पिछले दिनों मैंने रंगायन डॉट कॉम पर ऑनलाइन प्रकाशित देवेंद्र राज अंकुर का साक्षात्कार पढ़ा। जिसका शीर्षक एनएसडी रोजी-रोटी की गारंटी नहीं दे सकता है । अंकुरजी NSD (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ) से हैं और उसके निदेशक भी रह चुके हैं और रंगजगत के सम्मानित व्यक्ति हैं। अंकुर जी ही यह बात बेहतर तरीके से कह सकते हैं। कोई भी संस्थान अगर ऐसा दावा करता है की वह रोजी रोटी की गारंटी देता है तो उसकी ईमानदारी पर शक करना चाहिए। बात यहीं तक हो तो ठीक है लेकिन अंकुर साहब इससे आगे जाकर एक भविष्यवाणी करते हैं –
“रंगमंच जैसी विधा कभी भी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती। यह बेहद अर्थ साध्य और सामूहिक कला है। नाटक और रंगमंच का पूरा इतिहास उठाकर देख लीजिए। यह भारत ही नहीं पश्चिम में भी बिना सरकारी या निजी सहायता के कभी आगे नहीं बढ़ पाया है। नाटक घर में तो बैठकर किया नहीं जा सकता। इसमें ऑडिटोरियम से लेकर कॉस्ट्यूम तक बहुत खर्च होता है। फिर नाटक को एक समय में एक ही जगह दिखाया जा सकता है। फिल्म तो एक बार बनने के बाद एक साथ लाखों जगह दिखाई जा सकती है। लेकिन नाटक में यह सुविधा नहीं होती। इसलिए नाटक का खर्च टिकट की बिक्री से नहीं निकाला जा सकता। ”
अंकुर साब की इस बात से असहमति जताने बाबत मैं यह ब्लॉग लिख रहा हूँ। ऐसा नहीं कि नाट्यविद्यालय से ऐसी बात पहली बार आई हो समय-समय पर वहाँ से इस तरह के बयान आते रहते हैं। आज से लगभग 10 साल पहले एनएसडी के ही एक वरिष्ठतम निर्देशक जयपुर में एक नाटक की कार्यशाला करने आए थे तब उनका भी ऐसा ही बयान दैनिक भास्कर में छपा था कि नाटक हमेशा सरकारी व निजी क्षेत्र की मदद पर निर्भर रहेगा। उस वक़्त हम कॉलेज में पढ़ रहे थे और इक्का-दुक्का नाटकों में काम करते हुए नाटक में अपने भविष्य के लिए बहुत आशावान थे। उस वक़्त भी मैंने पत्र लिख कर इस तरह निराशा न फैलाने की अर्ज़ की थी।
अंकुर जी जो इतिहास की बात करते हैं कि यह पूरी तरह सरकारी व निजी मदद के आगे नहीं बढ़ पाया है। यह कह कर अंकुर जी रंगमंच के इतिहास से पारसी रंगमंच के 80 साल निकाल बाहर करते हैं । वही पारसी रंगमंच जिसमे धनाढ्य पारसी व्यापारियों ने अपनी पूंजी लगाई और लोगों को प्रेक्षागृह मे खींचा और मनोरंजन भी किया । आप कैसे कह सकते है कि ये रंगमंच मदद के लिए निजी या सरकारी चौखट पर खड़ा हो सकता था? मदद और निवेश मे फर्क होता है। अंकुर जी कहते हैं कि इसके पैरों पर न खड़ा हो पाने के पीछे एक कारण यह है कि यह बहुत ही अर्थसाध्य कला है । इसमे वे ऑडिटोरियम, कॉस्टयूम इत्यादि के खर्चे गिनाते हैं। पारसी थियेटर पर इससे कहीं ज्यादा तामझाम होते थे। और आज अगर पारसी रंगमंच खत्म हुआ तो तो उसकी वजह भी उसमे ज्यादा पैसा ही रही, मंच शिल्प और साजोसमान पर अधिक ज़ोर व इसके साथ – साथ अभिनय में भी अतिरंजना। पर इसमे कोई दो राय नहीं कि भारत मे रंगमंच का एक दौर रहा जो अपने दम पर खड़ा हुआ । क्या अंकुर साहब नहीं जानते कि उनके एनएसडी (दिल्ली) के नाक के नीचे लगभग 1947 से आज तक पारसी रंगमंच हो रहा है। दिल्ली से केवल 150 किलोमीटर कि दूरी पर अलवर जैसे छोटे शहर में पारसी शैली का रंगमंच हर साल हजारों दर्शकों को अपनी तरफ खींचता है बाकायदा टिकट के साथ। यहाँ एनएसडी का कर्तव्य बनता है कि एक बार समीक्षा तो हो कि इस जगह पर यह अभी तक जीवित है तो क्यों और इससे आगे नहीं बढ़ा तो क्यों । दरअसल नाटक की दुर्दशा तो तब हुई जब हमने दर्शकों में मुफ्तखोरी की आदत डाल दी। कुछ दिन पहले फेसबुक पर पता चला कि पुराना किला में “अंधयुग” खेला गया और इसमे सप्ताह भर दर्शकों की भरमार रही। लेकिन इस नाटक के फ्री पास बांटे गए यह व्ज्ञपन भी फेसबुक पर था। क्या पूरी दिल्ली मे हज़ार डेढ़ हज़ार टिकटिया दर्शक हम पैदा नहीं कर पाए। नहीं ऐसा नहीं है। अगर टिकट भी होता तो लोग दोहरे होकर आते इस नाटक को देखने आते। जब इतना बड़ा सरकारी बजट हो तो फिर टिकट बेचने की जहमत कोन उठाए।
‘‘हिंदी क्षेत्र में बंगाल, महाराष्ट्र या दक्षिण भारत की तरह रंग दर्शक क्यों नहीं विकसित हो पाए?’ इस सवाल का जवाब देते हुए भी वे यह कहते हैं कि “हिंदी क्षेत्र राजनैतिक रूप से हमेशा अस्थिर रहा है। विदेशी आक्रमणकारी उत्तर भारत की ओर से ही आए। महाराष्ट्र, दक्षिण भारत और बंगाल अपेक्षाकृत काफी शांत रहे। ऐसे में वहां रंगमंच और दूसरी कलाओं के विकसित होने का ज्यादा मौका मिला। वहीं हिंदी क्षेत्र में दौड़ते-भागते गाने बजाने वाली कला ही विकसित हो पाई। यही वजह है कि सांस्कृतिक रूप से उस तरह विकसित ही नहीं हो पाया।”
अगर इस दलील पर गौर करें तो यह भी कम ही गले उतरती है। अगर ऐसा होता तो इस दृष्टि से सबसे अशांत तो यूरोप रहा है। वहाँ तो सदियों का रक्तरंजित इतिहास रहा है। वहाँ एक देश दूसरे पर हमला करता रहा है। सिकंदर...नेपोलियन...हिटलर...मुसोलिनी वहाँ हुए, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ वहाँ हुई, दो-दो विश्वयुद्ध उस धरती पर लड़े गए हैं फिर ग्रीक त्रासदियाँ, फिर शेक्सपियर का रंगमंच कैसे विकसित हो गया? शेक्सपियर ही नहीं पश्चिम और पूर्व के ज़्यादातर महान नाटकों के कथानक युद्धों और साज़िशों के ही कथानक हैं। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि गाना बजाना तो भागने-दौड़ने वाली काला है और नाटक जैसी दूसरी कलाएँ निठल्ले बैठने की कलाएँ हैं। जिस वक्त देश पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे उस वक़्त रासो जैसे काव्य लिखे जा रहे थे, अमीर खुसरो और सूफी-भक्ति काव्य लिखे जा रहे थे। इसके अलावा चित्रकलाएँ और दूसरी स्थापत्य कलाएं कैसे विकसित हो रही थीं । ये सब उत्तर भारत मे ही हो रहा था । क्या इन सबको भागने दौड़ने वाली कलाएँ ही कहा जाएगा।
दरअसल नाटक के अपने पैरों पर खड़ा न हो पाने के कारण वर्तमान में है और उसे इतिहास मे तलाशा जा रहा है। और इसके कारणों को इतिहास में प्रक्षेपित करके नियति मान यह आवाज कि “नाटक कभी अपने पैरो पर खड़ा नहीं हो सकता...” उस संस्था से आ रही है जहां नाटक “अंधयुग” अनेक बार खेला जाता रहा है। एनएसडी में “अंधायुग” का अपना इतिहास रहा है। उसी अंधयुग में एक पात्र वृद्ध याचक का संवाद है –
“जब कोई भी मनुष्य अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।
नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-
ये पंक्तियाँ एनएसडी के प्रत्येक व्यक्ति को याद होंगी लेकिन अफसोस कि वहाँ से एक भी ऐसा स्वर सुनाई नहीं देता जो नियति को चुनौती देने के लिए खड़ा हो । लेकिन जब अंकुर जी जैसा व्यक्ति ऐसा कहता है कि “रंग मंच अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता ... ” तो दूरस्थ क्षेत्रों मे रंगकर्म कर रहे उन युवाओं को अफसोस होता है जो रंगकर्म को उम्मीद की नज़र से देख रहे हैं।
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दलीप वैरागी
09928986983
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दलीप जी आपने बहुत ही सुन्दर और सरल तरीके से "नाटक क्यों नहीं खड़ा हो रहा अपने पैरों पर" को समझाने की कोशिश की है | सही है वर्तमान का भी विश्लेषण करना होगा तब शायद हम ठीक नतीजे पर पहुँच सकते है | आज विज्ञापन का जमाना है| आप कार्य को कितनी सुंदरता से दूसरे के सामने प्रस्तुत करते हो | आज नए तरीके से सामने आने वाले कार्य को हाथो-हाथ लेते है फिर नाटक को तो सभी पसंद करते हैं | ये तो हमारे बचपन से ही शुरू हो जाता है कहने का मतलब ये है कि दर्शकों की कमी नहीं हैं जरूरत है तो बस ये की न सरकार का मुहँ देखे ना किसी निजी संस्था की मदद का | लोग अच्छी चीज देखने ही जाते ही हैं |
ReplyDeleteबहुत खूब भाई ......तुने तो सीधे - सीधे बता दिया की ये कला किसी की मोहताज नहीं है ,और पैरो पर खड़ा होने का आशय अर्थ से कैसे जुड़ जाता है मुझे कभी समझ नहीं आता है ...तुमने जिस सादगी से इस कला के साथ अपने प्यार को दिखाया है अच्चा लगा..........और तुम्हे तो मैंने अपनी आँखों से इस कला के साथ बड़े होते और खड़े होते भी देखा है...
ReplyDeletedalip ji yah lekh bahut achcha hai esaa to nahin kahungaa . prantu fir bhi kuch samsyayen hain jo ankur ji ne bhi udai hai or aap ne bhi . mane bhi apna blog bana liya hai ......pradeep prasann ....ke naam se .
ReplyDeletedhnywaad
pradeep prasann