लड़कियां स्टेज
पर आती हैं। एक लड़की सामने बैठे दर्शकों जिनमें उनके अभिभावक व शिक्षिकाएं बैठे है, से मुखातिब होकर नाटक शुरू करती हैं।
एक लड़की : मैं एक लड़की हूँ और मेरा
नाम है...
कोरस
(सब एक साथ)
: आचुकी
लड़की एक : क्या?
कोरस : हाँ-हाँ आचुकी
लड़की एक : आचुकी?
कोरस : अब तक बहुत आचुकी।
लड़की दो : मैं भी एक लड़की हूँ,
मेरा नाम है...
कोरस : रामघणी
लड़की दो : क्या?
कोरस : हाँ-हाँ रामघणी
लड़की दो : रामघणी?
कोरस : हे राम! अब घणी
लड़की तीन : मैं भी एक लड़की हूँ,
मेरा नाम है...
कोरस : आशा
लड़की तीन : क्या?
कोरस : हाँ-हाँ आशा
लड़की तीन : आशा?
(कोरस
में से कोई आगे आकर ये फ़िल्मी गीत गाती है।)
दिल है छोटा सा
छोटी सी आशा
मस्ती भरे मन में
भोली सी आशा
चाँद- तारों को छूने की आशा
आसमानों में उड़ने की आशा...
कोरस : नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं।
लड़की तीन : तो फिर कैसी आशा?
कोरस : एक लड़का पैदा हो जाए,
यही है आशा।
लड़की चार : मैं भी एक लड़की हूँ,
मेरा नाम है...
कोरस : नेराज
लड़की चार : क्या?
कोरस : हाँ-हाँ नेराज
लड़की चार : नेराज?
कोरस : तेरे पैदा होने से सब
हैं नाराज
लड़की पाँच : मैं भी एक लड़की हूँ, मेरा नाम है...
कोरस : अन्तिमा
लड़की पाँच : क्या?
कोरस : हाँ-हाँ, अन्तिमा
लड़की पांच : अन्तिमा?
कोरस : हमारे धीरज की सीमा।
और नहीं, अब और नहीं,
अब लड़की चाहिए और नहीं...
(इस
बात को नारों की तरह दोहराते हुए कोरस मंच का चक्कर काटता है।)
पाँचों एक साथ : हाँ-हाँ हम सब लड़कियाँ है।
लड़की एक : जिनके पास अपना कुछ नहीं।
लड़की दो : अपना नाम तक नहीं।
लड़की तीन : वो नाम जो मेरे महत्त्व को
बयां कर सके।
लड़की चार : वो नाम जो मेरी पहचान बन
सके।
लड़की पाँच : वो नाम जो मेरा सम्मान बन
सके।
कोरस : तो क्या है तुम्हारे
पास?
लड़की एक : हमारे पास हैं हमारे दुःख
लड़की दो : हमारी पीड़ा
लड़की तीन : हमारे अनुभव
लड़की चार : हमारे संघर्ष
लड़की पांच : हमारी कहानी
यह नाटक
कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, तस्वारिया की लड़कियों के साथ की गई थियेटर कार्यशाला
में तैयार हुआ था। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में वो लड़कियां आवासीय रूप से शिक्षा
प्राप्त करती हैं जो लड़की होने की वजह से या आर्थिक सामाजिक कारणों से कभी स्कूल नहीं
जा पति है या स्कूल छोड़ चुकी होती हैं। यहाँ ये कक्षा 6 – 8 तक की पढ़ाई करती हैं।
नाटक किस विषय पर तैयार किया जाए इस मुद्दे पर
काम करने के लिए जब लड़कियों को छूटे समूहों में काम करने के लिए कहा। मैं समूहों
का काम देख रहा था। एक समूह की लड़कियां अपनी कॉपी में चंद नाम लिख कर ले आईं।
मैंने उनसे कहा कि आपने अपने ग्रुप के सदस्यों के नाम तो लिख लिए लेकिन ग्रुप में
क्या काम हुआ वह तो लिखा ही नहीं। लड़कियों ने कहा, "ये नाम ही तो
हमारे ग्रुप का काम है।" जब मैंने और बात की तो मामला
स्पष्ट हुआ। लड़कियों ने कहा कि ये जो नाम हैं इनमें हमारा अपमान व गैरबराबरी गहरे
तक जुडी हुई है। लड़कियों ने कहा, "हम चाहती हैं कि आप
इसी मुद्दे पर नाटक बनवाएँ।" हमें नाटक का केंद्रीय
विषय मिल गया था। मुझे यह ताज्जुब हुआ कि लड़कियों ने नामों की सूची में ऐसे नाम भी
डाल रखे थे जिन्हें हम आमतौर पर अच्छे नामों में गिनते हैं। एक नाम था - रामप्यारी।
मैंने लड़कियों से पूछा, “इस नाम में
क्या गड़बड़ है?” लड़कियों ने कहा, " लड़की के जन्म होते ही लोग सोचते हैं कि तू जल्दी से राम को प्यारी हो जा,
मतलब मर जा।" अब लड़कियों की व्याख्या
कितनी सही थी राम ही जाने लेकिन लड़कियों ने अपना एक दृष्टिकोण रखा यह बात मायने
रखती है। चीजों को विश्लेषण करके समझने की शुरुआत हो गई थी। नाटक की प्रक्रिया ने अपना
काम शुरू कर दिया था।
नाटक वहीं पर खत्म
नहीं हुआ। इसके बाद तो लड़कियों की कहानी शुरू होती है। वे एक-एक करके अपनी तकलीफें
सबके सामने रखने लगीं। अभिभावकों की आँखों में ऊँगली डाल कर बताने लगीं कि कब-कब
वे उनके साथ जेंडर के आधार पर नाइंसाफियाँ करते हैं। शायद अभिभावकों ने अपने
बच्चों का इस रूप में पहली बार सामना किया होगा। आज अभिभावक उनकी तल्ख़ बातों को
सुनकर रोष में नहीं थे। क्योंकि नाटक एक ऐसा अंदाजे बयां है जो भावनात्मक व
वैचारिक दोनों रूप से छूता है। यक़ीनन लड़कियों ने यही सवाल उनसे सीधे घर-परिवार में
रखे होते तो अभिभावको की प्रतिक्रिया अलग होती। अगर हिंसक न भी होती तो
प्रतिरोधात्मक तो जरूर होती। निसंदेह यह नाटक की ताकत थी जिसे इन लड़कियों ने व
शिक्षिकाओं ने जरूर समझा होगा। नाटक के माध्यम से लड़कियों ने ठहरी हुई झील में
पत्थर मार दिया था। अभिभावकों में एक चर्चा शुरू हो गई। उन्होंने माना कि परम्परा
व अपनी मानसिकता की वजह से वे अपनी लड़कियों के ऐसे नाम रखते आए हैं। आज तक इस विषय
पर सोचा भी नहीं था। सब ने माना कि अब ऐसे नाम रखने का सिलसिला बंद होना चाहिए।
ऐसी कोई मज़बूरी नहीं कि ऐसे नाम रखे जाएं। अभिभावकों ने प्रस्ताव लिया कि अब जब भी
कोई नई लड़की विद्यालय में प्रवेश ले जिसके नाम के साथ इस तरह की विडम्बना हो,
तो शिक्षिकाओं को एक प्रक्रिया अपनाकर उनके नाम बदलने चाहिए। क्यों कोई लड़की
जीवनभर ऐसे नामों को ढोए जो उसे पसंद नहीं और जिसे सुनकर वे अपमानित हों।
विद्यालय की
वार्डन सौभाग्य नंदिनी ने बताया कि इस सत्र में भी तीन-चार लड़कियां ऐसी हैं जिनके
नाम बदलने की जरूरत है। प्रक्रिया तो चल रही है, अभिभावकों ने
हलफनामे भी दे दिये हैं लेकिन फिर भी बहुत
कानूनी पेचीदगियाँ हैं जिनसे गुजरना बहुत मुश्किल है लेकिन प्रक्रिया जारी है। नाटक
जारी है, उसका काम करना जारी है।
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दलीप वैरागी
09928986983
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Well written and on a relevant issue. The name is like a silent branding. I am glad that the issue has been raised as a collective and in a public forum
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