फरवरी का महीना राजस्थान के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में शैक्षणिक मेलों के माहौल का होता है। इन मेलों मे लड़कियां तरह – तरह की स्टॉल लगाती हैं जो उनके विषय की भी होती हैं और मस्ती की भी। इसमें वे खुद सीखती हैं और अपना मूल्यांकन भी करती हैं। ऐसे ही एक केजीबीवी (कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय) में मैं मेले की तैयारियों मे शरीक होने गया था। कहीं पंडाल बनने की जगह की पैमाइश चल रही है, कहीं कोई मस्तूल गाड़ रहा है, कोई बंदनवार बना रही हैं, कोई माँड़ने तो कोई सीखने सिखाने की सामग्री। यहाँ लड़कियां, शिक्षिकाएँ, रिसोर्स पर्सन व शिक्षा से जुड़े सभी व्यक्ति मेले की तैयारियों में व्यस्त थे। जो व्यस्त नहीं थे वे व्यस्त दिखना चाहते थे। जो व्यस्त दिख रहे थे वे और व्यस्त होना चाहते थे। एक अधिकारी नुमा व्यक्ति जयपुर विभाग से आए थे। मेले मे सपोर्ट के लिए या फिर... देर तक व्यस्त होने की कोई तरकीब खोजते रहे कि कैसे व्यस्त हुआ जाए। आखिर उन्होने भी व्यस्त होने का एक माकूल सबब तलाश लिया, अपने रुतबे के हिसाब से। तुरंत हाजरी रजिस्टर तलब किया, पहले स्टाफ का फिर लड़कियों का। रजिस्टर दर रजिस्टर ये महाशय अपने को व्यस्त से व्यस्ततम बनाते रहे और स्टॉक, एसएमसी, कैश बुक इत्यादि मँगवाते रहे। साहब की व्यस्तता ने अब प्रधानाध्यापिका की व्यस्तता को एक नया आयाम दे दिया। जो पहले जरूरी समान की सूची लेकर बाजार के चक्कर लगा रही थी अब वह अलमारी से टेबल, टेबल से स्टोर रूम, स्टोर रूम से ऑफिस रूम का चक्कर लगा रही थी।
व्यस्तता के इस दृश्य के परे सभी लोग वास्तव में ही मेले की तैयारियों में व्यस्त थे। और जैसा कि होता है कि सब रुकावटों के बावजूद भी शुभ काम हो ही जाते हैं, वैसे ही मेले की तैयारियां भी ज़ोरों से चल रहीं थीं। चलो अपने कैमरे को थोड़ा पैन करके विद्यालय के मैदान की और ले जाकर फोकस करते हैं। यहाँ रिसोर्स पर्सन व शिक्षिकाएँ किसी जरूरी चर्चा में व्यस्त हैं।
शिक्षिका 1 “सर, मेले का उदघाटन उदघाटन किससे करवाएँ ?”
रिसोर्स पर्सन “ लड़कियों का मेला है, लड़कियों को ही करना चाहिए। ऐसा गाइड लाइन में भी लिखा है।”
शिक्षिका 2 “किस लड़की से करवाएँ?”
शिक्षिका 1 “सबसे छोटी लड़की से करवा लेते हैं।”
शिक्षिका 3 “बड़ी से कटवाते हैं।”
रिसोर्स पर्सन “किसी भी एक लड़की को बोल दो।”
शिक्षिका 2 “सर, ऐसा करते हैं कि सभी लड़कियों के नाम की पर्चियाँ बना लेते हैं, जिसके नाम की पर्ची निकलेगी वही लड़की कल फीता काट लेगी।”
शिक्षिका 1 “भाई सौ – सौ परचियाँ लिखेगा कौन?”
रिसोर्स पर्सन “दो तीन लड़कियों को बोल दो वे लिख देंगी।”
इससे पहले लड़कियां जो कि पहले से ही मेले की तैयारियों में व्यस्त हैं, उन्हें अतिरिक्त व्यस्त किया जाए या उनकी व्यस्तता में कोई नीरस आयाम जुड़े या वे निरानंद की स्थिति में आएँ, मुझे लगा कि इस दृश्य में दखल देकर इसे बदलना चाहिए।
मैंने कहा, “जब मेले का उदघाटन लड़कियों को ही करना है तो क्यों न ये बात हम लड़कियों पे ही छोड़ दें कि वे किसे इसके लिए पात्र चुनती हैं।”
बात उन्हें अच्छी लगी लेकिन पूरी तरह न जाँचने का भाव उनके चेहरे पर था। शायद उन्हे लड़कियों की क्षमता पर पूरा भरोसा नहीं था। उन्होने कहा चलो लड़कियों को बोल देते हैं और वे शाम तक हमें नाम दे देंगी। मैंने फिर उन्हें रोका, “अभी लड़कियां तैयारी में लगी हैं। आप शाम को ही बोल दीजिएगा। विश्वास कीजिए वे इस मसले को 5 मिनट में निपटा देंगी।”
शाम को जब मेले का पंडाल सज गया। स्टॉल लग गईं और लड़कियों ने एक बार पूरी रिहर्सल करके देख ली तो वे कल के लिए आश्वस्त दिखीं। हमने लड़कियों को वहीं थोड़ी देर पंडाल में बैठने के लिए कहा। उनके बीच मे मुद्दा रखा। यहाँ तीन कक्षाएँ हैं छ:, सात व आठ। लड़कियों ने तीन समूहों में जाकर तुरंत तीन नाम तीनों कक्षाओं से चुन कर हमारे सामने रख दिए। अब तीन में से एक का फैसला कौन करे? यह ज़िम्मेदारी उन तीनों पर ही थी कि वे अपने में से किसे चुनती हैं। वे तीनों एक तरफ गईं और 4-5 मिनट में एक का चयन करके वापस आ गईं। जिस लड़की कंचन को चुना वह आठवीं की लड़की थी। यह लड़की केजीबीवी में लीडरशिप के रोल में रहती है। हमें एक बार को लगा कि कहीं इस लड़की ने निर्णय को प्रभावित तो नहीं कर दिया। हमने उन तीनों से पूछा कि आपका निर्णय सहमति का है या फिर किसी तरह की दादागिरी से हुआ है।
कक्षा 6 की लड़की जो की दिखने में सबसे छोटी लग रही थी ने कहा, “हमने मिलकर फैसला किया है। कंचन दीदी आठवीं में है। इस साल स्कूल से पास होकर चली जाएंगी। इनके पास यह एक ही मौका है। हमारे पास अगले साल भी अवसर हैं। इसलिए हम दोनों ने यह अवसर कंचन दीदी को दिया है।”
वहाँ बैठे सब लोगों के के चेहरे खिल गए। लड़कियों ने सबको संवेदनशीलता, नागरिकता व लोकतंत्रिकता का जो पाठ पढ़ाया वह शायद सबको याद रहे। हम जो बच्चों के बीच काम करते हैं। रोज़ दिन के शिक्षण में हमारे पास ऐसे दसियों मौके आते रहते हैं जब हम उनकी क्षमताओं पर भरोसा कर सकते हैं। उनको करके सीखते हुए हम खुद भी सीख सकते हैं। लेकिन खुद का सीखना हमे रास आता नहीं है। हमेशा ऐसे मौकों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हम सारा ज्ञान, सारी जिम्मेवारी खुद पर ही औढ़ लेते हैं। और दोनों के बोझ से दुहरे हुए जाते हैं। थक कर टूट जाते हैं। फिर शिक्षण से भी मुह फेर लेते हैं।
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दलीप वैरागी
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