Saturday, November 19, 2011

सुचना का अधिकार अधिनियम (Right to information act) : कानून में दम है

यह घटना सूचना का अधिकार कानून कि ताकत की सक्सेस स्टोरी  है | इस ताकत को हमने आजमाया है |इसकी सिर्फ जानकाRTI-Logoरी होना ही काफी नहीं है बल्कि इसको आजमा कर देखना चाहिए | अगर देश का हर जागरूक इंसान ऐसे अपनी मुश्किलों में इस कानून का इस्तेमाल करेगा तो भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए किसी लोक पाल बिल  की जरूरत नहीं |
 
बात पिछले दो साल की है | दिन व तारीख तो याद नहीं, हाँ इतना पता है कि उस दिन सूर्य ग्रहण पड़ा था |  ग्रहण खग्रास नहीं खण्ड ग्रास था | ऐसा नहीं कि ग्रहण होने की वजह जयपुर थम गया हो लेकिन फिर भी ऐसे बहुत से लोग रहे होंगे जो उस वक्त घर से नहीं निकले होंगे | दो तीन तो हमारे ऑफिस में ही थे जिन्होंने खुले में जाने से परहेज किया | बावजूद इसके मैं और मेरा दोस्त जो कि मेरा सहकर्मी भी है ने इन दो घंटों का इस्तेमाल एक महत्वपूर्ण काम को करने में किया | काम दरअसल यह था कि मेरे दोस्त भँवर ने बताया कि उन्होंने LIC (जीवन बीमा) की एक पॉलिसी विड्रो करवाई थी, तीन - चार महीने पहले | लेकिन भुगतान का चैक जो कि एक सप्ताह में उनके पास पहुंचना चाहिए था वह अभी तक उनके पास नहीं पहुंचा था | इसके लिए भँवर जी उनके ऑफिस में कई चक्कर लगा चुके थे | कई बार फोन भी किया | कभी काम से सम्बन्धित जिम्मेदार व्यक्ति सीट पर नहीं होता तो कभी मिल जाता तो प्रकिया  में है कह कर टरका देता | ग्रहण वाले दिन हमने योजना बनाई कि क्यों न हम (RTI)   सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत अर्जी लगाकर पता तो करे कि मामला कहाँ अटका हुआ है ? भंवर  जी ने कहा कि यह ठीक बात है “हम दूसरों को तो सूचना का अधिकार के लिए जाग्रत करते हैं,  आज खुद के लिए भी कर के देखें | तुरंत हमने एक अर्जी सूचना अधिकारी , जीवन बीमा कार्यालय जयपुर के नाम लिखी | याद रखें सूचना अधिकारी नाम का प्राणी हर कार्यालय में होता है | और कार्यालय की किसी दीवार पर उसका नाम भी चस्पा होना चाहिए | तो हमने लिखा कि हमें सूचना का अधिकार अधिनियम  २००५ तहत निम्न लिखित  जानकारियां चाहिए -
  1. मेरे काम में हो रहे विलम्ब का यथोचित कारण बताएँ |
  2. मेरे काम की अब तक की प्रगति की स्थिति बताएँ | तथा
  3. मेरे काम के लिए कौन-कौन व्यक्ति जिम्मेदार  हैं | उनके नाम बताएँ ताकि प्रमाद पाए जाने पर जरूरी कानूनी कार्यवाही उनके खिलाफ की जा सके |
अर्जी लिखने तक सूर्य ग्रहण कि गिरफ्त में आ चूका था | और हम  तय  कर चुके थे कि आज हम और सूर्य एक साथ ग्रहण से निकलेंगे | सूर्य चन्द्रमा की छाया से और हम भ्रष्टाचार की गिरफ्त से | हम सीधे LIC ऑफिस पहुंचे | सेकंड फ्लोर पर बड़ा सा हॉल,  हॉल में कुर्सियां ही कुर्सियां … कुर्सियों के आगे मेजें ही मेजें …  मेजों पर फाइलों के ढेर … कुछ कुर्सियों पर बाबू लोग आसीन, कुछ पर टंगे कोट… इसके अलावा भी बहुत साजो सामान | 
जैसा हम सोच रहे थे वैसा यहाँ कुछ भी नहीं था | यहाँ किसी भी कोने पर सूचना अधिकारी का नाम नहीं लिखा था |  क्या करें, किससे पूछें ?  इसी उहापोह में एक टेबल पर फाइलों से झांकते हुए हमने एक बड़े ऑफिस कर्मी से पूछ लिया “ यहाँ का सूचना अधिकारी कौन है ?”  इस एक वाक्य ने जैसे वहाँ रुके हुए पानी में पत्थर मार दिया हो | अभी तक जो सभी जो एक दूसरे से असम्प्रक्त से  अपनी गतिविधियों में मस्त थे | कही बातचीत भी तो ‘वोटिंग फॉर गोडो’ के पात्रों की तरह उकताहट मिटाने  की विवशता युक्त प्रयास –सी | इस एक वाक्य ने सब को जोड़ कर रख दिया | सबकी नज़रें हम पर केंद्रित हो गईं | ऐसे सवाल से सामना करने की उम्मीद किसी को नहीं थी | हमने फिर अपना सवाल दोहराया | वह चुप , चुप्पी कुछ सघन हो गयी थी क्योंकि उसकी चुप्पी में अब सभी  चुप्पियाँ शामिल हो गयीं थीं और मानो उन सब चुप्पियों ने एक बड़े  सन्नाटे का निर्माण कर दिया हो | वह सन्नाटा जैसे हमसे ही सवाल कर रहा था -  वाह ! भला यह भी कोई बात है ? ऐसा  भी कहीं होता है  ? अरे भाई कानून है तो क्या लेकिन काम तो काम के तरीके से ही होता है ! सन्नाटे कागुब्बारा जल्दी ही फूट गया | उसे हमने ही फोड़ा यह कह कर “ हमें सूचना अधिकारी का नाम बताइए हमें अर्जी लगानी है और आपने यहाँ उसका नाम भी नहीं लिख रखा जो कि यहाँ होना चाहिए |” इतने में ही भंवर जी ने अर्जी टेबल पर दे मारी | मगर मजाल है किसी ने उसे छुआ, अर्जी नहीं जैसे वर्जित फल हो !  इतने में ही पीछे से आवाज़ आयी आपको मैनेजर साब ने बुलाया है | हम मैनेजर के केबिन में चले गए | हमारा प्रयोजन पहले ही प्रेषित था,  भूमिका पहले ही बन गई थी | इसलिए बिना भूमिका के हमने अर्जी सरकाई | साहब ने पढ़ी , साहब की घंटी घनघनाई , तुरंत एक महिला कर्मचरी आई … साहब बोले , “ इन सर का काम क्यों नहीं हुआ ?”
कर्मचारी बोलीं , “ सर …सर.. इनका…वो ….जो …जो छुट्टी पर …
मैनेजर बोला , “ वो छुट्टी पर है तो क्या काम नहीं होगा … जाओ फोरन इनका चेक बना कर लाओ|  "
अगले १० मिनट में चैक भँवर जी के हाथ में था |
मैनेजर बोले, “ कोई और काम हो तो जरूर बताएँ |”
हम बोले, “ अभी तो काम यही है कि आप इस अर्जी को विधवत लगाओ |”
मैनेजर - अब तो रहने दो आपका काम तो हो गया |
हम - पता तो चले कि चूक कहाँ है ?
सारांश यह है कि मैनेजर ने कहा कि आप जिसकी गलती है माफ़ कर दीजिए .. नौकरी … बाल बच्चों का सवाल …
हम  चलने  लगे तो मैनेजर ने कहा कि आप यह अर्जी मुझे देते जाओ ताकि मैं अपने स्टाफ को दिखा सकूँ कि अब पुराने वाला तरीका नहीं चलेगा |
जब हम वहाँ से निकले तो ग्रहण हट चूका था सूर्य का भी और भ्रष्टाचार का भी | लेकिन ग्रहण तो आते रहते हैं | लेकिन जज्बा सूरज वाला होना चाहिए जो हर बड़े ग्रहण के बाद निकल के आता है नयी रौशनी के साथ |
(मेरे दूसरे  ब्लॉग बतकही से)













Monday, November 14, 2011

कहीं यह जनश्रुति न बन जाए ....

 

यह अनुबाव मैंने अपने दूसरे ब्लॉग बतकही शेयर किया था लेकिन आज मैंने एक शिक्षिका प्रशिक्षण में मैंने इस अनुभव को फिर सुनाया तो मेरी इच्छा हुई कि इसे 'कथोपकथन पर फिर से शेयर किया जाए ।

के जी बी वी पीपलू की लड़कियों की शैक्षणिक स्तिथि का ग्रोथ चार्ट मैंने शिक्षिकाओं से बात की कि जो लड़किया ए समूह में पहले से हैं वो तो हैं , लेजिन जो पिछले महीने बी या सी में थीं उन्हें ठीक से पता करो कि वो कहाँ पहुंची हैं. इस कम को करने के बाद शिक्षिकाओं ने जो रिपोर्ट बनाई उसे देख कर मैं चोंक गया . सब लड़कियां ए में थीं. यह उम्मीद से कहीं ज्यादा था. मैंने कहा अगर ऐसा है तो यह बड़ी बात है. उन्होंने कहा मौसमी और पाना को छोड़ कर सब लड़कियां किताब पढ़ने लग गयी हैं और गणित कि संक्रियाओं को कर रहियो है. मैंने उन सभी लड़कियों से किताब पढवा कर देखी .सब धाराप्रवाह पढ़ रहीं थीं . हाँ अभी उन लड़कियों को तीन संख्याओं का भाग करने में दिक्कत है. लेकिन उनके साथ कक्षा के अनुरूप पाठ्यपुस्तक के साथ काम शुरू कर दिया है . अतिरिक्त समय में बुनियादी चीज़ों को मजबूत करने पर काम हो रहा है.
यहाँ बात रह जाती है मौसमी और पाना की . ये दोनों आठवीं जमात की लड़कियां हैं. एक बात पूरे के जी बी वी में जनश्रुति कि तरह फैली है कि “ मौसमी और पाना पढ़ नहीं सकती “ ये तीन साल से के जी बी वी में हैं.
मैंने टीचर्स से पूछा कि क्या बात है इन लड़कियों की दिमागी सेहत तो ठीक है? वे बोलीं हाँ एकदम ठीक है . बस इनका मन पढ़ने में नहीं लगता . मैंने सोचा, ‘ मौसमी पढ़ नहीं सकती वाला मिथक अब टूटना चाहिय.’ मैं कक्षा कक्ष में गया . हैड टीचर तारा नामा भी मेरे साथ थीं. मैंने पाना को पढ़ने के लिए कहा तो वह वाक्यों और शब्दों को तोड़ तोड़ कर पढ़ रही थी . इसके बाद पाठ्य पुस्तक मौसमी के हाथ में दी. मौसमी पुस्तक खोले कड़ी रही लेकिन पढ़ने के लिए लैब तक नहीं हिलाया. हम दोनों ने उसे खूब प्रोत्साहित किया . वह किताब देखते हुए भी किताब से अलगाव बनाए हुए थी . मौसमी में कोई जुम्बिश नहीं हुई. मैं सोच रहा था कि अब क्या किय जाए. तभी मुझे ध्यान आया कि मेरे हाथ में के जी बी वी कि लड़कियों के नामों कि लिस्ट है . मैंने मौसमी से कहा कि यह तुम्हारे स्कूल कि लड़कियों के नामों कि लिस्ट है, ‘इन्हें पढ़ो तो जरा.’ मौसमी पूरी लिस्ट धारा प्रवाह पढ़ गयी . यह क्या हुआ! हम चकित थे . मैं के जी बी वी से लौट कर होटल में देर तक सो नहीं पाया . सोचता रहा कि तीन साल तक इस लड़की को कुछ भी सुपाठ्य नहीं मिला जिसे पढ़ कर मौसमी सफलता का अहसास कर सके. उसके सामने तो हमेशा (कु) पाठ्य पुस्तक ही रही. जिसके अर्थों के तिलस्मी द्वार वह खोल नहीं पाती. तहरीरों में उसे कही. तक़रीर जज़र नहीं आती. उसे पता नहीं इन किताबों से कहाँ पहुंचा जाता है. फलस्वरूप यह फतवा “मौसमी पढ़ नहीं सकती.” उसकी नियति से जुड़ जाता है. होना यह चाहिए कि उसके बस्ते से सारी पाठ्य पुस्तकें निकाल कर उतनी ही संख्या में कहानियों कि किताबें रख देनी चाहिए और फिर देखा जाए कि “मौसमी पढ़ सकती ....”
अगले दिन ताराजी से मैंने बात की. उनहोंने दोनों लड़कियों को बुलाकर कहा कि कंप्यूटर रूम में लाईब्रेरी कि किताबें राखी हैं , जो भी , जितनी भी पसंद आए ले लो. दोनों लड़कियां किताबों कि तरफ दौड़ चलीं . ईश्वर करें ये कभी न रुकें .

Sunday, October 9, 2011

रंगमंच (Theatre) : वंचित वर्ग की शिक्षा का माध्यम को हमेशा हाशिये पर रखा गया है।

तब मैं 8-9 वी कक्षा मे पढ़ रहा था जब मुझे पहली बार मुझे किसी नाटक मे काम करने का मौका मिला। देखने का अवसर शायद उससे भी 4-5 साल पहले मिला होगा । ये सभी अनुभव मुझे गाँव में ही हुए । रूप-बसंत, हीर-रांझा, नल-दमयंती, सरवर-नीर, हरिश्चंद्र ये सभी दास्तानें मैं गाँव मे ही रंगमंच पर देख चुका था । गाँव के युवा एक टोली बनाकर साल मे एक दो एक शोकीया तरह का रंगमंच किया करते थे। मंचन के बाद तक उनके अभिनय की चर्चाएँ हुआ करती थीं। हम जो उस वक़्त किशोर थे, मन में इच्छा होती थी कि हमे भी किसी नाटक में अभिनय का मौका मिले। मौका मिला, रिहर्सलें शुरू हुई, शाम का घूमने का समय रिहासलो मे जाने लगा... तैयारियां ... उत्साह.... मस्ती ... 12-13 सौ आबादी वाला पूरा गाँव जुटा सिवा हमारे घरवालों के ...चूंकि घर की दीवार से जुडते हुए स्कूल मे ही रंगमंच बनाया जाता था। इसी स्कूल मे पिताजी दिन भर बच्चों को पढ़ते थे लेकिन नाटक देखने नहीं आए । दादा जी के आने का तो सवाल ही नहीं था... वो तो शादी मे ढ़ोल तक नहीं बजने देते थे, नाटक तो बहुत आगे की चीज़ थी। माँ ने शायद घर के छज्जे से देखा था। मंचन के बीच लोग पैसे भी देने लगे । चूंकि यह पेशेवर समूह नहीं था इसलिए लोगों से कहा गया कि अगर आपको देना है तो स्कूल के कमरे बनाने के लिए दें ... कोई ईंटों के लिए बोल रहा है, कोई पत्थरों, चुना बजरी... इत्यादि... इससे पहले प्रतिस्पर्धा ज्यादा बढ़े इसे भी तुरंत बंद किया गया । लोगों को खूब मज़ा आया। नाटक के अगले दिन ही नाटक का शास्त्र (समाज शास्त्र) समझ आने लगा। नाटक के दर्शकों की तो सराहना मिली लेकिन अपने घर से उतनी ही प्रताड़णा। सभी अभिनेताओं के साथ कमोबेश यही स्थिति थी। कुछ ही दिनों मे पड़ौस से दो तीन गांवों से भी मंचन के आमंत्रण भी आए लेकिन घर वालों ने सीमा रेखा खींच दी .... यह कैसे हो सकता है कि किसी कला माध्यम का प्रतिफल मंचन सम्माननीय हो लेकिन उसका कलाकर्म या कलाकर्मी को उतना ही हेय या तिरस्कार योग्य समझा जाता हो। उसके बाद  नाटक से तो दूरी बन गई लेकिन  बावजूद इन वर्जनाओं के नाटक के लिए प्रेम व रुचि बनी रही और साथ मे यह सवाल भी जिंदा रहा कि एक सशक्त कलकर्म के प्रति समाज का यह दोहरा रवैया क्यों है ?
यह तो गाँव की बात थी लेकिन जब आगे कॉलेज की पढ़ाई करने शहर गया तो यहाँ भी स्थिति कोई फर्क नहीं थी। जैसा की किशोर उम्र मे होता है जिस काम के लिए मनाही होती है वही चुनौती बन जाती है । शहर जाने पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी मे हस्तक्षेप ढीला होते ही थियेटर शुरू कर दिया । सबसे पहले कॉलेज में । यहाँ कोई दिक्कत नहीं थी ... खूब मान और प्रोत्साहन मिला । एक स्कूल-कॉलेज ही ऐसी जगह हैं जो नाटक के संस्कार को कुछ हद तक बच्चों मे डालते हैं और इस विधा को बचाए हुए हैं नहीं तो यह विधा भी विदा हो गई होती । कॉलेज के बाद जब शहर मे मुख्य धारा का रंगमंच शुरू किया तो यहाँ भी स्थितिया कुछ अलग नहीं थी । सबसे बड़ी मुश्किल तो साथी actor मिलने की होती है। एक औसत शहर मे नाटक करने के लिए 10-12 लोग जुटाना बहुत बड़ी चुनौती है। महिलाओं का आना तो असंभव सा दिखता है। एक बार की घटना है मैं एक जगह पर अपनी टीम के साथ नुक्कड़ नाटक कर रहा था । वहीं पर एक कॉलेज के समय का मित्र मिला। नाटक के बाद हमसे मिला मंचन की तारीफ की। साथ मे चाय पी और बातों ही बातों मे कहा “ दलीप भाई कोई काम क्यूँ नहीं करते... मैं एक दो अच्छे स्कूलों को जनता हूँ ... ठीक पैसे दे देंगे ...।" लोग यह बात समझने को तैयार ही नहीं थे कि मैं नाटक में ठीक-ठीक आजीविका कमा रहा था और मेरे साथ मेरे समूह के भी 5-7 लड़कों को रोजगार मिला हुआ था। लेकिन लोग आज इक्कीसवीं सदी में भी नाटक को सम्मानजनक रोजगार के रूप मे नहीं देखते हैं। सम्मानजनक ही नहीं लोग तो इसको काम ही नहीं मानते। ढाई-तीन घंटे का नाटक देखने के बाद मंच के पीछे आकार मिलने वालों मे ऐसे लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी होती है जो यह कहते हैं, “अच्छा अभिनय करते हैं... वैसे आप काम क्या करते हैं?”
ऐसी स्थिति दूसरे कला माध्यमों के साथ नहीं है। यों तो सभी कलाओं का उद्देश्य लोकरंजन करना होता है लेकिन एक हेतु है जो नाट्य कला को अन्य कला रूपों से अलग करता है, वह है लोक शिक्षण की भूमिका । इसकी यही लोक शिक्षण की भूमिका ही इसकी स्थिति के लिए जिम्मेदार है। ऐसा हर युग मे होता रहा है कि शिक्षा व्यवस्था को राज सत्ता या शक्ति सम्पन्न वर्ग ने अपने नियंत्रण मे रखा है। प्राचीन काल मे शिक्षा राजाओं के नियंत्रण मे रही और वर्तमान मे यह सरकार और पूँजीपतियों के आश्रय पर है । हर काल मे इन वर्गों का हित इसी मे था कि यह कभी वंचित या शोषित तक नहीं पहुँच पाए । यूं तो सभी कलाएं कमोबेश लोक शिक्षण का काम करती हैं लेकिन नाट्य कला की उत्पत्ति का मुख्य उद्देश्य शिक्षण ही माना है।
नाट्य शास्त्र की उत्पत्ति के पीछे एक कथा प्रचलित है कि नाट्य शास्त्र के लिखे जाने से पहले चारों वेद ही ज्ञान का स्रोत व शिक्षण का माध्यम रहे हैं... जब ब्रह्मा ने देखा कि समाज के एक बड़े तबके के लिए वेदाध्ययन वर्जित कर दिया गया था, जिनमे स्त्रियाँ और शूद्र थे। लगभग समाज की आधे से ज्यादा आबादी शिक्षा प्रक्रिया से काट दी गई थी। दलित और वंचित वर्गों को भी शिक्षित किया जा सके इसके लिए ब्रह्मा ने पांचवे वेद की रचना करने का काम भरत मुनि को सोंपा। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र के रूप में पांचवें वेद की रचना की।
भरत मुनि और उसके सौ पुत्रों ने नाटक का अभ्यास शुरू किया। नाट्य शास्त्र के चौथे अध्याय मे भरत मुनि ने बताया कि उन्होने नाट्यवेद का प्रयोग करते हुए दो नाटक तैयार किए एक 'अमृत-मंथन' और दूसरा 'त्रिपुरदाह'। दोनों नाटकों को देखकर देवता बहुत खुश हुए। देवलोक और पृथ्वी पर नाट्यवेद की धूम मच गई कि इसका प्रयोग बहुत अच्छा हो रहा है। देवताओं का खुश होना जरूरी है। पहले देवलोक मे जब नाटकों के मंचन होते थे तो कथानक शास्त्र आधारित होते थे । जिनमें देवताओं और असुरों के युद्धों पर आधारित कथानक होते थे। लेकिन नाटक का अवतरण जब धरती पर हुआ तो भरत मुनि के शिष्यों ने मनचाहे प्रयोग करने शुरू कर दिये । यह छूट भरत मुनि ने अपने अभिनेताओ को दे रखी थी कि वे अपने मन से प्रयोग कर सकते हैं। राधावल्ल्भ त्रिपाठी , अपने लेख मे नाट्य शस्त्र की व्याख्या करते हुए बताते हैं ...
“ भरत मुनि ने नाट्य के तीन मापदंड बताए हैं – लोक, वेद(शास्त्र) और  अध्यात्म यानि अभिनेता की अपनी चेतना । भरत मुनि ने अभिनेता को बार-बार चेताया है कि जो शास्त्र से पता न चले तो उसे लोक यानि आस-पास की दुनिया से समझे और जो लोक और शास्त्र दोनों से समझ मे न आए उसे अपनी स्वयं की चेतना से समझे..”
– राधवाल्ल्भ त्रिपाठी, ‘भरतमुनि के बारे मे’ (रंग मंच के सिद्धान्त)
भरत के शिष्य लोक कथनक आधारित ऐसे प्रहसन दिखाने लगे जिनमे ऋषियों पर व्यंग्य प्रहार होते थे। दरअसल अब नाटक लोक शिक्षण की सही भूमिका मे आया था। जिसमे उन्होने अपने आस-पास की चीजों को और अपने अनुभवों को शामिल करना शुरू कर दिया। सवाल उठाना शुरू कर दिया । ये प्रयोग देखकर ऋषिगण क्रोधित हो गए और उन्होने श्राप दिया -
“ हे द्विजों, क्या तुम लोगों के लिए हमारी इस तरह विडम्बना दिखाना और परिहास उचित था? यह हमे स्वीकार नहीं। जाओ तुम लोगों का ज्ञान नष्ट हो जाएगा, तुम लोग व्रत और होम से रहित होकर हो जाओगे। तुम लोगों का वंश अपवित्र होगा।”
जैसा की ऋषियों के श्राप में होता है की उनके शाप का अक्षरश: पालन होता है। भरत मुनि के सौ पुत्र एक शाप से शूद्र से भी शूद्रतम हो गए। एक बार फिर आम जनता के शिक्षण के माध्यम को जनता से काटने का काम कर डाला गया। नाटक के लोक शिक्षण का माध्यम बनने के लिए यह जरूरी था कि लोग इससे जुड़ें और अपने अनुभवों को नाटक के माध्यम से साझा करके ज्ञान के निर्माण और सार्वजनीनकरण में अपनी भूमिका अदा करें। ज्ञान सृजन की इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया गया। इस तरह नाट्यकर्म एक जाति तक ही सीमित हो गया। इनको गाँव या शहर मे रहने की इजाज़त नहीं थी। रहना तो दूर गाँव में घुसने की भी आज़ादी नहीं थी।  शूद्र वर्ण मे आने वाली जतियों की भी बसावट यों तो गाँव की परिधि पर होती थी लेकिन नक्शे से बाहर नहीं थी । क्योंकि इन जतियों का गाँव की अर्थ व्यवस्था में बहुत योगदान था । इसलिए इनका गाँव मे रहना अपरिहार्य था । जबकि भरतमुनि के वंशज जो कालांतर में नट और कंजर(जो नाट्य कर्म करते रहे) उन्हे जरायम पेशा (अपराधी जाति) माना गया । गाँव या शहर में दिखते ही इन्हे गिरफ्तार कर लिया जाता था। जरायम पेशा जातियों के बारे मे अधिक जानने के लिए उपन्यास, कब तक पुकारूँ (रांगेय राघव) तथा अल्मा कबूतरी (मैत्रेयी पुष्पा) को देख सकते हैं। अभिनेता की दुनिया दर्शक की दुनिया से ज़ुदा हो गई। पीड़ाएँ अलग हो गईं, सरोकार अलग हो गए। जहां से एक कलाकार का अनुभव संसार समृद्ध होता है वह है समाज से सहचर्य और संगति और वहीं से उसे भावनात्मक ऊष्मा मिलती है, वह स्रोत रोक दिया गया । दोनों के सच अलग हो गए। उद्देश्य लोक शिक्षण से हट कर मनोरंजन हो गया। इस तरह के रंगमंच के पनपने की सबसे सही जगह थी राजदरबार। राज सभाओं मे वही पुराने आख्यानक मंचित होने लगे। इन नाटको के कथानक तो पौराणिक होते थे लेकिन परोक्ष रूप से राज कुलों को ही महिमामंडित किया जाता रहा। इस किस्म के कथानकों से शासक वर्ग आसानी से तदात्मय कर लेना आसान था। जनता इससे कटती चली गई। वहीं से शुरुआत होती है एक तरह के शासक वर्ग के आश्रय पर चलने वाले रंगमंच की । इसके प्राचीन प्रमाण बाणभट्ट के नाट्यकर्म मे मिलते हैं । बाणभट्ट अपने लिखे नाटकों को हर्ष के नाम से मंचित किया करते थे ।
... कालिदास के कदमो पर चल कर बाण सिर्फ खुशामदी कवि ही बना रहा... खुद के लिखे नाटकों नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शी को हर्ष के नाम से मंचित किया... हर्ष चरित्र की रचना भी खुशामदी के लिए की... कादम्बरी मे भी जो राजदरबार, रनिवास प्रासाद आदि के वर्णन भी अतिशयोक्ति पूर्ण किया है...
- राहुल सांकृत्यायन , दुर्मुख (वोल्गा से गंगा)
इसके पश्चात रंग मंच राजश्र्य से कभी मुक्त नहीं हो पाया । अपनी शिक्षण की भूमिका मे लौटने की जद्दोजहद हमेशा रही। कई उत्थान आए । पारसी रंगमंडलिया, भारतेन्दु युग का रंगमंच जो इसको मुक्त करके असली एजेंडे की तरफ लाने के प्रयास हैं । या फिर आजादी के बाद रगमंच का सफदर नुक्कड़ के माध्यम से प्रयास होते हैं जो उनको शहादत की कीमत पर होते है। या अब देखने मे आता है की समकालीन रगमंच मे भी अरविंद गौड़ जैसे व्यक्ति की टीम के कलाकारों को इस लिए आतंकी समझ कर गिरफ्तार कर लिया जाता है कि उन्होने काले कपड़े पहन रखे हैं । इसकी सिर्फ एक वजह है कि वो एक ऐसे रंगमंच की तरफ अग्रसर हैं जो सरकारी अकादेमियों के रहमो कर्म पर नहीं चलता।
अपने उद्भव से लेकर आज तक रंगमंच मे कई उत्थान-पतन आए। नाटक लिखे भी गए। नाटक मंडलियाँ भी बनी। नाटक कि बेहतरी के लिए अकादमियां भी बनी, बजट भी बने। लेकिन नाटक लोक शिक्षण की भूमिका में नहीं आ सका। एक चीज़ जो तब से लेकर आज तक बिलकुल नहीं बदली वह है रंगकर्मी और रंगकर्म के बारे में समाज का रवैया । रगकर्म के प्रोफेशन को आज भी सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया है। इसकी कील भी वही ठुकी हुई है जहां हमारी  चेतना मे वर्ण व्यवस्था की ठुकी हुई है।
क्योंकि गरीब दलित या वंचित की शिक्षा को यहाँ हाशिये पर रखने की साजिश हर युग मे होती रही है। चाहे वह नाटक के माध्यम से शिक्षा हो या किसी और माध्यम से । वर्तमान में भारत मे प्राथमिक शिक्षा की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। अभी एक रिसर्च के सिलसिले मे देखा कि कक्षा 6-7 तक ऐसे लड़के लड़कियां पहुँच जाते है जिनको अभी शब्द पढ़ने नहीं आते गणित की जोड़-बाकी बुनियादी गणनाएँ नहीं कर पाते हैं। ये सभी बच्चे सरकारी स्कूलों से हैं। वही सरकारी स्कूल जिनके लिए पिछले 10 सालों से हजारों करोड़ के हर साल बजट का सर्व शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है। और पिछले दो साल से शिक्षा का अधिकार अधिनियम चल रहा है लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात है। यह सिर्फ इस लिए है कि इन स्कूलों में गरीब के बच्चे पढ़ते हैं। और गरीब की शिक्षा हमेशा कुछ लोगों के लिए खतरा बन जाती है।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें।  इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा  मेरी नाट्यकला व  लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। ) 

दलीप वैरागी 
09928986983 

Wednesday, October 5, 2011

आकाश टेबलेट: लेकिन सुविधाओं को आदत है, ठीक गरीब की चौखट से मुंह मोड़ लेती हैं ।

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आज आखिर कपिल सिब्बल ने पिछले साल किए वादे को पूरा करते हुए दुनिया का सबसे सस्ता लैपटाप “आकाश टेबलेट” आज लॉंच कर दिया । राजस्थान आईआईटी आर ब्रिटेन की एक कंपनी के संयुक्त प्रयास से यह संभव हो पाया है । इस योजना को काफी महत्वकांक्षी व उम्मीद भरी दृष्टि से देखा जा रहा है। ऐसा कहा जा रहा है कि जो टेबलेट पीसी आज बाज़ार मे 10 – 11 हज़ार रुपए मे मिल रहे हैं वही सरकार को 2200 रुपए मे पड़ रहा है और सरकार इस पर सबसिडी देकर मात्र 1100 रुपए उपलब्ध करवा रही है।
इस योजना के पीछे सरकार का सोच है कि लैपटाप जैसी महंगी तकनीक महंगी होने के कारण सबसे गरीब व्यक्ति तक नहीं पहुँच पाती है। मंशा है कि कम से कम कीमत में लेटेस्ट टक्नोलोजी गरीब विद्यार्थियों के हाथ में देना ताकि वे ज्ञान की दुनिया तक पहुँच बनाने की हैसियत पा सकें। इसमे कोई दोराय नहीं कि अगर इस योजना का ईमानदारी से क्रियान्वयन होता है तो यह गरीग के साथ-साथ इस मुल्क का कायाकल्प कर सकती है । लेकिन अपने यहाँ सुविधाओं और योजनाओं को गरीब की चौखट से मुँह मोड़ कर वापस लौट आने की आदत है।
इस तरह की बातें कहने में बहुत पीड़ा होती है लेकिन क्या करें यहाँ का जमीनी यथार्थ ऐसा ही है। पिछले चार-पाँच सालों से कुछ स्कूलों मे जाना होता रहा है।   सरकारी स्कूलों में कंप्यूटरिकरण की योजनाओं को  दम तोड़ते देखा है। स्कूलों मे कंप्यूटर तो पहुँच गए हैं लेकिन आज तक किसी इन्टरनेट नेटवर्क से नहीं जुड़ पाये हैं तमाम प्रयासों के बावजूद । जबकि मॉडेम खरीदने, मासिक बिल भरने के बजट मे प्रावधान हैं तथा साथ मे एजुकेशन कमिश्नर का कनैक्शन लेने का अनुमति पत्र भी । अब बताओ एक सरकारी व्यवस्था मे और क्या चाहिए? लेकिन टीचर सालों से एक ही बात कह रहे हैं कि अप्लाई कर रखा है। यह दलील उस युग मे दी जा रही है जब तमाम कंपनियों के प्रतिनिधि दोहरे होकर कनैक्शन देने के लिए खड़े हो जाते हैं और शाम होने से पहले एक्टिवेट कर देते हैं। दरअसल सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद टीचर नेट कनैक्शन नहीं ले रहे हैं । उन्हें भय कि अगर नेट कनैक्शन लग गया तो स्टूडेंट्स सारी दुनिया से जुड़ जाएंगे। और जो अनियमितताएँ टीचर कर रहे हैं चाहे वह मिड डे मील मे हो या बिल्डिंग निर्माण के घपले या और कुछ । बच्चे सब कुछ देखते हैं । वे मेल कर सकते हैं एजुकेशन कमिश्नर को, शिक्षा मंत्री को , भारत के राष्ट्रपति को या पूरी दुनिया मे कहीं भी । बच्चे तो बच्चे होते हैं । सच के ज्यादा निकट होते हैं । सच बोल सकते हैं, सच खोल सकते हैं । बस उनको सुनने वाला होना चाहिए । नेट लग जाने से बच्चे मिनटों में बहुतों को बेपरदा कर सकते हैं। इस लिए जब तक नेट न लगे तो ....
ईश्वर करे “आकाश टेबलेट” सफल हो । लेकिन आशंका तो यहाँ भी व्याप्ति है कि जब मॉडेम आज तक नहीं पहुंचे तो वाई-फ़ाई कब तक होगा । ये टेबलेट पीसी भले ही गरीब बच्चों तक पहुँच जाएँ लेकिन कनेक्टिविटी के बिना तो ये महज म्यूजिक स्टोरेज डिवाइस भर बनके रह जाएंगे ।
अगर सरकार वास्तव मे ही सबसे गरीब को लाभ पहुंचाना चाहती है तो इस स्कीम की सही मॉनिटरिंग और फॉलोअप होना चाहिए ।

Wednesday, September 28, 2011

बच्चों का रंगमंच: कहीं भी, कभी भी ...

मैं जिस दृश्य का ज़िक्र यहाँ करूंगा हो सकता आपको मामूली लगे । दरअसल सुबह जब मैं ऑफिस के लिए निकला तो कॉलोनी के नुक्कड़ पर जो मुख्य सड़क से जोड़ता है । इसी नुक्कड़ पर एक फोटोग्राफर की दुकान हुआ करती थी जो अब उसने खाली कर दी है । फोटोग्राफर दीवार पर जो चित्रपट्ट छपवाते हैं ताकि शौकीन लोग उसके आगे खड़े होकर फोटो खिंचवा सकें। दुकान खाली होने पर भित्तिचित्र लगा रह गया था। जब मैं दुकान के आगे से गुजरा तो वहाँ का दृश्य देख कर ठिठका। वहाँ 7 से 10 वर्ष उम्र के दो लड़के थे । एक लड़का उस वॉलपेपर के सामने किसी अदाकार की तरह खड़ा था और दूसरा किसी प्रोफेशनल फोटोग्राफर की तरह फोटो खींचने का अभिनय कर रहा था । खिंचवाने वाला अलग-अलग अंदाज़ मे खड़ा होकर खिंचवा रहा था । मैंने थोड़ी देर तक रुक कर इस अभिनय को देखा फिर यह जान कर कि इस आयोजन में मैं निसंदेह अयाचित दर्शक हूँ । मेरी उपस्थिती इस अभिनय व्यापार को कहीं रोक न दे इसलिए मैं न चाहते हुए भी वहाँ से निकल गया ताकि यह नाटक अपनी संपूर्णता तक पहुँच कर खत्म हो सके। पूरे रास्ते मैं इसी घटना पर सोचता रहा बच्चों के बारे मे, नाटक के बारे में कि कैसे ज़रा सी फुर्सत मिलते ही बच्चे अभिनय शुरू कर देते हैं । कितनी जल्दी सब एक सुर मे आ जाते हैं । एक सुर मे आते ही नाटक के सब साजो समान भी जुट जाते हैं और शुरू हो जाता है खालिस अभिनय। यहाँ बच्चों और बड़ों के नाटक मे एक अंतर होता है कि जहां बड़ों का रंगमंच दर्शकों की बाट देखता रहता है और जब तक दो ढाई सौ दर्शक नहीं जुट जाते, रंग ही नहीं जमता लेकिन बच्चों के नाटक में एक भी दर्शक रंग में भंग डाल सकता है। दरअसल यह अंतर इस लिए है कि दोनों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं। बड़े जहां अपने नाटक के माध्यम से लोगों को शिक्षित कर रहे होते है जबकि बच्चों के नाटक मे वे खुद सीख रहे होते हैं(बड़े भी सीख सकते हैं)। वे नाटक के माध्यम से अपने पास-पड़ौस की दुनिया को समझ रहे होते हैं । एक अनुभव है। गाँव मे एक मेरी भतीजी है योगिता । जब वह लगभग तीन साल की थी वह शाम के समय अपनी उम्र बच्चों के साथ घर की छत पर खेल रही थी। अचानक ऊपर से रोने की आवाजें आईं । भैया छत पर गए और वहाँ का दृश्य देख कर दंग रह गए। वहाँ का दृश्य कुछ इस प्रकार था कि योगिता फर्श पर लेटी हुई थी और उस पर कपड़ा कुछ इस प्रकार डाल रखा था जैसे मरने के बाद किसी मृत शरीर को ढंका जाता है। बाकी सभी बच्चे उसे चारों तरफ से घेरे हुए रुदन-विलाप कर रहे थे। कुछ गले लग कर वैन कर रहे थे । भैया कुछ देर तो देखते रहे फिर उनके लिए असहनीय होने लगा । इतने मे ही बच्चों को बाहरी आदमी की उपस्थिती पता चल गई । खेल खत्म, सब भाग गए सिवा योगिता के, वह अब भी अपनी भूमिका से बाहर नहीं आई थी और वैसे ही पड़ी हुई थी । भैया ने झिझोड़ कर खड़ा किया और पूछा कि ये क्या ड्रामा है ? उसने बताया कि पिछले दिनों पड़ौस के घर मे वैशाली के भाई की मृत्यु हुई तब लोग ऐसे ही .... तो बच्चे पड़ौस की जो उन्होने समाज मे घटते हुए देखा उसे अपनी तरह से समझ रहे हैं। तात्कालिक घटना यह है और सब बच्चे अनायास ही मृत्यु से जुड़े अपने–अपने देखे अनुभवो को यहाँ शेयर करेंगे और नई अवधारणाएँ बनाएँगे । मृत्यु जैसे यथार्थ को उन्होने कैसे देखा समझा। मृत्यु का समाज और परिजनों पर क्या असर पड़ता है उस सच को अभिनय के माध्यम से दूसरे के स्तर पर महसूस करके देखना चाहते हैं । बच्चे बहुत से जटिल और दार्शनिक महत्व के प्रश्नों के समाधान ऐसी ही सरल प्रक्रियाओं से समझ लेते हैं। कुछ सवालो के जवाब यहाँ अपने आप साफ होने लगते हैं कि “क्या अभिनय सीखने की चीज़ है या नहीं ?” या “क्या हर इंसान को रंगमंच की कला का अहसास होना चाहिए?” यह जान लेना चाहिए की अपनी ज़िंदगी मे ज़्यादातर अभिनय 5-6 साल की उम्र तक हम कर लेते हैं । हाँ , यह अलग बात है तब उसका स्वरूप अलग होता है । बचपन का अभिनय प्रदर्शनोन्मुखी नहीं होता है। वह खुद के सीखने के लिए है। वहाँ सिर्फ दर्शक के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। उनकी दुनिया मे सब अभिनेता है, सब दर्शक है, सब समीक्षक हैं। आप उनकी दुनिया में दर्शक बन कर शामिल नहीं हो सकते, उनकी दुनिया का हिस्सा बने बिना तो आप एक जासूस की तरह ही उनका रंगमंच देख सकते हैं । उनकी दुनिया का हिस्सा होना आसान बात नहीं है। जबकि इसके उल्टा होता है हम पहले जासूस बनके उनके रंगमंच में झाँकते हैं तो हमे उनके नाटक या तो बचकाने लगते है या असहनीय। क्योंकि कई बार बच्चों के नाटकों का विषय ऐसे होते हैं जिनके बारे मे हम मान कर चलते है कि बच्चों को ऐसे विषयों पर नहीं सोचना चाहिए। लेकिन वे सोचते हैं । वे अपने नाटको मे बड़ों कि दुनिया के उन कोनों को भी झांक जाते है जो उनके लिए बंद हैं। फिर हमारा जासूस तानाशाह मे रूपांतरित हो जाता है और हम उनके मासूम नाटकों पर सेंसरशिप लगाकर उन्हें तथाकथित रूप से सामाजिक बनाने की कवायद में लग जाते हैं। किशोर अवस्था तक पहुँचते उसके अभिनय के सहज सोते को सुखा डालते हैं। बाद मे अभिनय की शिक्षा के लिए स्कूलों और कॉलेजों मे हजारों खर्चते हैं। यदि इस कवायद में कोई निकाल के आता है तो उसके बाद तैयार कलाकार को खड़ा करने के लिए दान, अनुदान और अकादमियां लगी हुई हैं।
इसके बाद हम कोशिश करके जो रंगमंच बना पाते हैं वो होता है एक विभाजित रंगमंच; जिसके एक धडे मे अभिनेता है और उसकी टोली तथा दूसरी तरफ है दर्शक, जो लाख मनुहारों के बाद प्रेक्षागृह तक आ जाता है। दृश्य की समाप्ती पर ताली बजाता है, नाटक के आखिर मे अभिनय पर फतवा देकर चला जाता है। दर्शक और अभिनेता कभी एक सुर मे नहीं आ पाते हैं । यहाँ तक कि कोई रिश्ता ही नहीं बन पता है। यहाँ एक सुर का मतलब किसी सिंफनी के साज़ों की तरह एक नोट पर बजना या फिर एक तरह से सोचना नहीं है। यहाँ आशय सार्थक संवाद से है । यह संवाद ज़्यादातर लोक नाट्यों मे मिलता है। इस तरह के लोकनाट्यो मे दर्शक तटस्थ या स्थिति से अलगाव कायम रखने वाला दर्शक नहीं होता है। वह जहां कहानी के साथ वैचारिक रूप से जुड़ता है । नाटक के दौरान अभिनेता का उससे संवाद भी होता है और कथानक के विकास मे सहयोग भी करता है । मेरे गाँव का का अनुभव है, हम स्कूल के एक समारोह मे नौटंकी “अमरसिंह राठौड़” कर रहे थे । एक युवा कलाकार जो कि इसमे रामसिंह कि भूमिका निभा रहा था वह अपने संवाद भूल रहा था । लेकिन तभी दर्शकों मे से एक टीचर जो कि बाहर किसी गाँव से आए हुए थे सफा बांध कर मंच पर आ गए और उसकी तलवार लेकर उसे दर्शकों मे बैठ कर देखने को कहा । उन्होने नाटक के उसी बिन्दु से अपनी भूमिका को उठाया । नाटक की गति और गुणवत्ता मे जरा भी गिरावट नहीं आई । अत: यह कहा जा सकता है कि अधिकतर लोक नाट्य बच्चो के नाट्य के निकट बैठते है । जहां पर दर्शक सिर्फ दर्शक नहीं है बल्कि उसका नाटक मे एक्टिव पार्टीसिपेशन होता है।
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दलीप वैरागी 
09928986983 

Wednesday, September 7, 2011

Theatre : सच को साधने का यन्त्र

यह २००६ - ०७ की बात है हम राजस्थान टोंक व धौलपुर जिले के स्कूलों में quality education project के तहत स्कूलों में educational support  का काम कर रहे थे | हर महीने हम स्कूलों का विज़िट करते | तीन दिन तक विद्यालय में पूरा समय रह कर अवलोकन करते थे |  टीचर्स बच्चों को पढाते कैसा हैं ? जो विधाएं टीचर्स शिक्षण में अपना रहे हैं वे कैसी हैं  और उनका बच्चों के प्रति व्यवहार कैसा ? कक्षा में बैठ कर देखते और जहाँ भी लगता हम टीचर को सपोर्ट करते | इस सिलसिले में एक स्कूल ऐसा था जहाँ सब चीजें दुरुस्त नज़र आतीं थी | टीचर्स समय पर विद्यालय आते , पूरा समय कक्षाओं में रहते यहाँ तक कि दो तीन शिक्षक तो विद्यालय समय के आलावा रुक कर अतिरिक्त कक्षाएँ भी लेते | एक चीज़ के बारे में कोई पक्का नहीं कर पा रहा था कि इस स्कूल में दंड की क्या स्थिति है? हालाँकि कई बार मैंने टीचर्स को गाली व डांट-फटकार जैसे असंवेदनशील व्यव्हार बच्चों से  करते देखा था लेकिन शारीरिक दंड को भौतिक रूप से नहीं देखा। हालांकि दंड के दोनों ही स्वरूप जघन्य हैं जबकि स्कूल में डंडे की उपस्थिति बराबर नज़र आती रही | मुझे लगता कि इस विद्यालय में बच्चों को दंड तो मिलता है लेकिन जिन दिनों मैं आता हूँ उन दिनों में टीचर संयम रख लेते हैं | ऐसा नहीं कि हम बच्चों से बात नहीं करते थे | स्कूल में हमारा अधिकतम समय बच्चों के साथ ही व्यतीत होता था | हम अध्यापक की उपस्थिति में और उसकी गैरमौजूदगी में भी बच्चों से बात करते  |  दंड के विषय में में हमने बच्चों से कई बार पूछा लेकिन बच्चों ने यही कहा कि उनके स्कूल में पिटाई नहीं होती है | एक दिन हमने एक युक्ति सोची | हम अक्सर क्लास में बच्चों के साथ नाटक पर काम करते थे | हमने सब बच्चों से कहा कि आज हम नाटक करेंगे | बच्चे बहुत खुश हुए | हमने बच्चों के चार समूह बना दिए और बच्चों से कहा कि आप अपने-अपने समूह में एक नाटक तैयार कर के लाएं जिसका विषय ‘क्लास रूम में में शिक्षक पढ़ा रहा है’  हो सकता है |
नाटक तैयार करने की प्रक्रिया से बच्चे पहले ही परिचित थे , बच्चे स्वतंत्र रूप से मिलकर थीम पर नाटक तैयार करते अगर जरूरत पड़े तो वे किसी की भी मदद ले सकते थे | जब सब समूहों के नाटक तैयार हो गए तो शाम को प्रार्थना स्थल पर बच्चों ने मंच तैयार कर जो नाटक improvise किये थे, वे करके दिखाए | नाटक देख कर सब दंग रह गए | नाटक के सभी दृश्यों में जो बच्चे टीचर बने थे वे लगातार पढ़ा रहे थे, सवाल पूछ रहे थे और ना बता सकने पर विद्यार्थी बने बच्चों को पीट रहे थे | नाटक के दृश्यों के साथ टीचर्स भी पूरा साधारणीकरण कर चुके थे | फुल एन्जॉय कर रहे और बच्चों के पिटाई के action देख कर टिप्पणियाँ भी कर रहे थे “अरे यह तो हैडमास्टर साहब की स्टाइल है |”  “ये तो बिलकुल रामजीलाल लग रहे हैं |  ... ”
ऐसा कैसे हो गया? शुरू में पूछने पर टीचर्स और बच्चे दोनों ही इनकार कर रहे थे कि हमारे स्कूल में पिटाई नहीं होती है जबकि नाटक में बच्चों ने जाहिर कर दिया और देखते हुए टीचर्स ने रियलाइज भी किया | दरअसल नाटक विधा में ऐसा है क्या ?  क्या यह झूठ पकड़ने की की मशीन है ?
नहीं। दरअसल यह सच को साधने का यन्त्र है। इसमें फॉयड का मनोविश्लेषण का सिद्धान्त काम करता है। नाटक हमारे अचेतन में सेंध लगता है। हमारा अचेतन वह स्टोर है जहाँ हमारी वह अतृप्त इच्छाएँ या वो भावनाएँ रहती है जो दबा दी  गयी होती हैं | जिनको प्रकट  करने पर सेंसरशिप होती है |  अभिनय की प्रक्रिया दरअसल स्वप्नों की तरह व्यवहार करती है | जिस प्रकार फॉयड सपनों की व्याख्या करते हुए कहते है कि   स्वप्नों के पीछे एक मूल विचार होता है और एक  स्वप्न की विषय वस्तु होती है | स्वप्न के पीछे का उद्दीपक विचार प्रतीकात्मक रूप से स्वप्न की विषय वस्तु के रूप में प्रकट होता है और स्वप्नों की व्याख्या करके मूल विचर या उसके पीछे की अतीत की घटना को पकड़ा जा सकता है | नाटक भी इसी तरह व्यवहार करता है जब आप दूसरे के स्तर पर जाकर अनुभव करते हैं तो सेंसरशिप ढीली पड़ती है और अचेतन में कहीं गहरे बैठा खुद का अनुभूत सच दूसरे के बहाने से फूट पड़ता है  | यहाँ बच्चे और टीचर दंड के बारे में बताना नहीं चाहते हैं क्योंकि बच्चों का जाहिर करने का अपना डर है और टीचर में कही अपराध बोध है | इस कारण दोनों प्रत्यक्ष बताना नहीं चाहते हैं लेकिन नाटक के मार्फत दोनों ही इस सच को स्वीकारते हैं |
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दलीप वैरागी 
09928986983 

Tuesday, September 6, 2011

नाटक, स्कूली बच्चे और हम !

थियेटर पर मैंने ये अनुभव अलग-अलग समय में यहाँ वहाँ लिखे थे। Irom Sharmila Vimarsh ने फेसबुक पर जो बहस शुरू की है उसी बहाने से मैं अपने रंगमंच संबंधित लेखों को नेक जगह एकत्र कर रहा  हूँ । यह मैंने अपने दूसरे ब्लॉग बतकही से निकाला है। बहरहाल नया-पुराना चलता रहेगा ...
अभी हाल ही शिक्षा के क्षेत्र के आला लोग विद्यालयों का निरीक्षण करके लोटे उन्होंने वहाँ से लौट कर एक बहुत ही विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट बनाई जिसमे अधिकतर यह लिखा था कि बच्चों को क्या नहीं आता | क्या आता है , यह नहीं देखा गया । ... इसमें एक बात प्रमुखता से यह थी कि बच्चों को नाटक करना नहीं आता | बच्चों से कहने पर उन्होंने नाटक नहीं दिखाया | यह बात उस स्कूल के लिए कही गयी जहाँ नियमित रूप से सैटरडे थियेटर होता है | फिर मामला क्या हो सकता है ? ''आप नाटक करके दिखाओ '' क्या किसी ग्रुप को नाटक करने के लिए इतना भर कह देना काफी होता है ? क्या यह केवल इतना ही है "चलो बेटा पोएम सुनाओ ..." नाटक सिर्फ इतना नहीं होता बल्कि इससे बहुत ज्यादा होता है | बच्चो के अकादमिक कौशल और कला कौशल को आंकने का एक ही टूल नहीं हो सकता कला को आंकना कक्षा में जाकर नौ का पहाड़ा या पर्यायवाची पूछने जैसा नहीं है | अगर ऐसा नहीं होता तो करिकुलम निर्धारित करते वक्त इनको सहशैक्षिक गतिविधियों में न रख कर अकादमिक में ही रखा गया होता | हर कला का अपना एक अनुशासन होता है उसी में उसको आंकने के टूल भी होते हैं | उस अनुशासन को समझे बिना आप आप कला का आकलन नहीं कर सकते | नाटक के सन्दर्भ में मोटी--मोटी दो तीन बातें निहित हैं कि यह टीम के बिना नहीं होता और प्रदर्शन से पहले टीम का एक सुर में होना भी बेहद जरूरी है | दूसरी बात यह है कि प्रदर्शन से पहले नाटक लंबे अभ्यासों को मांगता है तब जाकर मंच तक पहुंचता है | तीसरे यह कि प्रदर्शन से तुरंत पहले तयारी के लिए बहुत कुछ सामान मंच के लिए जुटाना पड़ता है | ये बाते स्कूल के बच्चों के लिए भी उतनी ही लागु होती हैं जितनी कि एक प्रोफेशनल दल के लिए होती हैं | अब सोचें कि जब आप किसी स्कूल का निरीक्षण करने जाते हैं तो क्या इतनी फुर्सत निकाल कर जाते हैं ? जब आप बच्चों से नाटक करने के लिए कह रहे होते हैं तब आप उनसे किस तरह का रिश्ता कायम करते हैं ? आपके शब्दों में आग्रह होता है या आदेश , बहुत कुछ आपकी उस वक्त कि मुख मुद्रा पर भी निर्भर करता है | हां , बच्चे नाटक कि जिस विधा के जबर्दस्त माहिर होते वह है रोल प्ले | उन्हें कोई स्थिति बताइए वे मिनटों में नाटक इम्प्रोवाइज कर के ले आते हैं | अत : जब भी आप बिना नोटिस के दो घंटे के लिए किसी स्कूल में जाएँ तो आप कक्षा में जाकर सत्रह का पहाड़ा तो जरूर पूछें लेकिन नाटक के लिए कहने से पहले बहुत बाते ध्यान रखनी पड़ेंगी | आप खुद अपने घर में ही छोटे बच्चे से पूछ कर देख लें कि जब महमान आने पर उससे कहते है कि बेटा चल अंकल-आंटी को पोएम सुना तब वह कैसा महसूस करता है ? सच जाने सबसे निरानन्द कि स्थिति में वह बच्चा ही होता है | हमारे यहाँ स्कूल- कॉलेजों में कलाएं विद्यार्थियों के लिए ऐच्छिक ही रहती आयीं हैं ताकि बच्चे अपनी रूचियों के हिसाब से जुड सकें | सांस्कृतिक समारोह में किसी बच्चे को जबरन किसी एक्टिविटी में भाग लेने के लिए नहीं कहा जाता था | लेकिन अब देखने में आया है कि शहरो के कुछ अंग्रेजी स्टाइल के स्कूलों में हर बच्चे को भाग लेना ही पड़ता है चाहे बच्चे कि रुचि है या नहीं | मै शहर के एक नामी प्राईवेट स्कूल में नाटक तैयार करवाने गया था नाटक के आलेख के बारे में पूछने से पहले उनकी दिलचस्पी इस बात में थी कि क्या मैं इस नाटक में उनके स्कूल के अस्सी बच्चों को खपा सकता हूँ या नहीं | आखिर अभिभावकों को उनका बच्चा मंच पर नज़र आना चाहिए | बच्चे का आनंद कहाँ है इसकी परवाह किसको है?
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दलीप वैरागी 
09928986983 

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...