कल्पनाशीलता कहाँ देखें
कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में शनिवारीय स्टाफ बैठक... यह बैठक विशेषकर सतत व व्यापक मूल्यांकन लागू होने के बाद अस्तित्व में आने लगी है। इस बैठक में शिक्षिकाएँ एक मंच पर बैठ कर प्रत्येक लड़की की प्रगति का जायजा लेती हैं और मिलकर लड़की की प्रोफ़ाइल व पोर्टफोलियो को अपडेट करती हैं। डेमोंस्ट्रेशन के तौर पर किसी एक लड़की की प्रोफ़ाइल को अपडेट करने की बात आई। कक्षा 6 की रानी जाट की प्रोफ़ाइल भरी गई। रानी जाट विषय कि समझ में ए ग्रेड लिखित- मौखिक अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण में ए ग्रेड। इन ग्रेडिंग के सबूत रानी जाट की वर्क शीट्स, नोटबुक, पोर्टफोलियो में खूब सारे हैं। बात कल्पनाशीलता पर आकार कुछ अटकती जान पड़ी। “इसको कैसे भरेंगे?” एक शिक्षिका ने कहा। दूसरी ने कहा कि “कल्पनाशीलता के लिए हमने किया क्या है?” “कविता में देखते हैं जो रानी ने अपनी कॉपी मे लिखी है।“ “लेकिन यह क्या .... हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजर बद्ध न रह पाएंगे / कनक तीलियों से टकराकर .... ये तो किताबी कविता है। इसमे रानी की कल्पना कहाँ है?” “चलो किसी पेंटिंग में देखते हैं जो रानी ने बनाई हो .... यह क्या यह भी पुस्तकालय की किताब से देख कर बनाई हूबहू नकल है... रानी की अपनी कल्पना कहाँ है?” क्या रानी सपने देखती है, क्या रानी सपने देख सकती है, क्या रानी कल्पनाएँ करती है, क्या रानी कल्पनाएँ कर सकती है? इसकी कोई विश्वसनीय जानकारी शिक्षिकाओं के पास आज नहीं है। इन सब जानकारियों को जुटाने के लिए फिर से पढ़ना पड़ेगा नई संकल्पनाओं के साथ, नई योजनाओं के साथ, फिर क्लास रूम में जाना ही पड़ेगा।
बात कुछ यूं शुरू हुई
साफ सुथरा कक्षा-कक्ष, उसमें बैठी स्वस्थ व प्रसन्नचित्त दिखाई देती लड़कियां, लड़कियों के चेहरों पर रोनक से साफ पता चलता है कि वहाँ मेरी उपस्थिति व कक्षा का वातावरण बोझिल नहीं है। चेहरों के अलावा कमरे की दीवारों पर अब दृष्टि पड़ रही है। दीवारों पर कुछ जरूरी चार्ट व नक्शे चस्पा हैं। सॉफ्ट बोर्ड पर लड़कियों का आर्ट वर्क प्रदर्शित है। नज़र ठिठकती है बायीं दीवार की ऊपर की तरफ मोटे नीले अक्षरों में लिखी इबारत पर “असफलता सफलता की पहली सीढ़ी है।” दाहिनी दीवार पर भी एक इबारत वैसे ही लिखी है लेकिन अब स्मृति-पटल पर धूमिल हो गई है। शायद ‘ईमानदारी ही सर्वोत्तम नीति है’ नही शायद ‘सदा सच बोलो’ पता नहीं... लेकिन सामने की दीवार पर लिखा सुभाषित वाक्य बिलकुल साफ दिखाई दे रहा है। “अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो।” क्या मतलब हैं इन सुभाषित वाक्यों के ? अभी इनकी जरूरत पर बात नहीं करेंगे। किससे पूछें इनके मतलब? शिक्षिकाओं से ? निसंदेह उनको ज़रूर पता होंगे लेकिन मेरा तजुर्बा बताता है कि सब मतलब टीचर को पता होते हैं लेकिन वे मतलबों के करीब रहते हुए भी उतने ही असंपृक्त रहते हैं। क्या इनके मतलब बच्चों से पता किए जाएँ, क्या उन्होने इन परिभाषाओं की कोई व्याख्याएँ बना रखी हैं? वैसे ही जैसे अपने बचपन मे हमने अपनी सोच, सामर्थ्य व अपनी युग(उम्र) चेतना के हिसाब से प्रार्थना, प्रतिज्ञा व दैनिक इस्तेमाल होने वाले श्लोकों के अपने निजी अर्थ गढ़ रखे थे। चलो पूछते हैं।
दीवार से कुछ यूं उतरा सुभाषित
मैंने लड़कियों से सवाल किया, “इस लाइन का क्या अर्थ है?” एक सन्नाटा पूरे कमरे में पसर गया। अभी तक कमरे में बातचीत का जो स्वाभाविक कोलाहल था उस पर इस सवाल ने लगभग रोलर फेर दिया। सवाल के जवाब में मेरे सामने हैं लड़कियों की सवालिया नज़रें ‘ये कैसा सावल है?’ बिलकुल अप्रत्याशित सवाल था। दीवारों पर लिखी बातों पर सवाल थोड़ी होते हैं! ये तो स्वयं सिद्ध कथन हैं! मैंने सवाल फिर दोहराया। इस बार सवाल ने सन्नाटे को तार-तार कर दिया। सन्नाटा काँच के मानिंद चटक कर ढेर हो गया। अब लड़कियो में कुनमुनाहट हुई। आपस में बातों का सिलसिला चल निकला। जवाब बताने के लिए दो-तीन हाथों में जुंबिश हुई। एक लड़की, “सर इसका मतलब यह होना चाहिए कि अगर हम खेल में जीत जाएँ तो जो हार गया है उसकी इन्सल्ट कभी नहीं करनी चाहिए।” कुछ हाथ उसके समर्थन में तने लेकिन कुछ ने कहा “दो लड़ेंगे तो एक को तो हराना ही पड़ेगा” बहस चल पड़ी। चलना लाज़मी भी है और उसको बीच मे रोकना उतना ही गैर वाजिब। लिहाजा इसे एक सौंदर्यबोधीय मोड़ देने की सूझी। मैंने वाक्य को फिर दोहराया - अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो। और फिर कहा, “मुझे ऐसा लग रहा है कि यह किसी कविता की पहली लाइन है। इसी तरह इसकी दूसरी, तीसरी, चौथी.... लाइनें भी होनी चाहिए।” मैंने लड़कियों से कहा कि इसी लाइन की तुक मिलते हुए कोई दूसरी लाइन गढ़ो। इस बार फिर एक मंथन शुरू हो गया लड़कियों के दरम्यान। लेकिन तत्परता दिखाई एक शिक्षिका ने मैंने बोर्ड पर पहले से ही उस पंक्ति को लिखा था। उसके ठीक नीचे उन्होने दूसरी पंक्ति लिख दी। बिलकुल ऐसे –
अपनी जीत हो लेकिन किसी की हार न हो। वह इंसान ही कैसा जिसके मन मे प्यार न हो।
लगता है लड़कियों का काम अब थोड़ा आसान हो गया है। शायद मेरा भी। मैंने सवाल किया कि बताइये दोनों लाइनों में क्या समानता है? लड़कियों ने कहा आखिर कि आवाज़ों ‘हार न हो’ और ‘प्यार न हो’ में समानता है। मुझे लगा कि अब लोहा गरम है और उसे आसानी से ढाला जा सकता है। मैंने कहा कि कविता लिखना आसान हो जाएगा अगर हम ऐसे आवाज़ों को पहले से ही सोच के रख लें जो कविता की लाइनों के अंत में आ सकती हों।
एक लड़की सर मैं बताऊँ, परोपकार न हो टीचर विस्तार न हो
दूसरी लड़की पार न हो
तीसरी लड़की प्रचार न हो
चौथी लड़की हथियार न हो
पाँचवी लड़की विचार न हो
छठी लड़की आकार न हो
इस तरह से एक अनंत सिलसिला निकल पड़ा, जिसमे टीचर व लड़कियां बराबर शामिल थी ... संसार न हो, परोपकार न हो, इंतज़ार न हो, जिम्मेदार न हो, उपकार न हो, अधिकार न हो, तैयार न हो, पहरेदार न हो, चौकीदार न हो, प्रहार न हो, व्यवहार न हो…. इस तरह मैं बताऊँ – मैं बताऊँ का शोर और शब्दों आवाज़ों का मिश्रण सरापा एनर्जी में तब्दील हो गया। इस कोलाहल में कहीं एक स्वर शिक्षिकाओं का भी सुनाई पड़ा “अब मुश्किल नहीं है कल्पना शीलता को देखना।” अब लड़कियों को पाँच-पाँच के समूहों में काम करने को कहा कि आप इन आवाजों सहित कुछ और पंक्तियाँ लिख कर लाएँ।
मेरे हाथ में चंद कागज है
जिनमें चंद लाइनें हैं। लाइनों में कविताएं हैं और नहीं भी है। उन लाइनों का खुलसा यहाँ नहीं करना बेहतर है। यदि खुलासा होता है तो कविता पर कला के पंडित शिक्षा के जानकार फतवा दे सकते हैं। फतवे चाहते हैं कि चीज़ें सिर्फ सीढ़ी लाइन में ही चलें। लेकिन सीढ़ी लाइन में दोनों ही नहीं चलते ज़िंदगी और न कविता।
तो फिर कविता कहाँ है ?
पहली लाइन और मिलाए गए काफ़ियों में जो रिक्त स्थान है उसमे असीम संभावनाएं हैं, अर्थ की, संगीत व कल्पनाशीलता की। कविता के लिए ये खाली जगह है। कागज के इस छोर से उस छोर तक, इस पन्ने से नोट बुक के आखिरी पन्ने तक... इस कक्षा के कमरे से लेकर क्षितिज की ओर तक या फिर क्षितिज से आगे संसार के छोर तक अनंत जगह बिछी पड़ी है कविता के लिए। कविता का क्या है, कहीं भी, कभी भी उतर आएगी। एक पकड़ उनके हाथ में आ चुकी है.... काफिया मिल जाना एक तरह से बारिश से पहले की शदीद गर्मी या कभी सौंधी महक-सा होता है। वीरान रेगिस्तान में मिले इंसानी पदचाप सा होता है।
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दलीप वैरागी
09928986983
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dalip, sidhi line mein kavita , jindagi aur uske andar padhai koi bhi sidhi line mein nahi chalti , it is spiral, curves specially my experinece of age group 4-8. i will update you of the changing patterns in the coming years keep in touch
ReplyDeletedalip , jindagi uske andar padhai kavita to be specific koi bhi straight line nahinn . either it is spiral or a curve. specially my experience of 4-8 years old . It is also amazing how quickly they grasp the bold pictures of times of india or what the news papers these days print and even insists on seeing the film . ishaan has just made a polite request if he can be taken to watch heroine !! but for his maths principle sit needs reinforcements .
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