शुरूआतः एक खुशनुमा
इत्तेफ़ाक
कस्तूरबा गाँधी बालिका
विद्यालय,
किराप, अजमेर नाट्य कार्यशाला27 से 29 मार्च 2014
जब किराप में इस नाट्य कार्यशाला की तारीख निर्धारित की तब यह सोचा नहीं
था कि इसकी शुरूआत “विश्व रंगमंच दिवस” से होगी। बहरहाल, 27 मार्च को केजीबीवी
में जाकर हमने
लड़कियों से इस दिन के ऐतिहासिक महत्त्व पर मुख्तसर बात की कि इन तीन दिनों में हम लोग
मिलकर जो काम करने
जा रहे हैं, उसका कितना
महत्त्व है। यह उस
काम से किसी भी मायने में कम नहीं है, जिसे आज के दिन संसार के रंगकर्मी अपने-अपने तरीके से करेंगे।
अब तक की कार्यशालाओं में हम सभी लड़कियों को शामिल नहीं कर पाए थे। लगभग, तीस-पंैतीस लड़कियों
के साथ ही काम हो
पाता था, जिसकी वजह
से मंचन के वक्त उन लड़कियों की नाराज़गी सामने आती थी, जो नाटक में भाग नहीं ले पाती थीं।
‘‘हमें नाटक क्यों नहीं
सिखाया गया, सिर्फ़ इन्हीं लड़कियों के
साथ क्यों काम किया गया ?‘‘
जवाब में हमारे पास
कोई दलील नहीं होती, जो लड़कियों
को संतुष्ट कर सके। सही
भी है, अगर हम यह
मानते हैं कि नाटक
व्यक्ति में छिपी हुई प्रतिभा व संभावनाओं को उजागर करता है तो यह भी सर्वमान्य
है कि ये संभावनाएँ सब में हैं। इसका मौका सभी को मिलना ही चाहिए। अतः, सभी सौ लड़कियों के साथ काम करने की
योजना बनाई गई। तय यह हुआ कि तीन बड़े समूह बनेंगे व प्रत्येक समूह में एक नाटक तैयार किया जाएगा।
तीनों समूहों को अपने नाटक की थीम तय करने के लिए कहा गया। समूह एक ने ‘पानी‘ विषय चुना, समूह दो ने ‘दंगा‘ तथा समूह तीन ने ‘चुनाव’। उस के बाद उनसे कहा गया
कि आप अपने-अपने विषय पर जम कर चर्चा करें। उससे जो भी समझ बने उसी के आधार पर अपने समूह में
कहानी, गीत, नारे, चार्ट व पोस्टर जो भी चाहें, बनाकर लाएँ। समूह
अलग-अलग कमरों में चले गए। थोड़ी देर तक तो समूह बना रहा, बाद में वह पाँच-छः की छोटी-छोटी टोलियों
में बँटने लगा, स्वतः ही।
किसी के पास किताब-कॉपी, किसी के पास
स्केच-कलर, किसी के पास
पेंट-ब्रश, किसी के हाथ
में पुस्तकालय की किताबें थीं। सरपट दौड़ शुरू हो गई, कमरे दर कमरे, समूह दर समूह। हमारी
किसी को कोई परवाह नहीं। थोड़ी देर के लिए हम व शिक्षिकाएँ मुक्त थे, आगे की व्यूह रचना
के लिए या फिर इस सक्रियता के दृश्य को आँखों में कैद करने के लिए- काम होता दिखाई
दे रहा है, सर्वत्र-चर्चाएँ
हो रही हैं। बातें हो रही हैं। बातों से बातें निकल रही हैं जिनसे ख्याल बुने जा रहे
हैं, इन्हीं ख्यालों
पर कथा का ताना तना जा रहा है। कल्पना के रंग चढ़ाए जा रहे हैं। नारे गढे़ जा रहे हैं, तुकबंदियाँ की जा
रहीं हैं, काफि़ये मिलाए
जा रहे हैं, गीत रचे जा
रहे हैं। कलम चल रही है, कूची चल रही
है, कागज़, कॉपी व चार्टों पर
इबारतें नुमाया हो रही हैं। ऐसा लग रहा है जैसे हर चीज़ में पंख लगे हैं। चंद घंटों
में ही नाटकों के मजमून तैयार होकर सामने आ गए हैं और इन सब से लैस, सारा समूह एक बार
बड़े हाॅल में उपस्थित है और साथ में है बहुत सारी सहायता सामग्री। इन कहानियों के
साथ आगे बढ़ा जाना है।
तय यह हुआ कि ‘दंगा’ व ‘चुनाव’ दोनों विषयों पर दो
नाटक किए जाएँगे। जब दो नाटक किए जाने हैं तो मौजूदा तीन समूहों के साथ कैसे काम हो
पाएगा? शायद, मुख्तलिफ़ तरीके
से समूह बनाने होंगे। समूह कुछ इस तरह से बने-लड़कियों से कहा गया कि जो लड़कियाँ नाटक
में अभिनय की इच्छुक हैं,
वे एक तरफ़ आ जाएँ। लगभग आधी लड़कियाँ आ र्गइं। चयन की छूट दी गई कि आप खुद तय
करें कि किस नाटक में रहना है। अब हमारे सामने तीन समूह थे। शेष तीसरे समूह को बहुत
महत्त्वपूर्ण जि़म्मेदारी मिली कि आप लोग तय करें कि इन दोनों नाटकों में नेपथ्य से
किस प्रकार सहयोग कर इन्हें प्रभावी बनाया जा सकता है। इसमें काम काफ़ी विविधता भरा
था। सेट डिज़ाइन, मंचसज्जा, रूपसज्जा, वेशभूषा, संगीत, मंच-प्रबंध इत्यादि।
लेकिन, हमें इस बड़े
समूह में लड़कियों को क्या-क्या ‘स्पेसिफि़क’ यानी
खास जि़म्मेदारियाँ देनी हैं, इसको ज़्यादा ‘स्ट्रक्चर्ड’ यानी ढाँचागत रूप
से तैयार नहीं किया। वे अपनी समझ, सामथ्र्य व रुचि के हिसाब से अपनी भूमिकाएँ खुद तय करें। इस
समूह से यह विशेष रूप से कहा गया कि वे अभिनय वाले समूह से लगातार संवाद कायम रखेंगे।
तीनों समूह अपने-अपने काम में फिर जुट गए। अथक । वे मंचन तक रुकने वाले नहीं थे।
भाषा की पाठशाला
साजिद अली -‘‘भाइयो और बहनो, मैं घर-घर में फरी (फ्री) बीजली (बिजली) पहुँचाऊँगा।” साजिद
अली की भूमिका में गायत्री हिन्दी में लिखे संवाद को ठेठ मारवाड़ी लहज़े में बोल रही
थी। गायत्री को दुबारा इसी संवाद को बोलने के लिए कहा गया। फिर पूछा ‘‘आपको लगता है संवाद
में कुछ गड़बड़ है?‘‘ लड़की ने
संवाद फिर बोला -
“भाइयो और बहनो, मैं घर-घर में फरी
बीजली पहुँचाऊँगा।”
“हमारे नाटक में तो हमें लगता है कि साजिद अली को
हिन्दी बोलनी चाहिए।”
थोड़ा सोचने के बाद लड़की ने फिर अपना संवाद बोला-
“भाइयो और बहनो, मैं घर-घर में फरी बीजली पहुँचाऊँगा।”
इस बार बदलाव महज़ इतना था कि मारवाड़ी लहज़े को थोड़ा अपदस्थ
करने की कोशिश की गई। इसी कोशिश पर ही हमें भाषा सीखने की बुनियाद रखनी थी। हमें पता
चल गया था, धूल कहाँ
से हटानी है। हिन्दी भाषा की कक्षा का साजो-सामान जुटना शुरू हो गया। अब गायत्री के
लिए मारवाड़ी और हिन्दी में उच्चारण भेद को सचेत रूप से देखने की ज़रूरत है। उसकी संवाद
अदायगी में ‘फरी’ और ‘बीजली’ शब्दों में कील गड़े
हुए हैं, इन्हें एक-एक
करके खींच कर देखने की ज़रूरत है। यह एक शुरूआत होगी, सचेत रूप से अपनी
भाषा को देखने की। अभिनेता के लिए तो यह निहायत ज़रूरी है। अब फिर गायत्री से कहा गया
कि अब जब आप अपना संवाद बोलें तो खुद की आवाज़ को गौर से सुनें, और जहाँ उचित लगे
बदलाव करने की कोशिश करें। गायत्री ने फिर तीन-चार बार संवाद दोहराया। पता नहीं, उसने खुद को सुना
या नहीं। हमने उसके काम को थोड़ा आसान करने की कोशिश की। हमने कहा, ‘’अब ऐसा करते हैं, एक बार आप संवाद बोलेंगी, उसके पश्चात हम बोलेंगे।
आपको दोनों को ध्यान से सुनना है, फिर फ़र्क महसूस करिये।”
साजिद अली- ‘‘भाइयो और बहनो, मैं घर-घर में फरी
बीजली पहुँचाऊँगा।”
हमने संवाद को सही करके बोला-‘‘भाइयो और बहनो, मैं
घर-घर में फ्ऱी बिजली पहुँचाऊँगा।”
इस बार गायत्री ने सुना और थोड़ा समय लेने के बाद अपना
संवाद आंशिक बदलाव के साथ बोला-
“...मैं घर-घर
में मुफ़्त बीजली पहुँचाऊँगा।”
संवाद में परिवर्तन कर बोलना इस बात का सूचक था कि उसने पहली
बार हमारी व खुद की आवाज़ को सुनना शुरू किया था। जैसे ही सुनना शुरू हुआ, वैसे ही उसने सचेत
प्रयास किया कि जिस शब्द में समस्या थी उसके स्थान पर समानार्थक विकल्प तलाश कर रख
दिया। निस्संदेह, यहाँ गायत्री
के लिए भाषाई कौशल का एक आयाम खुला था, किन्तु अभीष्ट यह नहीं था। यह समस्या से नज़रंदाज़ी होगी।
गायत्री से कहा गया कि आप संवाद के शब्दों में किंचित भी हेर-फेर किए बिना संवाद अदायगी
का बार-बार अभ्यास करें। शुरू में थोड़ा ज़बान लड़खड़ाई, लेकिन अंततः उसने
सही संवाद बोला। अभी से गायत्री सही संवाद बोलेगी। वह सही संवाद बोलेगी नाटक के मंचनपर्यंत
या शायद जीवनपर्यंत...। कुछ इसी तरह की समस्या नाटक में एक नेता मांगीलाल का किरदार
निभा रही संजु जाट के साथ आ रही थी। स्थिति थी- नेता एक सभा को संबोधित कर रहे हैं
और जनता से बड़े बडे़ वायदे कर रहे हंै। जनता उनकी पोल भी खोल रही है। नेता संजु कहती
है-
“भाइयो और बहनो, मैं आपके गाँव में घर-घर में पानी पहुँचाऊँगा।”
जब दूसरी बार संवाद बोला तो कुछ इस तरह-
“भाइयो और बहनो मेरी सरकार में आपके यहाँ घर-घर में पानी पहुँचाऊँगा।”
तीसरी बार- “भाइयो-बहनो, आपके गाँव में सबको
घर-घर पानी
पहुँचाऊँगा।”
संजु के साथ समस्या यह थी कि संवाद छोटा होने के बावजूद भी वह
अंततः तय नहीं कर पा रही थी कि उसे क्या लाइन बोलनी है। हर बार वाक्य विन्यास व शब्दावली
बदल जाने से संवाद में आत्मविश्वास नहीं आ रहा था और आत्मविश्वास न होने से भाव-सृष्टि
भी नहीं हो पा रही थी। वाक्य के उलटफेर में वह खुद ही फँसे जा रही थी, मानो वह अपने संवाद
को ज़बर्दस्त बनाने के लिए अपनी शब्दावली को खंगाल देना चाहती थी। लेकिन, वे शब्द बेतरतीबी
से आकर अर्थ पर कुहासा डाल देते थे। ऐसा लगता था, वह अपनी जेब से संवाद की शब्दावली निकालना
चाहती है, लेकिन, जैसे ही हाथ बाहर
निकालती है वैसे ही साथ में अनावश्यक शब्दों की रेज़गारी भी नीचे गिर जाती है।
नाटक के कथोपकथन विधान में यह ज़रूरी नहीं कि प्रत्येक वाक्य
को बहुत सारे विशेषणों, सर्वनामों
इत्यादि पर हर बार खड़ा किया जाए। नाटक के किसी भी संवाद के दोनों सिरों के हुक पूर्व
और बाद के कथनों में लगे हुए होते हैं और उन्हीं की उंगली पकड़ कर नाटक में चलते हैं।
नाटक में कई बार चंद शब्द या फिर एक अकेला शब्द भी पूरी बात कह जाता है। यहाँ तक कि
सन्नाटों में भी अर्थ और भाव के वातायन खुलते हैं। ज़ाहिर है, लड़की को इस सत्य
तक पहुँचने में वक्त लग सकता था, लेकिन यह नामुमकिन नहीं था। हमने कहा, “आप
नाटक के पहले व बाद के संवादों के साथ अपने संवाद को जोड़कर देखें, फिर आपको जो भी अनावश्यक
शब्द लगें, उनकी छंगाई
करते जाएँ।” आखिर, लड़की ने अपनी जेब
से करारे नोट सरीखा संवाद निकाल कर सबके सामने रख दिया- “मैं
घर-घर में पानी पहुँचाऊँगा।”
कागज़ में शायद शब्दों के अतिरिक्त बोझ को उठाने की सामथ्र्य
होती हो, लेकिन, ज़बान और कान तो मुख-सुख
को ही समझते हैं। जो शब्द मुख-सुख नहीं देते वह फि़ज़ा में कहीं छितरा कर रह जाते हैं।
सम्प्रेषण के ध्येय तक नहीं पहुँचते। कलम और ज़बान फितरतन जुदा-जुदा हैं। कलम तो कागज़
पर शब्दों को तहा-तहा कर छोड़ती जाती है और पुस्तक उन्हें इस्तरी करके रख देती है।
किन्तु, ज़बान शब्दों
को गढ़ती है और उनमें प्राण भी फूँकती है तथा सामने वाले को किसी शिशु की तरह पकड़ाती
है। बच्चे को गोद में लेते वक्त हम वज़न को महसूस नहीं करते। इस तरह से हुआ सम्प्रेषण
दुनिया के किसी भी कोने में बेहतरीन सम्प्रेषण ही कहा जाएगा। इसके छोटे-छोटे व अनुशासित
अभ्यास सिर्फ़ नाटक की रिहर्सलों में ही मिल सकते हैं।
एक पाठ नागरिक शास्त्र
का भी
कार्यशाला के अंतिम दिन ड्रेस रिहर्सल के वक़्त जब हम लड़कियों
से मिले, सब के बीच
तीन-चार लड़कियाँ टोपियाँ (स्कल कैप)
पहन कर बैठी हुई थीं। ये मौलवी की भूमिकाएँ निभा रहीं थीं। हमारा स्वाभाविक सा सवाल
था, ‘‘अरे वाह!
ये कहाँ से लीं?‘‘ ‘‘हमने खुद
सिली हैं।” ‘‘किसने सिली हैं?” इसके जवाब में मुझे उम्मीद थी कि मेहरून, हसीना, हिना या शहनाज़ का
नाम आएगा, लेकिन, लड़कियों ने समवेत
स्वर में कहा, ‘‘सर, सुनीता ने सिली हैं, ये सारी टोपियाँ।” अब
हमारे लिए अटकलें लगाने के लिए बहुत कुछ था। क्या सुनीता टोपियाँ सिल सकती है, क्या सुनीता पहले
से टोपियाँ सिलती रही है?
या फिर नाटक बनाने की प्रक्रिया ने सुनीता को मजबूर कर दिया और उसने अपने आप उन्हें
सिल दिया। दरअसल, इस दृश्य
को इस तरह से भी होता हुआ देखा जा सकता है-सुनीता केजीबीवी में सीखे अपने सिलाई कौशल
से उत्साहित होकर मेहरून,
हसीना, शहनाज़ व
हिना से मिली होगी। जिस चरित्र के लिए टोपी सिली गई, उस पर बात हुई होगी, उससे परे मज़हबों
पर भी बात हुई होगी। और, टोपी सिलते-सिलते
कितने मज़हबी फ़ासलों की इन लड़कियों ने तुरपाई की होगी। कितने ही रिश्तों को रफ़ू
किया होगा ? कौन कह सकता
है, हमेशा साक्ष्यों
की तलाश बेजा बात है। कुछ मामलों में हमें संभावनाओं को ध्यान में रख कर प्रक्रियाओं
को छेड़ना भर है। साक्ष्य हमेशा हों, यह ज़रूरी तो नहीं।
एक दृश्य में जब हसीना काठात अज़ान लगाती है तो उसकी सहपाठी
दुर्गा मुसल्ला बिछा कर किसी मौलवी की तरह नमाज़ अदा करने लगती है। वही दुर्गा, जो एक दिन पहले नमाज़
के दृश्य में खुद को बहुत असहज महसूस कर रही थी ! आज के दृश्य और कल की स्थिति के दरम्यान
ज़रूर एक पूर्वरंग विद्यालय के आवासीय समय में रचा गया होगा।
यही स्थिति गणेश की आरती वाले दृश्य में थी। एक लड़की कोरस से
निकल कर आगे आकर गणेश बनती है। बाकी लड़कियों का समवेत स्वर में आरती-गायन। नाटक का
उद्देश्य हिन्दू या मुस्लिम धर्मों की उपासना पद्धतियों को देखना-सीखना नहीं हो सकता।
बल्कि, नाटक दूसरे
की जगह खुद को रख कर दूसरे के नज़रिए को समझना शुरु करता है, ताकि अपने धर्म के
साथ-साथ दूसरे के धर्म का अहतराम कर सकें। दरअसल, इन नाटक खेलती लड़कियों की शक्ल में हिंदुस्तान
के सेक्यूलर यानी धर्मनिरपेक्ष मुस्तकबिल का ब्लू प्रिंट दिखाई दे रहा है।
मिलजुल कर रचा विराट्
सौन्दर्य
यह हमारा विशेष आग्रह था कि स्कूल की प्रत्येक लड़की नाट्य कार्यशाला
की पूरी प्रक्रिया में हिस्सा ले। सिद्धान्त में यह विचार जितना खूबसूरत है, उसे अमली जामा पहनाना
कम चुनौतीपूर्ण न था। केजीबीवी में एक सौ पाँच लड़कियाँ नामांकित हैं, और एक सौ दो आज उपस्थित।
किसी भी गतिविधि में सौ लड़कियों का शामिल होना एक बडी़ ताकत हो सकता है, पर हमेशा ऐसा होता
नहीं। इसे ताकत में तब्दील किया जा सकता है। यह सामूहिक ताकत कोरी निरंकुश कदमताल न
बन जाए, इसलिए, इसे सौंदर्यबोधीय
संस्कार देना ज़रुरी होता है। यह संस्कार नाटक
के द्वारा सहजता से दिये जा सकते हैं। एक दूसरा पहलू है, सक्रियता का। कई
बार सक्रियता के नाम पर समूह में बस काम दे देना धोखा भी साबित हो सकता है। व्यक्तिगत
रुप से सीखने में सक्रियता निर्विवाद है। लेकिन, एक बडे़ उद्देश्य के लिए जब समूहों में काम
करते हैं, तो उसके लिए
उस विराट् उद्देश्य का ‘विजन’ यानी दृष्टि, प्रत्येक के चित्त-मानस
में स्पष्ट होना लाज़मी है। इस तरह से सक्रियता का एक सीधा-सा सिद्धान्त यहाँ नज़र
आता है कि प्रक्रिया की प्रत्येक कडी़ से जुड़ा व्यक्ति ‘विराट्’ को अपने तसव्वुर में
रखे, उसी के आधार
से कल्पना की उडा़नें भी भरे और फिर अपने छोटे समूह के कार्य में लग जाए, समूह में अपनी छोटी
– बडी़ भूमिका या जि़म्मेदारी की छोटी से छोटी अनंत बारीकियों तक जाने में लग जाए।
इस तरह वह विराट् आकार कैनवास पर उभरने लगता है। उल्लेखनीय है कि कार्यशाला में लड़कियों
की सक्रियता कुछ इस तरह दिखाई दे रही थी कि उनका काम आखिरकार समग्रता में उभर कर आता
दिखाई दिया। काम करती हर लड़की की कोशिश में यह स्पष्ट पता चल रहा था कि तस्वीर सबकी
निगाह में है और सबकी साझा की हुई है। अभिनय वाले समूह अपने अभिनय में निखार लाने के
लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं। बैकस्टेज वाले समूह की अपनी पैनी नज़र रहती है कि कैसे
अपने कार्य से उनके अभिनय में और प्रभावोत्पादकता ला सकें। एक दृश्य में मंच से नेता
अपनी-अपनी रैलियों को संबोधित कर रहे हैं। सीन ठीक ही चल रहा था अचानक दो लड़कियाँ
‘ऊँची कूद’ के खेल में काम आने
वाले दो स्टैंड र्ले आइं और नेताओं के सामने उन्हें ’माइक’ के रुप में खड़ा कर
दिया गया। ये उन दो लड़कियों की परिकल्पना थी। इस परिकल्पना को अब दो-चार और लड़कियों
ने लपक लिया। माइक को हॉल के साइड में ले जाकर उस पर रंगीन कागज़ लपेटना शुरु कर दिया।
दो लड़कियों ने हार्ड-शीट को काट कर उस पर पेपर चिपका, एक फ़ुट लंबाई की
दो पट्टियाँ काट लीं और उन पर बडे़ कलात्मक तरीके से लिख दिया, ‘सोनू साउण्ड सर्विस-मसूदा’। अब तैयार
हो गया नेता जी का मंच और मंच पर रखा माइक। नेता का साजो-सामान जुट गया, तो फिर, कुछ जनता के लिए भी
होना चाहिए। चुनावी साल है, रैली सभाओं
का दौर चल रहा है। लड़कियाँ सब देख रही हैं। दो-तीन लड़कियों ने फिर स्टोर रूम की तरफ
रुख किया। स्टोर रूम के रूप में अब एक और महत्त्वपूर्ण किरदार जुड़ने वाला है। थोड़ी
देर में वे दस-बारह तख्तियाँ लेकर आयीं जिनमें पकड़ने के लिए डंडियाँ लगी हुई थीं।
उन पर ‘पल्स पोलियो अभियान’, ‘बाल विवाह अभिशाप
है’, ‘भ्रूण हत्या
बंद करो’, ‘एक बेटी पढे़गी सात पीढी़...’ इत्यादि इबारतें लिखी
हुई थीं। हमने पूछा, ‘‘आप इन तख्तियों
का क्या करेंगी? ये तो विषय
से जुड़ी हुई नहीं है।’‘ लड़कियों ने कहा कि
इन तख्तियों पर वे नारे लिख कर चिपका देंगी। कूचियाँ, कलम व रंग फिर सक्रिय
हो गए और वहीं पास में ही एक टोली बैठ गई इन इबारतों को रचने। पास में ही नाटक के रिहर्सल
में संवाद चल रहे हैं, लेकिन, उन आवाज़ों पर अब
रंग छाने लगे हैं और संवादों की ध्वनियाँ नेपथ्य में चली जाती हैं। अब उन तख्तियों
पर नारे उभरते हैं, ‘वोट फॉर मांगीलाल’, ‘हमारा नेता कैसा हो, मांगीलाल जैसा हो’,
‘वोट फ़ोर साजिद अली’, ‘एक, दो, तीन, चार, साजिद अली अबकी बार।’
अलग-अलग जगह पर अलग-अलग टोलियाँ बैठी हैं, अपना-अपना काम कर
रही हैं। कोई किसी को सुपरवाइज़ नहीं कर रहा। एक टोली मुखौटे तैयार कर रही है। एक टोली
उनमें अपनी कल्पना के रंग भर रही है। एक टोली इस मुद्दे पर बहस कर रही है कि हिंसा
क्या होती है? किस-किस तरह
की होती है? हिंसा के
क्या-क्या साधन हैं, क्या-क्या
प्रतीक हैं? इस टोली ने
उन सब के चार्टों पर चित्र बनाए हैं। इस सारी भागदौड़ से परे तीन-चार लड़कियाँ बिल्कुल
अनौपचारिक ढंग से घंटों से बैठी हैं व बातों में मशगूल हैं। इनके चेहरों के भाव से
बिल्कुल नहीं लगता कि वे किसी अकादमिक ‘डिस्कोर्स’ मे लगी हैं। बातचीत
में एक ज़बर्दस्त ठहराव नज़र आ रहा है। देखने से लगता है कि इन्होंने सारे क्रिया-कलाप
में अपनी निजी बातचीत के लिए खूब फुर्सत निकाल ली है। लेकिन, काफ़ी समय बाद जब
यह समूह हमारे सामने आया और जब हमने इनके चार्ट देखे तो हमारी धारणा बदल गई। हाल में
हुए चुनावों का सारा का सारा इतिवृत्त व विश्लेषण इनके पास था। किस-किसने चुनाव लड़ा, कौन जीता, कौन हारा। जातीय व
धार्मिक समीकरण क्या थे, चुनाव के
वक्त अंदर कौन था, बाहर कौन, चुनावों को लेकर क्या
लड़ाइयाँ हुईं, क्या हथकंडे
रहे-सब बातें इन लड़कियों ने लिखी थीं। आखिर मंचन का दिन आया। तय हुआ केजीबीवी के मध्य
खुले प्रांगण में नाटक होगा। अब मंच-प्रबंधन व सज्जा के लिए लड़कियाँ एकजुट होने लगीं।
स्टोर रुम आज फिर खुल कर सक्रिय भूमिका में आ गया। लड़कियाँ आज फिर वहाँ जातीं व वहाँ
से कुछ न कुछ लेकर आती दिखाई दीं। जाने किस कोने से पुराना दस गुणा दस फ़ीट का बड़ा
पर्दा निकाल र्लाइं। उसे बरामदे के दो बडे़ खंभों के मध्य कस कर बाँध दिया गया, जिस पर बड़े-बड़े
अक्षरों में लिखा था - कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय, किराप। यह साइक्लोरामा
यानी मंच के पीछे का परदा हो गया। एक समूह का काम है अब तक कार्यशाला के दौरान बनी
सामग्री की प्रदर्शनी लगाने का। लड़कियों ने आँगन में सभी चार्ट्स को फैला दिया है, चयन हो रहा है, विषयवार वर्गीकरण
हो रहा है। मैंने उनकी मदद हेतु सुझाव दिया कि इन चार्ट्स को रस्सी बाँध कर हम मंच
के बाजू में लटका सकते हैं। मेरे सुझाव को हवा में उड़ा दिया गया, ‘‘सर, कितनी हवा चल रही
है, सब हवा से
हिलेंगे।”
”क्या किया जाए?’’
“इन्हें साॅफ़्ट बोर्ड्स पे लगा देते हैं।”
‘‘लेकिन, सॉफ्ट बोर्ड्स तो कमरों में लगे हैं।
वहाँ?’’,
“प्रदर्शनी तो मंच पे ही होनी चाहिए।”,
एक लड़की ने तुरंत कहा, ‘‘साॅफ़्ट बोर्ड्स दीवारों
पर से हटा लेते हैं।”
किसी लड़की का यह कहना भी साहसिक कदम ही माना जाएगा। आमतौर पर, साॅफ़्ट
बोर्ड्स को लगाना ही मुश्किल होता है, उतारना तो बहुत बड़ी बात।
लड़की की बात को वाॅर्डन सोमती सोनी ने मजबूती दी-
“सर, हम इन साॅफ़्ट बोर्ड्स को बड़ी आसानी से उतार
व
लगा सकते हैं।”
एक-एक कर आठ-दस साॅफ़्ट बोर्ड्स अगले ही पल ज़मीन पर थे। लड़कियाँ
उन पर चार्ट्स पिनअप कर रहीं थीं। अब एक-एक कर ये बोर्ड्स मंच के पीछे व बगल में खड़े
कर दिए गए। इनको खड़ा करने के लिए पीछे पलंग लाकर खड़े किए गए। मंच पर धूप होगी, इसलिए स्टोर से पुराना
शामियाना लाकर टाँग दिया गया। स्टोर से ही पुरानी फ़र्रियाँ (बंदनवार) लाकर पूरे
प्रेक्षागृह में सजा दी गईं। पृष्ठभूमि में लगे साॅफ़्ट बोर्ड्स को और उभारने के लिए
बिल्कुल नई चादरें स्टाॅक में से लाकर टाँगी गईं। अभिनय स्थल और दर्शकों के बीच चूने
से एक रेखा खींच दी गई। इस रेखा के किनारे-किनारे बाहर बरामदे से गमले लाकर कतार में
रख दिए गए। कुछ और गमले भी मंच पर, जहाँ उन्हें मुनासिब लगा, सजा दिए। मंच पर जहाँ
पर्दा बाँधा जाता है, वहाँ कसकर
आर-पार एक रस्सी बाँधी गई और उस पर चार खूबसूरत मुखौटे लटका दिए गए। कोई भी लड़की अपनी
कोशिश में कमी नहीं रखना चाहती थी। चारों तरफ़ ऊर्जा ही ऊर्जा, खूबसूरती ही खूबसूरती।
जिस नाटक का पूर्वरंग इस कदर रचा गया हो, वह उत्कृष्ट कैसे नहीं होगा! मंचन देखने के लिए पास के
माध्यमिक विद्यालय (रमसा) की लड़कियों व शिक्षिकाओं को आमंत्रित किया गया। उन्होंने
नाटक देखे भी... सराहे भी... मौखिक तौर पर भी और लिखित में भी!
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरी नाट्यकला व लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
09928986983