क्रम सं.
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मंचन की दिनांक
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मंचन का स्थान
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निर्देशक / अभिनेता
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1
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29 जनवरी 2017
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सागर, मध्य प्रदेश
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निर्देशक - मयंक विश्वकर्मा, एमपीएसडी
(मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय)
अभिनेता - मयंक विश्वकर्मा
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2
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22 दिसंबर 2019
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हजारीबाग, झारखंड
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निर्देशक - सौरव सिंह
अभिनेता - सौरव सिंह
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3
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17 मार्च 2022
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अलवर
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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4
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20 मार्च 2022
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रवीन्द्र मंच, जयपुर
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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5
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4 अगस्त 2022
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इंदौर, मध्य प्रदेश
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निर्देशक - निते श उपाध्याय
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6
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18 अगस्त 2022
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गेयटी थियेटर, शिमला
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निर्देशक - केदार ठाकुर
अभिनेता – सुमित ठाकुर
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7
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17 सितंबर 2022
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रोहतक
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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8
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3 अक्टूबर 2022,
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अलवर
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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9
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27 नवंबर 2022
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दिल्ली
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निर्देशक - योगेश जलूथरिया
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10
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8 अक्टूबर 2022
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नाहन
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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11
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9 नवंबर 2022
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पटियाला
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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12
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10 मार्च 2023
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अलवर
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निर्देशक – देशराज मीणा
अभिनेता – हितेश जैमन
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13
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27 मई 2023
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बिलासपुर
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निर्देशक - केदार ठाकुर
अभिनेता – सुमित ठाकुर
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14
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3 जनवरी 2024
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रायगढ़,
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निर्देशक – श्याम देवकर
अभिनेता – युवराज सिंह आजाद
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15
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29 अगस्त 2024
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मैजिक इफ टिएटर ग्रुप, मुंबई
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निर्देशक – सौरभ बंसल
अभिनेता – अंकित सिंह विष्णु
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(पर्दा खुलने पर अंधकार। प्रकाश वृत्त एक युवक पर आता है,
युवक आलोकित होता है। प्रकाश वृत्त ठहरा हुआ है। युवक भी स्थिर है। केवल संगीत चल
रहा है। युवक में हल्की जुंबिश... चेतना अधिक होने पर कराहटें... अचानक उठ बैठता
है। विस्फारित आँखों से अपने चारों और देखता है। बड़ी तत्परता से मंच पर कुछ तलाशने
लगता है। अचानक कुछ क्षण के लिए मंच से गायब... कुछ असपष्ट प्रलाप, जैसे किसी को पुकार रहा हो। उसी हालत में मंच पर आकर तलाश जारी...
अंततोगत्वा वह अपना सिर पकड़ कर खड़ा हो जाता है, जैसे अभी गिर
पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि पेट से उठे शब्द कंठ तक आकार दम तोड़ रहे हैं। लंबे
सन्नाटे को तोड़ते हुए बोल उठता है।)
कहाँ गए सब के सब?... शायद मर गए।
(अचानक भूल सुधार
करते हुए)
शायद क्यों यकीनन मर गए होंगे। इस विध्वंस-यज्ञ में भला
किसी के बचे रहने की उम्मीद की जा सकती है?
(सन्नटा)
इतनी लाशों में से अपनों को कैसे खोजूँ?
पहचान हो जाए तो ठिकाने लगा दूँ। ... नहीं अपने-पराए का भेद तो संकुचित हृदय के
लोग करते है... शायद कहीं पढ़ा था यह .... मुझे सबको ठिकाने
लगाना होगा।
(मंच पर पड़े हुए शवों को एक-एक करके घसीटता हुआ विंग से
बाहर छोड़ आता है। दो तीन बार यही क्रम। अब थका हुआ व इरिटेडेट प्रतीत होता है। इस
बार वह बड़बड़ाता हुआ मंच पर आता है।)
हे विधाता! किस-किस को ठिकाने लगाऊँ,
लाखों करोड़ों मरे हैं यहाँ। क्या मेरे अकेले का ठेका ले रखा है। ये रेडक्रॉस वाले
कहीं मर गए क्या? सरकारें भी कितनी निकम्मी हैं, बताओ अभी राहत-दल नहीं पहुंचे हैं। ... भाड़ में जाएँ सब के सब, मैं अकेला ही क्यों पचूँ। अरे जब रेडक्रॉस, सरकारें
सब के सब खप गए तो साले चील, गिद्ध और कुत्ते भी मर गए क्या? क्यों नहीं इन सब को नोच-नोचकर खा जाते, क्यों नहीं
आते इस महाभोज में।
(अचानक जैसे चेतना लौटती है।)
आह! ऐसे समय में बुद्धि भी कुंद हो जाती है। ठीक ही कहा है –
“विनाशकाले विपरीतबुद्धि:”। मैं क्यों व्यर्थ में प्रलाप कर रहा हूँ,
कौन बचा होगा इस धरती पर यह सब संपादित करने के लिए? सामान्य
लड़ाई नहीं हुई यह, वर्ल्ड वार, तीसरा
विश्व युद्ध परमाणु बमों से लड़ा गया है यहाँ...
(कुछ चहलकदमी)
आखिर क्यों बार-बार मुझे अपनी आँखों देखे पर यकीन नहीं होता?
पश्चिम के क्षितिज से मैंने देखा था... अचानक लाखों बिजलियों की कानफोड़ गर्जना के
साथ एक अग्नि-पुंज, एक बड़ा सा आग का मशरूम, जैसे ब्रह्मांड के
हजारों सूर्य आज एक साथ निकले हों। जिनके सामने हमारा दैनिक प्रहरी सूर्य भी जाने
कहाँ दुबक गया। आग का गुब्बारा सब कुछ समेटता चला गया। सारा दृश्य बदल गया, जैसे यवनिका डाल कर बड़ी चतुराई से, पल में ही नाटक
में दृश्य बदल दिया हो – गगनचुम्भी इमारत मलबे का ढेर हो गई,
ठूंठ वृक्ष ऐसे लग रहे थे, जैसे यूं ही बोए थे, सोखी हुई लाशें, सड़कों के प्रकाश स्तम्भ पिघलकर
किसी एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग में तब्दील हो गए... बस ... बस इतना ही देख पाया था मैं।
उसके बाद वह चमकीला बादल मेरी आँख की पुतली में समा गया जो गहरा होकर एक काले
धब्बे के रूप में जम गया। इसके बाद क्या हुआ मैं नहीं जानता... आह! उसके बाद भी
कुछ होना बाकी था?
(उसका एकालाप कुछ देर के लिए शांत,
अचानक फिर बड़बड़ाने लगता है।)
कितना भयावह था वह सब, जिसको घटे अभी ज्यादा समय
नहीं हुआ। जिस कायनात को कुदरत की करोड़ों साल की कलकारी ने तिनका-तिनका करके
सिरजा। इंसानियत की पीढ़ियों की मेहनत ने संवारा... सब .... सब... एक मिनट में...
एक मिनट भी कहाँ लगा। इतना भयानक महाविनाश, वैज्ञानिक
जनसंहार, जिसे मैंने अपनी इन एक जोड़ी आँखों से देखा... लेकिन, शायद उस विध्वंसकारी घटना का चश्मदीद गवाह अब मैं ही बचा हूँ, शायद सुनने वाला भी। इस विश्व-रंगमंच का अकेला अभिनेता या यों कह लो
अकेला दर्शक भी
(बोलते-बोलते उसका गला अवरुद्ध होने लगता है। ऐसा और बहुत
कुछ कहना चाह रहा है, मगर कह नहीं पाता। लेकिन विवशता को
तोड़ते हुए फूट पड़ता है।)
क्या कहूँ? किससे कहूँ?
बहुत कुछ है जो कहना चाहता हूँ, मगर कह नहीं पा रहा हूँ।
मेरे शब्द गले से निकालने से पहले ही निष्प्राण हो रहे हैं। मेरा एकलाप सुनने के
वास्ते कौन बैठा है इस धरा पर। जब कोई नहीं है तो किसे सुनाऊँ वह जो सारे विश्व की
संश्लिष्ट पीड़ा-सी मुझमे समाहित है, किसे सुनाऊँ वह
त्रासद-क्षण जो अभी मैंने मर-मर के जीये हैं। उनका एक एक का सिलसिलेवार बयान करना
चाहता हूँ। मन के ज्वार को उतारना चाहता हूँ।... देखो न! मेरा एक-एक शब्द कितना
सार्थक है, प्रयोजनीय है। पर ये व्यर्थ की बकवास क्यों बन
जाते हैं। मुख से निकलने के बाद अंतहीन व्योम में विलीन क्यों हो जाते हैं, उनकी प्रतिध्वनि तक सुनाई नहीं पड़ती। क्या प्रतिध्वनित करने वाले तमाम
अवरोध हट चुके हैं?
(पिच बदलता है।)
आह! शब्दों की
सत्ता क्या इसीलिए होती है कि उसके सुनने के लिए कोई कर्ण-युगल हो। क्या आज इस सामूहिक मौत के साथ शब्द भी मर गए। ओह! मैं तो सोच रहा था कि मुझ से बाहर ही मौत का
तांडव फैला था। ये मेरी गलत फहमी थी कि मैं बच गया... लेकिन बहुत कुछ है जो मेरे अंदर भी ढह गया...मर गया ...मेरे भीतर भी मौत पसर चुकी है। उसने सबसे पहले मेरे शब्दों का गला घोंटा है... भाषा को मारने के बाद इंसान को मारना आसान होता है...
(विक्षिप्तता)
बाहर के धमाके के शोर में मेरे अंदर शब्द भी घुट कर मर
गए... भगवान शब्द की आत्मा को शांति दे... क्या मेरे मुंह के शब्द भी मर गए! ओह
लगता है मेरे अंदर भाषा ने आत्म हत्या कर ली... आदमी अकेलापन बर्दाश्त कर सकता है
लेकिन भाषा अकेलेपन से डरती है... इसी डर से उसमे आत्महत्या कर ली।
(विक्षिप्तता बढ़ती है)
सुनो पाणिनी... सुनो चोम्स्की .... कालीदास... शेक्सपीयर
सुनो तुम्हारी सजाई-सँवारी, पाली-पोसी भाषा ने आज आत्महत्या कर ली... ‘संस्कृत देवों की भाषा है” ... “वह श्रेष्ठ है ... सभी भाषाओं की जननी है”...
“अँग्रेजी शोषण की भाषा है”... सीखो, बाजार की भाषा है, अँग्रेजी संसद में है, अँग्रेजी हाईकोर्ट में है, नोकरियों में है... हिन्दी राष्ट्रभाषा है ... हमें हिन्दी से प्यार है
... हिन्दी दिवस जिंदाबाद... अँग्रेजी की छाया में रोज भाषाएँ मर रही हैं... सब
शोर खत्म ... सारा कोरस शांत... लो सच में भाषा मर गई...साथ में ही मर गई सारी
इश्क की दास्तानें, परिकथाएँ ... लैला मजनू... हीर रांझा...
शीरी फरहाद... अलिफ लैला ... पंचतंत्र... मेरे अंदर आज भाषाओं का एक कब्रिस्तान है... किस्से-कहानियों, परिकथाओं, मिथकों व शब्दों का शमशान है...
(घृणा से)
इससे पहले कि ये मुर्दा शब्द मेरे मुंह में सड़ जाएँ,
मुझे इनको बाहर निकाल फेंकना चाहिए। मुझे बोलना चाहिए...
(पागलपन बढ़ जाता है।)
बोलूँगा, जरूर बोलूँगा,
धाराप्रवाह बोलूँगा ! अविराम बोलूँगा!! इससे पहले कि मेरे मुख से बदबू आने लगे निकाल
फेंकूंगा सारे के सारे शब्दों को। बोलूँगा, तब तक बोलूँगा जब
तक कि एक भी भी मुर्दा शब्द मेरे मुख में बाकी है।
(ज़ोर देकर)
बोलूँगा, हाँ-हाँ मैं बोलूँगा, बोलूँगा ... बोलूँगा... बोलूँगा..........
(हाँफने लगता है। लंबी श्वासें साफ सुनी जा सकती हैं।
धीरे-धीरे सामान्य होता है। एक पर्याप्त समय तक सन्नाटा।)
नहीं, नहीं बोलूँगा मैं। क्यों बोलूँ मै? पहले क्या कम बोला गया है इस धरती पर। बोलना तो शोर होता है न, और शोर प्रदूषण।
(सन्नाटा)
देखो कितना प्यारा लग रहा है यह सन्नाटा। बहुत दिनों बाद
आया है बेचारा। सन्नाटे, इतना बता, तू चाहता
तो चुपचाप आकार पसार सकता था, मगर इस बार तू धमाकों के साथ
क्यों आया?... अच्छा बहुत आहात किया था तुझे – धड़धड़ाती
मशीनों ने, लाउड स्पीकरों नें, युद्ध
दुंदुभियों नें। लगता है इस बार लंबी तैयारी करके आए हो। वैल्कम, अब आप ही रहोगे मेरे साथ। तो फिर मैं तुम्हें शब्दों से आहत क्यों कर
करूँ ? अब तुम्हें ही तो रहना है मेरे साथ और मेरे बाद अपनी
संपूर्णता में। तो फिर अपने इस परम साथी को परेशान क्यों कर करूँ? ... आओ सन्नाटे! आपका स्वागत है। सन्नाटे! मेरे मित्र! मेरे साथी! तू
शाश्वत है, तू सत्य है, तू ही सुंदर
है। जब कोई इस धरती पे नहीं था, तो तुम थे। अब कोई नहीं
रहेगा, तो तुम रहोगे। तुमसे ही दुनिया शुरू हुई, तुममें ही विलीन हो गई। ..... माने !.... मिल गया ! आज मिल गया जिसे
ऋषि-मुनि जीवन भर खोजते-खोजते खप गए, आज मिल गया – परम सत्ता
! यही है सन्नाटा!! सन्नाटा महान है, सन्नाटा भगवान है, सन्नाटे तुम्हारी उम्र लंबी हो, तुम अमर हो। ...
नहीं बोलूँगा...
(कान पकड़ कर)
... नहीं बोलूँगा, बिलकुल नहीं बोलूँगा ...
तो क्या करूंगा?
(सोचता है)
चिंतन करूंगा। किस पर चिंतन करूंगा?
जब सब कुछ था तो दार्शनिक उसमे से ‘कुछ नहीं’ तलाशते थे। अब कुछ नहीं है तो मैं उससे कुछ न कुछ तलाश ही लूँगा। आखिर
मैं ऋषियों, दर्शनिकों - सुकरात,
प्लेटो, मार्क्स, हीगेल आदि की आखिरी कड़ी पे
हूँ। जब तक हूँ मुझे परंपरा को आगे बढ़ाना है। हाँ मैं चिंतन करूंगा। तो फिर अपने
निष्कर्ष किसे सुनाऊँगा? संगति के बिना चिंतन तो सारहीन होता
है। .... कहूँगा सबसे कहूँगा। डही इमारतों की एक-एक ईंट से कहूँगा, सड़ी लाशों को सुनाऊँगा, ठूंठ पेड़ों को सुनाऊँगा, सब को सुनाऊँगा ... सबको...
(थक जाता है। पीठ पे किसी चीज़ का सहारा लेकर बैठ जाता है।
आँखें बंद कर लेता है। लंबी सांसें भर कर छोड़ता है। कुछ क्षण चुप्पी।)
काश हम हिरोशिमा-नागासाकी से कुछ सीख पाते... जब परमाणु
परीक्षण हुआ तो पूरे हिंदुस्तान की छाती फूलकर गजभर की हो गई थी। उनमें सर्वाधिक
पुलकित मैं भी था। अखबारों में प्रशस्तियां मैंने भी लिखी थीं। मेरा देश महाशक्ति
बन गया। सोचता था देश हथियारों से बड़ा बनता है। यह मानसिकता अचानक नहीं उग आई थी।
कहानियों व शौर्यगाथाओं की मार्फत बालमन से ही बोई गई थी,
जो एक लंबी परंपरा की उपज थी। अकेले अश्वत्थामा के पास ही नहीं होता है
ब्रह्मास्त्र। अर्जुन के पास था तो कर्ण भी पीछे नहीं था। हुआ क्या यद्ध की
त्रासदी उस युग की सारी जनता ने भोगी। ... यही, बिलकुल यही
तो इस युग में हुआ। अमेरिका ने आणविक हथियार बनाए , तो
रूस-चीन भी पीछे नहीं रहे; भारत ने परमाणु परीक्षण किए तो
पाकिस्तान ने दो ज्यादा फोड़े।
(पिच बदलकर )
कभी नहीं सोचा कि देश हथियारों से बड़ा नहीं होता। देश बड़ा
होता है शिक्षा से, अच्छे राष्ट्रीय चरित्र से एवं उत्कृष्ट
जीवन स्तर से। इस पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। मात्र हथियारों के संग्रह से देश
बड़ा कैसे हो सकता है?... कहते थे कि ये हथियार केवल रखने के
लिए बनाए हैं। इनका इस्तेमाल कभी नहीं होगा। मगर यह भी सत्य है कि जो शस्त्र एक
बार बन जाता है वह प्रक्षेपित अवश्य होता है। भले ही वह उत्तरा के गर्भ पर हो, लेकिन वह प्रक्षेपित जरूर होता है। हमने कभी नहीं सोचा इन हथियारों से वे
तमाम निर्दोष लोग निरीह प्राणी मारे जाते हैं जो इस सारी भागमभाग से अपरिचित हैं।
खेत और खलिहान में काम करने वाले मजदूर की क्या गलती थी जो बेचारा अपने जीवन में
दो रोटी का जुगाड़ नहीं कर सका, वह बेखबर क्या जनता था कि
उसके हिस्से की रोटियाँ वहाँ जमा होकर विनाशकारी बारूद बन रही हैं। क्या दोष था
उनका? हे विधाता ! बताओ क्या दोष था मेरा? क्यों मिली मुझे यह सजा? मैंने तो उनका कुछ नहीं
बिगड़ा। मैं तो कभी उनकी महत्वकांक्षा की राह में नहीं आया। मैं तो हर किसी की
मानता रहा। किसी ने कहा – ये वाले चिप्स खाओ, तो मैंने खाया, किसी ने कहा- उस साबुन से नहाओ, मैं नहाया, किसी ने कहा- ये बनियान पहनो, मैंने पहनी। किसी ने कहा, गोरा करने वाली क्रीम लगाओ तो वह भी लगाई... फिर किसी ने कहा कि ये क्रीम तो औरतों वाली है, तो फिर मर्दों वाली भी खरीद कर लगाई... बताओ मेरा क्या दोष था?
(आवेश में खड़ा होकर तेजी से चल देत है। अचानक किसी चीज से
ठोकर लगती है। संभलकर गुस्से-से उस पर पाँव पटकना चाहता है,
मगर यह सोचकर कि क्षति अपनी ही होगी, झुककर उस वस्तु को गौर
से उलट-पलट कर देखता है। जैसे उसकी स्पष्ट पहचान नहीं बन पा रही है। फिर अचानक
पहचान लेता है। चेहरे पर मुस्कान व विस्मयमिश्रित भाव।)
कंप्यूटर... हा हा हा
(अट्टहास)
तू भी मर गया ! आह ! विज्ञान का चरमोत्कर्ष... या विज्ञान
का अंतिम अवशेष... जीवाश्म, जिसे सदियों बाद धरती खुरच-खुरच के निकाला
जाना था। अं... कितनी भयानक सूरत हो गई है विज्ञान की इस तरक्की की... विज्ञान
मानव भलाई के लिए था। इसका जन्म कुम्हार के चाक से या किसान की हल के फाल के साथ
हुआ था। अरे ओ ... वो आज भी मिट्टी खुरच
रहे थे और तू अपना निरंकुश विकास करके किनके डिब्बे में दुबका बैठा था। जब-जब
स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए विज्ञान के आविष्कारों का इस्तेमाल करेंगे जनता
त्रासदी भोगेगी... शायद गैलियोन ने कहा था। सही कहा था। कितना महान व्यक्तित्व मारा
गया। असमय तो मरा लेकिन बेकसूर नहीं।
(अट्टहास)
हा हा हा ... साइंस ने आत्म हत्या कर ली...
(विक्षिप्तता पुन: लौट आती है।)
आज के मुख्य समाचार हैं कि साइंस ने आत्मा हत्या कर ली...
चलिये आपको घटना स्थल की और लिए चलते है... हैलो हैलो ... हमारे फील्ड रिपोर्टर से
संपर्क नहीं हो पा रहा है... विज्ञान की आत्महत्या की सभी देशो के
राष्ट्राध्यक्षों द्वारा निंदा की गई है... हैलो हैलो ... समाचार विस्तार से ...
वैश्विक शोक की घोषणा...छुट्टी की घोषणा... सम्मान के साथ विज्ञान की अन्त्येष्टि की
जाएगी...
(थोड़ी देर शांत फिर बोलता है।)
चलो इस महान शख्सियत का अंतिम संस्कार कर देते हैं। यह तो
मानव धर्म ही है। इस समय सभी धर्मों का प्रतिनिधि मैं ही तो बचा हूँ। तो फिर मैं
इस कर्तव्यभार से च्युत कैसे हो जाऊँ।
(युवक इधर-उधर से कोई चिथड़ा लहर उसे ढँक देता है। जमीन
खुरचकर एक गड्ढा बना देता है। बड़े सम्मान से उसे गड्ढे में रखता है। मिट्टी डाल कर
ऊपर गर्दन करके बुदबुदाता है। फिर ज़ोर से।)
भगवान ! इसकी आत्मा को शांति दे...
मेरा हुक्म है कि विज्ञान के सम्मान में इक्कीस तोपों की
सलामी दी जाए...
ठाँय... ठाँय... ठाँय............
(कुछ पल शून्य में ताकता रहता है फिर अचानक चिल्ला उठता है।)
आखिर किस-किस को दफनाऊँ। लाखों-करोड़ों क्षत-विक्षत शव,
भुने मांस की बदबू... ये जहर घुली हवाएँ कब तक मुझमें प्राणों का संचार करेंगी? हर सपंदन के साथ प्राण जैसे बाहर उड़ना चाहते हैं। मेरी मौत भी अवश्यंभावी
है। सबसे भयानक मौत मरना है मुझे। पर इतनी आसान नहीं मिलेगी मौत... वर्षों इंतज़ार
करना होगा दुनिया की सबसे खौफनाक मौत का। इंतज़ार करना होगा। कब मेरी धमनियों का
रक्त सड़ जाएगा, मेरे अंग कुष्ठ से गलकर गिर जाएंगे... क्यों
नहीं मर गया मैं ... ऑफिस की दीवार गिरी, पर मुझ पर नहीं। कितना हतभागा हूँ मैं, मुझसे मौत
भी मुँह मोड़कर चली गई। हे भगवान! क्यों बचा लिया मुझ अकेले को? क्यों ?
(फिर चुप्पी। अब उसकी नजर एक बच्चे के शव पर पड़ती है जो
पूरी तरह से जला है। उसके हाथ में क्रिकेट का बल्ला अभी भी है। बल्ला लेकर उसे
विस्फारित नेत्रों से देखता है।)
मासूम, च-च-च स्कूल का बस्ता घर पे रखते ही
चला आया होगा साथियों से क्रिकेट खेलने। शायद बल्ला लेकर खड़ा था, साथी द्वारा फेंकी जाने वाली गेंद के इंतज़ार में कल का सचिन, गावस्कर व ब्रैडमैन शॉट जमाने के लिए। मगर यह अभागा क्या जनता था कि दुनिया
की प्रयोगशालाओं में एक से एक गेंद तैयार की जा रही हैं जिनके मुक़ाबले का बल्ला आज
तक नहीं बना। नहीं झेल पाया एक भी गेंद ... इस वर्ल्डकप में भी गेंदबाजों की ही
जीत हुई।
जब हम छोटे थे तो मोहल्ले के सभी बच्चे मिलकर पास का मैदान साफ करके खेलने के लिए तैयार करते थे। लाइने खींचते थे। पोल लगते थे। नेट बांधते थे... टीमें बनाकर खेलना शुरू करते थे... पूरे उत्साह के साथ... बच्चों का खेल जमते ही बड़े एक - एक करके आना शुरू कर देते थे। जैसे ही कोई बड़ा आता तो हम बहुत खुश होते कि यह हमारे पाले में आएगा तो हम जीत जाएंगे! और वह बड़ा पाले में आता और उसके एवज में एक बच्चे को मैदान के बाहर खड़ा कर दिया जाता... धीरे-धीरे बड़े आते रहते और बच्चे बाहर बिठाए जाते एक एक करके... दो एक घंटे में सभी बच्चे मैदान के बाहर होते और बड़े खेल मैदान के अंदर। खेल वही होता था उत्साह भी उतना ही होता था केवल खिलाड़ी बदल जाते थे। जो पहले खिलाड़ी थे वे बाहर शोर मचाता हुआ कोरस बन जाते थे। " ये मारा ... बहत बढ़िया .... हम ही जीतेंगे"। हमें पता ही नहीं चलता था कि हमारे मैदान में कोई और ही खेल गया! अगले दिन हम बच्चे फिर मैदान साफ करते ... लेकिन युद्ध कोई बच्चों का खेल नहीं। जंग, जंग होती है... भयानक होती है। इसमें भी एक -एक करके बड़े खिलाड़ी आ जाते हैं... फिर एक वक्त ऐसा होता है जब जंग शुरू करने वाले महज शोर मचाने वाला कोरस बनकर रह जाते हैं...
(बल्ले को उछाल फेंकता है। फिर जरा देर खड़ा रहता है,
थोड़ा उन्माद घटता है।)
मैं यह किस बकवासबाजी में लग गया। मुझे फिर बैठकर सोचना
चाहिए। सोचने का काम अब मेरा ही रह गया है। पहले यह काम संसद के जिम्मे था। मुझे
चिंतन करना चाहिए। (पुन: दीवार का सहारा लेकर बैठ जाता है। कुछ क्षण यूं ही । फिर
अचानक जैसे भूल की हो। ) ये मेरे बैठने का स्टाइल सही है? नहीं
मुझे पालथी लगाकर बैठना चाहिए। कहीं पढ़ा था, पालथी लगाने से विवेक
जागता है।...
(पैर फैलाकर बैठ जाता है।)
हिरोशिमा-नागासाकी सुना-पढ़ा था उसके बारे में। आज
न्यूयार्क-बगदाद, दिल्ली-लाहौर,
लंदन-बर्लिन, बीजिंग-मास्को,
ढाका-काबुल सब शहर हिरोशिमा की ही प्रतिकृति हो गए। ये शहर जहां अखिल विश्व कि
जनता के भाग्य-विधाता रहते थे। सबने अपने-अपने दायरे बना रखे थे। अगर कोई रिश्ता
था तो डॉलर का। सीमाओं की सघन काँटेदार तारों के आर-पार कोई चीज़ निर्बाध आ सकती थी
तो केवल डॉलर। इन काँटेदार तारों के अलावा कुछ अदीठ तारें थी – हिन्दू-मुसलमान, ईसाई-यहूदी, श्वेत-अश्वेत ये किस्में बना राखी थी
इंसान की। हरेक दूसरे को दबा कर जीना चाहता था। अपना पेट बदहजमी से फटा जा रहा है मगर
दूसरे की छीन कर खाना चाहता था।... इस सदी का बुद्धिजीवी दुखी था तो इस बात से कि
मनुष्यों की तादाद बढ़ रही है और चीतों और मगरमच्छों की घट रही है। भेड़ियों और
चीतों के लिए अभ्यारण्य बनाए जा रहे थे दूसरी और इन्सानों की नस्लों को दरख्तों की
तरह नेस्तनाबूद किया जा रहा था। .... लो घटा दी गिनती आदमियों की। खुश! विदाउट
फैमिली प्लानिंग, विदाउट एनी कोंडोम। हुज़ूर आप बेवजह परेशान
थे। अपने डार्विन साहब कहा करते थे, “सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट”
जो सक्षम है वही जीवित रहेगा। डार्विन साहब
एक बात समझ में नहीं आती आपने सिद्धान्त प्राणी-विज्ञान में दिया लेकिन यह
सिद्धान्त तो विशुद्ध समाज विज्ञानों का था।
सब मर गए, कौन जीवित रहा?
मैं! सिर्फ मैं!! मैं ही इस अखिल विश्व का सक्षमतम आदमी। मैंने बचा लिया अपने को
इस महासमर में। मर गए दुनिया के बड़े-बड़े ठेकेदार। सीटीबीटी,
पेटेंट, गैट, ग्लोबलाइज़ेशन, जी सेवन, यूएनओ सब मुहावरे खत्म हो गए। मिटा कर
हिरोशिमा को अट्टहास किया था अमेरिका ने। आज अखिल विश्व में मंद-मंद मुस्कुरा रहा
है हिरोशिमा।
अब भी एक प्रश्न बार-बार कचोटता है कि मैं कौन हूँ?
मैं --------(अभिनेता अपना नाम रख सकता है।) पिछले पच्चीस वर्षों से इसी
नाम से पिकरते थे मुझे। लेकिन अब कोई पुकारने वाला नहीं है। सब के साथ मेरा नाम भी
मर गया! पहले इंसान मर जाता था, उसका नाम दुनिया में रह जाता
था। किन्तु कैसी अजीब बात है, आज इंसान जिंदा है, पर नाम मर गया।
(परेशानी बढ़ जाती है।)
नाम मर गया तो मुझे कोई दूसरी पहचान खोजनी होगी। शायद –
धर्म! तो मेरा धर्म क्या है? ऐसे समय में मुझे यह भी सोचना पड़ रहा
है.... तो मैं हिन्दू हूँ? नहीं,
हिन्दू तो मैं तब था जब कोई दूसरा मुसलमान या ईसाई था। ... यदि मैं मुसलमान हूँ तो
फिर किसी न किसी को हिन्दू या... नहीं... यह टुकड़ों बंटी हुई पहचान नहीं चाहिए। तो
मैं कौन हूँ? ....
(एक झटके से खड़ा हो ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है।)
हे विधाता मुझे मेरी पहचान दो। मेरा नामोनिशान दो। इन
धमाकों में कहीं मेरा नाम दब गया है; इन मुर्दों की मंडी में
मेरी पहचान गुम हो गई है। आखिर मैं कौन हूँ, कौन हूँ मैं...???
(अचानक कुछ सूझता है।)
अहा! क्या मैं वही अंतिम व्यक्ति हूँ जो हर प्रलय के बाद बच
जाता है। ब्रह्मा जिसके कंधों पर सृष्टि के पुनर्निर्माण का गुरुत्व भार सौंपते
हैं। दुनिया का हर धर्म-ग्रंथ इस बात को स्वीकार करता है कि प्रलय के बाद एक ‘जोड़ा’ अवश्य बच जाता है, जो पुन: सृष्टि को बसाता है। मैं
वही तो नहीं.... मनु! हाँ, वही मनु जिसका ज़िक्र वेदों और
पौराणिक आख्यानकों में है।
(खुशी से झूमकर)
मैं मनु हूँ। सच में मैं मनु हूँ। अरे मैं तो नाहक दुखी हो
रहा था अपने जीवित बचने पर। मेरा जिंदा रहना सार्थक है। मैं हूँ इस नष्ट प्राय
मानव जाति का उद्धारक। इस ध्वस्त विश्व का निर्माता। मैं इस विश्व का सबसे
जिम्मेदार आदमी हूँ। पता ही नहीं चलता एक कि एक साधारण-सा आदमी कब अवतार बन जाता
है। मनु बचा है तो ‘श्रद्धा’ अवश्य बची
होगी सृष्टि संपूर्णता में कभी खत्म नहीं होती। भगवान एक जोड़े को अवश्य बचाता है।
तो कहाँ है श्रद्धा? तुम कहाँ हो मेरी श्रद्धा मुझे यकीन है
कि तुम्हें भगवान ने अवश्य बचा लिया होगा, इस पुनर्निर्माण
के कार्य में मेरे सहयोग के लिए। तुम कहाँ हो अब तक प्रिय।
(कामायनी से ये पंक्तियाँ बोलता है।)
नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में
पीयूस स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में....
आह ! कैसा होगा उसका साहचर्य वह चुपके से आएगी और सहसा अपने
कर-स्पर्श से मुझे तंद्रा से जागा देगी।कैसी सिहरन होगी उसके कर-स्पर्श मे से,
सच कल्पना भी नहीं कर सकता और फिर वह अपने कोमल-कंठ से कहेगी – “उठो स्वामी, अपने सृष्टि निर्माण-कार्य में प्रवृत्त हो जाओ,
मैं सहयोगिनी इस पवित्र कार्य में नि:संकोच
भाव से आपके समक्ष सर्वस्व समर्पित करती हूँ।” और फिर मैं उसे ... मैं...
मैं... तो फिर वह अभी तक आई क्यों नहीं। अरे मैं सृष्टि निर्माण के लिए कब से
व्यथित हूँ, एक वह है कि उसे चिंता ही नहीं ये औरतें भी न
... आदत खराब है...
(पागलपन)
श्रद्धा ! मैं विश्व का सबसे जिम्मेदार आदमी कब से तुम्हारा
इंतज़ार कर रहा हूँ... ये सारा विश्व मेरा है... ये सारी बादशाहत मेरी है... मैं
अकेला इस पर राज करूंगा...
(अट्टहास)
हा-हा-हा... जिस दिग्विजय के चक्कर में दुनिया के चक्रवर्ती
सम्राट खाक में मिल गए। जिसके लिए सिकंदर, हिटलर, मुसोलिनी, नेपोलियन, जार और चंगेज़खाँ
लड़ते-लड़ते खप गए... बेचारे...
च-च-च... वही बादशाहत मुझे
चुटकियों में मिल गई।
(अट्टहास)
हा-हा-हा... मैं हूँ इस विश्व का एक छत्र सम्राट,
अब यह दुनिया मेरे तरीके से चलेगी... जैसी बनाऊँगा, वैसी
बनेगी... अब मैं हूँ मनुष्य जाति का भाग्य-विधाता हा-हा-हा...
(अट्टहास उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। पागलपन की सीमा पार करती
हुई हंसी, उसके बाद अवरोह। उसी के क्रम मे प्रकाश
धीमा होता है। मंच पर अंधकार, आवाज व आकार दोनों लुप्त।)
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दलीप वैरागी
09928986983
bahut sundar rachana.
ReplyDeleteagar mauka mila to main ise jaroor play karna chahunga
अति सुन्दर रचना
ReplyDeleteदलीप जी नमस्कार, आपका नाटक पढ़ा...अच्छा लगा...इसको Shimla में करना चाहता हूं...कृपया अनुमति दें...
ReplyDeleteसादर
केदार ठाकुर
शिमला 8628964612
https://www.facebook.com/kedar.thakur.96
केदार जी नाटक की सराहना के लिए धन्यवाद। आप यदि नाटक का मंचन करना चाहते हैं तो मेरे मोबाइल नंबर 9928986983 पर WhatsApp मेसेज करके औपचारिक सहमति ले सकते हैं। शुभकामनाएँ ।
Deleteदलीप जी नमस्कार, आपका नाटक पढ़ा...अच्छा लगा...इसको Shimla में करना चाहता हूं...कृपया अनुमति दें...
Deleteसादर
वेदप्रकाश
जबलपुर 7024525955
नाटक की सराहना के लिए धन्यवाद। आप यदि नाटक का मंचन करना चाहते हैं तो मेरे मोबाइल नंबर 9928986983 पर WhatsApp मेसेज करके औपचारिक सहमति ले सकते हैं।
Deleteमै एक युवा रंगमंच अभिनेता हूं। इसे पढ़कर भविभोर हो गया। आपने यथार्थ को दर्शाया है। मै इसकी प्रस्तुति ज़रूर करना चाहूंगा। बहुत ही बेहतरीन तरीके से आपने मानवीय संवेद नाओं को दिखाया है। शानदार ज़बरदस्त ज़िंदाबाद।
ReplyDeleteBahut hi kmall ka play he mai is Play ko zarur Karu ga
ReplyDeleteमैं आपके इस रचना को नमन करता हूँ ,,,आज के परिवेश को देखते हुए आपने जो भविष्य में संजय रूपी दूरदर्शिता रखी है ,,आपको साधुवाद ,,,,,मैं इस नाटक को करना चाहूंगा ,,,,,
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