भरत वाक्य: शिक्षक
विद्यालय में क्या करें
कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में किस तरह के नाटक किए जा सकते
हैं? इसका जवाब
यह हो सकता है
कि बस आपको लड़कियों के साथ नाटक की शुरुआत करनी है। यह शुरुआत कहीं से भी कर सकते हैं, कभी भी कर सकते हैं।
आप इस पर्चे को पढ़ने के अगले चंद घंटों में शुरु कर सकते हैं, जिस दिन आपका
स्कूल का सत्र शुरु हो उस दिन कर सकते हैं या सत्र के किसी भी
दिन कर सकते हैं, कक्षा में
कर सकते हैं, विद्यालय
के मैदान में कर सकते हैं, पुस्तकालय में कर
सकते हैं या हॉस्टल में कर सकते हैं।
सवाल शुरुआत का है। उसके बाद प्रक्रिया में तौर-तरीके आपकी रोज़मर्रा
की पाठ्यचर्या वाले ही हैं। नाट्य प्रक्रिया में हमें सबसे पहले अपनी पाठ्यचर्या के लक्ष्य को अपने ज़हन
में रखना है। उसके हिसाब से नाटक की विषयवस्तु व प्रक्रिया चुन सकते हैं। और, इसी प्रक्रिया में
आपको नाट्य-निर्देशक के साथ एक शिक्षक की पारखी नज़र भी रखनी है। साथ-साथ यह आकलन भी
करते जाना है कि प्रक्रिया के दौरान या उसके पश्चात् क्या शिक्षा के उन उद्देश्यों
के सूचक दिखाई दे रहे हैं या नहीं, जिनका जि़क्र हम प्रस्तावना में कर चुके हैं। यहाँ नाटक
शुरू करने से पहले देखना पडे़गा कि लड़कियों की ताकत क्या है, वे इस उम्र में क्या
महसूस करती हैं, उन्हें क्या
करना अच्छा लगता है? इसी के आधार
पर नाटक की गतिविधियाँ व विषय-चयन में मदद मिल सकती है।
अजमेर व बीकानेर जि़ले के केजीबीवी में जो कार्यशालाएँ हमने
लड़कियों के साथ की हैं, उन अनुभवों
से जो सैद्धांतिक समझ उभर कर आई है, उसे यहाँ संक्षेप में आपकी सुविधा के लिए दिया जा रहा है।
इन कार्यशालाओं में प्रमुख नाट्य रुपों - ‘क्रिएटिव ड्रामा’ व ‘फॉर्मल थियेटर’ को मिलेजुले रूप से
करने की कोशिश की गई है। इसे शिक्षिका या वे जो लड़कियों के साथ काम करने को उत्साहित
हों, कर सकते हैं।
शिक्षिकाएँ चाहें तो इन दोनों विधाओं को सतत अपने शिक्षण का हिस्सा बनाएँ। या फिर इसे सप्ताह
भर या उससे ज़्यादा दिन की कार्यशाला के रूप में कर सकती हैं। अगर इसे कार्यशाला के
रूप में किया जाता है, तो सप्ताह
भर में जो लड़कियाँ मिलकर काम करेंगी और इस सप्ताह भर की रचनाशीलता में जो ऊर्जा व
आनंद उभर कर आएगा, वह किसी उत्सव
या शैक्षणिक मेले-सा अहसास करवायेगा। यह ध्यान देने की बात है कि नाटक केजीबीवी में
वन-टाइम यानी एक बार होने वाली गतिविधि बन कर नही रहनी चाहिए। अपनी सततता में ही यह
विधा असरदार है। निरंतरता के अभ्यास ही पकी हुई आदतों को तोड़ सकते हैं।
1. रचनात्मक
नाटक (क्लासरूम ड्रामा)
रचनात्मक नाटक की शुरुआत हमारे छुटपन में‘घर-घर खेलने’ से हो जाती है। रचनात्मक
नाटक के आधार में बचपन के नाटकीय खेल हैं। बच्चों के मुक्त नाटकीय खेलों में उन्हें
दुनिया जैसी दिखाई देती है,
जैसा वे उसे समझते हैं व जो चरित्र उनके इर्द-गिर्द हैं, वे उनकी नकल करने
की कोशिश करते हैं। इसे बच्चे बिना किसी बाहरी दखल के स्वतः व स्वाभाविक रूप से सहजतापूर्वक
कर लेते हैं। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, खास तौर से छुटपन
में। नाटक के लिए जिस आवेग व उत्साह की ज़रूरत होती है, उसकी बुनियाद है इंसान
के अनुभव, जो ‘एजुकेशनल ड्रामा‘ यानी शिक्षा प्रदान
करने वाली नाट्य गतिविधि के लिए बेहद आवश्यक हैं। इसकी प्रकृति में ही ‘कन्स्ट्रक्टिविस्ट
अप्रोच‘ यानी ज्ञान के सृजन
की पहल है। बच्चों के नाटकीय खेल उन्हें अवसर प्रदान करते हैं कि वे दुनिया को अपने
नज़रिये से देखें व समझें। बच्चों की नाटक करने की यह अद्भुत क्षमता तब अपने चरम पर
होती है, जब वे अपने
घर-परिवेश में होते हैं। लेकिन, विडम्बना यह है कि विद्यालय में आने पर इस नैसर्गिक-क्षमता को
प्रायः विद्यालय जाने -अनजाने में नज़रअंदाज़ करना शुरू कर देते हैं। किशोरावस्था आते-आते
लगभग यह स्वाभाविक स्रोत लुप्तप्रायः हो जाता है। बच्चे दुनिया को अपने तरीके से देखने-समझने
के बजाए एक कृत्रिम तरीके से देखना शुरू कर देते हैं। अभिव्यक्ति का सोता सूख जाता
है। और उसके स्थान पर एक झिझक आ बैठती है, जबकि यह आयु ऐसी है जब किशोरों के पास अनुभवों का एक समृद्ध
संसार है, अपना नज़रिया
विकसित हो चुका है, सोचने समझने
का जज़्बा भी है। ऐसी स्थिति में उस अभिनय कौशल का ज़बर्दस्त इस्तेमाल किया जा सकता
हैं, जो स्वाभाविक रूप से उसमें बचपन से ही विद्यमान है।
नाटक को कक्षा में ले जाने के पीछे जो महत्त्वपूर्ण विचार है, वह यह है कि इससे
रचनाशीलता व कल्पनाशीलता इत्यादि क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है, जिनकी शुरूआत बचपन
के स्वाभाविक नाटकों में हुई थी। आज के समाज में ये बेहद ज़रूरी कौशल के रूप में देखे
जा रहे हैं, न केवल कलाकार
के लिए बल्कि एक आम इंसान के जीवन में भी। लेकिन, इनके अभ्यास कक्षा में दिखाई नहीं पड़ते हैं।
इन्हें उभारने के परिप्रेक्ष्य में नाट्यकला एक आईने का काम करती है, जिससे बच्चों में
समीकक्षात्मक रूप से समाज व मानव के अनुभवों का विश्लेषण करते हुए मानवता व दुनिया
की गहरी समझ पैदा होती है।
क्लासरूम ड्रामा के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि क्रिएटिव ड्रामा
यानी रचनात्मक नाटक व ‘फॉर्मल थियेटर’ यानी औपचारिक रंगमंच
में थोड़ा फ़र्क है। रचनात्मक नाटक में इंप्रोवाइज़ेशन के साथ प्रक्रिया प्रधान होती
है, नाटक का प्रदर्शन
पक्ष इसमें महत्त्वपूर्ण नहीं होता। इसमें अभिनेता-छात्राएँ, शिक्षक के सहयोग से
अभिनय प्रक्रिया में शामिल होकर मनुष्य के अनुभवों का विश्लेषण करते हुए अभिनय करते
हैं। रचनात्मक नाटक, चाहे कक्षा
में हो या इसके अतिरिक्त,
यह सुनिश्चित है कि इसमें हमेशा इम्प्रोवाइज़ेशन यानी कुछ न कुछ तब्दीली बेहतर
प्रस्तुति के लिए होगी। इसमें अभिनेता जो भी संवाद करते हैं वह दर्शकों के उद्देश्य
से नहीं होता है। इसमें अभिनेता एक कुशल शिक्षक द्वारा निर्देशित होते हैं न कि किसी
पेशेवर नाट्य-निर्देशक द्वारा। इसके विपरीत फॉर्मल थिएटर एक फॉर्मल प्रोडक्शन होता
है जहाँ केंद्र में दर्शकों का मनोरंजन ही होता है। यहाँ बहुधा संवाद रटे या याद किए
जाते हैं। ज़्यादातर निर्देशक प्रोडक्शन यानी प्रस्तुति के बारे में निर्देश देता है।
रचनात्मक नाटक पूरी तरह से प्रक्रिया आधारित है। इसका ज़ोर विद्यार्थी
में कौशल-निर्माण पर रहता है कि बच्चे में खुद के बारे में व अपने परिवेश के बारे में
नई समझ बने। अपने शरीर व आवाज़ को वह नए तरीके से सम्प्रेषण का ज़रिया बनाए। एक जटिल
नाट्यलेख से गुज़रना, भूमिका निर्धारित
करना, एक फिनिश्ड
प्राॅडक्ट यानी एक तैयार की जाने वाली प्रस्तुति के लिए काम करना इत्यादि से रचनात्मक
नाटक विद्यार्थियों को छूट देता है कि वे सृजनशीलता के खूब मौके हासिल करें और उनकी
समझ को पुख्ता करें। यह औपचारिक नाटक की बुनियाद है। बच्चों को किसी प्रस्तुति की चुनौती
देने से पहले यह ज़रूरी है कि वे पहले रंगमंच की बुनियादी अवधारणाओं को जानें। वे यह
थिएट्रिकल स्किल और ज्ञान अपने अनुभवों से सृजित करें जो रचनात्मक नाटक देता है। रचनात्मक
नाटकों को कक्षा में सृजित करने में कुछ नाट्य तकनीकें मददगार हो सकती हैं। ये नाट्य
तकनीकें चरित्र की परतों की पड़ताल करने, घटनाओं व स्थितियों का विश्लेषण करने व समस्या समाधान में
सहायक होती हैं।
2. औपचारिक
नाटक (फॉर्मल थिएटर)
यह रंगमंच का वह रूप है जो परंपरागत रूप से हमारे सामने आता
है। इस प्रकार के रंगमंच में प्रस्तुति प्रधान होती है। प्रस्तुति दर्शकों को ध्यान
में रख कर तैयार की जाती है। अनवरत अभ्यास से उसे तैयार कर दर्शकों के सामने पेश किया
जाता है। वर्तमान में विद्यालयों में इस तरह का रंगमंच देखने को मिलता है। विद्यालय
के उत्सवों पर बच्चों की मंडली बनाकर उत्सव वाले दिन इसे सबके सामने दिखाया जाता है।
अक्सर, इसे जैसे-तैसे
अपनी भूमिका की पंक्तियाँ याद कर प्रस्तुति देने तक सीमित कर दिया जाता है। अगर इस
रंगमंच की संभावनाओं पर ध्यान दिया जाए तो इससे स्कूल में बेहतर शैक्षणिक प्रयोग हो
सकते हैं। प्रायः नाटक जहाँ विद्यार्थियों में सोचने, समझने व विश्लेषण
करने का कौशल विकसित करता है, वहीं औपचारिक नाटक में एंड प्राॅडक्ट यानी जो दर्शाई जाने वाली
प्रस्तुति है पर जो आग्रह रहता है, वह विद्यार्थियों में एक्सिलेन्स यानी श्रेष्ठता की ओर
जाने के मूल्य का बीजारोपण करता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा में कला के उद्देश्यों
में एस्थेटिक अप्रिसिएशन यानी सौंदर्य बोध के मूल्य, जिन्हें विद्यार्थियों में विकसित करने की
अपेक्षा की जाती है, वह इसी उत्कृष्टता
के प्रति आग्रह से ही आती है। प्रस्तुतिन को उत्कृष्टता की ओर ले जाने का जो साधन अभिनेता
के पास होता है वह है- उसका मन व शरीर। मन व शरीर को साधने के यहाँ बहुत बारीक व सतत
अभ्यास हैं। ये अभ्यास हमारी धँसी हुई आदतों को तोड़ने का काम करते हैं।
पहले से निर्धारित आलेख पर काम करते हुए आगे बढ़ना एक ज़बर्दस्त
अनुशासन है, जो एक मानक
भाषा तक विद्यार्थियों को लाने में सहायक है। यह इतने अभ्यास देता है कि जब तक चरित्र
व भावानुकूल अभिव्यक्ति नहीं होती, तब तक चैन से नहीं बैठो। यही सतत अभ्यास उच्चारण व सम्प्रेषण
के घपलों को दूर करता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो राजस्थान के पाली व सिरोही जि़लों
में ‘च’ ध्वनि को ‘स’ व ‘स’ को ‘च’ बोलते हैं जैसे ‘चम्मच’ को ‘सम्मस’।
इसी तरह जोधपुर जि़ले में ‘स’ को ‘ह’ बोलने का चलन है।
अगर पूरे राजस्थान के संदर्भ में देखा जाए तो ‘स’ व ‘श’ का आपस में बहुत घपला
है।
ये जो पकी हुई आदतें हैं, ये किसी कक्षा में महज़ बता देने या चेता देने
भर से नहीं टूटेंगी। इनके बहुत सचेत व अनुशासित अभ्यास होने चाहिए। क्योंकि, ये आदतें ज़िंदगी के
रास्ते पर चलते हुए भाषा में आती हैं। इसलिए इन आदतों को तोड़ने का ज़रिया भी ज़िंदगी
की तरह ही हो। यह अभ्यास व मौका औपचारिक नाटक में एक निर्धारित आलेख देता है, जहाँ संवादों के देखे-परखे
अभ्यास होते हैं। कहाँ बोलना है, कहाँ रुकना है, कहाँ ज़ोर देना है, यह बारीकी से देखा जाता है। इन अभ्यासों पर काम करने के
बाद जब कलाकार प्रस्तुति तक पहुँचता है तो वह एक प्रवाहमायी भाषा के साथ होता है। वही
भाषा जिसे स्कूल में सिखाना हमारा पहला ध्येय है। अगर केजीबीवी के संदर्भ में देखें
तो इसमें आने वाली लड़कियों के लिए हिन्दी दूसरी भाषा ही होती है। केवल नाटक ही एक
ऐसा माध्यम है जो इन लड़कियों को शीघ्रता से मानक हिन्दी भाषा से सहजता से परिचित करवा
सकता है, वह भी कौशल
के स्तर पर।
औपचारिक नाटक की जो
एक और खूबी है, वह है इसका
कथोपकथन विधान। कथोपकथन के लिए ज़रूरी है कि पहले पूर्व के कलाकार की लाइनों को सुना
जाए, उसको सुनने
के बाद ही अपनी लाइनें बोली जाएँ। नाटक में आप दूसरे को सुने बगैर खुद नहीं बोल सकते
हैं। नाटक में शुरू से आखिर तक यह ज़बर्दस्त अनुशासन है। नाटक निर्माण-प्रक्रिया में
जब हम इस अनुशासन से गुज़रते हैं, तब अवचेतन में सम्प्रेषण के मूल्य अंकित हो रहे होते हैं, जो बाद में सामाजिक
जीवन में परिलक्षित होते हैं। यही सम्प्रेषण के मूल्य हमें वह नागरिक देते हैं जो सामने
वाले का एक वक्ता के तौर पर, उससे बढ़ कर एक इंसान के तौर पर सम्मान करता है, उसे सुनता है, उसके बोलने की आज़ादी
को तवज्जो देता है और उसे सुनने के पश्चात् अपना मत रखता है।
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दलीप वैरागी
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