बच्चों के नाटक
प्रायः प्रदर्शनधर्मी (परफॉर्मेंस ओरिएंटेड) नहीं होते हैं। वे अपने नाटक दर्शक को
मद्देनज़र रख कर बनाते ही नहीं । बच्चों के नाटकीय खेलों पर तो यह बात सौ फीसदी फिट
बैठती है। नाटकीय खेलों में तो दर्शक अयाचित होता ही है। वे अपने इन खेलों को
आइसोलेशन में खेलते हैं। आइसोलेशन से अभिप्राय है कि उन्हें वयस्कों की उपस्थिति
बर्दाश्त नहीं होती। हो भी क्यों न, ज्यादातर
उनके खेलों के किरदार यही वयस्क लोग होते हैं। और यह आप जानते हैं कि राजा नंगा है
ये बात छोटे बच्चे ही बोल सकते हैं। इसलिए उनकी सेंसरशिप से मुक्त बच्चे अपनी छोटी
सी दुनिया में इस विराट संसार को निर्ममता से परख रहे होते हैं। अगर आप थोड़े समय
के लिए बचपन के कुछ नाटकीय खेलों को याद कर पाएं तो यक़ीनन आपको एक दो ऐसा मिल
जाएगा जो बड़ों के हिसाब से नाकाबिले बर्दाश्त होगा।
बड़ा होने पर
यानि स्कूल जाने की अवस्था में दर्शक का थोडा दखल बढ़ता है। यहाँ पाठ्यचर्या के
भीतर या बहार उन्हें नाटक करने के लिए कहा जाता है। बच्चे इन नाटकों को उतनी ही
शिद्दत से तैयार करते हैं जितना वे उसे अपने स्वायत्त नाटकीय खेलों में करते थे।
स्कूल में खेले गए नाटकों में उनका लक्ष्य दर्शक होते तो हैं लेकिन उन्हें अब भी
दर्शकों की परवाह कतई नहीं होती। वे अपने प्रदर्शन में पूरा समय व ध्यान दुनिया के
बारे में खुद की समझ को व्यक्त करने या फिर उसे दुरुस्त करने के उपक्रम में लगाते
हैं। परफॉर्मेंस के बीच में यदि किसी पात्र की पगड़ी खुल गई तो फिर कथा उतनी देर तक
स्थगित रहती है जब तक कि उसका दुरूस्तीकरण नहीं हो जाता है। हो सकता है कि विभिन्न
प्रकार की पगड़ियों, पंजाबी, राजस्थानी, मराठी या फिर किसान की या नेता की पगड़ियों को बांधकर देखा जाए और इसी पर
उनकी चर्चा का सिलसिला निकल पड़े और मूल कथा थोड़ी देर स्थगित हो जाए।
मुख़्तसर में यह
कहा जा सकता है कि हम बच्चों के नाटकों चाहे वे किसी भी फॉर्म में हों महज दर्शक
बनकर नहीं जुड़ सकते। यदि आप शिक्षक हैं , यानि
सीखने व सिखाने में यक़ीन रखते हैं और बच्चे को स्वतंत्र सोच रखने वाला व्यक्ति
मानते हैं, तो आप बच्चों के साथ नाटक पर काम करते वक़्त आनंद
से नहा जाएंगे।
किसी भी नाटक को
पाठशाला से प्रेक्षागृह में निर्देशक बदलता है। दर्शक की एंट्री निर्देशक की
मार्फ़त होती है। यहीं से नाट्यकला स्कॉलस्टिक से को स्कॉलस्टिक की और चल पड़ती है।
निदेशक यदि शिक्षक अभिवृत्तिशुदा है तो यह
भेद अस्वीकार भी किया जा सकता है। पाठशाला का प्रेक्षागृह में रूपांतरित होना कोई
बुरी बात नहीं है। अंततः नाटक एक प्रदर्शन कला है। उसे अपने अंजाम तक जाना ही होता
है। दरअसल निर्देशक दर्शक का लक्ष्य करके अभिनेता या विद्यार्थी को दूसरा सामाजिक
पक्ष दिखता है। अभी तक अभिनेता अपने अंदर संसार की छवि को तलाश रहा होता है।
निर्देशक दर्शक का संधान करके उसे चौखटे ( फ्रेम ) में रखता है। जो दूसरे के
दृष्टिकोण को भी समझने में मदद करता है। इस प्रक्रिया से अभिनेता या विद्यार्थी
सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अपने अंदर सामजिक कौशल, सम्प्रेषण कौशल व अपने सौंदर्यबोध में
परिष्कार करते हैं। निदेशक मन की छवि को जन की छवि के पास रख कर अभिव्यक्ति का
प्रेरण देता है। मुझे लगता है शिक्षा में नाट्यकला की सार्थकता इसी में है कि
पाठशाला प्रेक्षागृह में रूपन्ततित हो और प्रेक्षागृह पाठशाला में। यह तभी हो सकता
है जब यही फ्लेक्सिबिलिटी शिक्षक और निर्देशक में भी हो।
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दलीप वैरागी
09928986983
09928986983
Very true
ReplyDeleteDalip what you say is very apt at the conceptual level and yes might be possible under what we scientifically call cobtrolled condition. But the challenge is to translate this into large scale and across . All kinds ofvschools . These things are happening in ishaans school too. Sensitive issues are getting addressed . But sonewhere the teachers seem to tread a cautious path.
ReplyDeleteEk upyogi vichar jo sabko padhna chhiye
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्तों
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