Saturday, August 15, 2020

दुनिया एक रंगमंच है : जुमले के निहितार्थ स्तानीस्लावस्की (Stanislavsky's The Unbroken Line) के बहाने से

रंगमंच से अपेक्षा है कि यहां स्वतंत्र चिंतन होता रहना चाहिए । स्वतंत्र चिंतन से एक आशय यह ही है कि रंगमंच पर वैचारिक मंथन के पश्चात ही चीजों को लोगों तक ले जाएँ। आशय यह भी है प्रचलित जुमलों नारों को पहले समझें और उनके निहितार्थ लोगों के सामने भी रखें। 

एक जुमला है जिसे रंगमंच के संबंध में हर कोई प्रयोग करता है, "दुनिया एक रंगमंच है और हम उसके किरदार हैं।" आज हम इस जुमले को समझेंगे। जैसे एक वीडियो में हमने "जय रंगकर्म" पर विचार किया था। 

यदि आप उस वीडियो को देखना चाहते हैं तो यहाँ उसका लिंक दिया गया है।



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"दुनिया एक रंगमंच है" या फिर "जीवन एक रंगमंच है" जैसे वाक्य अक्सर लोगों द्वारा प्रयोग किए जाते हैं। इसका आशय लोक के संदर्भ में तो सब समझते हैं । हम इसको नाट्य सिद्धांतों के संदर्भ में देखेंगे। इस संदर्भ में आप अपने रोजमर्रा की जिंदगी को देखेंगे तो अभिनय के लिए आपको बहुत-सी अंतर्दृष्टि मिलेगी। उदाहरण के तौर पर आप इसे ऐसे समझें। आप अपने दोस्त के साथ कभी स्कूल में होते है, फिर बाजार में भी कुछ समय साथ होते हैं और कभी-कभी आप अपने दोस्त के साथ उसके घर भी चले जाते हैं। अब आप अपने तीनों जगह होने को विश्लेषित कीजिए। वहाँ किए गए व्यवहार को देखिए। एक-सा रहता है या संदर्भ के साथ बदलता है?

क्या तीनों जगह दोस्त के साथ आपकी भाषा एक जैसे होती है? तीनों जगह आपका शब्द चयन कैसे बदल जाता है। क्या आपकी अपने मित्र के साथ बॉडी लैंग्वेज वैसी ही उसके घर पर भी होती है जैसी कि बाजार या रास्ते में थी? आप देखेंगे कि आपका किरदार तीनों जगह चमत्कारिक रूप से बदल जाता है। 

यह अलग-अलग रूप धरने में हम इतने सिद्धहस्त कैसे हो जाते हैं? जगह, संदर्भ बदलते ही कैसे अलग भाषा, अलग शब्दावली, अलग टोन, अलग मुहावरे, अलग भंगिमाएं अपना लेते हैं? अगर इसे हम समझ जाएं तो हमें अपनी नाट्य भूमिका में जाने का बीज यहां से कुछ हद तक मिल सकता है। दरअसल यह हम इसलिए कुशलता से कर लेते हैं क्योंकि दोस्त के साथ साहचर्य से हम उसके संदर्भ, पर्यावरण को समझने लगते हैं। उसके साथ व्यवहार के विभिन्न बिंदु निर्धारित करते चलते हैं। इन्ही बिंदुओं को मिलाकर विभिन्न एक्शन की एक अविभाज्य रेखा का निर्माण कर लेते हैं। इसी कार्यशृंखला के साथ दूसरी चीजें जो अचेतन में पहले से विद्यमान हैं, जुड़ती चली जाती हैं। जैसे भाषा, शब्द, टोन, शारीरिक भंगिमाएं। इसी कार्य श्रृंखला को ही तो स्तनिस्लावस्की The unbroken line of actions कहते हैं। सतानिस्लावस्की कहते हैं आप अपनी भूमिका में तब जा सकेंगे जब आप उस कार्यशृंखला की अटूट रेखा को बना सकेंगे। उनका कहना है कि स्क्रिप्ट में दिया गया किरदार अधूरा होता है। उसके जीवन का बहुत छोटा हिस्सा ही आलेख में होता है जबकि किरदार के जीवन का कैनवास विशाल व विस्तृत है। वो कहते हैं कि आप देखिए कि आपका किरदार तब क्या करता है जब वह दृश्य में नहीं होता है। यानि स्टेज पर नहीं होता है। जो दृश्य दिया हुआ है, उस वर्तमान के साथ अतीत से होते हुए भविष्य तक एक अविभाजित रेखा गुजरती है। यह रेखा वर्तमान में तो दिखती है लेकिन अतीत व भविष्य में अदृश्य है। इस रेखा को अभिनेता को अपनी किरदार की समझ के आधार पर कल्पना के सहारे उभरना होता है, अपने मन में। मसलन उसकी भूमिका का किरदार सभी काम करता है - सोता है, दौड़ता है, तैरता है, नहाता है, खाता है, पीता है। उन सभी क्रियाओं पर आपको गौर करना होगा कि वह यह सब कैसे करता होगा। तभी आप unbroken line ऑफ एक्शन तैयार कर सकेंगे। जब आपके मन में यह तरतीब बन जाती है तो आप सहज पात्रानुकूल भूमिका में जाकर अभिनय करने का एक मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। अपने वास्तविक जीवन में हम सम्पूर्ण जीवन के फ़लक से परिचित होते हैं तो यह unbroken line अनायास ही बन जाती है किन्तु नाटक में अभिनय के लिए हमें पाठ से बाहर झांकना पड़ता है। 

इसके अतिरिक्त भी स्तनिस्लावस्की ने और भी तकनीकें बताई हैं उनका अभी किसी और संदर्भ से जिक्र करेंगे।

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दलीप वैरागी 
09928986983 

 



Tuesday, August 4, 2020

नुक्ते का उच्चारण और उच्चारण का नुक्ता

इस विषय पर वीडियो देखने के लिए क्लिक करें

बात शायद लगभग 20 साल पहले की है जब हम एक जुनून के साथ थियेटर में लगे हुए थे। थोड़ा वरिष्ठता का भान भी हो चला था और हर नए जने को सिखा देने वाला जोश  भी था। एक बार एक नाटक का चयन किया जिसमें उर्दू के शब्द अधिक थे।  उच्चारण में परेशानी होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि अरबी फारसी की कुछ ध्वनियां हिंदी में नहीं हैं। 

हमने भी एक दिन भाषा की पाठशाला खोल दी। बताया कि बहुत उर्दू की पांच वर्णमाला की पांच ध्वनियों पर उर्दू के शब्दों पर नुक्ता लगाकर उच्चरण किया जाता है-क़, ख़ ग़, ज़, फ़ और फिर ध्वनियों के उच्चारण की लंबी कवायद शुरू हो गई। लगा कि सब कुछ ठीक रहा। कुछ दिन रिहर्सल की भी आई गई हो गई। फिर एक दिन अभिनेताओं से मिले तो एक-दो के उच्चारण अपनी बातचीत में नुक्तों की बौछार कर रहे थे। जिन शब्दों में नुक्ते नहीं लगते वे शब्द भी नुक्तों से सुशोभित हो रहे थे।

समझ मे आया कि यह गफलत भाषा की पाठशाला में ही हो गई। 

  1. दअसल उच्चारण में शुद्ध अशुद्ध जैसा कुछ नहीं होता है। भाषा में हमेशा ताजगी बनी रहती है। वह कभी बासी नहीं होती क्योंकि वह बदलती रहती है। 

  2. हमे लगा कि भाषा एक जीवंत माध्यम है और हमने उसके साथ छेड़छाड़ कर दी। दरअसल हमें करेक्टर की भाषा के बदले में एक्टर की भाषा में छेड़छाड़ कर दी। जबकि एक्टर की भाषा एक जीवंत भाषा है जो सदियों की यात्रा तय करके उस तक पहुंची है। उसको हम सुधारने बैठ जाते हैं। उसके जीवन मे गजल और ग़ज़ल दोनों शब्द एक साथ रह सकते हैं। हो सकता है उसका गजल उसकी बोली में किसी लोक कलाकार की गायकी से आया हो। हो सकता है अरबी फारसी का कोई शब्द कबीर की सधुक्कड़ी इंजिनयरिंग से उसकी भाषा मे आया हो तो अब आप उसकी मरम्मत करने मत बैठिये। अब आप उसे ग़ालिब  वाला ग़ज़ल का भी उच्चारण बता दीजिए। हम सब मल्टीकिंगऊअल होते हैं दोनों को एक साथ सहेज का रख सकते हैं और प्रयोग भी कर सकते हैं। यहीं इंसान का जबरदस्त भाषाई कौशल है। हमें अभिनेता की अपनी भाषा का एहतराम करना चाहिए।

  3. दरअसल इन अभिनेताओं ने ध्वलियों का निरर्थक अभ्यास कर लिया

  4. आम तौर पर हम भाषा मे शब्दों का उच्चारण करते हैं, ध्वनियों का नहीं ध्वनियों को हम समझने के लिए अलग करके देखते हैं। इसलिए ध्वनियों का उच्चारण अभ्यास शब्दों में ही हो शब्दो से बाहर नहीं। शब्द ही भाषा की सार्थक उच्चारण इकाई है। 

  5. हमें यह कहने से बचना होगा कि नुक्ता ग, ख, फ पर लगा है बनिस्पत यह बताना चाहिए कि ये अलग ही ध्वनियां हैं। अन्यथा अभिनेता अनावश्यक नुक्ताकरण की प्रवृत्ति पकड़ लेगा। 

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...