“पोलिथिन के संदर्भ में मैं इतना ही कहूँगा की जब यह समझ आता है ‘फला चीज बेकार है तब तक वह जन-जन की आदत बन चुकी होती हैं’| जब तक आदत में आने से पहले पता नहीं किया जाता यह हानिकारक है या नहीं तब तक इस तरह की दुविधाओं से सामना होता रहेगा |” |
उपरोक्त टिप्पणी भँवर लाल जी ने कितना मुश्किल है रोजमर्रा की जिंदगी में क़ानून का पालन ... शीर्षक वाली ब्लॉग पोस्ट पर की थी। सही कहते हैं आदतें अचानक नहीं आती हैं एक लंबा वक्त लेती हैं हममें पनपने में। ये हमारे शरीर में वैसे ही उग आती है जैसे कि हमारे अंग हमारे शरीर के साथ विकसित होते हैं; जैसे हमारे हाथ, हमारे पैर। हम आदतों के साथ बहुत सहज हो जाते हैं । जैसे आपके कन्धों को अपने हाथों का और गर्दन को सिर का बोझ नहीं लगता वैसे ही आदते हममें सहज होती हैं । स्वयं को इनका अहसास ही नहीं हो पाता है । लेकिन जब हमें पाता चलता है कि हमें अच्छी/बुरी आदत पड़ चुकी है तो हम उसको छोड़ने का प्रयास करते हैं तो वैसा ही दर्द होता है जैसे शरीर से किसी अंग के अलग होने का।
दरअसल इंसान का शरीर एक मशीन की तरह व्यवहार करता है। साँस लेना, दिल का धडकना इत्यादि। सिर्फ एक बात है जो इंसान को मशीन से अलग करती है वो यह है कि इंसान चाहे तो अपनी गतिविधियों को कंट्रोल कर सकता है। आदतें भी दरअसल इंसान का यंत्रवत व्यवहार होती हैं। उसका सीधे चेतन मन से कंट्रोल हट जाता है वह अवचेतन से संचालित होती हैं। हम रोज दिन की बातचीत में बहुत सारे शब्दों या उक्तियों को तकिया कलाम के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जैसे मतलब… दरअसल …जो है सो… इत्यादि। ऐसे ही बात करते हुए एक निश्चित अंदाज में अंग संचालन भी है। मैं एक ऐसे सज्जन को जनता हूँ जो अकसर बात करते हुए आँखों और भंवो को सिकोड़ कर अपने चेहरे पर जमा जो भाव लाते हैं जो एक अश्लील इशारे के रूप में बनता है। पहली बार मिलने पर कोई भी उनके चरित्र के प्रति विभ्रम की स्थिति में आ सकता है जबकि सच में ना तो उस व्यक्ति का कुछ ऐसा आशय होता है और ना ही उनको इसका पता है। यह व्यवहार उनके कंट्रोल की जद से निकल गया है।
आदतों के बारे में एक निश्चित बात है कि इनके बनने में दो चीजों को बड़ा योगदान होता है, एक इच्छा शक्ति और दूसरा अभ्यास। कोई शब्द हमें किसी वक़्त बोलने में मुख को सुख देता है तो मन उसे बार-बार इस्तेमाल करने को प्रेरित करता है। यह सुख शुरू में तो हमें चेतन रूप में शब्द को इस्तेमाल करने देता है लेकिन कालान्तर में अभ्यासों की यही श्रंखला इसकी डोर चेतन से छुड़ा कर अचेतन को थमा देती है। इस प्रकार वह शब्द विशेष यंत्रवत हमारे नियमित व्यव्हार में शुमार हो जाता है जिसे हम आदत कह सकते हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह आदत मुझे कैसे पड़ी ? पोलीथीन के संदर्भ में भी ऐसा ही है | इसके शुरुआती दौर को देखें तब दूकानदार हर सामान के साथ पॉली बैग नहीं देता था कुछ विशिष्ट वस्तुओं को ही उसमे डाल कर देता था। ग्राहक सामान पॉली बैग में ही लेने की ज़िद करता था और इसके एवज में दूकानदार अतिरिक्त चवन्नी वसूल कर लेता था। अब यह इतना सुलभ है कि हमारा हिस्सा बन चुका है कि मुक्त होना मुश्किल है।
आदतों से मुक्त होना बहुत मुश्किल होता है। अगर बिना सही पहचान और विश्लेषण के हम इन्हें छोड़ते हैं तो कई बार यह बहुत त्रासद भी हों जाता है। इसे सआदत हसन मंटो के रेडियो ड्रामे ‘ जेब कतरे ’ के कथानक से आसानी से समझ सकते हैं। जेबकतरा लड़का अपनी जेब काटने की आदत छोड़ना चाहता है लेकिन छोड़ नहीं पाता है। उँगलियाँ उसके कंट्रोल में नहीं है, कहते हुए भी वह उनको रोक नहीं पाता है। आखिर वह अपनी आदत से से मुक्ति का एक यातनादायी मार्ग चुनता है और अपने दोनों हाथों की उंगलियां रेल की पटरी पर रख देता है … दरअसल आदतों से मुक्त होने के लिए संकल्प शक्ति तो बेहद जरूरी लेकिन सिर्फ यही काफी नहीं। यहाँ भी अभ्यासों को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता है। आदतों के मूल में भी जहां अभ्यास होते हैं वहीँ इनको निर्मूल करने में भी अभ्यास अपरिहार्य हैं | आदतों की पहचान में दूसरे लोग बहुत मदद कर सकते हैं | लेकिन उनका सही विश्लेषण करके उनसे मुक्त होने के सचेत प्रयास इंसान को खुद करने होते हैं | किसी भी आदत को छोड़ने से पहले यह पता कर लेना जरूरी है कि उस आदत की कील आपके अंदर किस जगह पर धंसी हुई है ?
लेखक महोदय,आपने सही कहा आदते तो संकल्प से ही जुड़ी होती है सब यही बहाना बनाते है कि आदत पड़ चुकी अब नही छुटेगी |मुझे एक कहानी याद आ रही है जो बचपन में हमारे गुरूजी सुनाते थे | एक व्यक्ति एक साधू के पास आया और बोला मुझे शराब पीने कि आदत हो गयी मुझसे ये छुटती ही नही है |साधू ने उसे दूसरे दिन आने के लिए कहा |आदमी ने सोचा कोई उपाय तो बताया नही, अब कल और आना पड़ेगा |दूसरे दिन वो फिर गया देखा साधू बाबा ने एक खम्बे को दोनों हाथों से पकड रखा है | व्यक्ति ने बाबा को प्रणाम किया और पूछा बाबा इस खम्बे को क्यों पकड़ रखा है साधू ने कहा मैनें कहाँ पकड़ रखा है ये खम्बा ही मुझे नही छोड़ रहा है कितनी कोशिश कर रहा हू छोड़ ही नही रहा | व्यक्ति को बहुत आश्चर्य हुआ और बोला बाबा आप हाथ हटालो अपने आप छूट जाओगे |साधू बोला खूब कोशिश कर रहा हू छोड़ ही नही रहा |व्यक्ति को बहुत गुस्सा आया और बोला बाबा ये खम्बा तो निर्जीव है ये भी किसी को पकड सकता है क्या? आप खुद इससे दूर चले जाओ|आपको ही ऐसे छोड़ना पड़ेगा अब साधू ने अपने हाथ खोल दिए और बोला मैं तुम्हे ये ही तो समझाने की कोशिश कर रहा हू कि आदत को तुमने पकड़ा है न कि आदत ने तुम्हे!व्यक्ति को अपनी गलती पता चल चुकी थी और उसने अपनी आदत को छोड़ दिया |
ReplyDelete