गाय पर शायद दूसरी बार लिख रहा हूँ। एक बार तब लिखा था जब चौथी क्लास में था। या फिर आज लिख रहा हूँ। गाय पर लिखना मेरे लिए उस वक़्त भी मुश्किल था और अब भी है। तब गाय इतनी सरल थी और हमारी लेखनी बहुत ऊबड़खाबड़ " गाय के चार पैर,दो सींग होते हैं... गाय घास खाती है और हमें दूध देती..." ये चार पंक्तियों का निबंन्ध तब भी न सधता था। जरा सा हेर-फेर और मास्टर की छड़ी। आज जब लेखनी कुछ सधी है तो गाय पहले जैसी नहीं रही है।
बहरहाल गाय जब आज राजनैतिक चर्चा का मुद्दा बन गया है, अचानक मुझे तीन साल पुराना एक अनुभव याद आ गया।
बात राजस्थान की ही है। शिक्षा में काम कर रही एक संस्था के कार्मिकों के प्रशिक्षण चल रहा था। प्रशिक्षक दल में मैं भी था। उसी शहर के नजदीक एक बहुत बड़ी गौशाला है और उसका बहुत नाम भी। लोगों ने कहा कि आए हो तो एक बार गौशाला को भी देखो। एक शाम को हम पांच साथी गौशाला देखने निकल पड़े। सच में बहुत बड़ी गौशाला थी। वहां हजारों गाय थीं। बहुत व्यवस्थित रूप से प्रबंधन था। प्रबंधन के एक व्यक्ति ने हमें गौशाला का बड़े उत्साह से एक गाइड के रूप में भ्रमण कराया। उसने गौशाला की परिधि से बताना शुरू किया। जहाँ पर हजारों गाय थीं। गायों का अस्पताल, गायों का आइसीयू वार्ड, गायों का ऑपरेशन थियेटर व गायों का एम्बुलेंस। एक तरफ गायों के चारे का भंडार। बीमार गायों की सेवा में लगे अस्पताल के कार्मिक। हम अंदर की व्यवस्थाओं से बहुत प्रभावित हुए।
अब घूमते हुए थोड़ा भीतर की ओर आ गए। गाइड ने कहा कि इस भाग में सभी भारतीय नस्ल की गाय हैं। उन्होंने हमें तमाम देशी नस्लों के नाम व पहचान बताईं जो अब विस्मृत हो चुकी हैं। अभी तक हममे पूरी गौशाला देखने का उत्साह कायम था।
अब हम गौशाला के केंद्र के पास आ गए। गाइड ने हमें वहाँ रोक कर कहा, "अब हम गौशाला के मुख्य भाग में प्रवेश कर रहे हैं। यहाँ जो गाय हैं वे सब उस गाय की संतति हैं जिसे बरसों पहले इस गौशाला के संस्थापक लेकर आए थे।" यह भाग चारदीवारी के भीतर था। गाइड ने कहना जारी रखा, "इस हिस्से में मुस्लमान को प्रवेश की इजाजत नहीं!" यह सुन कर हमारी नींद खुली। हमें पहली बार अहसास हुआ कि हमारे प्रशिक्षण टीम में सलमा भी हमारे साथ है जो अब तक भ्रमण को उतना ही एन्जॉय कर रही थी जितना कि सब। पहली बार टीम दो हिस्सों में तकसीम होती दिखी। हम सन्निपात की स्थिति में थे। अचानक हमारे एक साथी ने सलमा को सुनीता संबोधित करते हुए कहा, "सुनीता तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है, गाड़ी में आराम कर लो..."
आगे जाने का उत्साह अब नहीं था केवल जिज्ञासा भर थी कि अंदर का गौधन बहार से कितना भिन्न है जिसे प्राचीर में रखा है। गाइड के निर्देशानुसार जूते बहार खोल कर हम अंदर दाखिल हुए। अंदर भी केवल गाय ही थीं बिलकुल गाय जैसीं। वैसी ही जैसी चौथी क्लास के निबंध में होती थी - वही गाय, जिसकेे चार पैर और दो सींग होते थे... गाय घास खाती है और दूध देती है।" मुझे तो कोई भेद नज़र नहीं आया बाहर और भीतर की गायों में। भेद सिर्फ यहाँ के निज़ाम की सोच में ही नज़र आ रहा था। यह यात्रा दिमाग में कई सवाल छोड़ गई। इंसानों ने जो संकीर्ण दायरे खुद के लिए बना रखे हैं, उनके प्रतिबिम्ब वह इन बेजुबानों में क्यों देखना चाहता है? अपनी समाज व्यवस्था जानवरों पर क्यों आरोपित करना चाहता हैं?
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दलीप वैरागी
09928986983
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गाइड ने कहना जारी रखा, "इस हिस्से में मुस्लमान को प्रवेश की इजाजत नहीं! । ऐसी दु:खद स्थिति ही आपसी बैर भाव बढ़ाता है दूषित सोच। .
ReplyDeleteदिलीप जी , इस ब्लॉग में बहुत ही सरलता से गंभीरता को कह दिया है ।
ReplyDeleteसचमुच राजनीति जहां भी घुसपैठ करती है , कैसा भी क्षेत्र रहे .... मन विचलित कर ही देती है ।
आपके ब्लॉग बेहतर है ।
आपकी कलम आंदोलित अवश्य है परंतु सधी हुई लेखन को दर्शा रही है ।
दिलीप जी , इस ब्लॉग में बहुत ही सरलता से गंभीरता को कह दिया है ।
ReplyDeleteसचमुच राजनीति जहां भी घुसपैठ करती है , कैसा भी क्षेत्र रहे .... मन विचलित कर ही देती है ।
आपके ब्लॉग बेहतर है ।
आपकी कलम आंदोलित अवश्य है परंतु सधी हुई लेखन को दर्शा रही है ।
ये सच है किन्तु ऐसा सुच जो शायद गले से निचे नही उतरता ।
ReplyDeleteअभी कुछ दिनों पहले टीवी पर देखा किसी उ प्र के गाव में एक मुस्लिम परिवार ही गौशाला में सभी गयो की देखभाल करता है और उन्ही के साथ वहाँ ब्राह्मण परिवार भी कार्य करता है
ऐसा ही गुजरात में भी है ।
पर कुछ सियासी लोगो के कारन और हमारी पूरी जानकारी न होने के कारन ही आपसी मतभेद उत्पन्न होता है ।
मेरा प्रश्न है इसे समाप्त कोन कार सकता है राजनेता या हम आम लोग और उत्तर भी है हम आम लोग तो शुरू करते है ऐसे ही कुछ मुहीम जिसमे आपसी सोहर्स सोहार्द बड़े न की बैर भाव ।