तब मैं 8-9 वी कक्षा मे पढ़ रहा था जब मुझे पहली बार मुझे किसी नाटक मे काम करने का मौका मिला। देखने का अवसर शायद उससे भी 4-5 साल पहले मिला होगा । ये सभी अनुभव मुझे गाँव में ही हुए । रूप-बसंत, हीर-रांझा, नल-दमयंती, सरवर-नीर, हरिश्चंद्र ये सभी दास्तानें मैं गाँव मे ही रंगमंच पर देख चुका था । गाँव के युवा एक टोली बनाकर साल मे एक दो एक शोकीया तरह का रंगमंच किया करते थे। मंचन के बाद तक उनके अभिनय की चर्चाएँ हुआ करती थीं। हम जो उस वक़्त किशोर थे, मन में इच्छा होती थी कि हमे भी किसी नाटक में अभिनय का मौका मिले। मौका मिला, रिहर्सलें शुरू हुई, शाम का घूमने का समय रिहासलो मे जाने लगा... तैयारियां ... उत्साह.... मस्ती ... 12-13 सौ आबादी वाला पूरा गाँव जुटा सिवा हमारे घरवालों के ...चूंकि घर की दीवार से जुडते हुए स्कूल मे ही रंगमंच बनाया जाता था। इसी स्कूल मे पिताजी दिन भर बच्चों को पढ़ते थे लेकिन नाटक देखने नहीं आए । दादा जी के आने का तो सवाल ही नहीं था... वो तो शादी मे ढ़ोल तक नहीं बजने देते थे, नाटक तो बहुत आगे की चीज़ थी। माँ ने शायद घर के छज्जे से देखा था। मंचन के बीच लोग पैसे भी देने लगे । चूंकि यह पेशेवर समूह नहीं था इसलिए लोगों से कहा गया कि अगर आपको देना है तो स्कूल के कमरे बनाने के लिए दें ... कोई ईंटों के लिए बोल रहा है, कोई पत्थरों, चुना बजरी... इत्यादि... इससे पहले प्रतिस्पर्धा ज्यादा बढ़े इसे भी तुरंत बंद किया गया । लोगों को खूब मज़ा आया। नाटक के अगले दिन ही नाटक का शास्त्र (समाज शास्त्र) समझ आने लगा। नाटक के दर्शकों की तो सराहना मिली लेकिन अपने घर से उतनी ही प्रताड़णा। सभी अभिनेताओं के साथ कमोबेश यही स्थिति थी। कुछ ही दिनों मे पड़ौस से दो तीन गांवों से भी मंचन के आमंत्रण भी आए लेकिन घर वालों ने सीमा रेखा खींच दी .... यह कैसे हो सकता है कि किसी कला माध्यम का प्रतिफल मंचन सम्माननीय हो लेकिन उसका कलाकर्म या कलाकर्मी को उतना ही हेय या तिरस्कार योग्य समझा जाता हो। उसके बाद नाटक से तो दूरी बन गई लेकिन बावजूद इन वर्जनाओं के नाटक के लिए प्रेम व रुचि बनी रही और साथ मे यह सवाल भी जिंदा रहा कि एक सशक्त कलकर्म के प्रति समाज का यह दोहरा रवैया क्यों है ?
यह तो गाँव की बात थी लेकिन जब आगे कॉलेज की पढ़ाई करने शहर गया तो यहाँ भी स्थिति कोई फर्क नहीं थी। जैसा की किशोर उम्र मे होता है जिस काम के लिए मनाही होती है वही चुनौती बन जाती है । शहर जाने पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी मे हस्तक्षेप ढीला होते ही थियेटर शुरू कर दिया । सबसे पहले कॉलेज में । यहाँ कोई दिक्कत नहीं थी ... खूब मान और प्रोत्साहन मिला । एक स्कूल-कॉलेज ही ऐसी जगह हैं जो नाटक के संस्कार को कुछ हद तक बच्चों मे डालते हैं और इस विधा को बचाए हुए हैं नहीं तो यह विधा भी विदा हो गई होती । कॉलेज के बाद जब शहर मे मुख्य धारा का रंगमंच शुरू किया तो यहाँ भी स्थितिया कुछ अलग नहीं थी । सबसे बड़ी मुश्किल तो साथी actor मिलने की होती है। एक औसत शहर मे नाटक करने के लिए 10-12 लोग जुटाना बहुत बड़ी चुनौती है। महिलाओं का आना तो असंभव सा दिखता है। एक बार की घटना है मैं एक जगह पर अपनी टीम के साथ नुक्कड़ नाटक कर रहा था । वहीं पर एक कॉलेज के समय का मित्र मिला। नाटक के बाद हमसे मिला मंचन की तारीफ की। साथ मे चाय पी और बातों ही बातों मे कहा “ दलीप भाई कोई काम क्यूँ नहीं करते... मैं एक दो अच्छे स्कूलों को जनता हूँ ... ठीक पैसे दे देंगे ...।" लोग यह बात समझने को तैयार ही नहीं थे कि मैं नाटक में ठीक-ठीक आजीविका कमा रहा था और मेरे साथ मेरे समूह के भी 5-7 लड़कों को रोजगार मिला हुआ था। लेकिन लोग आज इक्कीसवीं सदी में भी नाटक को सम्मानजनक रोजगार के रूप मे नहीं देखते हैं। सम्मानजनक ही नहीं लोग तो इसको काम ही नहीं मानते। ढाई-तीन घंटे का नाटक देखने के बाद मंच के पीछे आकार मिलने वालों मे ऐसे लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी होती है जो यह कहते हैं, “अच्छा अभिनय करते हैं... वैसे आप काम क्या करते हैं?”
ऐसी स्थिति दूसरे कला माध्यमों के साथ नहीं है। यों तो सभी कलाओं का उद्देश्य लोकरंजन करना होता है लेकिन एक हेतु है जो नाट्य कला को अन्य कला रूपों से अलग करता है, वह है लोक शिक्षण की भूमिका । इसकी यही लोक शिक्षण की भूमिका ही इसकी स्थिति के लिए जिम्मेदार है। ऐसा हर युग मे होता रहा है कि शिक्षा व्यवस्था को राज सत्ता या शक्ति सम्पन्न वर्ग ने अपने नियंत्रण मे रखा है। प्राचीन काल मे शिक्षा राजाओं के नियंत्रण मे रही और वर्तमान मे यह सरकार और पूँजीपतियों के आश्रय पर है । हर काल मे इन वर्गों का हित इसी मे था कि यह कभी वंचित या शोषित तक नहीं पहुँच पाए । यूं तो सभी कलाएं कमोबेश लोक शिक्षण का काम करती हैं लेकिन नाट्य कला की उत्पत्ति का मुख्य उद्देश्य शिक्षण ही माना है।
नाट्य शास्त्र की उत्पत्ति के पीछे एक कथा प्रचलित है कि नाट्य शास्त्र के लिखे जाने से पहले चारों वेद ही ज्ञान का स्रोत व शिक्षण का माध्यम रहे हैं... जब ब्रह्मा ने देखा कि समाज के एक बड़े तबके के लिए वेदाध्ययन वर्जित कर दिया गया था, जिनमे स्त्रियाँ और शूद्र थे। लगभग समाज की आधे से ज्यादा आबादी शिक्षा प्रक्रिया से काट दी गई थी। दलित और वंचित वर्गों को भी शिक्षित किया जा सके इसके लिए ब्रह्मा ने पांचवे वेद की रचना करने का काम भरत मुनि को सोंपा। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र के रूप में पांचवें वेद की रचना की।
भरत मुनि और उसके सौ पुत्रों ने नाटक का अभ्यास शुरू किया। नाट्य शास्त्र के चौथे अध्याय मे भरत मुनि ने बताया कि उन्होने नाट्यवेद का प्रयोग करते हुए दो नाटक तैयार किए एक 'अमृत-मंथन' और दूसरा 'त्रिपुरदाह'। दोनों नाटकों को देखकर देवता बहुत खुश हुए। देवलोक और पृथ्वी पर नाट्यवेद की धूम मच गई कि इसका प्रयोग बहुत अच्छा हो रहा है। देवताओं का खुश होना जरूरी है। पहले देवलोक मे जब नाटकों के मंचन होते थे तो कथानक शास्त्र आधारित होते थे । जिनमें देवताओं और असुरों के युद्धों पर आधारित कथानक होते थे। लेकिन नाटक का अवतरण जब धरती पर हुआ तो भरत मुनि के शिष्यों ने मनचाहे प्रयोग करने शुरू कर दिये । यह छूट भरत मुनि ने अपने अभिनेताओ को दे रखी थी कि वे अपने मन से प्रयोग कर सकते हैं। राधावल्ल्भ त्रिपाठी , अपने लेख मे नाट्य शस्त्र की व्याख्या करते हुए बताते हैं ...
“ भरत मुनि ने नाट्य के तीन मापदंड बताए हैं – लोक, वेद(शास्त्र) और अध्यात्म यानि अभिनेता की अपनी चेतना । भरत मुनि ने अभिनेता को बार-बार चेताया है कि जो शास्त्र से पता न चले तो उसे लोक यानि आस-पास की दुनिया से समझे और जो लोक और शास्त्र दोनों से समझ मे न आए उसे अपनी स्वयं की चेतना से समझे..”
– राधवाल्ल्भ त्रिपाठी, ‘भरतमुनि के बारे मे’ (रंग मंच के सिद्धान्त)
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भरत के शिष्य लोक कथनक आधारित ऐसे प्रहसन दिखाने लगे जिनमे ऋषियों पर व्यंग्य प्रहार होते थे। दरअसल अब नाटक लोक शिक्षण की सही भूमिका मे आया था। जिसमे उन्होने अपने आस-पास की चीजों को और अपने अनुभवों को शामिल करना शुरू कर दिया। सवाल उठाना शुरू कर दिया । ये प्रयोग देखकर ऋषिगण क्रोधित हो गए और उन्होने श्राप दिया -
“ हे द्विजों, क्या तुम लोगों के लिए हमारी इस तरह विडम्बना दिखाना और परिहास उचित था? यह हमे स्वीकार नहीं। जाओ तुम लोगों का ज्ञान नष्ट हो जाएगा, तुम लोग व्रत और होम से रहित होकर हो जाओगे। तुम लोगों का वंश अपवित्र होगा।”
जैसा की ऋषियों के श्राप में होता है की उनके शाप का अक्षरश: पालन होता है। भरत मुनि के सौ पुत्र एक शाप से शूद्र से भी शूद्रतम हो गए। एक बार फिर आम जनता के शिक्षण के माध्यम को जनता से काटने का काम कर डाला गया। नाटक के लोक शिक्षण का माध्यम बनने के लिए यह जरूरी था कि लोग इससे जुड़ें और अपने अनुभवों को नाटक के माध्यम से साझा करके ज्ञान के निर्माण और सार्वजनीनकरण में अपनी भूमिका अदा करें। ज्ञान सृजन की इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया गया। इस तरह नाट्यकर्म एक जाति तक ही सीमित हो गया। इनको गाँव या शहर मे रहने की इजाज़त नहीं थी। रहना तो दूर गाँव में घुसने की भी आज़ादी नहीं थी। शूद्र वर्ण मे आने वाली जतियों की भी बसावट यों तो गाँव की परिधि पर होती थी लेकिन नक्शे से बाहर नहीं थी । क्योंकि इन जतियों का गाँव की अर्थ व्यवस्था में बहुत योगदान था । इसलिए इनका गाँव मे रहना अपरिहार्य था । जबकि भरतमुनि के वंशज जो कालांतर में नट और कंजर(जो नाट्य कर्म करते रहे) उन्हे जरायम पेशा (अपराधी जाति) माना गया । गाँव या शहर में दिखते ही इन्हे गिरफ्तार कर लिया जाता था। जरायम पेशा जातियों के बारे मे अधिक जानने के लिए उपन्यास, कब तक पुकारूँ (रांगेय राघव) तथा अल्मा कबूतरी (मैत्रेयी पुष्पा) को देख सकते हैं। अभिनेता की दुनिया दर्शक की दुनिया से ज़ुदा हो गई। पीड़ाएँ अलग हो गईं, सरोकार अलग हो गए। जहां से एक कलाकार का अनुभव संसार समृद्ध होता है वह है समाज से सहचर्य और संगति और वहीं से उसे भावनात्मक ऊष्मा मिलती है, वह स्रोत रोक दिया गया । दोनों के सच अलग हो गए। उद्देश्य लोक शिक्षण से हट कर मनोरंजन हो गया। इस तरह के रंगमंच के पनपने की सबसे सही जगह थी राजदरबार। राज सभाओं मे वही पुराने आख्यानक मंचित होने लगे। इन नाटको के कथानक तो पौराणिक होते थे लेकिन परोक्ष रूप से राज कुलों को ही महिमामंडित किया जाता रहा। इस किस्म के कथानकों से शासक वर्ग आसानी से तदात्मय कर लेना आसान था। जनता इससे कटती चली गई। वहीं से शुरुआत होती है एक तरह के शासक वर्ग के आश्रय पर चलने वाले रंगमंच की । इसके प्राचीन प्रमाण बाणभट्ट के नाट्यकर्म मे मिलते हैं । बाणभट्ट अपने लिखे नाटकों को हर्ष के नाम से मंचित किया करते थे ।
... कालिदास के कदमो पर चल कर बाण सिर्फ खुशामदी कवि ही बना रहा... खुद के लिखे नाटकों नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शी को हर्ष के नाम से मंचित किया... हर्ष चरित्र की रचना भी खुशामदी के लिए की... कादम्बरी मे भी जो राजदरबार, रनिवास प्रासाद आदि के वर्णन भी अतिशयोक्ति पूर्ण किया है... - राहुल सांकृत्यायन , दुर्मुख (वोल्गा से गंगा) |
इसके पश्चात रंग मंच राजश्र्य से कभी मुक्त नहीं हो पाया । अपनी शिक्षण की भूमिका मे लौटने की जद्दोजहद हमेशा रही। कई उत्थान आए । पारसी रंगमंडलिया, भारतेन्दु युग का रंगमंच जो इसको मुक्त करके असली एजेंडे की तरफ लाने के प्रयास हैं । या फिर आजादी के बाद रगमंच का सफदर नुक्कड़ के माध्यम से प्रयास होते हैं जो उनको शहादत की कीमत पर होते है। या अब देखने मे आता है की समकालीन रगमंच मे भी अरविंद गौड़ जैसे व्यक्ति की टीम के कलाकारों को इस लिए आतंकी समझ कर गिरफ्तार कर लिया जाता है कि उन्होने काले कपड़े पहन रखे हैं । इसकी सिर्फ एक वजह है कि वो एक ऐसे रंगमंच की तरफ अग्रसर हैं जो सरकारी अकादेमियों के रहमो कर्म पर नहीं चलता।
अपने उद्भव से लेकर आज तक रंगमंच मे कई उत्थान-पतन आए। नाटक लिखे भी गए। नाटक मंडलियाँ भी बनी। नाटक कि बेहतरी के लिए अकादमियां भी बनी, बजट भी बने। लेकिन नाटक लोक शिक्षण की भूमिका में नहीं आ सका। एक चीज़ जो तब से लेकर आज तक बिलकुल नहीं बदली वह है रंगकर्मी और रंगकर्म के बारे में समाज का रवैया । रगकर्म के प्रोफेशन को आज भी सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया है। इसकी कील भी वही ठुकी हुई है जहां हमारी चेतना मे वर्ण व्यवस्था की ठुकी हुई है।
क्योंकि गरीब दलित या वंचित की शिक्षा को यहाँ हाशिये पर रखने की साजिश हर युग मे होती रही है। चाहे वह नाटक के माध्यम से शिक्षा हो या किसी और माध्यम से । वर्तमान में भारत मे प्राथमिक शिक्षा की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। अभी एक रिसर्च के सिलसिले मे देखा कि कक्षा 6-7 तक ऐसे लड़के लड़कियां पहुँच जाते है जिनको अभी शब्द पढ़ने नहीं आते गणित की जोड़-बाकी बुनियादी गणनाएँ नहीं कर पाते हैं। ये सभी बच्चे सरकारी स्कूलों से हैं। वही सरकारी स्कूल जिनके लिए पिछले 10 सालों से हजारों करोड़ के हर साल बजट का सर्व शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है। और पिछले दो साल से शिक्षा का अधिकार अधिनियम चल रहा है लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात है। यह सिर्फ इस लिए है कि इन स्कूलों में गरीब के बच्चे पढ़ते हैं। और गरीब की शिक्षा हमेशा कुछ लोगों के लिए खतरा बन जाती है।
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दलीप वैरागी
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