Monday, May 11, 2015

इनके नाम क्या केवल कोड नंबर हैं

कल कैफ़ी आज़मी की याद में इप्टा अलवर द्वारा आईएमए, सभागार में आयोजित संगीत प्रतियोगिता का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। इप्टा अलवर के अध्यक्ष श्री कान्ति जैन, महासचिव श्री प्रदीप माथुर व पूरी टीम का बहुत आभार जो उन्होंने अलवर शहर की संगीत की प्रतिभाओं को छोटे से स्टेज पर इकट्ठा कर दिया। न केवल नवोदित कलाकार बल्कि संगीत के उस्ताद लोग भी दर्शक दीर्घा में बड़ी तादाद में मौजूद थे। पूरा संगीतमय माहौल था। पूरा हॉल दर्शकों से भरा था। भौतिक व्यवस्थाएँ भी अच्छी थीं। दर्शकों के जलपान की व्यवस्था भी की गई।  इप्टा हर वर्ष इस कार्यक्रम को बड़ी शिद्दत के साथ आयोजित करती है।
इस बार का कार्यक्रम मेरे लिए इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसने मुझे एक ऐसे मुद्दे पर सोचने के लिए प्रेरित किया, जिस पर मैंने पहले कभी नहीं सोचा था। इस लेख में जिस मुद्दे पर मैं अपने विचार रख रहा हूँ उसमें केवल सन्दर्भ ही इप्टा के कार्यक्रम का है, लेकिन यह मुद्दा वैश्विक-सा ही है। अत: आगे का विचार हम इप्टा के सन्दर्भ से अलग होकर करेंगे और इसे जनरलाइज़ करके देखेंगे। आम तौर पर यह दृश्य किसी भी सांस्कृतिक प्रतियोगिता का हो सकता है।
एक लड़की स्टेज पर आती है। बड़े ही सधे हाथों से माइक पकड़ती है। पीछे ताल मिलाने के लिए बैठे आर्केस्ट्रा वालों से मशविरा करती है कि किस सुर में गाने जा रही है। इतने में ही उद्घोषिका का मधुर स्वर सुनाई देता है, "प्रतियोगिता की पहली प्रस्तुति लेकर आपके सामने आ रही हैं कोड नंबर वन जीरो वन..." जैसे ही वह श्रेया घोषाल के अंदाज़ में सुर उठाती है, " मेरे ढोलना सुन..." तो फिर सुनने वाले को लगता है कि इस लड़की का नाम कोड नंबर वन ज़ीरो वन से कुछ ज्यादा होना चाहिए।
दूसरी प्रस्तुति के लिए उद्घोषणा होती है, "... और अब आ रहे हैं कोड नंबर वन जीरो टू... "
वन ज़ीरो टू मंच पर आता है। वन ज़ीरो टू की ऊंचाई है, सवा चार फुट, वन ज़ीरो टू की उम्र 10-11 साल है, रंग गोरा और आँखों में चमक वाले वन ज़ीरो टू गाना शुरू करता है। गाने के बोल हैं, "झुकी झुकी सी सी नज़र... सुनकर लगता है कि इसकी पहचान कोड नंबर, कोड नंबर वन ज़ीरो टू इसके साथ न्याय नहीं कर पा रही है। "...  अगली प्रस्तुति के लिए फिर उद्घोषणा होती है, “अब मैं कोड नंबर वन ज़ीरो थ्री को बुलाना चाह रही हूँ।" कोड नंबर वन ज़ीरो थ्री मंच पर आता है सरापा बिजली। हाथों-पैरों में बिजली सी तेज़ी...घुंघराले बाल... छरहरी काया... आते ही अपनी उम्र से भी ऊँचा सूफ़ी कलाम उठाया, "कागा सब तन खाइयो, मेरा चुन चुन खैओ मास
दो नैना मत खाइओ, मोहे पिया मिलन की आस।" इसके बाद ऐसा सुर चढ़ा, " छाप तिलक सब छीनी..."  आवाज़ और साज़ की इस कलाकार ने ऐसे संगति बिठाई कि पूरे हॉल में एक वायब्रेशन हो गया। लगा कि इस कलाकार का नाम भी कोड नंबर वन ज़ीरो थ्री या फॉर से कहीं ज्यादा होना चाहिए। वैसे ही जैसे अमीर खुसरो का एक नाम है। वैसे ही जैसे कैलाश खेर का एक नाम हैं।
क्या इन बच्चों के माँ-बाप ने इनके नाम फ़क़त कोड नंबर... रखे हैं? यदि नहीं तो इन प्रतियोगिताओं में किस विवशता के तहत उनके नाम पर हम एक कोड नंबर चस्पा कर देते हैं।
बहुत सोचने पर मैं इस नतीजे पर पहुँच पाया कि इसके पीछे निम्नलिखित मान्यताएं हो सकती हैं-  
  • चूँकि परम्परा से ऐसा चला आ रहा है।
  • बराबरी की अवधारणा
  • निष्पक्षता के आग्रह की वजह से
कोई और वजह भी हो सकती है। अब सिलसिलेवार उपरोक्त मान्यताओं का विश्लेषण करते हैं।
यदि बराबरी के आग्रह के कारण इन बच्चों को कोड नंबर दिए जाते हैं, तो उस लक्ष्य को तो हम प्रतियोगिता में सामान अवसर प्रदान करके प्राप्त कर लेते हैं। जब हम बिना किसी,जाति, धर्म व जेंडर का विचार किए इन बच्चों को मंच प्रदान करते हैं तो फिर बराबरी की बात तो हो गई। वैसे हमेशा यूनिवर्सल बराबरी से काम नहीं चलता।इन प्रतियोगीतों में भी जूनीयर व सीनियर वर्ग में प्रतियोगिता करके हम एक तरह का भेदभाव ही करते हैं लेकिन वह एक सकारात्मक भेदभाव है। इस लिए मेरा मानना है की विविधता को वैल्यू करना चाहिए। और बराबरी का यही मतलब होना चाहिए कि बच्चा जिस भी सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आ रहा है, उसे अपने में अन्तर्निहित संभावनाओं को निखारने का मौका मिले। जब वह यह सब कर रहा होता है, तो उसकी एक पहचान बन रही होती है। अब सोचो जब उस धुँधली उजली पहचान के शुरू में ही उस पर कोड का लेबल लगा देंगे तो बच्चे का किरदार कैसे खड़ा हो पाएगा। तो प्रतियोगिताएँ बराबरी की अवधारणा के एकदम उलट बैठती हैं। इसमें मौका तो सबको देते हैं लेकिन प्रतिष्ठित किसी एक को करते हैं। हम आगे उसे ही जाने देते हैं जो विजय की हमारी इंटरप्रिटेशन पर फिट बैठता है। जबकि इन प्रतियोगीतों में आने वाला प्रत्येक बच्चा अद्वितीय होता है। उसकी अपनी रूचि व रुझान होता है। अभिव्यक्ति का अपना अंदाज़ व आयाम होता है। क्या जो निर्णायक होते हैं वे इस तरह के वैविध्य से पेश आने के लिए तैयार होते हैं?
यदि इस कोड सिस्टम के पीछे निष्पक्ष निर्णय का आग्रह है तो फिर हमें इन बच्चों की पहचान से छेड़छाड़ करने की बजाए निर्णायकों की क्षमतवर्द्धन पर ध्यान देना चाहिए। स्कूली परीक्षाओं में ऐसा होता है कि परीक्षाओं में धांधली नहीं हो इसलिए कॉपियों पर नाम की बजाए रोल नंबर डाले जाते हैं। होने को वहां भी ठीक नहीं। लेकिन यहाँ तो प्रतियोगिता संगीत की है, लाइव संगीत की। यहाँ प्रतियोगी व जज के आलावा तीसरा दर्शक और भी है। जिसकी उपस्थिति प्रभावित करती है। कलाकार अपनी कला से दर्शक को प्रभावित करता है और दर्शक अपनी प्रशंसा से। दर्शक जज से इतर भी सोचता है। इसी सब के दौरान सभी कलाकारों की छवि दर्शक के मन में बनती है। अब दर्शक की विवशता है कि वह उस बनती मिटटी छवि को कोड नंबर से सम्बद्ध करने में मुश्किल मुश्किल महसूस करता है।
मुझे लगता है कि बच्चों को उनके वास्तविक नाम के साथ मंच पर बुलाना चाहिए। हमारे यहाँ विडम्बना यही है कि हर तरह की उपलब्धि को हम गणित में रूपांतरित करके ही देखते हैं। चलो जब तक उपलब्धि को आंकने के लिए गणित का कोई विकल्प नहीं मिलता तब तक हम बच्चों के नामों को तो गणितीय भाषा से निकाल सकते हैं।
मुझे लगता है कि बिना सोचे ही परम्परा का निर्वहन हो रहा है। इप्टा जैसी संस्था को इस पर सोचना चाहिए। इप्टा ही है जो परम्पराओं को चुनौती देकर नया सौंदर्यशास्त्र रचती आयी है। यहाँ भी बच्चों की अपनी पहचान की खातिर उसे उन्हें अपने नाम से पुकारा जाना चाहिए। कलाकार होने के नाते मैं तो अपने स्तर पर यही महसूस करता हूँ कि किसी प्रतियोगिता या किसी और मंच पर मुझे यदि नाम कि बजाए किसी और संज्ञा या कोड से बुलाया जाएगा तो बहुत बुरा लगेगा। मेरे साथ ऐसा बहुत बार हुआ है जब मैं किसी प्रतियोगिता जीता नहीं मगर एक पहचान को अर्जित करके लोटा हूँ। जो मेरे नाम के साथ सम्बद्ध होती थी न कि कोड से।  
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दलीप वैरागी 
09928986983 


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