Tuesday, August 9, 2011

भाषा शिक्षण और विज्ञान

जब बच्चे को पहली बार किताब पढ़ना सिखाने की बात होती है तो हमारे यहाँ शिक्षण-विमर्श में दो–तीन तरह की शिक्षण पद्धतियों का जिक्र होता है—वर्ण शिक्षण पद्धति, शब्द शिक्षण पद्धति और संदर्भ पद्धति। पहले वाली वर्ण शिक्षण पद्धति हमारे यहाँ पुराने समय से प्रचलन में है। इस पद्धति से पढ़ना सीखने में बच्चों की अपनी मुश्किलें हैं, अर्थात इस तरीके से बच्चे आसानी से सीख नहीं पाते। इसकी जगह पर अन्य शब्द या संदर्भ शिक्षण पद्धति को केंद्र में लाने के प्रयास पिछले दो दशक से हो रहे हैं।

शब्द पद्धति से आशय है कि बच्चों को अर्थपूर्ण शब्दों के माध्यम से ध्वनियों की पहचान करवाएँ। संदर्भ पद्धति मानती है कि भाषा का सही उपयोग तभी सीखा जाता है जब शिक्षण बच्चों के संदर्भ, अनुभव, परिवेश और जीवन से जुड़ा हो। इनकी भी अपनी मुश्किल है कि ये टीचर के समझ में नहीं आती हैं। आज स्कूल में पढ़ाने वाला हर टीचर इस पद्धति के लिए प्रशिक्षित हो चुका है। हर साल के शिक्षक प्रशिक्षण में इन नवीन पद्धतियों से पढ़ना सिखाने के तरीकों पर बात होती है। बावजूद इसके देखने में आता है कि सभी स्कूलों में नए–पुराने शिक्षक बोर्ड पर पहले वर्णमाला रटाना, फिर उनकी एक–एक की बारहखड़ी बनवाना और यदि इस सारी कवायद में बच्चा कुछ ध्वनियों को पहचान जाता है तो फिर उन ध्वनियों को मिलाकर शब्दों की घुट्टी बनाकर पहली बार पिलाई जाती है। यह कड़वी डोज़ जो बच्चा आसानी से गटक जाता है; वह पढ़ते वक़्त हिज्जे करते, उँगलियों पर बारहखड़ी का हिसाब लगाते थोड़ा आगे बढ़ जाता है और ताउम्र वर्तनी की गलती करता है। यह कभी नहीं समझ पाता कि यह ह्रस्व और दीर्घ मात्राओं का भाषा में हकीक़त से क्या लेना–देना है। बाकी बहुत से बच्चे इस प्रक्रिया में पीछे छूट जाते हैं और पाँचवीं जमात तक पढ़ना नहीं सीख पाते हैं।

कई बार यह सोचकर हैरानी होती है कि क्या कारण है कि इतनी कवायद के बाद टीचर पुरानी परिपाटी को बदलना नहीं चाहते? क्या इसके पीछे परंपरावादी सोच है? कुछ नया न कर पाने की प्रवृत्ति है? या अज्ञान? अज्ञान कहना तो हिमाकत ही होगी। अगर इसकी रूट में अज्ञान नहीं तो क्या विज्ञान? इंसान किसी काम को पूरी निष्ठा से तभी करता है जब वह धर्मसम्मत हो या विज्ञानसम्मत। धर्म अर्थात आस्था; विज्ञान मतलब बुद्धि, विवेक, तर्क। लब्बोलुबाब यह कि काम का प्रेरण भाव से होता है और भाव का उत्स आस्था, विश्वास या तर्क–बुद्धि में। तो क्या भाषा शिक्षण की इस पहेली में विज्ञान और भाषा का कोई उलटफेर तो नहीं! मुझे लगता है कि इस उलटफेर को पकड़ने के लिए भाषा का स्ट्रक्चर और विज्ञान का अप्रोच और दोनों के अंतर्संबंध के समीकरण को समझना होगा।

कोई चीज़ इस जगत में है तो उसकी उत्पत्ति को समझने के दो तरीके हैं—एक, उसके ऐतिहासिक क्रमिक विकास को समझना, जो एक क्षणिक घटना नहीं है; किसी चीज़ को धरती पर बनने में करोड़ों साल का वक्त लगा है। दूसरा तरीका है कि प्रयोगशाला में किसी द्रव्य का रसायनशास्त्रीय तात्त्विक विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि यह चीज़ अमुक–अमुक तत्वों से मिलकर बनी है। जैसे रसायनशास्त्र पानी का तात्त्विक विश्लेषण करके यह बताता है कि हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन का एक परमाणु मिलकर पानी बनता है (जबकि स्थापना यह होनी चाहिए कि पानी में हाइड्रोजन के दो तथा ऑक्सीजन का एक परमाणु होते हैं)। मुश्किल तब होती है जब हम विज्ञान के इस निर्णय की स्थापना को लेकर बैठ जाते हैं। रासायनिक विश्लेषण के लिए तो इसमें कोई दिक्कत नहीं, मगर इस स्थापना को लेकर चलें तो कुछ ज़्यादा हाथ नहीं आएगा। यदि ऐसे पानी बनता तो क्या बात थी—धरती पर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन तो बहुत हैं! लेकिन पानी के असली स्वाद के लिए तो उसी पानी की ओर ही देखना होगा जो कुदरत की करोड़ों वर्षों की मेहनत का प्रतिफल है।

ऐसा ही कुछ भाषा के साथ है। भाषा भी उतने ही समय से धरती पर है जितना कि इंसान। भाषा भी व्यक्त संकेतों, शब्द, वाक्यों, छंदों में ही रहती आयी है। लेकिन भाषा-विज्ञान जब किसी भाषा का विश्लेषण करता है तो उसे इस प्रकार तोड़कर समझता है—ध्वनि–संकेत मिलकर शब्द बनते हैं और शब्द–शब्द मिलकर वाक्य तथा वाक्य दर वाक्य बात। यह भाषा के तात्त्विक रूप को समझने का तरीका तो है, लेकिन वास्तविक सत्य नहीं। किसी भी ‘समग्र’ को समझने के लिए टुकड़ों में तोड़कर देखना विज्ञान हो सकता है, लेकिन यह समझ लेना कि ‘समग्र’ टुकड़ों से मिलकर बना है, निरा अज्ञान ही कहलाएगा। विज्ञान एक प्रक्रिया है, उसे परिणति समझ लेना गड़बड़झाला खड़ा करता है।

भाषा शिक्षण के संदर्भ में ऐसा ही कुछ गड़बड़झाला हमारे सामूहिक अवचेतन में चलता है और हम मान लेते हैं कि शब्द ध्वनियों से मिलकर बने हैं, इसलिए सबसे पहले ध्वनि सिखाना जरूरी है, ध्वनि सीखने के बाद शब्द। जबकि भाषा कुछ अलहदा व्यवहार करती है। हमारे यहाँ शब्द ब्रह्म है। उसे खोलकर देखा जा सकता है लेकिन तोड़ा नहीं जा सकता। वह तो अजर है, अक्षर है, अविनाशी है। सीखने के लिए उसे पूरा ही सीखना होगा, अधूरा नहीं। इसलिए वर्ण पद्धति से शिक्षण दुरूह हो जाता है—उस तरह से प्रवाहमय नहीं, जैसी कि भाषा की तबीयत होती है।

ऐसा दूसरी कलाओं के साथ भी होता है। शास्त्रीय संगीत और नृत्यों को ही लें—इनको सीखना कितना श्रम और समय–साध्य होता है। पहले बाहर से चेष्टाओं और मुद्राओं को, स्वर–लिपियों को रटना पड़ता है। शुरू में ये निष्प्रयोजन-जान पड़ती हैं और काफी अभ्यास के बाद विद्यार्थी स्वयं रस–दशा तक पहुँच पाता है। जबकि लोकगीत और लोकनृत्य में पहली बार में ही रसानुभूति खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है, क्योंकि लोकसंगीत का संस्कार उसके अवचेतन में है। दोनों ही रास्ते एक ही जगह पर पहुँचते हैं, लेकिन फ़र्क मार्ग की कठिनाई और सरलता का है।

यहाँ आकर लगता है कि विज्ञानसम्मत व्यवहार करने की जो हमारी नैसर्गिक आदत होती है, उसी के फलस्वरूप शिक्षक वर्ण पद्धति को छोड़ नहीं पाता—क्योंकि ऊपर से उसे यह विज्ञानसम्मत जान पड़ता है। इसके रूट में कहीं हमारा विज्ञान को देखने का नज़रिया भी है। कुछ इसे भी ठीक करने की जरूरत है।

सारांशतः यह कहा जा सकता है कि शब्द शिक्षण पद्धति एक तरह की लोकगीत की तान-सी है और वर्ण पद्धति शास्त्रीयता की-सी अनवरत कवायद। मार्ग एक ही सत्य को पकड़ने के हैं। तय राहगीर को करना है।

2 comments:

  1. मैं भी उलझन में हूँ. बच्चा के जी में डीपीएस में पढ़ रहा है और मैं समझ ही नहीं पा रहा कि उसे एबीसी या ककहरा अटपटे तरीके से क्यों पढ़ाया जा रहा है.
    जब अपनी उलझन श्रीमती जी से कहता हूँ तो वे बोलती हैं कि हमारे ज़माने की शिक्षा वैज्ञानिक नहीं थी. लो जी, अब हम ऐसे ही इतना पढ़ लिख लिए!?

    ReplyDelete
  2. नए पुराने शिक्षक बोर्ड पर पहले वर्णमाला रटाना , फिर उनकी एक –एक कि बारहखड़ी बनवाना और यदि इस सारी कवायद में बच्चा कुछ ध्वनियों को पहचान जाता है तो फिर उन ध्वनियों को मिलाकर शब्दों कि घुट्टी बनाकर पहली बार पिलाई जाती है | यह कड़वी डोज जो बच्चा आसानी से गुटक जाता है; वह पढते वक़्त हिज्जे करते, उँगलियों पर बारहखड़ी का हिसाब लगाते थोडा आगे बढ़ जाता है और ताउम्र वर्तनी की गलती करता है |यह कभी नहीं समझ पता कि यह हृस्व और दीर्घ मात्राओं का भाषा में हकीक़त से क्या लेना देना है| बाकी बहुत से बच्चे इस प्रक्रिया में पीछे छूट जाते हैं और पाँचवीं जमात तक पढ़ना नहीं सीख पाते हैं|
    कई बार यह सोच कर हैरानी होती है कि क्या कारण है कि इतनी कवायद के बाद टीचर पुरानी परिपाटी को बदलना नहीं चाहते हैं ? क्या इसके पीछे परम्परावादी सोच है? कुछ नया न कर पाने कि प्रवृति है? या अज्ञान ?


    "ऐसा ही कुछ मेरे साथ है शायद में भी उन बच्चो में हु जो अब तक नहीं समझ पाया कि कोनसी मात्रा कहा लगेगी इस को पढकर आज वो दिन याद आ गए जब स्कूल में अध्याद्यापक जी कुछ कहते और घर वाले उनसे झगडने पहुच जाते बेचारे क्या करे हमेशा लाड प्यार में रखा उसकी सजा आज मुझे लगता है में भुगत रहा हु खास आज लोग अध्यापको को दोष न दे तो अच्छा है लेकिन आज भी बच्चो कि गलती नहीं मानते हुए भी अध्यापको कि ही गलती मानते है - कितना सही है कितना गलत सायद में नहीं समाज पा रहा हु माफ़ करना अगर कुछ सही नहीं लिखा हों तो" लेकिन उपरोक्त तथ्य कुछ तो उजागर करते है धन्यवाद

    ReplyDelete

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...