दृश्य 1
स्थान - जयपुर -
चंडीगढ़ एक्सप्रेस, द्वितीय
श्रेणी का डिब्बा
मुख्य पात्र - 25
साल का युवक।
नाम - कोई भी रख
लो।
कोरस -
कंपार्टमेंट के 10 अन्य
यात्री।
युवक : देखने में विद्यार्थी लगता है। उसने अपने
बैग से चिप्स का पैकेट निकाल लिया है। उसे खोलने के लिए प्लास्टिक की कन्नी को काटा और उसे सीट के नीचे
फैंका। खाना शुरू किया... और पूरा पैकेट ख़त्म भी किया... पैकेट ख़त्म करने के बाद खाली रेपर को उतने मोड़ में फोल्ड किया जितना
किया जा सकता था, गोली बनाई और
उसे भी सीट के नीचे वहीं भेजा जहाँ कन्नी भेजी थी। चेहरे पर तृप्ति के भाव हैं।
रिंगटोन बजता है, "सारे
जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा..." जेब से टच स्क्रीन का मोबाइल बहार आ गया है। युवक अब उस में तल्लीन है। शायद
फेसबुक पर अपडेट डाला...
कोरस
- सह कलाकारों का जबरदस्त
अभिनय.. ब्रेख्त की अलगाववाद थ्योरी को अप्लाई करते हुए पूरे दृश्य से अपने आप को
काटे रखा। चहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। समूहिक निर्लिप्त खामोशी ...
दृश्य निर्विघ्न समाप्त।
दृश्य निर्विघ्न समाप्त।
दृश्य - 2
स्थान - गांव
बम्बोरा, ज़िला अलवर राजस्थान
मुख्य पात्र : 25
साल का युवक
नाम : अंकित या
दीपक
भूमिका: शिक्षक
कोरस : स्कूल के
बच्चे
(गाँव की गलियों
में एक टोली निकलती है। सबके हाथों में दस्ताने व चेहरे पर सर्जिकल मास्क हैं। सभी
रास्ते को साफ करते हुए नीचे लिखे संवाद बोलते हैं।)
युवक : ये देश
हमारे आप का
कोरस : नहीं किसी के बाप का
युवक : अपनी झाडू अपना हाथ
कोरस : कर दो अलवर पूरा साफ़
युवक : आओ बहनों आओ भाई
कोरस : सब मिल जुल कर करें सफाई
युवक : डस्टबिन कितने का आता
कोरस : चालीस का आता चालीस का आता
युवक : फिर तू क्यों ये नहीं लगवाता
कोरस : पैसे बचाता पैसे बचाता
कोरस : नहीं किसी के बाप का
युवक : अपनी झाडू अपना हाथ
कोरस : कर दो अलवर पूरा साफ़
युवक : आओ बहनों आओ भाई
कोरस : सब मिल जुल कर करें सफाई
युवक : डस्टबिन कितने का आता
कोरस : चालीस का आता चालीस का आता
युवक : फिर तू क्यों ये नहीं लगवाता
कोरस : पैसे बचाता पैसे बचाता
दृश्य - 3
स्थान: शहर की पॉश
कॉलोनी का एक चौराहा।
समय: दोपहर
मुख्य पात्र: 25
साल का युवक
भूमिका: बताने की
जरुरत नहीं।
नाम: आपके जेहन
में एक नाम होगा। वही दे देना।
कोरस : कोरस में
शामिल हैं, चायवाला, ऑफिस का बाबू, किराने के व्यापारी, राहगीर इत्यादि)
मुख्यपात्र: सड़क के
बीच में आता है। रुकता है। नीचे देखता है। चप्पल खोलता है। शर्ट उतरता है। पतलून
उतरता है। बनियान भी उतार कर एक तरफ रख देता है। अब वह केवल जांघिए में खड़ा है। अब
वह सड़क के नीचे बने गंदे नाले के गोल ढक्कन खोलता है। तीव्र सड़ांध का झोका वातावरण
में फ़ैल जाता है। कोरस नाक पकड़ लेता है।
युवक होल के अंदर
झांकता है। फिर पैर लटकाकर उसमें :उत र जाता है, पूरा आदमकद नंग धड़ंग! अब युवक दिखाई देना बंद। थोड़ी
देर बाद गर्दन बहार आती है। दो हाथ भी बाहर आते हैं। हाथों के साथ कुछ चीजें बहार
आने लगती है। वही आपकी जानी पहचानी चीजें। शैंपू की खाली पाउच, तेल की डब्बी, पुरानी चप्पल, कंघी, साइकिल का ट्यूब, डिस्पोज़ल
कप इत्यादि ... खूब सारा काला कीचड़...
कौरस : कोरस समवेत
स्वर में बोल रहा, “अच्छे
दिन आ गए ... अच्छे दिन आ गए...”
ये तीनों
दृश्य जिंदगी से हूबहू उठाए गए
हैं। इस नाटक का कोई भी पात्र काल्पनिक नहीं है। लेकिन मैं बेहद अनाड़ी नाटककर हूँ।
ये तीनों दृश्य मैंने बेतरतीबी से रख दिये हैं। मैं इन तीनों दृश्यों में रिश्ता
देखने की कोशिश कर रहा हूँ।
क्या इनमें
क्रमबद्धता है?
कौनसा दृश्य पहला है, कौनसा अंत ?
कौनसा पूर्वरंग है
कौनसा मंगलाचरण ? आप अपने हिसाब से रख लें
चलो नाटककार न सही
हम दर्शक की तरह नुक्ताचीनी तो कर ही सकते हैं। एक सवाल –
यदि आपको मौका दिया
जाए तो किस दृश्य में क्या–क्या बदलाव करना
चाहेंगे?
पहले सीन में ?
“अजी यूं”
दूसरे सीन में ?
“अजी चुटकी में ”
तीसरे में ?
“ बहुत आसान है साहब।”
ठहरिए जी, थोड़ा मुश्किल किए देते हैं, अब ऐसा है, बाहर से नहीं सीन में घुस के ज़रा कुछ बदल
कर दिखाइए....
पहला सीन .... दूसरा
सीन... तीसरा ... एँ ... पड़ गए न मुसीबत में... आप चिंतित मत होइए... मोदी जी बदल देंगे
सीन को !
कैसे बदलेंगे ?
मुझे लगता है किसी
भी बदलाव को लाने के तीन रास्ते हैं –
· कानून बनाओ
· अभियान चलाओ या
· शिक्षा के रास्ते से
कानून तो कोई बना नहीं। बना हो तो चल नहीं रहा... कोई कहीं भी थूके, कोई कहीं भी मूते, कोई कहीं भी कुछ भी फेंके कोई रुकावट नहीं है।
अब बात अभियान की करते हैं। मोदी जी द्वारा शुरू किए गए 'स्वच्छ भारत अभियान' से कितना फर्क पड़ा है यह बात अलग है लेकिन एक बात
स्पष्ट है कि स्वच्छता के मुद्दे का शुमार राष्ट्रीय चिंताओं में हुआ है। जब
प्रधानमंत्री जी ने इस अभियान की औपचारिक शुरुआत की थी तो उसके बाद कुछ जुम्बिश
हुई। अगले दिन से अख़बारों में छोटे बड़े नेताओं की तस्वीरें लंबे हत्थे के झाड़ू के
साथ छपने लगी। कई नेताओं को झाड़ू भी मिल गया, माहौल भी, लेकिन कूड़ा नसीब नहीं हुआ तो
उन्होंने बाकायदा कूड़ा आयात करवा के फैला लिया ताकि कूड़े के साथ एक सेल्फ़ी हो सके।
खैर, इस तस्वीर का एक सुखद पहलु भी है। इस अभियान
ने कुछ उत्साही नवयुवकों सक्रिय कर दिया जो ऊपर तीसरे सीन के नायक हैं। ये वास्तव
में भारत की एक स्वच्छ तस्वीर देखना चाहते है। जो सेल्फ़ी भी लेना चाहते हैं लेकिन
कूड़े की नहीं बल्कि साफ स्वच्छ व बदली हुई फ़िज़ा के साथ।
दूसरे सीन के नवयुवकों का समूह जिसका नाम है 'हेल्पिंग हैंड्स' पिछले दिनों उल्लेखनीय रूप से सक्रिय हुआ है। ये लोग
बिना किसी सरकारी व गैर सरकारी फंड के अपने जज़्बे के साथ शहर को साफ करने में जुटे
हुए हैं। मैं हर वीकेंड पर शहर जाता हूँ तो हर शनिवार के अखबार को उठाकर देखता हूँ
तो उसमें हेल्पिंग हैंड्स की न्यूज़ होती है कि आज शहर के फलां मोहल्ले को साफ किया
जाएगा। संयोग से हमारे बहुत परम मित्र दीपक चंदवानी जी समूह से जुड़े हुए है। दीपक
जी ने समूह से जुड़ने का आमंत्रण दिया। मैंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। निसंदेह इस
तरह के ईमानदार प्रयास से जुड़ना चाहिए। लेकिन इनकी मुश्किल यह है कि जिस गली को ये लोग
साफ करते हैं वह अगले दिन फिर गंदी हो जाती है? अगले दिन फिर हेलपिंग हैंड चाहिए।
हेल्पिंग हैंड्स के
नौजवानों के साहस को सैल्यूट। उनको बहुत वाहवाही मिल रही है, और मिलेगी, मिलनी
भी चाहिए। लोग भरोसा भी करेंगे। आप को अगुआ भी बनाएँगे। लेकिन आपके वहाँ से हटते ही
तस्वीर पहले जैसी हो जाएगी। मैं यह नहीं कह रहा कि इन नौजवानों को यह काम रोक देना
चाहिए। लेकिन अपने काम के इर्दगिर्द कुछ चीज़ें और भी सोचनी व करनी चाहिए। कही ऐसा तो
नहीं हम अपने एक्शन के तहत किसी ऐसी बात को जाने अनजाने में प्रतिष्ठित कर रहे हों
जिसे नहीं होना चाहिए। गंदगी कोई और करे और सफाई कोई करे यह विद्ध्वंसक संस्कृति
है। इसको सदियों से भारत ने भुगता है। इसे हमें और प्रतिष्ठित नहीं करना है। इस संस्कृति
ने तीसरे दृश्य वाले नायक को पैदा किया है।
मुझे लगता है इन साथियों
को मुद्दे के तह में जाना चाहिए। हर सप्ताह सफाई पर निकलते हैं तो उन्हे उस मौहल्ले
की सफाई का एक ऑडिट भी करना चाहिए ।
मौहल्ले की सफाई व्यवस्था
के लिए जो इन्फ्रास्ट्रक्चर है उसकी क्या स्थिति है? क्या वह दुरुस्त है? क्या जिनकी ज़िम्मेदारी
है वे उसका निर्वहन कर रहे हैं? और आखिर में यह पता करना कि ऐसे
क्या कारक हैं जो गंदगी फैलाने पर मजबूर करते है। इस बात की पड़ताल हो, क्यों सफाई के मामले मे हमारे किरदार के दो पहलू क्यों है – व्यक्तिगत रूप
में उजला तथा सामाजिक किरदार मैला।
साफ-सफाई एक मूल्य
है लेकिन यह आदत का भी मसला है। लोगों की आदतों पर बात करनी होगी। चाहे किसी मौहल्ले
के चार घर ही लें और उनसे पूछ कर उनके घर पर सफाई का ऑडिट करे कि उनके घर में किन वजहों
से गंदगी बाहर आती है। वो क्या कारण हैं जो हमें लाख सफाई पसंद होने के बावजूद
गंदगी फ़ैलाने से नहीं रोकते हैं। यह समझना जरुरी है कि सफाई अंतत: व्यक्तिगत मसला
है। लोगों की आदतों में बदलाव के लिए बहुत कोशिश करनी होगी यह गतिविधि शैक्षिक गतिविधि
बने बिना स्थायी बदलाव नहीं आ सकता।
अभी हेल्पिंग हेंड
की पहचान गली में बनी है। वहाँ से आँखों में उंगली अभी डाल के दिखाया जा रहा है। उन्हे
धीरे – धीरे उन्हे चूल्हे तक पहुँच बनानी पड़ेगी।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरे लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
09928986983
09928986983
Interestingly while cleanliness as a habit is a personal practice and virtue,imposing re operationalizing cleanliness is what we call civic sense. Across the globe it has been seen that countries that have succeeded in enforcing it has done through strict enforcement laws. These laws have been in place through at least more than min of four decades. A time for a generation to grow up ,imbibe such a practise such that it becones like a automatom. This strict enforcement has never happened in our country. The larger collective civic sense thus has never been a part of our subconscious. But the same indians when they go in such countries where they know will be penalized,would not do such a thing like dirty the public space.
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