मई का महीना हो, पारा पचास
डिग्री को छूने जा रहा हो और आप ट्रेन में बैठ कर जयपुर से अलवर के बीच यात्रा कर
रहे हों। आपका गला सूख रहा हो, बोतल का पानी ख़त्म हो जाए। ऐसे में गाड़ी के प्लेटफॉर्म पर रुकने पर आप अपनी
खली बोतल बहार निकालें और पल भर में आपकी बोतल ठण्डे पानी से भर जाए तो इसे कोई
चमत्कार नहीं समझें।
यह आजकल जयपुर से अलवर तक के सभी स्टेशनों पर आम दृश्य है। जैसे प्लेटफार्म पर
ट्रेन आने की उद्घोषणा होती हैं पंद्रह-बीस लोग पानी से भरे ड्रमों को पहिए वाली
ट्रॉली पर खींचते नज़र आ जाएंगे। कुछ लोग उन ड्रमों में बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े काट
कर डालने लगते हैं। जैसे ही ट्रेन प्लेटफार्म पर मंथर गति से आकर रूकती है। कई
जोड़ी झुर्रियोंदार हाथ मुस्तैदी से पानी का जग व कीप थामे डिब्बे की खिड़कियों की
और लपकते हैं। ये हाथ दो मिनट के अल्प समय में ही खिड़कियों से झांकती खाली बोतलों
को ठन्डे पानी से लबालब भर देते हैं। एकदम निशुल्क। कई बार आधी बोतल होने पर ट्रेन
गति बढ़ा देती है तो इन झुर्रीदार हाथों का साथ पैर भी देने लगते हैं। लगभग एक दौड़ लगती
है, बोतल के भरने पर्यन्त! इस
सारी कवायद के बीच कई बोतल-ब्रांड - बिसलेरी, एक्वाफिना, बैली, किनले और रेलनीर
ठेलों के फ्रीजरों में शरमा कर दुबके बैठे रहते है। या वातानुकूलित कोच का रुख
इख़्तियार करते हैं।
यह कवायद सुबह ड्रमों की सफाई व बर्फ की सिल्लियों को सँभालने से शुरू होती है
और दिन छिपने के बाद तक भी चलती रहती है। इस पूरे निजाम को चलाते हैं नौकरियों से
विश्राम पा चुके साठ की उम्र पार कर चुके लोग। ये वो लोग हैं जिन्हें अपने घरों
में लगभग बेकार व अयाचित व्यक्ति समझ लिया जाता है। मैंने कई बार इन्हीं लोगों को
टिकट की खिड़की पर बाबू द्वारा सीनियर सिटीजन का सबूत देने की झिड़की सुनते देखा है।
ये लोग इस व्यवस्था को कैसे चलते हैं, मैंने इसमें झाँकने की कोशिश नहीं की। मैं तो इस व्यवस्था पर ही अभिभूत हूँ।
यह कैसे किया जाता है निसंदेह ही यह किसी मानव संसाधन के अध्येता के लिए शोध का
विषय हो सकता है कि ऐसा क्या मोटिवेशन है कि जिन लोगों को जरुरी मानव संसाधन न
मानकर रिटायरमेंट दे दिया जाता है, वे लोग इतनी बड़ी व्यवस्था को कैसे बिना थके बनाते हैं। पता नहीं यह आई आई एम
के कोर्स में पढ़ाया जाता है या नहीं।
जो भी हो मैंने इस व्यवस्था से एक दो सिद्दांत व सीख निकलने की कोशिश की है जो
इस प्रकार हैं-
- उम्र कोई बाधा नहीं होती है। यदि आपमें दृढ विश्वास है कि यह काम करने योग्य है और मानवता के हित में है। कार्य का प्रेरण भीतर से ही आता है न कि बाह्य उपक्रमों से।
- दूसरे, इन लोगों ने इस मान्यता को पुष्ट किया है कि पानी इंसान की मूलभूत अवश्यताओं में सबसे ऊपर है। हर हाल में, हर इंसान को साफ व शीतल पानी निशुल्क मिलना चाहिए। यह समाज का दायित्व है।
- आज भले ही मूलभूत आवश्यकताओं की चीजों को बाज़ार ने अपनी गिरफ़्त में लेकर गरीबों की पहुँच से बाहर कर दिया हो। इस उदहारण ने सिद्ध कर दिया कि चाहे एक सीमित जगह या सीमित समय के लिए ही सही, पूरी निष्ठा से किया गया ईमानदार प्रयास बाज़ार को चुनौती दे सकता है।
- हमारे यहाँ परम्परा रही है रास्तों व बाज़ारों में प्याऊ लगाकर पानी पिलाने की। उन स्वस्थ परम्पराओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है।नयी पीढ़ी में यह सन्देश जाना चाहिए।
- आखिर में यही कहना है कि हमारे बुज़ुर्ग कभी भी गैर जरुरी व निरे आश्रित नहीं होते हैं। उनमे भी बहुत कुछ करने का जज़्बा व ऊर्जा होती है बशर्ते हम उनको सुनें।
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दलीप वैरागी
09928986983
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