ऐसी कौनसी जगह है जहाँ से पूरा हिंदुस्तान दिखाई देता है? मैं इसके जवाब में कहूँगा भारतीय रेल में पूरा
हिंदुस्तान नज़र आता है। बक़ौल गुलज़ार साहब के, "एक हिंदुस्तान में दो-दो हिंदुस्तान नज़र आते हैं।"
ऐसी ही नज़र हमें भी एक दिन मिली जब रिजर्वेशन के डब्बे से टीटीई ने हमें अनारक्षित
टिकट के साथ पाया। हमेशा की तरह हमने भी जुगाड़ लगाने की कोशिश की। पता नहीं टीटीई जुगाड़ी
नहीं था या हम अभी तक अनाड़ी थे। हमें जनरल बोगी का रास्ता दिखा दिया गया। कसम से ऐसा महसूस हुआ जैसे
बहिश्त से हमारी बेदखली हुई हो।
हम जनरल बोगी के सामने खड़े थे। बाहर से ही अंदर का दृश्य देख कर हमने यात्रा रद्द
करने या फिर जीप-जोंगा या बस का विकल्प देखने का मन बना लिया। फिर भी हम दरवाज़े के
आगे देख रहे थे जनरल डिब्बा किसी अनाज की बोरी जैसा लग रहा था। अब यदि इसमें सेर भर
और डाला तो बोरी छलकेगी या फट जाएगी। लेकिन हम इस बात को लेकर भी दंग रह गए कि प्लेटफॉर्म
पर मौज़ूद आधी से ज्यादा आबादी इसी डिब्बे की और लपक रही थी। डिब्बा हमें किसी ब्लैक
होल सा नज़र आया। भीड़ की तत्परता में यह पूरा यकीन झलक रहा था कि इस डब्बे में अनंत
जगह है। या फिर यह फंतासी है कि अंदर कोई है जो बेतरतीब बैठे लोगों इस्तरी करके तह
लगता जाएगा और सब के लिए जगह बन जाएगी।
यात्रा कैंसिल करने का मन बनाने बावजूद निर्णय हमारे हाथ से निकल चुका था। हम ऐसी
जगह खड़े थे जहाँ से वापस लौटना संभव न था। मुख्य धारा का बहाव डिब्बे के द्वार की ओर
था। मुख्य धारा के वेग ने एक ही झटके से हमें उठाकर अंदर धर दिया। इस अद्भुत लिफ्ट
का लुत्फ़ हमने पहली बार उठाया। और हमें पहली बार अपनी वंचितता का अहसास हुआ। आरक्षित
डिब्बों में इस तकनीक से सदा महरूम रहे। हमेशा यह सोचते रहे कि बीमार, विकलांग व वृद्ध लोगों के लिए रैम्प होने चाहिए
या व्हील चेयर का इंतज़ाम होना चाहिए। आज यह ज्ञान हुआ कि सुविधाएं दिमाग को बंद करती
हैं और आभाव अविष्कारों के जनक हैं। जनरल बोगी में लोगों के दाखिल होने के लिए यह कन्वेयर
बैल्ट जैसी सुविधा प्रारम्भ से ही विद्यमान है। एक बार फिर भारत के प्राचीन ज्ञान पर
गर्व हो आया। जय हो विश्व गुरु की!
लिहाज़ा अंदर आना हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं था लेकिन अंदर पैर टिकाने का फैसला
हमे खुद करना था। अंदर हमारा पहला कदम रखना बिलकुल वैसे ही अनिश्चित था जैसा किशोरावस्था
की मुहोब्बत में रखा पहला कदम। जैसे ही हमने गैलरी में पहला कदम रखना चाहा तो लय के
साथ चलते हुए खर्राटे अचानक रुक गए,उनका स्थान एक गुर्राहट ने ले लिया और हमने अपना बढ़ाया हुआ कदम वापस ले लिया। गुर्राहट
अब फिर सुर बदल कर खर्राटों में तब्दील हो गई। गैलरी में सोये व्यक्ति ने पहले की बनिस्पत
अपने आयतन-क्षेत्रफल को विस्तार देते हुए खुद को गैलरी में और फैला दिया। एक पांव पर
खड़े होकर हठयोग ठानने का इरादा हमारा नहीं था। हालांकि अगले ही दिन विश्व योग दिवस
था। और हमारे इनबॉक्स में सरकार की तरफ से भेजे संदेशों की पूरी शृंखला थी,
जिसमे 21 जून को योग करने सन्देश थे। हमने सरकार के दोहरे रवैये
के बारे में भी एक पल सोचा कि सरकार योग करने की परिस्थितियां तो आज और यहीं पैदा कर
रही है और योग कल करने को कह रही है। हमने सरकार की बात को अक्षरशः माना। योग को कल
के लिए मुल्तवी किया। इसलिए हमने अपने पैर को अलग दिशा में रखना चाहा। जैसे ही हमने
पैर नीचे रखा तो किसी झोले में सामान के चरमराने की आवाज आई। इससे पहले कोई और आवाज
इस आवाज को उठाए हमने फिर अपना कदम वापस उठा लिया। कर भी क्या सकते थे, बगुले की तरह एक टांग पर टंगे हुए थे। शायद खड़े
शब्द का इस्तेमाल यहाँ प्रासंगिक न होगा।
हम जो कर सकते थे वही किया। लोगों को देख सकते थे सो देखने लगे। और देखने में हमने
वो देख लिया जिसे धरती पर देखने के लिए नासा के वैज्ञानिक बरसों से दिन-रात एक किए
हुए हैं। जी हाँ, ज़ीरो ग्रैविटी
! भार हीनता। मैंने देखा कि लोग ऊपर उठ रहे हैं। जैसे कोई अदृश्य चुम्बक उन्हें खींच
रही है। नहीं तो बिना किसी सीढ़ी की मदद से इतनी ऊँची जगह पर लगाई बर्थ पर चढ़ना कैसे मुमकिन हो सकता है। मैं
कन्फ्यूज़ हूँ कि ये बर्थ हैं या सामान रखने की ताक। लेकिन लोग ऊपर की और खिंच रहे थे
और उन ताकों पर लद रहे थे...नाटे, लंबे, मोटे, बूढ़े, बच्चे व अधेड़ सब के सब। सीटों के ऊपर की बर्थ,माफ़ करें ताक, लोगों से भर गईं। गैलरी के ऊपर सामान रखने की परछत्ती
पर सामान रखा हुआ था। सामान व्यर्थ का जंजाल है। इंसान अपने स्वार्थ के लिए सामानों
का संग्रह करता जाता है। बाद में वही सामान मानव सभ्यता के लिए मुसीबत बन जाता है।
इसी दार्शनिक विचार प्रक्रिया से प्रेरित होकर ही शायद एक नौजवान ताक की और ऊपर खिंच
गया, जीरो ग्रैविटी की वजह से।
यह सोच कर कि इस कायनात में प्रकृति ने इंसान के लिए जगह बनाई है अगर वहां सामान रहें
यह मानवता के विरुद्ध बात है। मानवता के विचार से प्रेरित होकर युवक ने सामान को सरकाना
शुरू किया और अपने लेटने के लिए जगह बना ली। ताक युवक के आकार से सकड़ी थी युवक ने अपना
आकार भी सिकोड़ लिया। थोड़ी देर में ही खर्राटों में एक स्वर उसका भी शामिल हो गया।
लोग लगातार अपनी-अपनी जगह तलाश रहे थे डिब्बे में उम्मीद के साथ, और उन्हें मिल भी रही थी। मैंने देखा डिब्बे
में लोग आ जा रहे थे। कोई कोई बाथरूम जा रहा था, कोई बाथरूम से बीड़ी पीकर लौट रहा था, कोई मुंह में लगभग छलकने के स्तर पर पहुंची खैनी
की पीक को थूकने को लपक रहा था। लेकिन लोग गैलरी में नहीं चल रहे थे। ऐसा लगा कि गैलरी
में कोई रोप-वे लगा हुआ है लोग उसी का इस्तेमाल करते हैं। हमने भी एक पल को अपने अंदर
भारहीनता को महसूस किया और खुद को डिब्बे के मध्य वाले कंपार्टमेंट में खड़े पाया। बाकायदा
दोनों पावों की जगह को हमने अपने ऊपर ईश्वर की बड़ी कृपा माना। सीट मिलने की कल्पना
ही हिमाकत थी। फिर भी हमने सीटों का मुआयना करना शुरू कर दिया। रिजर्वेशन के डब्बे
में इतनी ही लंबी-चौड़ी सीट पर तीन तक की गिनती लिखी होती है। मतलब कि यहाँ तीन व्यक्ति
बैठ सकते हैं। इस डिब्बे में में तो चार तक की संख्या लिखी है। लिखा चार है और पांच-पांच
बैठे हुए हैं। इसके पीछे सरकार की क्या मान्यता है। शायद यही कि जनरल डिब्बे में सफ़र
करने वालों का आयतन-क्षेत्रफल रिजर्वेशन वालों की तुलना में कम होता है। इस तथ्य की
पड़ताल करने के लिए एक बार फिर हम लोगों की और देखने लगे।
ऊपर बैठे सफ़ेद दाढ़ी वाले चचा जान ने काफी देर से अपना भारी बैग लिए खड़ी युवती से
कहा, लाओ बिटिया बैग मुझे दे दो,
थक जाओगी।" चचा जी ने बैग लेकर अपनी
गोदी में रख लिया और निचे बैठे लोगों को थोडा अधिकार पूर्वक बोला, " थोड़ा-थोडा सरक जाओ भाई। लड़की को बैठने दो।"
चचा जी ने कहा और लोगों में जुम्बिश हुई लोगों ने लड़की के बैठने के लिए बाकायदा जगह
पैदा कर दी। उसी सीट पर जिस पर चार की संख्या लिखी है। यह हमारे लिए कोई चमत्कार से
कम न था। चचा जी हमें जादूगर जान पड़े। हमें यक़ीन हो चला कि अगर चचा जी चाहें तो तो
इसी चार की संख्या वाली सीट पर सातवें को भी सवार कर सकते हैं। मैंने आशा भरी दृष्टि
से चचा जी की तरफ देखा। चाचा ने इस बार सामने वाली सीट की तरफ इशारा किया और हमने बिना
जगह के एक सिरे पर बैठने का उपक्रम किया और सचमुच ही बैठ गए! मुझे यक़ीन हो गया कि इंसान
में एक अद्भुत कौशल है, आकार बदलने
का। रंग बदलना तो इंसान गिरगिट से सीख चुका है। क्या आकार बदलना जोंक से सीखा होगा?
एक बात तो पक्की है कि इंसान जनरल डिब्बे
में आकर ही अपने इस अद्भुत कौशल को एक्सप्लोर कर सकता है। शायद यही सोचकर ही सरकार
ने जनरल डिब्बे की बैठक व्यवस्था का नियोजन किया है।
इस तरह पूरे डिब्बे में अपने आकार को संकुचित
व पल्लवित करने के इंसानी कौशल की मिसालें नज़र आने लगीं। हर स्टेशन पर यही मुजाहिरा
होता। चार - चार वाली सीट पर सात-आठ तक बैठ रहे थे। बैठना क्रिया इस स्थिति में न्याय
संगत भाषाई प्रयोग नहीं होगा। ऐसा लग रहा था कि हम टंगे हुए हैं। डिब्बे में सीटें
नहीं बल्कि खुंटिया लगी हुई हैं। हर खूंटी पर एक इंसान टंगा है। मैं तो सरकार से अनुरोध
करूँगा कि वह हर ट्रेन में एक जनरल डिब्बे की व्यवस्था जरूर करे। चाहे शताब्दी हो,
राजधानी हो या दुरंतो सभी में जनरल डब्बे
की व्यवस्था होनी ही चाहिए। बुलेट ट्रेन में भी एक जनरल डिब्बे की मैं शिफारिश करूँगा।
यदि सरकार चाहती है कि इंसान की कल्पनाशीलता, सृजनशीलता निखर कर आए। उसकी अंदर की संभावनाएं निकल कर
आएं तो जनरल डिब्बे की व्यवस्था हर ट्रेन में होनी चाहिए। यह काम पूरी ट्रेन को जनरल
करने से नहीं होगा। एक ही डिब्बा होना चाहिए। यदि किसी ट्रेन में दो डिब्बे हैं तो
उन्हे तुरंत प्रभाव से एक कर देना चाहिए। बस एक डिब्बा हो। सुविधाओं की चिन्ता नहीं
करनी चाहिए। वैसे भी इस डिब्बे के यात्री सुविधाओं का प्रोपर इस्तेमाल कहा करते हैं।
वे इन सुविधाओं को अपनी कल्पनाशीलता को विकसित करने में करते है। टॉयलेट का इस्तेमाल स्मोकिंग ज़ोन के रूप में करते है। गैलरी का सोने
के लिए करते हैं। लगेज कैरियर का इस्तेमाल स्लीपर बर्थ के लिए करते हैं। रेलवे ने डस्टबिन
नहीं लगाया तो क्या हुआ इस डिब्बे के यात्री किसी भी जगह डस्टबिन की कल्पना कर लेते
हैं। इसलिए इस डिब्बे में जितनी सुविधाएं होंगी कल्पनाशीलता कम होगी। सरकार को डिब्बे
में तमाम सुविधाओं को बढ़ाने की चिंता नहीं करनी चाहिए। लोग असुविधाओं में भी अपना सुख
खोज लेते है। पूरा डिब्बा अपने हाल में अब मगन है। बर्थ पर बैठे व्यक्ति ने ताश निकाल
ली है। उसने गैलरी में खड़े व्यक्ति को ताश की गड्डी पकड़ाई। उसने ताश को फेंटा औए खिड़की
के पास बैठे व्यक्ति को ताश बाँटने लगा। सब अपनी गति से चलने लगा। चाचा दूसरे यात्री
से कह रहे हैं कि बेटी को बी एड करवा दिया है अगले साल शादी कर दूंगा। एक बुजुर्ग दूसरे
को कह रहे हैं कि भाई स्वर्ग - नर्क सब यहीं हैं। डिब्बे में जिंदगी ने भी रेल के साथ
रफ़्तार पकड़ ली है।
मैं तो कहता हूँ कि बस हर ट्रेन में एक जनरल डिब्बा सृजित करना चाहिए। भले ही जनरल
डिब्बे की जगह खाली स्थान ही छोड़ दे तो लोग अपनी अद्भुत कल्पनाशीलता व सृजनशीलता से
उसके नायाब उपयोग रेलवे को सुझा सकते हैं। बस दरकार है एक जनरल डब्बे की।
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दलीप वैरागी
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Nice blog Chacha Beragi keep it up
ReplyDeleteधन्यवाद चरणपाल भाई।
Deleteऐसी यात्रा किये तो बरसों हो गए। पर पढ कर मजा आया।
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया आशा जी
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteमजेदार यात्रा का वर्णन है। पढ़कर ट्रेन के डिब्बे में मैं भी पहुँच गई। व्यंग्य लिखने की कोशिश अच्छी है। पढ़ते समय गुदगुदाती कम है।
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