बात उन दिनों की है जब मैंने कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय टोंक में जाना शुरू किया, था। यूं तो हम वहाँ अकादमिक सहयोग के लिए जाते थे लेकिन लड़कियों के लिए काम करते हुए सबसे ज्यादा हमारा खुद का सीखना ही होता था। कस्तूरबा विद्यालय पूर्णतया आवासीय विद्यालय हैं। यहाँ उन किशोरी बालिकाओं को रह कर पढ़ने का अवसर मिलता है जो या तो कभी स्कूल गई ही नहीं या फिर किसी वजह से उनका स्कूल बीच मे ही छूट गया था। इनमे ज़्यादातर लड़कियां अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक या दूरदराज़ क्षेत्रों की होती हैं जहां उनकी पहुँच मे स्कूल नहीं है। यहाँ ये लड़कियां कक्षा 6 से 8 तक की निशुल्क शिक्षा प्राप्त करती हैं। इन लड़कियों मे शुरुआत मे ज़्यादातर निरक्षर होती हैं।
सातवीं कक्षा में व्याकरण चल रहा था। जब मैं कक्षा में दाखिल हुआ तब शिक्षिका लड़कियों को पत्र लेखन सिखा रही थी। टीचर के हाथ में व्याकरण की कि किताब थी। टीचर ने बोर्ड पर खत का मजमून लिखा था जो इस प्रकार था – “ अपने को जयपुर निवासी सुनीता मानते हुए एक पत्र लिखिए कि हमारे स्कूल की लड़कियां शैक्षणिक भ्रमण के लिए जा रही हैं। इस बाबत पत्र लिख कर अपने पिता को सूचित करें।” किताब में लिखा पत्र टीचर ने बोर्ड पर लिख दिया और लड़कियों को उतार लेने के लिए कहा। लड़कियों ने पत्र ज्यों को त्यों उतार लिया। मुझे लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। अपने को कोई दूसरा मानते हुए कहानी या उपन्यास तो शायद लिखे जा सकते हों परंतु क्या पत्र लिखा जा सकता है। पत्र तो नितांत व्यक्तिगत होता है। जिसमे व्यक्त भावनाएँ दिल की असीम गहराइयों से निकाल कर आती हैं। यह खुद को दूसरा मानने से कैसे हो सकता है? क्या पत्र लेखन का मामला बस इतना ही है? मैंने अपनी पढ़ाई के दिनों को याद किया। क्या मैंने अपने वक़्त मे जो पत्र लिखे और जो मैंने क्लास मे पढे क्या उनमे कोई संगति थी? क्या यहाँ भी वही कवायद शुरू हो रही है? मैने टीचर को साथ लेते हुए लडकियों से बातचीत शुरू की। लड़कियों से पूछा कि आपने क्या अब तक किसी को पत्र लिखा है? लड़कियों ने मना किया। मैने दूसरा सवाल किया, क्या आपने कभी कोई पत्र पढ़ा है? सिर्फ एक लड़की ने कहा कि उसे मामा के लड़के ने पत्र लिखा था। इन लड़कियो में बहुत सी लड़कियां ऐसी है जो स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी हैं। इस स्थिति में लड़कियों से बात की कि अगर आप परिवार वालों या सहेली को पत्र लिखना चाहो तो उसमें क्या-क्या लिखेंगी? लड़कियों ने कहा कि हम बताएंगे, “हमारी परीक्षा की तैयारी अच्छी चल रही है। भवन की पुताई हो गई है। हमारे केजीबीवी में बड़ा टी वी आगया है। डिश एंटीना भी लग गया लग गया है। हम रोज टीवी देखते हैं। हमारे केजीबीवी में मेला लगा था जिसमें खूब मजा आया। मेले मे पूरे ज़िले कि लड़कियां आई थीं।“ इत्यादि
हमने कहा कि अगर हम सभी अपने घर पर पत्र लिखें तो कैसा रहे? लड़कियों के चेहरे खिल गए। हमने प्रधानाध्यापिका मनीषा मीणा से बात की उन्होंने बिना देर लगाए पास ही पोस्ट ऑफिस में चौकी दार को भेज कर ५० पोस्ट कार्ड मंगवा लिए। पोस्ट कार्ड लड़कियों को दे दिए। अब लड़कियों से दूसरा सवाल किया कि आप यह पत्र किसको लिखना चाहोगी? लेकिन यह भी ध्यान रखना कि घर पर कौन-कौन पढ़ना जानते हैं। सबके रिश्तेदार अलग-अलग थे। कोई भाई को, कोई बहन को, कोई पिता को, कोई मामा को, तो कोई सहेली को, कोई मां को लिखना चाहती है लेकिन मां पढ़ नहीं सकती ‘‘कोई बात नहीं भाई पढ देगा‘‘ इस कार्य व्यापार में पहला मोड आया था जब बोर्ड पर लिखी इबारत की बंधी बंधाई गिरफ्त से पाठ ज़रा बाहर झाँका।
माता-पिता को आदरणीय लिखेंगे तो बड़े भाई और छोटी बहन को क्या लखेंगे। सहेली को क्या लिख कर संबोधित करेंगे? बात संबोधनों पर भी आकार थोड़ी देर रुकी लेकिन जब रिश्तों ऊष्मा हो तो सम्बोधन महज औपचारिकता ही लगते हैं। संबोधनों की उहापोह से उबरने के बाद लड़कियां लिखने लगीं। सब लड़कियां अपना ही पत्र लिख रही थीं। कोई भी दूसरे की नकल नहीं कर रही थी। कोई रटा रटाया नहीं लिख रही थी। सबका मौलिक पत्र था। अपना पत्र था बिलकुल निजी। पूजा चावला लिखना नहीं जानती थी। उसने जबरदस्त जुगत भिड़ाई। अपने मन की बात सहेली से कह कर अपनी कॉपी में लिखवा ली और उसको बाद में अपनी हाईंड्राईटिंग में खत पर उतार लिया। यह वही पूजा है जिसके बारे मे कहा जाता था कि उसका शैक्षणिक प्रक्रियाओं में मन नहीं लगता था । आज उसकी सक्रियता देखने लायक थी।
जिस मुश्किल के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे वह पत्र पर पता लिखते वक्त आई। लड़कियों को अपने गाँव के नाम तो पता थे लेकिन उनको पोस्ट ऑफिस कौनसा लगता है तथा उनके क्षेत्र का पिन कोड क्या है, लड़कियां को पता नहीं था। कुछ लडकियों को तो ठीक से ब्लॉक भी पता नहीं था। यह शायद पहलीबार हुआ था कि शिक्षिका एक गतिविधि के माध्यम से उन लड़कियों की सामाजिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को बड़े निकट से देख रही थी।
इस समस्या के समाधान के लिए हमने सब लड़कियां से कहा कि “स्कूल के पास ही में जो जिला पोस्ट ऑफिस है वहां चल कर पता करते हैं। तब वहीं खत को लाल डब्बे में भी डालेंगे।“ लड़कियां ने टीचर्स के साथ जाकर उनके पोस्ट ऑफिस तथा पिन कोड पता किए। लड़कियों ने अपने कार्ड पर अपना पता लिखा, अपना पूरा पता, ‘परमानेंट पोस्टल एड्रेस’। इसके बाद उन्होने खत को लाल डब्बे को सुपुर्द किया। । डाकखाने से लड़कियों ने एक चार्ट भी प्राप्त किया जिस पर पूरे जिले के पिन कोड लिखे हुए थे। टीचर्स ने वह चार्ट रख लिया कि कक्षा ६ के साथ भी जब यह गतिविधि करेंगे तो यह चार्ट काम आएगा।
भले ही आज कम्प्यूटर-ईमेल, मोबाइल- एसएमएस ने चिट्ठी लिखने को चलन से बाहर कर दिया हो। लेकिन फिर भी जब भी पत्र जैसे मुद्दे को हम बच्चों के साथ रखे तो वैसे ही पूरी उत्सव के रूप में जैसा ही पहले हमारी आपकी ज़िंदगी मे होता था। यह अनुभव इस समझ को पक्का करता है कि पत्र लेखन महज व्याकरण का एक पाठ ही नहीं, यह सम्प्रेषण के माध्यम से भी कुछ ज्यादा है। बल्कि अपनी इस विधा के साथ-साथ अपनी स्थिति, अपने परिवार, रिश्तों की ऊष्मा को महसूस करना व समझना है। हमारे रिश्तों की गर्माहट व अनुभूति की तीव्रता हमें पत्र लिखने को प्रेरित करती है। इस अनुभव में लड़कियां पत्र लेखन के साथ-साथ अपनी जिन्दगी, अपने आस-पास व अपने गाँव को समझने के साथ-साथ नई जानकारियाँ प्राप्त करने के झरोखों को भी खोल रही हैं।
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दलीप वैरागी
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