“अरे भाई, आप कौन हैं .....? दो तीन बार
बोलता है।”
“ कौन हम ?”
“हाँ तुम”
“मैं एक लैब टैकनीशियन हूँ। सुबह 9
बजे से शाम 5 बजे तक लैब में सेंपल चेक
करता हूँ। देर शाम 7 तक बजे तक मरीजों को रिपोर्ट सोंपकर जल्दी से निकलता हूँ...”
“मैं एक शिक्षक हूँ। सारा दिन
बच्चों को पढ़ाता हूँ । छुट्टी के बाद बच्चों ग्रहकार्य की कॉपियाँ संभालते कर रेक
में रखते हुए मोटरसाइकिल के जल्दी से किक मारता और वहाँ से निकल पड़ता हूँ ...”
“मैं एक कंपनी का एम्पलॉय हूँ कई
बार टार्गेट पूरा करते – करते छूटने में बहुत देर हो जारी है।”
“मैं खाद्य विभाग में बाबू हूँ।
किसानों द्वारा लाई गई अनाज की बोरियाँ गिनने में कब शाम हो जाती है, पता ही नहीं
चलता...”
“मैं शहर का एक मध्यम दर्जे का व्यवसायी हूँ, जीएसटी के
वाउचरों का जोड़ मिलाते कब दिन छिप जाता है पता ही नहीं चलता ...”
कोरस : “नई बात क्या है, इसमें?”
“बात तो है”
“है ...... है........ जी ......
बात तो है...”
“बड़ी लंबी कहानी है ....”
कोरस : एक बात है जो बहुत पुरानी है
इसमें
राजा है न रानी है ,
चीनी ना जापानी है
हिंदुस्तानी
बात है ये,
पर शर्म
से पानी पानी है।
एक बात
है जो बहुत पुरानी है
“अरे चुप भी करो बेशर्मों। ये बताओ
कि असली बात क्या है ?”
“बात ये है कि.......”
“बोल भी यार .....”
“हट शर्म आती है”
“अरे भाई ऐसा काम ही क्यों करते हो
जिसमें शर्म आए।”
“मुझे नहीं तुझे आएगी।”
“जब हमसे कोई पूछता है कि आप क्या
करते हैं तो पता है कि हम क्या कहते हैं?”
“यही कि ....
कोरस : कैसे कहूँ दूँ जान, मैं ऐसा क्यूँ
करता हूँ।
करता
नाटक हूँ मैं ऐसा क्यूँ कहता हूँ ।
ओ तेरी
... ओ तेरी ... ओ तेरी ......
धत्त
तेरी... धत्त तेरी ... धत्त तेरी...
“अरे भाई! सारी दुनिया ही नाटक
करती है।”
“काश ऐसा होता !”
“अरे भाई, वो वाला नाटक
नहीं...”
“तो कौनसा नाटक ?”
“नाटक मल्लब अंधा युग, आधे अधूरे, घासीराम
कोतवाल .... मल्लब डिरामा।”
“ये तो वही बात हुई न । पर्यायवाची...”
“अरे भाई हम थियेटर करते हैं –
थियेटर।”
“तो सीधा कहो न भाई हिन्दी में कि
थियेटर करते हो।”
“अरे भाई टाइम खराब कर दिया। वही
तो देखने जाए रहे थे। एक ठो टिकटवा भी
खरीदे हैं। अब लगता है कि सब बर्बाद हो गया। सत्यानाश हो गया। आप ही लोग करेंगे
क्या वहाँ अंदर नाटक?”
“अंदर नाटक करने की हमारी औकात
नहीं।”
थोड़ी देर यहाँ यहाँ भी रुकिए।
थोड़ा नुक्कड़ की तरफ भी झुकिए”
“हटो जी, अंदर जाने दो।”
कोरस : अरे भाई रुकिए वहाँ अभी
अभिनेता तैयार हो रहे हैं।”
“अभी चेहरे पर फाउंडेशन मल रहे हैं।”
“ढीली कुर्ती को सील रहे हैं।”
“संवाद याद करते –करते हिल रहे हैं।”
“डिरेक्टर ऑडीटोरियम के मालिक को
पंखा झल रहे हैं।”
“वैसे अंदर चलता एसी है, पर उसकी भी ‘ऐसी की तैसी है’
“साउंड सिस्टम भी वैसी है। ”
“लाइट सन सत्तर के जैसी हैं। ”
“पर नाटक एक दम टन्न है।”
“कहानी भी गुरु ए-वन है।”
“हीरोइन सना सन्न है....”
“डाइलोग दना दन्न हैं।”
“यार तुम लोग
मुद्दे से भटकाते हो खूब
बातें यूं बनाते हो खूब
सीधी साफ बात कहो
कि नाटक-वाटक क्यूँ करते हो?”
कोरस : क्यूँ करते हो, क्यूँ करते हो
?
नाटक –वाटक
क्यूँ करते हो
सरकारी
नौकरी भाई नहीं क्या
ऊपरी इन्कम आई नहीं क्या
होती
तेरी सगाई नहीं क्या
नुक्कड़
गली में फिरते हो
यूं
ज़िल्लत में क्यूँ मरते हो
भाई, नाटक-वाटक
क्यूँ करते हो
क्यूँ
करते हो, क्यूँ करते हो
नाटक
वाटक क्यूँ करते हो?
काम से
अपना काम रखो तुम
शाम को
चाहे जाम रखो तुम
चाहे तो
आठों याम रखो तुम
जेब में
झंडू बाम रखो तुम
सुबह
रखो तुम शाम रखो तुम
हाँ-
हाँ – हो – हो – हो हो....... हांफने लगते हैं ।
यूं
मारे – मारे क्यूँ फिरते हो
दर्द
में अपने क्यों घिरते हो
क्यूँ
करते हो, क्यूँ करते हो
नाटक
वाटक क्यूं करते हो।
“लो भाई अब दो जवाब!”
“तो सुन”
“सुना”
कोरस : सुनो सुनो अरे मेरे यार सुनो
मेरी रख
के कान पुकार सुनो
जब नाटक
कोई भी होता
उसमें
एक हँसता है इक रोता है।
चाहे कहानी
कोई भी हो
जागी हो
या सोई भी हो
झगड़े की
हो, टंटे की हो
चाहे संते
की हो, बंते की हो
हम बात
पते की करते हैं ... क्यूँ करते हैं क्यूँ करते है ...
इसमें
लाख टके की बात है
नाटक
ज़िंदगी के साथ है
इसकी
निराली रीत है
प्यार
है इसमें प्रीत है
यहाँ
धड़कनों के गीत हैं
रंग
जज़्बातों में भरते है ... क्यूँ करते है क्यूँ करते हैं...
छोटा कब
हो जाए बड़ा
पड़ा सड़ा
भी हो जाए खड़ा
लड़ा हुआ न लगे लड़ा
कौन बड़ा
जी कौन बड़ा
छोटा है
और कौन पड़ा
बड़ा
यहाँ न बहुत बड़ा
पड़ा
यहाँ न बहुत पड़ा
आदमियत
पर रहा अड़ा
इंसानियत
पर सदा खड़ा
वही बड़ा
है वही बड़ा
हर नाटक
में वही जड़ा
इस धुन
में हम रहते हैं ..... क्यूँ करते हैं.....
“अरे अब तो समझ में आया बुद्धू?”
“क्या भाई”
कौरस : यही कि हम ...
क्यूँ
करते है, क्यूँ करते हैं
नाटक
वाटक क्यूँ करते हैं .....
“चुप... चुप ... बहुत हो गई नौटंकी
..... ये माना कि जो भी करते हो सही करते हो। तुम नाटक करते हो। भले ही मारा -मारा
फिरते हो। ... परंतु नाटक करते कहाँ हो ?”
“वाह प्यारे मिल गया... कुंजी
वाक्य मिल गया ... देर से आया लेकिन असली सवाल पे तो आया - “कहाँ करते हो नाटक?”
“यह सबसे बड़ा सवाल है।”
“यक्ष प्रश्न है।“
“मन करता है तुझे झप्पी दूँ
एक प्यार से पप्पी दूँ”
“ये सवाल नहीं सवाल का भी बाप है
जिसकी कीमत सवा लाख है”
“मतलब ?”
“सीधा बताऊँ या घूमा के ?”
रो के बताऊँ या गा के
या फिर जीएसटी लगा के!”
“जो सस्ता हो वही बता ?”
“सीधा मतलब यह है कि वह जो
बिल्डिंग दिखाई दे रही है न ...”
“मोती डूंगरी ?”
“उससे भी आगे ?”
“उससे आगे तो सूरज है !”
“ज्यादा ऊपर नहीं नीचे देख।”
“भवानी तोप !”
“उससे पहले”
“इंद्रा गांधी स्टेडियम”
“अब रोड पार कर ले”
“अरे यार बड़ी अजीब सी
बिल्डिंग है... बाहर चाय की थड़ी वाले कहते हैं कि सरकार ने जाने क्या सांची का
स्तूप बना दिया? क्या
नाम है उसका ..... प्रताप औडिटोरियम ?”
(फ्लैश बैक)
(अचानक
समूह एक शोर में बदल जाता है....जुलूस की शक्ल में आ जाते हैं )
“ले के रहेंगे, लेके रहेंगे”
“औडिटोरियम लेके रहेंगे
..... रंगकर्म जिंदाबाद .... जिंदाबाद ... जिंदाबाद”
(जुलूस
आगे बढ़ता है जाता है ....)
रंगकर्मी : दोस्तो हम
नाटक करने वाले हैं। हम जनता में जागरूकता लाने के लिए ... संस्कृति को बचाने के
लिए .... मानवीय मूल्यों के लिए नाटक करते है... लेकिन नाटक कहाँ करें ? जय रंगकर्म।”
नेता : संस्कृति को बढ़ावा
देने के लिए हमने मास्टर प्लान बनाया है। तालियाँ
रंगकर्मी : नेता जी, हमें मास्टर प्लान की नहीं
औडिटोरियम की जरूरत है। जय रंगकर्म!”
नेता : हम आपकी मांग को
अगली, नहीं, अगली से अगली पंचवर्षीय योजना में प्रमुखता देंगे ।
तालियाँ
रंगकर्मी : पिछले 10 साल
से यह न्यूतेज टाकीज़ बंद पड़ा है यही दे दीजिए। हम इसमें ही नाटक कर लेंगे। इसमें
चूहे पल रहे हैं।
नेता : स्वगत।
करोड़ों की प्रोपर्टी पे निगाह है कमबख्तों की। जाहिर। हमने फैसला किया है
कि आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित एक औडिटोरियम का निर्माण नाटक करने वालों के लिए
किया जाए। ये रहा उसका ब्लू प्रिंट। तालियाँ बजाओ कमबख्तों...
(फ्लैश
बैक समाप्त)
“ओ तेरी कि .... तो ये छछूंदर
के सर पे चमेली का तेल। ये तुम्हारे नाटक करने के लिए बनाया गया है !”
कोरस : चुप । मज़ाक मत बना।
हाँ, यह
नाटक करने के लिए बनवाया गया था।
“लेकिन इसमें नाटक करने
के अलावा सारे नाटक हो सकते हैं।”
“छूछक, भात, लेडीज संगीत, एनवल फंक्शन, फैशन परेड ..... लेकिन नाटक
नहीं।”
“क्यों?”
“इसमें नाटक करने की फीस
लगती है .... पता है कितनी लगती है ?”
“कितनी ?”
“एक ... लाख... रुपये
....”
“एक लाख रुपये ..... इतने
में दो भैंस आ जाएँ .... छोरी की सगाई हो जाए..” (बेहोश होकर गिर जाता है।)
“इसे पानी पिलाओ”
“जूता सुंघाओ”
“दोस्तो इसकी चिंता नहीं करें। इन्हें थोड़ी देर
में होश आ जाएगा। यकीन मानिए । हमें भी पहली बार सुनके ऐसे ही गश आया था। लेकिन
होश आ गया था।”
“लेकिन आपको होश कब आएगा ?”
“ये जो बिल्डिंग खड़ी है इसकी नींव की एक –एक ईंट
पर एक वादा लिखा है। वादा इस शहर के रंगकर्मियों के लिए, वादा इस शहर के वाशिंदों के लिए
कि शहर के रंगकर्म को बढ़ावा देने के लिए उनको औडिटोरियम उपलब्ध करवाया जाएगा।”
“आज इस इमारत की दीवार पर
हर सिम्त एक वादाखिलाफी पुती हुई दिखाई
देती है। वादाखिलाफी इस शहर के रंगकर्मियों के साथ। वादाखिलाफी इस शहर के
कला प्रेमियों के साथ, वादाखिलाफी इस शहर के मतदाताओं के साथ। मैं इस वादाखिलाफी को लानता भेजता हूँ, मेरे शहर के मतदाताओं आप को होश
कब आएगा?
( street play, Nukkad Natak)
( street play, Nukkad Natak)
लेखन - दलीप वैरागी