प्रशिक्षणों (training)के दौरान कई
क्षण ऐसे आते हैं, जब
प्रशिक्षक को एकदम शून्यता का अहसास होने लगता है। उस रिक्त क्षण में क्या किया
जाए, कुछ सूझता नहीं है। ऐसे में थियेटर एक ऐसा औज़ार है जो
उस शून्यता से आपको निकाल कर एक सौद्देश्यता प्रदान कर जाता है। यह शून्यता कई बार
अपने पास ‘सब कुछ’ होने से भी आती है।
एक पूर्व नियोजन और मजबूत तैयारी में से किसी बुलबुले सरीखी यह निकलकर सामने आ खड़ी
होती है। यह बुलबुला एक ही गतिविधि की लगातार पुनरावृत्ति से पैदा होता है। सफलता पुनरावर्ती की अपेक्षा करती है। जरा-सी सफलता का
सतत दोहरान इंसानी फितरत की सामान्य परिघटना है। पिछले सालों के प्रयोग में ‘शूज शफल’ ड्रामा तकनीक के बच्चों के साथ कारगर
होने पर इसे लगातार वर्ष भर खूब दोहराया गया। जैसे हर चीज़ घिसती है, वैसे ही सफलता का भी द्रव्यमान छीजता रहता है। सामने किशोरों का समूह है
और योजना में ‘शुज-शफल’ ड्रामा
तकनीक है। पूर्व में आजमाई हुई तकनीक! किशोरों से केवल कहना भर है कि “ घेरे के मध्य रखी वस्तु को उठा कर, उसके साथ किसी
चरित्र को साकार करते हुए रोल-प्ले करना है।” …और यह
कहते ही एक सिलसिला शुरू हो जाता... किन्तु उसी वक़्त शून्यता का एक बुलबुला आँखों
के सामने मोतियाबिंद-सा आता है। मध्य रखने के लिए वस्तु (प्रोप्स) हैं लेकिन सूझती
नहीं। शून्य के आकार में बैठे किशोरों के घेरे के दरम्यान शून्यता का बुलबुला
फैलता जाता है और परिधि तक जाकर, थोड़ी देर थम कर फूट जाता
है। फूटते ही एक इंद्रधनुष स्मृति पर चमक उठता है। एक नई किरण दिखाई देती है। अब
वस्तु की जगह एक किशोर को घेरे के दरम्यान आने को बुलाया जाता है। नवीन नाट्य
तकनीक का स्पर्श अब व्यक्ति द्वारा वस्तु को
प्रतिस्थापित करने वाला है। पहले केंद्र में वस्तु होती थी अब व्यक्ति है वस्तुओं
से रहित। यह व्यक्ति का वस्तुकरण नहीं और वस्तु का मानवीकरण भी नहीं, बल्कि शरीर के द्वारा वस्तुओं से विमुक्तिकरण है। आलंबन रूप में, न उद्दीपन रूप में वस्तु अब कहीं नहीं है। केवल अभिनेता है, उसका मन है, शरीर है उसकी अनंत संभावनाओं के साथ,
एक संभावना वस्तु भी हो सकती है।
किशोर के घेरे के भीतर आने
तक Tableau (टेब्लू अर्थात झांकी) रंग-तकनीक
की भूमिका बन चुकी थी।
(1) एक
किशोर से कहा गया कि आप घेरे के मध्य में किसी एक भंगिमा में आकार मूर्तिवत फ्रीज़
हो जाएँ। किशोर ने एक दो मुद्राएँ बनाई सामने बैठे लोगों की तरफ आश्वस्ति भाव से
देखा फिर फर्श पर ऐसे पैर फैलाकर बैठा जैसे पीछे गाव तकिया लगा हो। शुरू में
अभिनेता के सामने ये चुनौती है कि वह अपने शरीर को कौनसा आयाम दे? शरीर दिन भर में अनंत आयाम प्राप्त करता है किन्तु स्वाभाविक जरूरत के
साथ... व्यक्तिगत जीवन में व्यक्ति किसी उद्देश्य को तय करता है और शरीर को उसके
अनुसार साधता है। जीवन में शरीर व मन के दरम्यान मन: शारीरिक सहज रूपान्तरण चलता
रहता है। यह दैनिक रूपान्तरण व्यक्ति के व्यक्तित्व के एक पहलू को आकार देते हैं। अभिनय
में बात दूसरी है। वह सहज पथ पर जाने से रोकता है। अभिनेता के लिए अभिनय के इस
बिन्दु पर उसके शरीर को पहले आना है और हेतु को बाद में आना है, या फिर हेतु को अभी तलाशना है। इसलिए गतिविधि का प्रथम बिन्दु चुनौती खड़ी
करता है। इस निर्मिति में अभिनेता के अलावा दर्शकों के पास अपनी-अपनी व्याख्याएँ
हो सकती हैं, निर्माता अभिनेता से सर्वदा भिन्न भी हो सकती
हैं।
(2) दूसरे
चरण में दूसरे किशोर (अभिनेता ) को आना है। पूर्व में बनी मूर्ति को अक्षुण्ण रखते हुए स्वयं को संयोजित करते हुए फ्रीज़ होना है। दूसरे
अभिनेता के जुड़ने पर यहाँ एक ऐसी संश्लिष्ट इमेज बननी
है जो पहले वाली से अर्थ में जुदा हो। जो भी अभिनेता यहाँ आएगा, वह अपनी एक अलग व्याख्या के तहत खुद के शरीर को जोड़कर इसे विस्तार देगा,
केवल वही रूप हमारे सामने आएगा। किन्तु सामने बैठे अन्य अभिनेता
केवल दर्शक-झुंड मात्र नहीं, वे भी मौलिक विचारकों में तबदील
हो चुके हैं। सबके मन में एक-एक मौलिक इमेज साकार हो
चुकी है। जो पहले वाली से जोड़ कर अपने मानस पर बना रहे हैं। मंच पर उपस्थित अभिनेता
की निर्मिति में संभावनाओं की खूँटियाँ लगी हुईं है, जिनपर
बाहर बैठे अभिनेता अपनी कल्पनाओं के चित्र टाँग रहे हैं। किन्तु खेल का अनुशासन (सीमा
नहीं) यही है कि केवल एक व्याख्या ही सामने आनी है। मंच पर पहले से बैठे अभिनेता
के चारों तरफ खाली निर्वात नहीं है, बल्कि पूरी फ़िजा में विचारों
व संभावनाओं के परागकण घुले हुए हैं। जो भी अभिनेता इसे अपने विचारों का स्पर्श
देगा तब सोच का नवांकुर प्रस्फुटित होकर मंच पर साकार होगा।
दूसरा अभिनेता आकर पहले
वाले के पैरों से एक मीटर की दूरी पर उकड़ू बैठ जाता है। घुटनों पर दोनों भुजाएँ
समेट कर रखीं हुईं हैं। भुजाओं पर टिका हुआ है मस्तक नत है। दूसरे ही अभिनेता ने
अपने प्रयास में इस इमेज की नियति लगभग तय कर दी। एक ही झटके में सत्ता को
प्रविष्ट करा दिया। इमेज में सत्ता आ चुकी है, अब शेष कलाकार केवल सत्ता के समीकरण को संतुलित करने के उपकरण भर होंगे। परंतु, व्याख्याओं की संभावनाएं अब भी हैं लेकिन सत्ता-सूत्र को थाम कर। अब
झांकी के अंदर दो व्यक्ति हैं - एक प्रभाव में है, एक
प्रभावित है। एक दंभ में है, एक दमित है। एक पद पर है,
एक पग में है। एक अर्श पर है, एक फर्श पर
है.... इसे घटित होने से पहले बाकी के अभिनेता विचारों
के जो अपने-अपने वातायन खोल के बैठे हुए थे उन्होंने अब अपने झरोखे बंद कर लिए हैं, क्योंकि दूसरे अभिनेता ने मुख्य द्वार खोल दिया है। सब इसी द्वार से
प्रवेश करेंगे। इसी द्वार के साथ-साथ नाट्यकला की एक और संभावना भी खुल कर उजागर
होती है - किसी दूसरे के विचार सूत्र को पकड़ कर आगे बढ़ाने का अद्भुत स्वीकार नाट्य
गतिविधियों में ही हो सकता है।
(3) थोड़ी
देर तक चुप्पी, अब तीसरा अभिनेता दूसरे अभिनेता, जो पहले के कदमों में बैठा है, के कंधे पर हाथ रख कर
उसके पीछे बैठ जाता है। अब यह चरित्र कोई भी हो सकता है लेकिन व्याख्या यही है कि
यह है कोई हमदर्द दूसरे अभिनेता का... दोस्त ... परिवारजन... परिचित या....
(4) अब
अन्य दो अभिनेता बारी-बारी से आते हैं और तीसरे अभिनेता की अगल-बगल में बैठ जाते
हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि तीसरे अभिनेता के आँचल का पल्लू पकड़े हुए हैं। इनकी यह
भंगिमा तीसरे अभिनेता की उकेरी रेखाओं को और गहरे रंग दे देती है। पूरी झांकी को
समेकित रूप से देखें तो अब तस्वीर उभरती है कि एक परिवार है जो शक्ति की गिरफ्त
में है।
(5) Image
theatre के बारे में Augusto Boal कहते हैं कि
इस तरह का थियेटर अरस्तू के कैथार्सिस से अलग है। इसमें अभिनेता भावनात्मक की
अपेक्षा वैचारिक रूप से जुड़ता है। क्यों कि वह केवल एक्टर न होकर स्पेक्ट-एक्टर
है। इस बात को जब पढ़ा तब समझ नहीं आई, अब जब अभिनेताओं को
आते देख रहा हूँ तो इबारत स्पष्ट हो रही है। क्योंकि आने वाले अभिनेता तस्वीर को
अपनी उपस्थिति से समृद्ध कर रहे हैं और भावनात्मक उद्वेलन की जगह तस्वीर को
तार्किक आधार प्रदान कर रहे हैं। अगर तस्वीर में शोषण का बीज मात्र भी दिखाई दे
रहा है तो उसे और उभार कर सामने लाना... शायद इसलिए ही अगला अभिनेता जब आता है तो शोषित
के पक्ष में न बैठ कर शोषक की तरफ आसान लगाकर सामने बही खाता खोलकर बैठ जाता है।
इस अभिनेता ने तस्वीर में आए शोषण को एक वजह दे दी। अर्थात तस्वीर से थोड़ी धूल और
हटी रंग गहरा हुआ कि मामला जो भी है पर आर्थिक है।
(6) इस बार दो अभिनेता एक
साथ आते हैं। यह अप्रत्याशित था। वैसे थियेटर में अप्रत्याशित कुछ नहीं होता। यूं
कहें कि अनपेक्षित था। चूंकि एक-एक अभिनेता को बुलाया जा रहा था तो एक–एक करके ही
तो आना चाहिए था। ये दो साथ आए और नाट्यकला की एक और विशिष्टता को उजागर कर गए कि
फॉर्मेट चाहे कोई भी हो अंततः नाट्यकला एक से दो होने की विधा है, सहमतियों व असहमतियों के बावजूद। बहरहाल, दोनों अभिनेता साथ में आए और एक सोच के साथ... मंच पर बैठे गद्दीनशीन व्यक्ति
के दोनों तरफ गर्दनें अकड़ाकर खड़े हो गए। ये लठैत हैं। शारीरिक बल है। शारीरिक बल
सत्ता के साथ खड़ा रहता है अकसर.... यदि यह समाज की विडम्बना है तो इसे अपने
क्रूरतम रूप में सामने नज़र आना चाहिए। अभिनेता ही इस सच्चाई को सबके सामने नंगा
करेगा। स्वयं को चाहे एक पल को इसका उपकरण बनाएगा।
(7) इसके पश्चात लग रहा था
कि तस्वीर पूरी हो चुकी है। अभिनेताओं के आने का सिलसिला थम सा गया था। तस्वीर को
देखने पर भी ऐसा लग रहा था कि इसके सभी संभावित पहलू दिखाए जा चुके हैं। थोड़ी देर
कहीं कोई हलचल नहीं हुई। अचानक एक अभिनेता उठ कर आया और मंच पर बनी झांकी से तीन
मीटर की दूरी पर खड़ा हो गया। भाव, भंगिमा व
स्थिति से वह तस्वीर से बहुत असंगत दिखाई दे रहा है। न वह सत्ता के इधर है न उधर
है। वह दरम्यान भी तो नहीं। वह झांकी को निहार तो रहा है लेकिन उसका हिस्सा नहीं
होना चाहता। यह पैरडाइम शिफ्ट है। हमारी बाइनरी काउंटिंग को पलट दिया अभिनेता ने...
इधर – उधर के अलावा एक तीसरी श्रेणी होती है, जो होते तो हैं
लेकिन कहीं नहीं होते। इस अभिनेता ने अब तक के यथार्थवादी चित्र को थोड़ा
एब्स्ट्रेक्ट रूप दे दिया। यह पात्र नहीं प्रतीक है। जो देखता तो है लेकिन दृष्टा
नहीं... जो दर्शक है पर केवल मूक दर्शक। यह समाज के उस हर जने का प्रतिनिधित्व
करता है जो सब कुछ देख कर अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करता कि वह किधर है। मुझे लगता
है कि यह पात्र एक वर्ग का चरित्र है। यह पात्र वह हर कोई है जो इस चित्र से बाहर
है और उसका हिस्सा नहीं है। मूक दर्शन
उतनी ही हेय क्रिया है जितनी कि दर्शन सम्मानित क्रिया है। मूक दर्शन क्रिया जब सक्रियता
की उम्मीद है तब तटस्थ बनी रहती है। मूक दर्शन एक जीव विज्ञानी परिघटना है जबकि
दर्शन एक वैचारिक कार्यकलाप जो किसी स्तर पर आपकी तटस्थता को भंग करता है।
इसने तस्वीर का एक अलग आयाम
खोल दिया और सामाजिक संरचना का एक और वीभत्स कोना हमें दिखा दिया। अभिनेता अभी और
भी बाकी हैं। न तो अभिनेताओं की क्षमताओं को कम आँका जा सकता है और न ही इस तस्वीर
की और संभावनाओं से इंकार किया जा सकता है। अभी इस तस्वीर को यहीं इसलिए रोकना
होगा, क्योंकि आज के सत्र के लिए जिस
शिक्षण सामग्री की हमें जरूरत थी, वह मंच पर मौजूद हो चुकी
थी। इसके साथ आज की चर्चा को आगे बढ़ाया जा सकता है। आज के सत्र का उद्देश्य था कि
युवाओं के साथ समाज के ताने-बाने पर चर्चा की जाए। खासकर समाज में व्याप्त असमानता
व भेदभावों पर। इस तस्वीर में एक प्रस्थान बिन्दु हमें मिल गया जहां से आगे बढ़ा जा
सकता है एक सार्थक चर्चा की ओर।
एक बार फिर नाट्यकला की
शिक्षा में उपयोगिता पर विश्वास और मजबूत हुआ। प्रारम्भ में हमारे पास कोई सामग्री
नहीं थी। शून्य था। केवल अभिनेता का शरीर। मंच पर मौजूद तामझाम कहाँ से आया? इसे किसने लाने के लिए बोला? क्या निर्देशक ने ? क्या किसी एक अभिनेता ने? यदि एक ने नहीं तो सब ने मिलकर भी तो इसके लिए नहीं सोचा था? फिर कौन लाया इस तस्वीर को? क्या यह अपने आप आई ? यह किसी एक दिमाग की सृष्टि है ? यह सवाल अभिनेता, निर्देशक, नाटक के शोधार्थी, मनोविज्ञानी, शरीर विज्ञानी, समाज विज्ञानी व शिक्षा शास्त्रियों
के लिए एक साथ महत्वपूर्ण हो सकता है। ये सब नाटक की इस तस्वीर से शुरू होकर अपनी-अपनी
दिशा में आगे बढ़ सकते हैं और इस तस्वीर के उत्स तक पहुँच सकते हैं। अस्तु, मैंने तो यही समझा कि यह तस्वीर समाज की वह तस्वीर है जो जिग-ज़ैग पहेली की
तरह लोगों के मानस में टुकड़ा-टुकड़ा करके बिखरी हुई है। एक हिस्सा किसी के मन में है
तो दूसरा किसी और के मस्तिष्क में। केवल एक तस्वीर के टुकड़े नहीं अलग-अलग तसवीरों की
चिन्दियाँ आपस में गड्ढ-मड्ढ हैं। पीढ़ियों की रेट उनपर चढ़ी हुई है। ये सब तस्वीरें
स्पष्ट होने के लिए उतावली हैं लेकिन स्पष्ट इसलिए नहीं होती कि इसके टुकड़े अलग-अलग
दिमागों में धँसे हुए हैं। ये तस्वीरें जुड़ तो जाएँ बशर्ते चार सिर आपस में जुड़े तो
सही। सिरों के सहज जुड़ाव का मंच केवल नाटक ही प्रदान करता है। उन तसवीरों से गर्द हटा
कर, टुकड़े बटोर कर पूरे हाई ऋजुलेशन के साथ केवल नाटक ही सामने
ला सकता है। सामूहिक अचेतन में धँसी टुकड़ा-टुकड़ा तस्वीरों को नाटक ही जोड़कर बाहर ला
सकता है।