मैं आज सुबह थोड़ा जल्दी
स्कूल पहुँच गया था। स्कूल प्रांगण में बने मंच की सीढ़ियों पर बैठ कर समर कैम्प
में आते हुए बच्चों को देख रहा था। वे अपनी-अपनी पसंद की कक्षाओं की तरफ जा रहे थे। मैं भी नाटक
सीखने आने वाले बच्चों का इंतज़ार कर रहा था। इस बार नाटक के ग्रुप में मेरे पास 21
लड़कियां आ रही हैं जो चौथी से दसवीं
कक्षा में पढ़ रही हैं। सहसा मेरे पास आकर 6-7 साल की लड़की आकर रुकी। प्यारी सी बच्ची अलीशा ने
अपने हाथ में कुरकुरे जैसा कोई पैकेट पकडे हुए थी और उसमें से लगातार एक-एक लेकर
कुतर रही थी। खाते हुए साफ लग रहा था कि उसके सामने के दो दांत गिर चुके है। मुझसे
आकर बोली,"सर आप हमें भी
थियेटर वाले ग्रुप में रख लीजिए न प्लीज।" मैंने उससे कहा, “पहले आप बताइये कि आपके दो दाँत कहाँ गए?” वह बड़ी मासूमियत से बोली, “क्या है न, हमारे
घर एक बाबा आए थे। उनके पास दांत नहीं थे। उन्होने कहा कि आप मुझे दाँत दे दो तो हमने
दे दिये। मुझे दाँत वापस मिल जाएंगे।” उसने थियेटर के ग्रुप में लेने के लिए फिर अपनी
बात दोहराई। मैंने उसे कहा, "कैम्प चलते हुए तो 11 दिन हो गए। आप पहले क्यों नहीं आए?" अलीशा बोली, " सर हम आए थे लेकिन डान्स वाले ग्रुप में चले गए थे।"
मैंने कहा, "तो आप डांस सीखिए।" उसने तुरंत कहा,"नहीं सर डांस तो हम पहले से ही जानते हैं। हम तो
नाटक करने के लिए ही आए थे, लेकिन लड़कियों ने बहका दिया और हम डांस में चले गए। आप तो बस हमें नाटक
में रख लीजिए।"
लड़की का नाटक में
आने के लिए इस तरह से नेगोसियेशन करना मुझे सुखद आश्चर्य लग रहा था। मुझे पिछले
साल का समर कैम्प याद आ गया। जब बच्चों से गतिविधियों में भाग लेने के लिए फॉर्म
में उनसे चॉइसेज़ पूछी गईं थी तो किसी बच्चे ने थियेटर को ऑप्शन के तौर पर नहीं
चुना था। हमने खुद बच्चों से नेगोसियेशन किया था कि वे नाटक में हिस्सा लें। कोशिश
करके 15-16 बच्चे आए थे। अगले
ही दिन से ड्राप आउट की चुनौती शुरू हो गई थी। यह जयपुर शहर के एक मोहल्ले का
सरकारी स्कूल है इस स्कूल में अल्पसंख्यक समुदाय की लगभग 300 बच्चियां पढ़ती हैं। पिछले साल जैसे ही
लड़कियों ने अपने अभिभावकों को बताया कि वे नाटक में भाग ले रही हैं और उस नाटक का
मंचन रवीन्द्र रंगमंच पर किया जाएगा, अभिभावकों ने एक-एक करके बच्चों को रोकना शुरू कर दिया। फिर शिक्षकों व हमारे
द्वारा अभिभावको की समझाइश का दौर चला, लेकिन ड्राप आउट भी चलता रहा। लगभग आधा ग्रुप टूट चुका था। एन शो वाले
दिन भी दो लड़कियों को रोक लिया गया।
शो मस्ट गो ओन...
नाटक हुआ। लोगोंने देखा। इनमें कुछ अभिभावक थे, अफसर थे, नेता थे व सामाजिक कार्यकर्त्ता थे। लड़कियों को खूब शाबाशी मिली और इनाम भी
मिले। इस पूरी प्रक्रिया जो दिखाई दे रहा था वह था लड़कियों का आत्मविश्वास।
आत्मविश्वास, तहजीब व संजीदगी
से अपनी बात रखना व सवाल उठाने के सब साक्षी बने थे।
नाटक ने अपना असर
शुरू कर दिया था। शायद पहले दिने से ही... इस साल मैं जब उस ग्रुप से मिला जो नाटक
करना चाहता था तो मैं दंग रह गया। पूरा हॉल लड़कियों से भरा था। नौबत यह थी कि नाटक
के लिए लड़कियों का चयन करना पड़ा। आज ड्राप आउट की समस्या नहीं है शुरू के दिन
जितने बच्चे आए उनकी संख्या में इजाफा ही हुआ है। मैंने जब लड़कियों के सामने पिछले
साल वाली आशंका रखी कि इस बार भी शो के वक़्त पर आपके अभिभावक रोक तो नहीं लेंगे? सब लड़कियों ने कहा कि उनसे पहले ही बात
कर ली गई है।
क्या नाटक कुछ
बदलाव लाया?
क्या नाटक सच में बदलाव
लाता है?
क्या स्कूल में
कुछ बदला?
क्या बच्चों में
कुछ बदलाव आया?
क्या समुदाय की
सोच में कुछ बदलाव आया?
जो भी हो, नाटक हो रहा है, फिर एक बार। बच्चे जम कर तैयारी कर रहे हैं और उनके हौंसले बुलंद है।
बदलाव शायद अपनी गति से आता है, लेकिन मेरी उम्मीद है कि नाटक
नहीं रुकेगा।
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दलीप वैरागी
09928986983
09928986983
Yes and always show must go on.
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