इस शृंखला में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में नाट्य कार्यशालाओं के अनुभवों व उनसे बनी समझ को सँजोने की कोशिश की गई है। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (केजीबीवी) सरकार द्वारा संचालित आवासीय विद्यालय हैं। केजीबीवी में समाज के गरीब व वंचित तबके की लड़कियाँ वहीं रह कर कक्षा छ: से आठ तक शिक्षा हासिल करती हैं। यहाँ उन्हें सभी आवासीय सुविधाएं व शिक्षा नि:शुल्क उपलब्ध हैं। यहाँ उन लड़कियों को प्रवेश प्राथमिकता से दिया जाता है, जिन्हें कभी स्कूल जाने का अवसर नहीं मिला है। इसके अलावा वे लड़कियाँ भी आती हैं, जो कभी स्कूल गई थीं, पर कुछ दर्ज़े पार करने के बाद ही उनकी पढ़ाई बीच में छूट गई। संधान पिछले पाँच वर्षों से राजस्थान के केजीबीवी के साथ गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए कार्य कर रहा है। केजीबीवी में जिस तरह की लड़कियाँ नामांकित होती हैं, उनके साथ ऐसी प्रक्रियाएँ अपनाने की ज़रूरत होती है जिससे वे तेज़ गति से सीख सकें, शीघ्रता से पढ़ने-लिखने के बुनियादी तरीके हासिल करें जो उन्हें अपनी कक्षा की अपेक्षित दक्षताओं तक पहुँचने में मदद करें। इसके साथ उनमे न्होंसला कायम हो कि वे सीख सकती हैं। इसी सोश के तहत अजमेर व बीकानेर के केजीबीवी में थियेटर कार्यशालाएँ आयोजित की गईं। यहा उनके अनुभवों का विवरण है। इसका उद्देश्य यही है, कि इन अनुभवों से जो सीख उभर कर आती है, उसके आधार पर शिक्षिकाएँ अपने प्रयोग कर सकें।
नाटक क्या करता है
आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं,
उसमें शिक्षा से बहुत अपेक्षाएँ हैं। लेकिन, वस्तुस्थिति यह
है कि शिक्षा से जितनी अपेक्षाएँ की जा रही हैं, नाउम्मीदी
उससे कहीं ज्यादा मिल रही है। इस नाउम्मीदी के चलते निरंतर शिक्षा व्यवस्था से
असंतोष बढ़ता ही जा रहा है। सब चाहते हैं कि हमारे बच्चे को गुणवत्ता युक्त शिक्षा
मिले। ऐसी शिक्षा जिससे गुज़रकर बच्चा एक बेहतर नागरिक बने। अच्छे नागरिक से बराबरी, न्याय, संवेदनशीलता, मिलकर
रहना, मिलकर काम करना व सहयोग जैसे सामाजिक व संवैधानिक
मूल्यों की अपेक्षा की जाती है। साथ ही उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि उसमे
व्यक्तित्व के कुछ महत्वपूर्ण पहलू कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, प्रभावी सम्प्रेषण व समस्या समाधान के कौशलों का भी विकास हो।
वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को देखने पर उपरोक्त गुणों के
संदर्भ में निराशा ही हाथ लगती है। स्कूली अंत:क्रिया इतनी पाठ्यपुस्तक आश्रित है
कि सारी शैक्षणिक प्रक्रियाएँ पाठ्यपुस्तक में दे गई सूचनाओं व संकल्पनाओं को रटने
के इर्द-गिर्द बुनी जाती हैं। इस सारी कवायद में बच्चे का ज्ञानात्मक पक्ष भले
बढ़ता हो और शायद इस दिशा में वह कुछ विशेषज्ञता व कौशल भी प्रपट कर लेता हो,
लेकिन क्या इस प्रक्रिया से समाज व देश आगे बढ़ा? क्या दरअसल
खुद व्यक्ति भी? एक वक़्त था, जब देश की
तमाम समस्याओं को हम गरीबी व अशिक्षा से जोड़ कर देखते थे। आजा स्थिति यह है कि
प्रत्येक बच्चे को हम स्कूल में दाखिल करवा चुके हैं, लेकिन, संविधान के लक्ष्य – न्याय, बराबरी व स्वतन्त्रता
फिर भी एक ख्वाब ही बने हुए हैं। आज जातिवाद व सांप्रदायिकता पहले से भी घिनौने
रूप में हमारे सामने है। मीडिया के लिए “बिकाऊ मीडिया” विश्लेषण चलन में है। जजों
की निष्पक्षता व नैतिकता संदेह के घेरे में है। इंजीनियरिंग पढ़ने वाले विद्यार्थी
अपराध का रास्ता चुन रहे हैं। डॉक्टर का इलाज़ एक नया मर्ज़ दे जाता है। पुलिस पर
किसी को यकीन नहीं है। नेताओं से उम्मीद नहीं है। भ्रष्टाचार आज अपने चरम पर है।
लब्बोलुआब यह है कि शिक्षा के नाम पर भले ही हम सभी बच्चों
को स्कूल तक ले आए हों, लेकिन आज भी शिक्षा में उन संवैधानिक
मूल्यों को स्थापित नहीं कर पाए हैं जो किसी इंसान को एक बेहतर नागरिक बनाते हैं।
इन जीवन-मूल्यों का शिक्षा में न आने का सबसे बड़ा कारण है,
शिक्षा में ज़िंदगी व जीवंत अनुभवों का न आ पाना। सच्चाई,
ईमानदारी, बराबरी, संवेदनशीलता व
सहभागिता, ये ज़िंदगी के जीवंत मसले हैं। ये अभ्यास से ही
ज़िंदगी में साधे जा सकते हैं। लेकिन, इन्हें साधने का अभ्यास
हमारी कक्षा में दिखाई नहीं देता है, वहाँ सिर्फ़ है – इन्हें
ग्रहण करने की अनंत उपदेश शृंखला या फिर दीवारों पर लिखे सुभाषित वाक्य, जो दीवार का चूना छूटने के साथ ज़िंदगी में भी पपड़ाए से लाग्ने लगे
हैं। जीवन-मूल्यों का अभ्यास जिंदगी में
ही हो सकता है। ऐसा हमारे पास क्या है जो जिंदगी को कक्षा में अभ्यास के लिए हाज़िर
कर सके या फिर उसका वहाँ सृजन कर सके। जब भी किसी ऐसे माध्यम को तलाशते हैं जो
जीवन को कक्षा में उतार सके, तो एक ही माध्यम नज़र आता है –
नाटक। नाटक ही वह ज़रिया जो ज़िंदगी को हूबहू कक्षा में थोड़ी देर के लिए सर्जित करता
है। यहाँ नाटक के उन मजबूत पहलुओं पर बात करते हैं जो हमारी शिक्षण प्रक्रियाओं को
जीवंत बनाते है।
संवेदनशीलता
जब किसी नाटक में हम कोई भूमिका कर रहे होते हैं तो थोड़े
वक़्त के लिए ही सही, हम खुद से हट कर किसी और ज़िंदगी को जी रहे
होते हैं। इसके दो पहलू है। एक तो इस प्रक्रिया में खुद से बाहर होकर स्वयं को
तटस्थ भाव से देखते हैं। जब खुद को बाहर से देखते है तो फिर ‘मैं’ कहाँ रह जाता है? मैं की
गैरहाज़री अहम को अपदस्त करती है। दूसरे हम जब खुद को दूसरे की जगह रख कर देख रहे
होते हैं, तो हमें अपनी स्थिति पता चलती है। मसलन, हम किसी नाटक में हिटलर की भूमिका कर रहे होते हैं तो यह ज़रूरी नहीं कि
हम हिटलर के विचारों से सहमत हों, लेकिन हम भूमिका निभाते
हुए समस्या को हिटलर के नज़रिये से देखते ज़रूर है। समस्या समाधान के लिए नेगोसिएशन
यानी बातचीत तभी संभव है जब हम समस्या को दूसरे के नज़रिये से देखना शुरू करते हैं।
किशोरावस्था में रिश्तों के दरम्यान जो टकराहट सामने आती है,
उसका प्रमुख कारण ही एक दूसरे के नज़रिये को नहीं समझ पाना ही है। एक लड़की घर से
बाहर सहेली के साथ बाज़ार जाना चाहती है और उसके पिता, माँ या
कोई बड़ा, सख्ती से माना कर देते हैं। अब, समाधान कि ओर तभी बढ़ा जा सकता है जब समस्या को उसके परिवारजनों के नज़रिये
से भी देखा जाए।
सहभागिता
नाटक की प्रक्रिया में टीम वर्क बहुत ज़रूरी है। किसी भी
नाटक के बनने की शुरुआत ही समूह-कार्य से होती है। बच्चों से नाटक करने को कहते ही
वे एक से दो व दो से तीन होने शुरू हो जाते हैं। नाटक के साथ-साथ ही समूह बनना
शुरू हो जाता है। नाटक में यह ज़बरदस्त ताकत कि यह एक छाते की तरह काम करता है,
जिसके नीचे नृत्य, गीत-संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाएं आ जाती हैं। फलत:, नाटक इस
वजह से अपने में विभिन्न रुचियों व आयामों वाले लोगों को जोड़ लेता है।
अभिव्यक्ति
नाटक बच्चों को मंच प्रदान करता है ताकि वे खुद को
अभिव्यक्त कर सकें। नाटक के माध्यम से वे अपनी भावनाएँ,
विचार व अपने सपने लोगों के सामने रख सकते हैं, जो वे
सामन्यात: नहीं कर पाते। इसी श्रंखला में आगे लिखा है कि कस्तूरबा गांधी बालिका
विद्यालय, तबीजी में लड़कियों ने अपना नाटक इसी विषय पर तैयार
किया कि वे क्या चाहती हैं? उन्हें क्या अच्छा लगता है? वे क्या बनना चाहती हैं या इसके अलावा उनके माँ में किस प्रकार के भय
हैं। इन बातों को कहने का मौका हमारे घर व समाज में कहाँ मिलता है! अपने सपनों को
दूसरों के सामने रखना, अपने दिलों की गाँठ खोलना व अपने
ज़ख़्मों को हवा दिखने का काम नाटक बखूबी करता है। जब हम इसके अभ्यास नाटक में करते
हैं तभी असल ज़िंदगी में कहने का हौसला बन पाता है।
सम्प्रेषण
नाटक क्या-क्या कर
सकता है, इसकी असीम संभावनाएं है। लेकिन नाटक का एक प्रमुख पहलू है कि
यह विद्यार्थियों सम्प्रेषण कौशल को माँजता है। नाटक की हर कड़ी में सम्प्रेषण के
अनगिनत अभ्यास है। अपनी बात को कहने के अलग-अलग आयाम, आवाज़
को ठीक करने के लिए वाक् – यंत्र को साधना, दूसरे के नज़रिए से
सामने वाले को सुनना – इन सभी के नाटक में बहुत से अभ्यास मिलते है। सम्प्रेषण में
दूसरे को सुनने का बड़ा महत्त्व है। आज के दौर में जिस तरह ‘अपनी
ही बात’ को कहने और विरोधी विचार को बर्दाश्त न करने की
प्रवृत्ति बढ़ रही है, उसे नाटक व्यवस्थित रूप से तोड़ता है।
नाटक में कथोपकथन का अनुशासित तानाबाना होता है। उसमे दूसरे की पंक्तियों को सुने
बगैर हम अपना संवाद नहीं बोल सकते हैं। संवादों के इसी अनुशासित विधान में दूसरे
को व विरोधी विचार को सुनने के इतने व्यवस्थित अभ्यास मिलते हैं कि यह एक मूल्य के
रूप में अवचेतन पर अंकित होता है। वहीं यह एक कौशल के रूप में भी सामने आता है।
समस्या- समाधान
नाटक तैयार करने की प्रक्रिया विद्यार्थियों को अपने जीवन
की वास्तविक समस्याओं के समाधान का अभ्यास एक सुरक्षित वातावरण में प्रदान करती
है। यहाँ वे उस समस्या के परिणामों को भोगने के भय से मुक्त होते हैं। नाटक में जब
हम दूसरे की भूमिका कर रहे होते हैं, तब उस चरित्र के सामने
आने वाली दुविधाएँ व द्वंद्व अपने जीवन की समस्याओं का विश्लेषण करने के अभ्यास
देते है। मुझे याद है, बचपन में जब घर के बड़े लोग खेत में काम
करते थे तो हम भी पास में ही अपनी छोटी सीए क्यारी बना लेते थे और फिर उसमें हल चलना, बीज बोना, सिंचाई करना, फसल काटना
इत्यादि, अभिनय खूब करते थे। दूसरे के खेत में पशु चराना, खेत की मेड़ तोड़ना, बंटवारा, पानी
की बारी को लेकर झगड़ा – इन सभी का अभिनय हम किया करते थे। मुख्य बात यह थी कि इस अभिनय
में भविष्य में आने वाली समस्याओं को सुलझाने की हम तैयारी कर रहे थे, वहीं पर अभी उनके जोखिमों से हम मुक्त थे।
इन अनुभवों का प्रकाशन संधान द्वारा प्रकाशित किया जा चुका हैजिसे पीडीएफ़ में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं - नाटक : संभावनाओं का मंच
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दलीप वैरागी
09928986983
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