मैंने यह व्याख्यान 27 मार्च 2018 को विश्व रंगमंच दिवस पर रंग संस्कार थियेटर ग्रुप द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में दिया था ।
"क्षेत्रीय संस्कृतियों के योगदान में रंगमंच का योगदान" इस
कथन के इम्प्लिकेशन क्या हैं? एक रंगकर्मी होने के नाते मेरा यह धर्म है कि उन्हें पहचान कर बात आगे
बढ़ाई जाए। एक मान्यता तो यह है कि है हम सब क्षेत्रीय संस्कृतियों को वैल्यू
करते हैं। यह बात बिल्कुल सही भी है। यदि यह सही है भी और होना भी चाहिए, परंतु सही होने के साथ-साथ इसका एक सियाह पक्ष भी है जो या तो हमें दिखाई
नहीं देता या फिर हम उससे साक्षात्कार करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। जब
क्षेत्रीयता के इस अधूरे पक्ष को लेकर हम आगे बढ़ते हैं तो फिर तो हमारे सामने
‘मराठा-मानुष’ सरीखी
इसकी चरम अभिव्यक्ति का विस्फोट होता है। जब यह विस्फोट होता है तो राजस्थान में
विभाजन के वक्त आए पुरुषार्थी सिंधी-पंजाबी अपने ही मुल्क
में शरणार्थी कहलाते हैं और उनको खुद के पुरुषार्थ को उदाहरण बनाने में आधी से
ज्यादा सदी लग जाती है। केवल अपने श्रम की सामर्थ्य साथ लिए आजीविका की तलाश में
आया कोई भी पूर्वी भारतीय जब राजस्थान आता है और कैसे ‘बिहारी’
की जातिवाचक संज्ञा को प्राप्त करता है।
जब यह तथाकथित ‘बिहारी’ जब लुधियाणा या
जालन्धर के किसी स्टेशन पर उतरता है तो ‘भईया’ की
संज्ञा पता है। जब उसे इस संज्ञा या विशेषण से संबोधित किया जाता है तो उसकी ध्वनि
को नहीं बोलने वाले के चेहरे को पढ़ें तो जो चाक्षुष बिम्ब हमारे मानस पटल पर बनता
है, वह हमारी तथाकथित क्षेत्रीय सांस्कृतिक विकास की अवधारणा
की कलाई खोल देता है। हमने किस तरह की क्षेत्रीय संस्कृति की पहचान विकसित की है
जो किसी अन्य सांस्कृतिक पहचान के साथ सहअस्तित्व को बर्दाश्त नहीं कर सकती?
इस
तरह का क्षेत्रीय सांस्कृतिक विकास जल्दी ही राजनैतिक नारों से खाद पानी प्राप्त कर लेता है और देश की अखंडता
के समक्ष चुनौती बन कर खड़ा हो जाता है। फलतः बिहार से आया ऑटो चालक मुंबई में अपनी
पूर्वी मिश्रित अनगढ़ मराठी बोलते हुए भी मुंबई से बाहर लतियाया जाता है। उत्तर
पूर्व से आए हुए विद्यार्थियों पर राजधानी में ही हमले होते हैं। ये क्षेत्रीयता
की कौनसी संस्कृति हमने विकसित कर ली है? क्या इस शब्दावली को और गहरे से समझे जाने की जरूरत हैं। क्या
क्षेत्रीय सांस्कृतिक विकास की क्या कोई सार्वभौमिक अवधारणा है भी क्या? क्या इस तरह के सांस्कृतिक विकास का चरम बिन्दु सांस्कृतिक श्रेष्ठता की
मनोग्रन्थि में परिणत तो नहीं हो जाता! यह सवाल बेचैनी पैदा करता है।
कहीं
अब तक के विमर्श में आपने मुझे एक यूनिफ़ोर्मिक कल्चर का पक्षधर तो नहीं समझ लिया।
जी नहीं मैं इन दोनों एक्सट्रीम छोरों पे तो नहीं हो सकता, यदि हो भी तो इन दोनों के कहीं
दरम्यान। हम सब जानते हैं कि भारत की संस्कृति बहुलतावादी है। यहाँ कई स्तर की
विविधता है। इस वैविध्य के पीछे निस्संदेह भारत का बहुलता भरा प्राकृतिक भूगोल है। इस भूगोल ने छोटे-छोटे
अंचलों में अपनी-अपनी जीवन शैलियों और जीवन दर्शनों को पनपने में मदद की। भूगोल की
चुनौतियों के पार जाने की फितरत इंसान की हमेशा रही है। बह भूगोल की बाधाओं को पार
करके दूसरे लोगों से इंटरेक्ट करता रहा है। इसके साथ ही अपनी स्थानीय पहचान को
लेकर असुरक्षा बोध की बेचैनी भी पाले रहा है। वह अपने दायरे बनाता भी रहा है कई
बार दायरों से बाहर झाँकता भी रहा है। अपने दायरों का अतिक्रमण, इंसान के स्वभाव का यही पहलू उसे वैश्विक मानव भी बनाता रहा है। भारतीय
इंसान के चरित्र का यही बिन्दु जहां उसे स्थानीयता के प्रति अनुराग के साथ
भारतीयता का भाव भी देता है जो कभी अपने पूर्ण उद्दात रूप में “वसुधैव कुटुम्बकम्व” की अभिव्यक्ति कर बैठता है। आज मनुष्य ने विज्ञान व तकनीक में इतनी तरक्की
कर ली है कि उसने मरुस्थल, पर्वत, जल
और अब अन्तरिक्ष इत्यादि भौतिक भूगोल की बाधाओं पर जीत हासिल कर ली है। स्थूल
चुनौती हट चुकी है। अब इंसान ने भौतिक भूगोल की बाधाओं के स्थान पर वैचारिक संकीर्णताओं
के कृत्रिम भूगोल के पहाड़ खड़े कर लिए हैं जो संस्कृतियों में वैमनस्य के संकट पैदा
कर रहे हैं। यह संकट कृत्रिम है। तो फिर रास्ता क्या है?
दूसरे
के जूते में पैर रख कर देखो।
एक
मात्र रास्ता है रंगमंच, जो
सर्वसुलभ भी है। रंगमंच कभी किसी एक क्षेत्रीय संस्कृति को लेकर नहीं चल सकता।
रंगकर्म की अपनी ही एक संस्कृति है। इस संस्कृति के मूल्यबोध वैश्विक हैं, सार्वभौमिक हैं। इस मूल्य का प्रस्थान बिन्दु है इंसानियत। जिसके केंद्र
में इंसान है। वह इंसान जो एक ही समय में सबसे अलग अद्वितीय भी है और सबके जैसा
भी। इंसानियत के ये मानी देशकाल की सीमाओं से बाधित नहीं होते।
दरअसल
रंगमंच किसी एक क्षेत्रीय संस्कृति को लेकर आगे नहीं बढ़ता है। दरअसल वह अपनी
संस्कृति के उन सार्वभौमिक मूल्यों की स्थापना करता चलता है। जिसका केंद्र बिन्दु
इंसान है और उसकी इंसानियत। इंसानियत को समझने का एक ही नुक्ता है और वह रंगमंच के
पास है - "दूसरे
के जूते में पैर रख कर देखो।" जब तक आप किसी भी स्थिति को दूसरे अर्थात
विरोधी के दृष्टिकोण से नहीं देखेंगे तब तक आप न दूसरे इंसान को समझ सकेगें और न
इंसानियत को। नाटक तो दूसरे के दृष्टिकोण से देखने से भी दो कदम आगे जाकर दूसरे की
जिंदगियाँ जीकर देखने के अवसर देता है। दूसरे के हर्ष-विषाद को स्वयं के स्तर पर
भोगने के मौके देता है।
मुख़तसर
में कहे तो नाटक किसी संस्कृति के उत्थान में योगदान देता है या नहीं पर इतना
अवश्य करता है कि वह अपने से अलग दूसरे की संस्कृति को समझने के अवसर, दृष्टि देता है व अपने से
भिन्न का अहतराम करने का जज्बा देता है। एक दूसरी बात यह कि नाटक देखने से
संस्कृतियों की समझ तो आ सकती है लेकिन भिन्न को समझ कर उसका सम्मान करने या
अंगीकार करने का सामाजिक स्वीकार तो नाटक में डूबने से आएगा। जब नाटक का प्रदर्शन
होता है तब, दर्शकों पर इसकी फुहार मात्र ही पड़ती है। सागर
में गौते तो रंगकर्मी ही लगाता है। वैसे रंगकर्मियों में भी ऐसे कई हैं जो बरसाती
पहन कर पानी में उतरते हैं। हममें से भी अधिकतर अपनी पकी हुई उम्र में रंगकर्मी
बने हैं। इसलिए अक्ल दाढ़ देर से उगी है या उग रही है। हममें से कितने हैं जिन्हें बचपन से ही इसी
प्रक्रिया में ढाला गया था? मेरा मानना है कि यदि अपने से
भिन्न की समझ, सम्मान या स्वीकार का जो सर्वभौमिक सांस्कृतिक
मूल्य है वह तभी स्थापित होगा जब नाटक को प्रारम्भिक शिक्षा से जोड़ा जाएगा। यही मूल्य
क्षेत्रीय समुदायों की पहचानों को सम्मान व स्वीकार प्रदान करेगा। ये मूल्य किताबी
पाठों के कोरे सुभाषितों "अनेकता में एकता भारत की
विशेषता" की तोता रटंत प्रक्रियाओं से नहीं आएगा।
बल्कि इसे खोलकर इसके निहितार्थ समझकर ज्ञान आधारित व्यवहार करने के जीवंत अभ्यास
देने होंगे। जीवंत अभ्यास देने का माध्यम रंगमंच से बेहतर और कोई नहीं हो सकता है।
मुझे
आश्चर्य होता है कि नाटक शिक्षा के लिए जितना जरूरी है वह उतना ही शिक्षा व्यवस्था
से बहिष्कृत है। यह उस देश में हो रहा है जिस देश में नाट्यशास्त्र जैसा ग्रंथ
लिखा गया हो। नाट्यशास्त्र के पहले ही अध्याय में इसके रचयिता ने इसके उद्देश्यों
में स्पष्ट कर दिया है कि इसका प्रमुख हेतु शिक्षा है। उम्मीद है कि इस गोष्ठी में
शिक्षक प्रशिक्षण से जुड़े लोग भी मौजूद हों। मैं पूछता हूँ कि आपमें से कितनों ने
नाट्यशास्त्र को शिक्षाशास्त्र के रूप में पढ़ाया या देखा? नाट्यशास्त्र शिक्षा शास्त्र के रूप में पढ़ाना
तो दूर आज भी नाटक स्कूल में सह-शैक्षणिक गतिविधि के तौर पर ही सिमटा हुआ है। आज
भी शिक्षा व्यवस्था में शिखर पर बैठे लोग नाटक को टूल ऑफ पेडागोजी मानने को
ही तैयार नहीं। मैं बांसवाड़ा में आदिवासी लड़कियों के लिए संचालित एक सरकारी स्कूल
में बच्चियों व शिक्षिकाओं के साथ नाटक की कार्यशाला कर रहा था। उस कार्यशाला में
हम यह प्रयोग कर रहे थे कि कैसे नाटक को दैनिक शिक्षण का तरीका बनाया जाए। दुर्योग
से शिक्षा विभाग के स्टेट ऑफिस से एक अफसर स्कूल का निरीक्षण करने पहुंचे। स्टाफ
को एक घंटा बैठा के डांटते रहे कि आप तीन दिन से तथाकथित पढ़ाई लिखाई बंद करके केवल
नाटक करवा रहे हैं। जब महानुभाव को यह बताया गया कि यह जो भी हो रहा है सरकार के
साथ MOU के तहत हो रहा है और जो हो रहा है आपको उसकी मुख़तसर जानकारी
व समझ भी होनी चाहिए।
रंगकर्मी
और शिक्षक अलग-अलग गृह के निवासी हैं
शिक्षा
में नाटक के न होने की विडम्बना भी यही है। रंगकर्मी शिक्षक या शिक्षाविद नहीं और
शिक्षक रंगकर्मी नहीं है। दोनों में आदान-प्रदान भी नहीं है। जब स्कूल में वार्षिक
उत्सव होता है तब चार दिन के लिए रंगकर्मी को बुलाया जाता है। टीचर अपनी क्लास
रंगकर्मी को सोंप कर दूसरे कामों में लग जाता है। जब कभी संयोग से कोई रंगकर्मी
टीचर बन जाता है तो वह अपने “टीचर” व “रंगकर्मी” को प्रेक्टिस में तो रखता है
लेकिन जुदा-जुदा। जब टीचिंग करता है तो अपने रंग कर्मी को बाहर जूते की तरह खोल
आता है। जब बच्चों को नाटक करवाता है तब अपने शिक्षक को कोट की तरह कुर्सी पर टाँग
आता है।
यह
काम तभी हो सकता है जब रंगकर्मी व शिक्षक फुर्सत निकाल कर साथ बैठेंगे। साझा
शैक्षिक नियोजन करेंगे। जब रंगकर्मी नाट्य प्रक्रिया शुरू करे तो शिक्षक प्रक्रिया
का अवलोकन करे कि बच्चों में ऐसे कौनसे व्यवहारगत बदलाव अनपेक्षित रूप से हो रहे
हैं, जिनको शिक्षक अपनी शैक्षणिक
प्रक्रियाओं में देखना चाहता है। उसके उलट, जब शिक्षक अपना
शिक्षण करे तो रंगकर्मी शैक्षिक प्रक्रिया को देखे कि उन अवधारणा को समझने में
बच्चों को कहाँ मुश्किल आ रही है, इन्हें किन नाट्य
प्रक्रियाओं से आसानी से बच्चे समझ सकेंगे।
ये
प्रयोग किसी स्कूल में शुरुआती तौर पर कर पाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि इस तरह के
प्रयोग में गिजुभाई को भी कम मुश्किले नहीं आई थीं। वही मुश्किलें जिनका जिक्र मैं
ऊपर कर चुका हूँ। यह काम करने का स्पेस, मौका और स्वतन्त्रता जितनी शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों में
हो सकती है उतनी कहीं नहीं। ये संस्थाएं प्री-सर्विस व पोस्ट सर्विस शिक्षक के काम
को प्रभावित करती है। इसलिए यह काम को
शुरू करने का सबसे बढ़िया मंच ये संस्थाएं ही हो सकती हैं। राष्ट्रीय नाट्य
विद्यालय ऐसा करेगा हमें यह उम्मीद जल्दी ही छोड़ देनी चाहिए। उसके तो राष्ट्रीय
स्वरूप पर भी प्रश्न चिह्न लगते रहे हैं। उसने एक अलग ही तरह की संस्कृति विकसित
की है। उसपर चर्चा विषयांतर हो जाएगा। नाटक शिक्षाशास्त्र हो सकता है शुरू में
मुझे भी यह विचार किताबी लगता था लेकिन जब-बच्चों व शिक्षकों के साथ काम करते हुए
इसमें डूबा तो वास्तविक अनुभव व आनंद महसूस किया।
एक
अनुभव दूसरे को समझना का
जिस कार्यशाला की बात मैं कर रहा था, उसके अंतिम दिन ड्रेस
रिहर्सल के वक़्त जब हम लड़कियों से मिले, सब के बीच तीन-चार
लड़कियाँ टोपियाँ (स्कल कैप) पहन कर बैठी हुई थीं। ये मौलवी की भूमिकाएँ निभा रहीं
थीं। हमारा स्वाभाविक सा सवाल था, ‘‘अरे वाह! ये कहाँ से लीं?‘‘
‘‘हमने खुद सिली हैं।” ‘‘किसने सिली हैं?”
इसके जवाब में मुझे उम्मीद थी कि मेहरून, हसीना,
हिना या शहनाज़ का नाम आएगा, लेकिन, लड़कियों ने समवेत स्वर में कहा, ‘‘सर, सुनीता ने सिली हैं, ये सारी टोपियाँ।” अब हमारे लिए अटकलें लगाने के लिए बहुत कुछ था। क्या सुनीता टोपियाँ सिल
सकती है, क्या सुनीता पहले से टोपियाँ सिलती रही है? या फिर नाटक बनाने की प्रक्रिया ने सुनीता को मजबूर कर दिया और उसने अपने
आप उन्हें सिल दिया। दरअसल, इस दृश्य को इस तरह से भी होता
हुआ देखा जा सकता है-सुनीता विद्यालय में सीखे अपने सिलाई कौशल से उत्साहित होकर
मेहरून, हसीना, शहनाज़ व हिना से मिली
होगी। जिस चरित्र के लिए टोपी सिली गई, उस पर बात हुई होगी,
उससे परे मज़हबों पर भी बात हुई होगी। और, टोपी
सिलते-सिलते कितने मज़हबी फ़ासलों की इन लड़कियों ने तुरपाई की होगी। कितने ही
रिश्तों को रफ़ू किया होगा ? कौन कह सकता है, हमेशा साक्ष्यों की तलाश बेजा बात है। कुछ मामलों में हमें संभावनाओं को
ध्यान में रख कर प्रक्रियाओं को छेड़ना भर है। कई बार परिणाम साक्षी होते हैं । साक्ष्य
हमेशा हों, यह ज़रूरी तो नहीं।
नाटक के एक दृश्य में जब हसीना काठात अज़ान लगाती है तो उसकी सहपाठी दुर्गा
मुसल्ला बिछा कर किसी मौलवी की तरह नमाज़ अदा करने लगती है। वही दुर्गा, जो एक दिन पहले नमाज़ के
दृश्य में खुद को बहुत असहज महसूस कर रही थी ! लगभग इन्कार कर दिया था। फिर एक ही
दिन में क्या हुआ? आज के दृश्य और कल की स्थिति के दरम्यान
ज़रूर एक पूर्वरंग विद्यालय के आवासीय समय में रचा गया होगा। जो आपको दिखाई नहीं
देखा आपके संतोष के लिए परिणाम है। यही स्थिति गणेश की आरती वाले दृश्य में थी। एक
लड़की कोरस से निकल कर आगे आकर गणेश बनती है। बाकी लड़कियों का समवेत स्वर में
आरती-गायन। नाटक का उद्देश्य हिन्दू या मुस्लिम धर्मों की उपासना पद्धतियों को
देखना-सीखना नहीं हो सकता। बल्कि, नाटक दूसरे की जगह खुद को
रख कर दूसरे के नज़रिए को समझना शुरु करता है, ताकि अपने
धर्म के साथ-साथ दूसरे के धर्म का अहतराम कर सकें। दरअसल, इन
नाटक खेलती लड़कियों की शक्ल में हिंदुस्तान के सेक्यूलर यानी धर्मनिरपेक्ष मुस्तकबिल
का ब्लू प्रिंट दिखाई दे रहा है।
सारांश : सहज मार्ग नाटक
निस्संदेह क्षेत्रिय संस्कृतियों के उत्थान के प्रयास होने चाहिए। और इसके लिए
रंगमंच बेहतर माध्यम है। क्योंकि यह एक्शन थियरि – ज्ञान, भावना व कर्म तीनों को साथ
लेकर चलता है। क्योंकि क्षेत्रीय संस्कृतियों का उन्नयन यदि मस्तिष्क की खिड़कियां
खोलकर नहीं हुआ तो हम पूरी दुनिया में एक ऐसी जमात तैयार कर देंगे जो इतनी
असहिष्णु हो जाएगी, परिणामस्वरूप कभी बामियान में बुद्ध की
प्रतिमाएं गिराएगी, लेनिन या अंबेडकर की मूर्तियों
को उखाड़ेंगी, फिल्मों के पोस्टर फ़ाड़ेंगी,
पेंटरों को और लेखकों को निर्वासित करवाएगी और अंततः गोली मारकर
खामोश करने की कोशिश करेगी। इसकी सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह है कि शिक्षा प्रक्रिया
ज़िंदगी से आइसोलेशन में चल रही है। बच्चे विचारों को सूचनाओं की तरह ग्रहण कर रहे
हैं। वैचारिक प्रक्रिया में ज्ञान का निर्माण नहीं कर रहे हैं। विरोधी विचार की
कद्र करने के अभ्यास देने अब बंद कर दिए गए हैं। क्या यही थी इंडियन इंटेक्चुअल
ट्रेडिशन? वैदिक शास्त्रार्थ को ही लें तो अपना विचार को
प्रतिष्ठित करने से पहले विरोधी के विचार को वक्ता द्वारा पहले स्थापित करता था
फिर उसकी सीमाओं पर बात होती थी तत्पश्चात अपने पक्ष की बात की जाती थी।
ये सभी ज़िंदगी की यथार्थ समस्याएँ हैं इनके हल ज़िंदगी के रास्ते पर चल कर ही
निकाले जा सकते हैं। सिर्फ एक ही माध्यम है जो कक्षा में ज़िंदगी को संपूर्णता में
उद्घाटित कर दे, वह नाटक
है।
दलीप वैरागी
मोबाइल: 9928986983
ई-मेल: dalipvaragi@gmail.com
थियेटर एक थिंकिंग प्रोगेस है। ये पूरी तरह जिंदगी की पढ़ाई कराता है। इस लेख में एक दुआरे के अनुभव से देखना, दूसरे के नजरिये से सीखना ही एक दूसरे से जोड़ता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है।
बहुत खूब ।
ReplyDeleteदलीप जी,
ReplyDeleteआपका आह आलेख बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण है। इसे सेमिनार में पढ़ा पर्चा कहकर इसकी गरिमा न गिराएं।
आजकल सेमिनारों में कॉपी-पेस्ट करके शोध आलेखों के नाम पर जो कूड़ा परोसा जाता है वो शोध के नाम पर कलंक है।
आपका आलेख एक मिसाल है शोधकार्य की। इसे एक स्वतंत्र आलेख की तरह इंट्रोड्यूज करें। सेमिनार में पढ़ा आलेख न कहें।