कई बार बहुत ही हास्यास्पद चीज़ें देखने को मिल जाती हैं। आज शाम की बात है। यूं तो जयपुर का जवाहर काला केंद्र खूबसूरत जगह है। अपने स्थापत्य की दृष्टि से तो है ही , इससे भी खूबसूरत है इसका कॉफी हाउस जहां शहर के संस्कृति कर्मी एक जगह बैठ कर चर्चाएँ करते हैं। आज जैसे ही मुख्य द्वार से प्रवेश किया तो अगल-बगल की क्यारियों मे तख्ती पर एक हिदायत लिखी थी। आज़ ध्यान चला गया, लिखा था - फूल तोड़ना मना है। इससे आगे बढ़े १० मीटर की दूरी पर दाहिनी और रंगायन सभागार मंच है । इसके बड़े दरवाजे पर निगाह गई । दरवाजे के दोनों तरफ दो बड़े बुत, एक महिला और एक पुरुष खड़े हैं | शायद रंग मंच देखने आये दर्शकों का स्वागत करने को | दोनों बुतों के हाथ में एक-एक फूल है बकायदा टहनी से जुदा | क्या ये टहनी से नहीं तोड़े गए ? क्या ये हाथ में ही उगे हैं ? दलील हो सकती है कि मूर्तिकार ने ऐसे ही बनाए हैं... लेकिन सवाल यह है कि ये बुत मुख्य द्वार के पास लगी तख्ती की इबारत का कितना समर्थन करते हैं ? यही वजह है कि हमारी बात में कभी असर पैदा नहीं होता, खासकर इस तरह की लिखित हिदायतो के सम्बन्ध में | कहीं लिखा होता है कि यहाँ इश्तिहार लगाना मना है और उसी की बगल में इश्तिहार चस्पा होता है | लिखा होता है कि यहाँ ना थूकें और उसी ऑफिस का कोई बाबू पास की दीवार को पीक विसर्जन से सुर्ख रंगोंआब दे रहा होता है | हम एक जगह पूरी इच्छा से कोई बात लिखते है कि लोग उसका पालन करें लेकिन उसके साथ ही हमारा कुछ न कुछ अलिखित ऐसा होता है जो उलट उसके खिलाफ खड़ा होता है जो लिखित बात में असर पैदा होने ही नहीं देता | बात में असर तो तभी आता है जब मन, वचन व कर्म से संकल्प हो |
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