यह समीक्षा देर से आ रही है। इसके लिए पूर्णतः मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ। इसके
पीछे की वजह व्यस्तताएं ही हैं, जिन्हें चाहते हुए भी दूसरी प्राथमिकता पर
नहीं डाला जा सका था। अभी दो दिन पहले एक मित्र ने मुझे याद दिलाया कि इस
कार्यक्रम की समीक्षा अभी तक क्यों नहीं की गयी है। कार्यक्रम के दौरान भी अलवर व
बाहर के कुछ अभिनेताओं ने ऐसी ही अपेक्षा की थी।
इस बात ने एक विस्मय मिश्रित आनंद की अनुभूति दी। खैर, समीक्षक होने का मुगालता तो नहीं पाला है, मगर
आश्चर्य यह हुआ कि सहसा यह अपेक्षा यदा कदा ब्लॉगिंग
से ही उपज आई है, और इसने एक विस्मृत अभिनेता व निर्देशक को
नयी भूमिका में रूपांतरण के साथ जीवित कर दिया।
अलवर रंग महोत्सव के बारे में अगर एक वाक्य में कहा जाए, तो यह अलवर के मेरे ज्ञात इतिहास में भव्य व सफलतम् नाट्यानुभूति है। आगे
के पूरे लेख में इस वाक्य का पल्लवन भर है। अलवर के दर्शक लम्बे समय तक इसे याद
रखेंगे,इसमें कोई दोराय नहीं है।
निःसंदेह यह अनुभव रचने में रंग संस्कार थियेटर ग्रुप व कारवां फाउंडेशन ने
अथक परिश्रम किया है। किन्तु इसका प्रस्थान बिंदु देशराज मीणा ही है। देशराज मीणा
की प्रशंसा इसलिए की जानी चाहिए कि उन्होंने पिछले साल नवम्बर में आयोजित “हास्य नाट्य”
उत्सव की प्रतिध्वनि के विलीन होने से पहले रंगमंच के दूसरे तार को झंकृत कर दिया।
रंगमंच को लेकर देशराज के जूनून व जज़्बे को पहले हम रंगकर्मी तो जानते थे किन्तु आज
पूरा शहर उसका साक्षी है।
बात उस समय की है, जब देशराज और हम साथ में रंगकर्म कर रहे थे, तब हम यह अक्सर चर्चा किया करते थे कि रंगकर्मी नाटक के कला पक्ष के लिए
तो असीम ऊर्जा लगाकर काम कर लेते हैं लेकिन इसे पेशेवराना रूप देने की तमीज नहीं
है। इसलिए रंगकर्मी थियेटर के स्कूल में चाहे न जाए लेकिन उसे एमबीए जरूर करना
चाहिए। तब हमें इस बात का इल्म भी नहीं था कि देशराज ने एक नहीं दोनों काम किए।
पहले राजस्थान विश्विद्यालय से नाट्यकला में डिप्लोमा, फिर
नाट्यकला में एमए तथा उसके बाद अजमेर से एमबीए किया।
इसलिए इस बार देशराज ने नब्ज को दोनों तरफ से पकड़ा, और परिणाम सबके सामने है।
...और
कारवां बनता गया
कारवाँ |
सही मददगार तलाशना बेशक एक बुनियादी जीवन कौशल है। देशराज के विचार को सतरंगी
स्वरूप देना कारवां फाउंडेशन के बिना असंभव था। यूँ तो कारवां में अलग-अलग फील्ड
के विशेषज्ञ लोगों की एक फेहरिश्त है, किन्तु प्रमुख
सूत्रधार के रूप में अमित गोयल व जुगल गांधी नज़र आ रहे थे। जुगल गांधी का सुचित्रा
फ़ोटो स्टूडियो से एस-टीवी चैनल तक का शानदार सफ़र हम सबके सामने है। जुगल जी,
एक वक्त था जब हम उनसे अपना फोटो खिंचवाने जाते थे, तो वे अपने जबरदस्त हुनर से हमारे मन के कोनो में दबे छिपे भावों को चेहरे
लाकर साकार कर देते थे। शायद ऐसा कोई व्यक्ति ही नव निर्मित प्रताप ऑडिटोरियम की
लबालब भरी हुई बालकनी की कल्पना कर सकता था।
अमित गोयल का रंगकर्म, साहित्य व संस्कृति के माहौल से गहरा
रिश्ता है। साहित्य व संस्कृति से उनकी निकटता उन्हें अपने पिता श्री हरिशंकर गोयल
से जेबख़र्ची सरीखा मिलती रही है। अमित गोयल के प्रकाशन व प्रिंटिंग के काम से आज
कौन परिचित नहीं है। उनका ‘सनप्रिंट्स’ जब चर्चरोड पर नया-नया आज से लगभग 15 साल पहले खुला
था। तब हमने भी शिवरंजनी थियेटर ग्रुप की शुरुआत की थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि
अमित गोयल के साथ बैठ कर ही वहाँ हमारे नाटकों के कार्ड, ब्रोशर,
पोस्टर व लोगो डिजाइन होते थे। शुरूआती तीन-चार नाटकों की सामग्री उन्होंने
ने बिना कोई पैसा लिए छापी थी। रंग महोत्सव में भी सनप्रिन्ट द्वारा प्रकाशित
कलात्मक प्रचार सामग्री का अहम् योगदान है।
यह देशराज की बुद्धिमानी है कि उसने पुरानी इन कड़ियों को मिलाकर कारवां के लिए
भूमि तैयार कर दी और साथ ही ‘अलवर रंग महोत्सव’ की
सफलता की बुनियाद भी रख दी। इसके बाद कारवां के अलग अलग क्षमताओ के लोग जुडने लगे जिनमें, डॉ जीडी मेहंदीरत्ता, अनिल कौशिक, अमित छाबड़ा, नीरज जैन, देवेंद्र
विजय, अनिल खंडेलवाल,दिनेश शर्मा, अभिषेक तनेजा व अरुण जैन प्रमुख हैं। इनके जुड़ने से कार्यक्रम में प्रशासनिक
अधिकारी, राजनेता, समाजसेवी व साहित्य
के लोगों के जुड़ने का मार्ग प्रशस्त हो सका।
शुरुआत सेलिब्रिटीज़ से
दिनांक 14 जनवरी 2016 को अलवर रंगमहोत्सव का पहला दिन था। इस दिन
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दो स्नातकों के नाटक खेले गए। मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री
सीमा बिस्वास अभिनीत एकल नाटक ‘स्त्रीर पत्र का मंचन हुआ। पहले दिन ही हॉल खचाखच भरा हुआ था। बालकोनी की सीटें भी भरी
हुई थीं। सीमा बिस्वास ने अपने जबरदस्त अभिनय से लोगों को पलक तक झपकने नहीं दी।
जैसा उनका अभिनय है, उसी के अनुरूप उन्होंने विषय
उठाया, जो कि ज्वलंत मुद्दा है, और
स्त्री की जेंडर आधारित भूमिकाओं पर सवाल उठता है। इस नाटक में महिला की दोहरी
वंचितता को बखूबी उठाया है। एक तो वह समाज में स्त्री होने की वजह से वंचित है
चाहे वह किसी संपन्न घर की ‘मझली बहु’ हो या फिर कोई और। एक स्त्री के लिए यह वंचितता और भी नारकीय तब हो जाती है जब वह
सुंदरता व रंगरूप के परंपरागत मापदंडों में फिट नहीं होती है। सीमा बिस्वास एक
छोटी लड़की की त्रासद कहानी से पूरे प्रेक्षागृह को झकझोर के रख देतीं हैं।
दूसरा नाटक दौलत वैद्य द्वारा निर्देशित ‘दिवाकर की
गाथा’ शिल्प व कथ्य के स्तर पर नवीनता लिए हुए था। एक मछुआरे
की कहानी है, जो प्यार करता है - नदी से, लोगों से भी... परिस्थितियाँ किस प्रकार उसे जल्लाद बनने पर मजबूर कर देती
हैं। दो अभिनेताओं की जुगलबंदी ने क्षीण कथा को भी प्रभावी तरीके से रखा। असमियां
खुशबू में डूबा हुआ संगीत इस नाटक के प्राण हैं। दौलत वैद्य ने प्रकाश व
प्रोजेक्टर तकनीक के ताने-बाने में बुना अभिनव प्रयोग करके मंच पर त्रिआयामी चाक्षुस
बिम्ब रच कर नदी की प्रचंडता का जीवंत अनुभव दर्शकों को करवाया। हालाँकि कभी-कभी
पूरी स्क्रीन पर कंप्यूटर की कमांड्स भी नज़र आ जाती तो रसास्वादन में कंकड़
स्वरूप भी लगतीं। लेकिन इस तरीके की तकनीक में कलाकारों को कई बार स्थानीय उपकरणों
पर भी निर्भर रहना पड़ता है। एक वजह यह भी हो सकती है।
गोष्ठियों जैसी एक और
गोष्ठी
रंग महोत्सव के दूसरे दिन, यानी 15 जनवरी को
गतिविधियों का सिलसिला सुबह से ही प्रारम्भ हो गया था। इसकी पहली कड़ी में एक संवाद
का आयोजन किया गया, जिसका विषय था- अलवर रंगमंच की
वर्तमान चुनौतियां। इस गोष्टी में दलीप वैरागी ने विषय प्रवेश किया। मुख्य
वक्ता के रूप में डॉ वीरेंद्र विद्रोही ने रंगमंच की समस्याओं के हल के एक विकल्प
के रूप में सुझाया कि इसे शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनाकर पाठ्यक्रम में शामिल करना
होगा। इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने इसे गांवों तक पहुँचाने की जरुरत पर बात की।
दूसरी और युवा रंगकर्मियों का आक्रोश भी दिखाई दिया। युवा रंगकर्मी अविनाश ने
ऑडिटोरियम की अतार्किक ऊँची दरों पर व संस्थाओं के मध्य मतभेदों पर गुस्से का
इज़हार किया। गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार जीवन सिंह मानवी ने की। अधिकतर
होने वाली गोष्ठियों की तरह यह गोष्ठी भी ज्यादा लोगों को नहीं जुटा पाई। दूसरा
जल्दी समाप्त करने के आग्रह के कारण सभी
रंगकर्मी खुल कर बात नहीं रख पाए।
नए दर्शकों की तलाश में
गोष्ठी के तुरंत पश्चात् जबलपुर के नाट्यदल ने नाटक ‘एक और दुर्घटना’ का मंचन किया।
इस नाटक को देखने के लिए नए दर्शकों की तलाश की गयी, जो इस
आयोजन को एक नया आयाम देती है। दर्शक स्वरुप स्थानीय बीएड कॉलेज की छात्राओं व एक
सैनिक टुकड़ी को नाटक देखने के लिए आमंत्रित किया गया था। निःसंदेह शिक्षक
प्रशिक्षुओं के लिए इस नाटक से बेहतर एक्सपोजर नहीं हो सकता था। आद्यंत कसावट में
बुने हुए इस नाटक को युवा अभिनेताओं ने पूरी ऊर्जा के साथ अभिनीत किया। एक सनकी
द्वारा जांच अधिकारी बनकर पुलिस द्वारा आम आदमी को अपराधी साबित करने की थ्योरियों
पर से प्याज के छिलकों की मानिंद परतें उघाड़ने का अभिनय दुर्गेश सोनी ने बखूबी
किया। युवा निर्देशक प्रिया साहू की टीम (रोहित
सिंह, अंशुल ठाकुर, सुहाली वारिस, सरस, अक्षय ठाकुर व पारुल जैन) में कोई कड़ी ऐसी
नहीं थी जो दर्शकों के मानसपटल पर छाप न छोड़ गई हो। बहुत ही सार्थक, संतुलित व सौद्देश्य मरोरञ्जन इस नाटक ने प्रदान किया।
अंकुश शर्मा के निर्देशन में नाटक ‘टैक्स फ़्री’
के सभी पात्र अंधे है और एक अंधों के क्लब में रहते हैं। ये सभी
अपनी विकलांगता को अभिशाप या दिव्य वरदान (दिव्यांग) मानने से आगे जाकर इंसानी
संवेदना के रेशों को स्पंदित करते हैं। वे जिंदगी को उसी प्रकार रसमय बनाते हैं
जैसे कोई भी व्यक्ति कर सकता है। वे एक दूसरे की जिंदगी की परिस्थितियों को (जो विकलांगता
जनित स्थितियां नहीं) इस प्रकार रखते हैं उसमे स्वयं जोड़कर खुद भी आह्लादित होते
हैं और दर्शकों पर भी रस की फुहार छोड़ते हैं। चार
दृष्टिबाधित व्यक्ति अनायास ही दार्शनिक महत्व के प्रश्नों को छोटे-छोटे कहकहों
में सुलझाते नज़र आते हैं। वे खूबसूरती की पहेली को सहसा ही सुलझा देते हैं कि
सुंदरता अंततः देखने वाले के मन में ही स्थित होती है। वे सभी पड़ौस में नहाने वाली
युवती को, पड़ौस से आने वाले नल की आवाज से सुनते हैं और
कल्पनाएँ करते हैं। यहाँ सब कुछ कल्पनाओं में है। यहाँ तक कि युवती भी और नहाना भी...
बहुत बारीक़ भावों की अभिव्यक्ति को अपनी
देह पर धारण करना और फिर उसे फैलाकर
प्रेक्षागृह के दर्शकों पर जाल की तरह डाल कर पकडे रखना बहुत कुशल अभिनेता की
कसौटी है। इसे अंकुश शर्मा व उसकी टीम ने बखूबी निभाया।
अंकुश से अलवर के दर्शकों का परिचय अब नया नहीं पिछले साल नवम्बर में उनके दो
हास्य व्यंग्य नाटक ‘निठल्ला’ व ‘बिच्छु’ का मंचन हो चुका
है। अंकुश के सामने चुनौती यह भी थी कि वह हास्य में क्या विविधता दे पाएंगे। इस
कसौटी पर वे सफल रहे हैं। उनकी टीम में क्रिश सारेश्वर, मोहम्मद
हसन, मदन मोहन व धीरेंद्रपाल सिंह ने अपनी भूमिकाओं को
शानदार तरीके से निभाया।
16 जनवरी 2016 की दोपहर को अलवर के
रंगकर्मी प्रदीप प्रसन्न लिखित व निर्देशित नाटक ‘चार कंधे’
खेला गया। प्रदीप अलवर के निवासी हैं अभी गुजरात में रहकर शोध कर
रहे हैं। वहां पर उन्होंने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से मिलकर टीम बनाई है।
वे दो महीने पहले भी स्वलिखित नाटक लेकर इसी टीम के
साथ अलवर आए थे। इतनी कम अवधि में ही एक और स्वलिखित व निर्देशित नाटक से
गुदगुदाने के लिए प्रदीप का साधुवाद। ज्ञातव्य है कि प्रदीप के दो नाटक जवाहर कला
केंद्र की नाट्यलेखन प्रतियोगिता में पुरुस्कृत हो चुके हैं। शोध में व्यस्तता के बावजूद
प्रदीप की मंच पर यह सक्रियता अचंभित व प्रेरित करती है।
हास्य का
विधा से ध्येय में तब्दील हो जाना
इसी दिन शाम का नाटक था तपन भट्ट लिखित व निर्देशित नाटक ‘हरिलाल एन्ड संस’ । अंतिम दिन भी दो प्रस्तुतियाँ
थीं - ‘फ्लर्ट’ और ‘रॉन्ग नंबर’। रोंग नंबर भी तपन भट्ट
द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक है। फ्लर्ट नरेंद्र कोहली द्वारा लिखित व
गगन मिश्रा द्वारा निर्देशित है। तीनों नाटकों में समानता यह है कि अभीनेता कमोबेश
वही हैं, यथा- विशाल भट्ट, तपन भट्ट,
अभिषेक झाँकल, हिमांशु झाँकल, कपिल शर्मा व सौरभ भट्ट इत्यादि। ये सभी जयपुर रंगमंच के जबरदस्त
प्रशिक्षित अभिनेता हैं। तीनों नाटकों में इन अभिनेताओं ने अपने अभिनय, गति व तारतम्य से भरे ऑडिटोरियम को बांधे रखा। विशाल भट्ट व अभिषेक झाँकल
बहुत प्रतिभाशाली अभिनेता हैं लेकिन तीनों नाटकों में उन्हें एक ही शेड के रोल
देना अचंभित करता है। इन दोनों अभिनेताओं के अभिनय के वैविध्य से अलवर के दर्शकों
को परिचित करवाया जा सकता था। फ्लर्ट नाटक में गगन मिश्रा शिल्प के स्तर
पर वैविध्यपूर्ण पर प्रयोग करके जो रंगभाषा रचते हैं तो उनके
ये प्रयोग काव्यात्मक नजर आते हैं।
तपन भट्ट के नाटकों में अभिनय व निर्देशन का काम बेहद उम्दा है, किन्तु उनके नाटककार से कुछ मुद्दों पर सवाल किए जा सकतेहैं। तपन भट्ट के
दोनों नाटकों के संवादों में ऐसे बहुत से संवाद थे जो जेंडर, जेनरेशन, एवं संस्कृतियों के पूर्वाग्रहों से भरे
हुए थे। रंगमहोत्सव की शुरुआत सीमा बिस्वास के स्त्रीर पत्र नाटक से होती है जो
स्त्री को उसकी परमपरगत भूमिका से निकाल एक व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने का
आह्वान करती हैं, और दर्शकों को एक विचार के बादलों पर सवार
करती हैं, वहीं नाटक 'हरीलाल एंड संस ' में नौकरानी के लिए
एक पात्र का यह संवाद,"मालिक, यह
प्लॉट मेरे नाम कर दो" सरीखे संवाद, उस विचार प्रक्रिया को महोत्सव के आखिर तक आते-आते तार-तार कर देते हैं।
उनके नाटक में इस तरह के संवादों की भरमार थी जो पाश्चात्य संगीत, सभ्यता व नई पीढ़ी को लेकर एकांगी दृष्टिकोण प्रस्तुत करतेहैं। इस तरह का
हास्य प्रेक्षागृह के दर्शकों को विभाजित कर जाता है - एक दर्शक वह जो इनके मार्फत परंपरा से अपने
दृष्टिकोण और पुष्ट होते हुए पाता है, वह कहकहे लगता है।
दूसरा दर्शक वह, जो इस विडम्बना पर नहीं हंस सकता। यह विद्रूपता तब
जन्म लेती है जब हास्य एक विधा से ध्येय में तब्दील हो जाता है। फिर कहानी का
मुख्य कथ्य पीछे छूट जाता है, और कुछ भी कह के हँसाने की
विवशता को कलाकार ढोता है। हास्य एक रस है।
रसानुभूति एक दशा है ध्येय नहीं, सम्प्रेषण
तो उन मूल्यों का होता जो लेखक का अभिप्रेत है। रस उसके सम्प्रेषण की गारंटी
प्रदान करता है। लेकिन जब हास्य ही ध्येय हो जाता है तो वह विद्रूपता को जन्म दे
सकता है। यह एक बहुत ही महीन धागा है जिसे पकड़ने की जरूरत है। आजकल टीवी पर छाए इस
तरह के हास्य से ऊबकर जो दर्शक नाट्यशाला में आया होगा जरूर उसे निराशा हाथ लगी
होगी। इसमे कोई दो राय नहीं की भट्ट जी के दोनों नाटको में दर्शकों की व ठहाकों की
संख्या अनगिनत थी। तपन भट्ट अनुभवी व बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार हैं। उन्हे अपने
कथ्य में इस दृष्टि से भी नवाचार करने चाहिए। वे कर सकते हैं।
आखिर में कुछ सीखें व बातें जिन्हें कहा जाना चाहिए इस प्रकार हैं
- पिछले दो महीने पहले जब पहला नाटक प्रताप ऑडिटोरियम
में हुआ था तो आस-पास के लोग इस कंगूरेनुमा बिल्डिंग को बहुत विस्मय से देखते
थे कि यह सरकार ने क्या बना कर रख दिया। इस बार जब यह इमारत चार दिन तक रोशनी
में नहाई तो एक माहौल बना है। आस-पास दुकान वालों को भी उम्मीद बंधी है कि इस
इमारत की गतिविधियों की सातत्य उनकी दिहाड़ी में भी इजाफा करेगी।
- दिन में एक कार्यक्रम संगीत व नृत्य का रखने के प्रयोग
ने आयोजन को अलग आयाम दिया। स्वरांजलि संगीत क्लब अलवर में परिचित नाम
है। संगीत के बेहतरीन जानकार इस क्लब से जुड़े हुए हैं। स्वरांजलि के साथ
बहुत बड़ा दर्शक वर्ग भी जुड़ा हुआ है, जो इस जुगालबंदी से नाटक की ओर डायवर्ट
हुआ है।
- पिछले कार्यक्रम में जो कमी थी कि मीडिया ने, या मीडिया से परहेज किया गया था। इस बार मीडिया कवरेज अच्छा होने से
दर्शक जोड़ने से फायदा मिला। व्हाट्स एप्प व फेसबुक पर जम कर प्रचार किया गया।
स्थानी टीवी चैनल की शिरकत से इसमें इजाफा हुआ। नि:संदेह कारवां ने इस
प्रचार-प्रसार में खूब भूमिका निभाई।
- रंग संस्कार थियेटर व कारवां
ने इस कार्यक्रम को जिस भव्यता से किया है, यह अब
इसकी आवृत्तियों की अपेक्षा भी करता है। किसी भी समूह की सार्थकता सही मायने
में उसकी अगली गतिविधि में ही होती है। कारवां ने खुद ही बेंचमार्क इतना ऊंचा
स्थापित कर दिया है। अब उनकी खुद से ही स्पर्धा है।
- इस आयोजन में देशराज का दो बिन्दुओं से विचलन अलवर के
रंगकर्मियों को साफ नज़र आया। पहला - बिना टिकट से नाटक दिखाना। दूसरा -
नाटकों का समय पर शुरू न कर पाना। हालांकि मुफ्त में देखने से नया दर्शक भरी
मात्रा में जुड़ा है, लेकिन यहाँ ज़िक्र इसलिए है कि देशराज
का इस मूल्य पर ज़बरदस्त आग्रह रहा है। वीआईपी मेहमानों को बुलाना नाटक में
देरी की प्रसिद्ध वजह है, जिसे न चाहते हुए भी आवश्यक
बुराई के तौर पर स्वीकार किया जाता है।
इस लेख का आकार जरूरत से ज्यादा लंबा हो गया है। अंत में रंग संस्कार थियेटर
ग्रुप व कारवां फाउंडेशन व अलवर के नागरिकों को एक सफल आयोजन के लिए बधाई।
दलीप वैरागी
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरी नाट्यकला व लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
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