहरी समझ ही नहीं रखते वरन अपने जीवन में भी उन मूल्यों को व्यवहार मेन ल रहे हैं ।

बीए प्रथम वर्ष मे पढ़ रही द्वारिका विश्नोई तीन बहनों और एक भाई  में सबसे छोटी है ।  द्वारिका से पूछा कि आप प्राइवेट क्यों पढ़ रही हैं?    "घर वाले कहते हैं कि कॉलेज मे पढ़ाई नहीं होती है । वैसे भी गाँव मे लड़कियों के लिए ' पढ़ना है  तो पढ़ो नहीं तो घर बैठो' वाला माहौल है। "

" यूं भी लड़कियों को बाहर भेजने की मनाही है। " उरमूल बज्जू से प्रेरणा मंच का प्रशिक्षण लिया है।

उसमे क्या सीखा?

उसने कहा कि प्रशिक्षण मे जेंडर, हैल्थ,पेंटिग,शिक्षा, कपड़ों की रंगाई - छपाई व सिलाई जैसे विषयों पर समझ बनाने का काम होता है।

" मुझे किताबें पढ़ना अच्छा लगता है बज्जू से अक्सर किताबें ले जाती हूँ। "

इन दिनों कौनसी किताब पढ़ी है? हमने पूछा।

' ज़िम्मेदारी की शक्ति ' आजकल यह किताब पढ़ रही हूँ। ' यह किताब  परसेनलिटि  डेवेलोपमेंट पर है।

'अखबार रोज पढ़ती हूँ । रोज भेदभाव की खबरें छपती हैं । समाज से भेदभाव समाप्त करना चाहती हूँ। समाज में लड़कियों को आगे नहीं आने देते हैं। गाँव मे मैं अकेली लड़की हूँ जो आगे आई हूँ। '

' जो आगे नहीं आ रही हैं उनके लिए क्या कर रही हो? '

' 32 हैड (गाँव का नाम ) में 2005 में उरमूल का कैंप लगा था । शिविर के शिक्षकों ने कैंप में कुछ लड़कियों को भेजने की ज़िम्मेदारी मुझे दी । तीन मुस्लिम लड़कियां थीं । एक 9-10 साल की, दूसरी 15 तथा तीसरी 17 साल की थी । दरअसल उनकी शादी हो रही थी और उनके घरवाले उनको कैंप मे भेजने से मना कर रहे थे । मैं उनके घर वालों से बात करने गई । संयोग से लड़कियों के ससुर भी वहीं मौजूद थे । मैंने उनसे बात की और उनके सामने उन्हीं के समुदाय की दो लड़कियों के उदाहरण रखे जिनका बाल विवाह हुआ था और प्रसव कि जटिलताओं के कारण उनकी मौत हो गई थी। लड़कियों के ससुर मान गए। दो लड़कियों की शादी रोक दी गई । बड़ी का विवाह हो गया । उसका गौना भी तीन साल बाद हुआ। '

' इतना सब कैसे कर पाई ?'

'सब किताबें पढ़ कर सीखा है । उरमूल कैम्पस से हर तरह की मदद मिलती है।'

वैसे भी मैं किसी से नहीं डरती हूँ। पुलिस में जाना चाहती हूँ । बीएसएफ़ का फॉर्म भर रखा है ।'

लेकिन पुलिस में जाने के लिए तो बहुत तैयारी करनी पड़ती है।

' मेरी रेस बहुत अच्छी है । मैंने 2005 मे रेस लगाई थी , पूरे बीकानेर मे पहला पुरस्कार जीता था । रोज सुबह पाँच बजे उठ कर छः किलोमीटर दौड़ती हूँ। गोला फैक का भी अभ्यास करती हूँ । अपने साथ तीन और लड़कियों को भी दौड़ती हूँ । '

आप 19 साल की हैं और अभी पंचायत के चुनाव होकर चुके हैं, क्या आपने मताधिकार का प्रयोग किया?

' हमारी पंचयत तीन गांवों को मिलकर बनी है। हर गाँव से तीन-तीन उम्मीदवार खड़े हो गए थे। '

'ऐसे में किसको वोट डालना है यह तय करना मुश्किल रहा होगा ?'

' बिलकुल नहीं, मैंने एक नौजवान को वोट डाला था। '

' वो जीता?'

' नहीं वह हार गया । '

आपने अनुभवी और पुराने लोगों को वोट क्यों नहीं दिया?'

' पुरानों की तो पुरानी ही सोच है । इनके विचारों में बदलाव की गुंजाइश कम है। इतने सालों से ये लोग पंचायत में हैं लेकिन इनकी खुद की लड़कियां अनपढ़ हैं। मेरा तो स्पष्ट विचार है कि जो खुद की लड़कियों को नहीं पढ़ा सकते वह दूसरों की बेटियों के लिए क्या करेंगे ? नौजवानों की सोच नई है, उनमें कुछ करने का जज्बा तो है। '

आपने जिसको वोट दिया, उससे कुछ अपेक्षाएँ हैं?

' हनुमान कुम्हार नाम है उसका । मकान की चिनाई का काम करता है । सोचा अगर वह एक-एक ईंट जोड़ कर मकान खड़ा कर सकता है तो वह गाँव की नींव भी मज़बूत बना सकता है। '

' जीत जाता तो सोचा था स्कूल को ठीक करेगा, टीचर अच्छे होंगे, लड़कियां पढ़ने के लिए बाहर नहीं जा  पाती हैं, इसलिए गाँव के स्कूल को 12 वी तक करवाएगा... लेकिन गाँव वाले समझ नहीं पाये... हाँ पापा की सोच अच्छी है लेकिन वे भी गाँव के हिसाब से ही देखते हैं। '

यह सारी बातचीत सुन कर मेरी आँखों के सामने मेरी उम्र के उन सारे नौजवानों के चेहरे घूम गए जो चुनावों मे कपड़े बदल-बदल कर वोट डाला करते... यह भी सोच रहा था कि जब मैं द्वारिका की उम्र में था तब क्या कर रहा था... तब हमें कहाँ इल्म था... मेरी आंखे नम हो गई।

जेंडर को लेकर द्वारिका की साफ समझ है।  वो कहती हैं –' समाज मे लड़कियों के प्रति भेदभाव है लेकिन लड़के अच्छे होते हैं। मेरे भाई को ही लो, मेरे और उसके विचार नहीं मिलते, लेकिन भाई मुझे कहीं आने-जाने से मना नहीं करता है। '

' भाई को बाहर जाने की आज़ादी है एक तरह का एक्सपोजर है। उसकी मित्रा-मंडली है। उसके पास जानकारियाँ ज्यादा हैं। मेरे पास ये सोर्सेज़ नहीं हैं। जब मैं भाई के द्वारा जानकारियाँ बढ़ाना चाहती हूँ तो वह मेरे सवालों पर खीझ जाता है। '

हमारी एक साथी ने मज़ाक में एक सवाल उछला – ' शादी वाले तो बहुत आते होंगे ?'

'बहुत !'

हँसकर " आज़ादी किसे बुरी लगती है ?

2 comments:

  1. आज समाज को ऐसी ही द्वारिकाओं की जरूरत है। तभी तो समाज बदलेगा.. शानदार लेखन

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