आज 2 अक्टूबर की तारीख है। पूरी दुनिया में इसे महात्मा गांधी जी की जयंती के रूप में मनाया जा रहा है। भारत सरकार गांधी के जन्मदिन को स्वच्छ भारत अभियान के साथ जोड़ कर मना रही है। वह इसलिए कि स्वच्छता गांधी जी के लिए एक बड़ा मूल्य था।
मैं एक नाट्यकर्मी हूँ और यह सोच रहा हूँ क्या गांधी जी को रंगकर्म के योगदान के लिए भी याद कर सकता हूँ? अक्सर देखा है कि इन महान विभूतियों ने साहित्य, समाज संस्कृति या राजनीति पर अपने विचार रखे हैं तो नाटक पर भी कुछ न कुछ कहा होगा। इस सन्दर्भ में देखने पर उनकी जिंदगी का एक प्रसंग याद आता है जो यह बताता है कि गांधी जी के मोहनदास से महात्मा बनने में नाटक का बहुत योगदान है।
अपने बचपन में गांधी जी ने 'हरिश्चंद्र' नाटक देखा था। इस नाटक ने गांधी जी के बाल मन पर इतना असर डाला कि उन्होंने इस नाटक को बार-बार देखा। इस नाटक ने गांधी जी के जीवन की दिशा बदल कर रख दी। उनकी जिंन्दगी में सत्य के प्रति जो अटल आस्था थी उसका बीजारोपण हरिश्चंद्र नाटक ने कर दिया। नाटक से ही बालक मोहन ने शायद बचपन में यह मूल्य ग्रहण किया कि चाहे कितनी ही विकट स्थिति ही क्यों न हो सत्य के मार्ग पर अटल रहना चाहिए। इस मूल्य को गांधी जी ने आपने पूरे जीवन में डेमोन्सट्रेट करके दिखाया।
इसी तरह एक दूसरी महान विभूति ईश्वरचंद विद्यासागर का एक प्रसंग याद आता है। एक बार एक नाटक मण्डली नील के किसानों पर अंग्रेज अफसरों के अत्याचार को प्रदर्शित करते हुए नाटक कर रही थी। ईश्वरचंद विद्यासागर जी भी नाटक में आमंत्रित थे और अग्रिम पंक्ति में विराजमान थे। अंग्रेज अफसर का पात्र निभाने वाले अभिनेता ने किसान पर अत्याचार का इतना जीवंत अभिनय किया कि विद्यासागर जी अपनी सीट से उठकर आए और अफसर का अभिनय करने वाले अभिनेता को जूते से दनादन पीटने लगे। बाद में अभिनेता ने उस जूते को अपने सात्विक अभिनय के उपहारस्वरूप अपने पास रख लिया।
इन दोनों ही नाटकों से एक बात साबित होती है कि इंसान के व्यवहारगत परिवर्तन का नाटक जबरदस्त माध्यम है। अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों में अहिंसा, सत्यनिष्ठा व संवेदनशीलता के मूल्य स्थापित हों तो हमें इस माध्यम की ताकत को समझना होगा। पहले उदहारण से जहाँ यह पता चलती है कि नाटक की कथावस्तु में अन्तर्निहित विचार (सन्देश या उपदेश नहीं) किस तरह दर्शक के मूल्यबोध का निर्माण करता है। यह कार्य केवल नाटक ही मजबूती से कर सकता है। क्योंकि ये मूल्य हम जिंदगी की राह पर चलते हुए ही सीखते हैं और हमारे इर्दगिर्द जो जिंदगी है उसमे इस हद तक मूल्यहीनता की मिसालें हैं जो हमारे मूल्यबोध को शीर्षासन करवाने के लिए काफी हैं। केवल नाटक ही ऐसा माध्यम है जो कृत्रिम रूप से आपके इर्दगिर्द एक जिंदगी सृजित कर देता है और आप एक सुनियोजित कथा के साथ लिपटे विचार यात्रा के सहयात्री होते हैं। एक सत्य की विजय और मूल्य की स्थापना में अनायास ही एक हिस्सेदारी हासिल कर लेते हैं।
नाटक न केवल विचारधारा को ही प्रभावित करता है बल्कि विचार का भावनात्मक रूप से परिष्कार करके कर्म में भी प्रवृत करता है जिसे ईश्वरचंद विद्यासागर जी के उदहारण से समझा जा सकता है।
उपरोक्त दोनों उदाहरण बताते हैं कि एक नाटक दर्शकों पर किस प्रकार असर डाल कर उन्हें शिक्षित करता है और ज्ञान आधारित व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। जरा सोचिए जो मंच के ऊपर होते हैं और जो दर्शक के लिए नाट्यानुभव सृजित करने की तैयारी में लगे होते हैं, जो महीनों चर्चाओं पूर्वाभ्यासों में अपने मन व शारीर को साधते हैं उनके लिए नाटक का अनुभव दर्शक से कुछ ज्यादा होता है। किसी पाठशाला सरीखा।
दरअसल नाटक अपनी सम्पूर्णता में किसी पाठ्यचर्या से कम नहीं होता। अगर उसे सूझबूझ के साथ किया जाए तो वह गुणवत्ता युक्त शिक्षा का एक पैकेज ही होता है।
विडम्बना यही है कि नाटक में शिक्षा की जितनी संभावनाएं हैं यह उतना ही शिक्षा व्यवस्था से बहिष्कृत भी है। मेरा अनुभव तो यही कहता है शिक्षा चाहे किसी भी स्तर की हो, किसी भी डिसिप्लीन की हो उसमें नाट्यकला जरूर शामिल होनी चाहिए। और वे केवल एक पुस्तक सरीखे साहित्य की किताब में न होकर बल्कि अपने जीवंत रूप में होने चाहिए। जिस दिन ऐसा हो पाया उस दिन फिर से शायद कोई मोहनदास से महात्मा बन जाए। एक नहीं अनेक, अपने-अपने मौलिक स्वरूपों में।
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दलीप वैरागी
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Very nice blog Chacha Beragi
ReplyDeleteअच्छा है,कुछ नया जानने को मिला
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