क्या अभिनय किसी स्कूल में सिखाया जा सकता है ? अविनाश के इस सवाल ने सोने नहीं दिया | ५ - ६ साल बाद फिर इन बातों पर सोचने के लिए विवश कर दिया | अविनाश हमारे उन थियेटर के साथियों में से हैं जो शुरू से साथ रहे हैं | हर रिहर्सल पर समय से पहुंचना | कभी छोटी बड़ी जिम्मेदारी के लिए मना नहीं किया | आज हम जो उस वक्त अगुआई कर रहे थे और ५ - ६ सालों से चुप लगाये बैठे है और अविनाश अब भी सवालों की आग धधकाए हुए है | यह बड़ी बात है | दोस्त, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर लंबी चर्चा हो सकती है और होती भी आयी है | लेकिन यह सवाल मुर्गी और अंडे वाले सवाल की तरह अनुत्तरित ही रह जाता है | अभिनय का संस्कार हर इंसान में पैदाइशी रूप में होता है | इसके सबूत के तौर पर आप छोटे बच्चों को सूक्ष्मता से देखें जब वे अपने हमउम्रों के साथ खेल रहे होते हैं या फिर वे जब अकेले होते हैं और बैठ कर दिन भर में लोगों से हुई बातचीत को रिफ्लेक्ट करते हैं | उन संवादों को वे उन्ही चरित्रों की शैली में अभिनय पूर्ण तरीके से व्यक्त करते हैं | चाहे वह टीचर की डाँट हो या मम्मी की हिदायतें "मैगी खाना बुरी बात , दूध पीना अच्छी बात " ऐसे ही संवादों को बच्चे अकेले बैठे सैकड़ों बार दोहराते हैं | दरअसल इस सारी प्रक्रिया में वे भाषा सीख रहे होते हैं | अगर यह कहा जाये कि बचपन में नाटक भाषा सीखने का माध्यम होता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी | अभिनय भाषा सीखने में अपरिहार्य है | अभिनय के द्वारा ही ये बच्चे रिश्तों की परिभाषाओं को समझते हैं | उनके खेलों का विषय अकसर टीचर स्टूडेंट के रिश्ते , माता - पिता के रिश्ते या फिर शादी या मौत जैसी पास-पडौस में घटने वाली घटनाएँ होती हैं |
अब सवाल यह है कि अगर अभिनय जन्मजात है तो फिर अकादमियों और स्कूलों की क्या जरूरत है | दरअसल अपने सही माने में दोनों ही अपनी महत्व खो चुके हैं फिर चाहे वे अभिनय के स्कूल हो या औपचारिक शिक्षा देने वाले स्कूल | आज वर्तमान शिक्षा व्यवस्थ से निकलने वाला विद्यार्थी भारत - अमेरिका के सम्बन्धों पर तो विश्लेष्णात्मक सुझाव दे सकता है लेकिन उसे यह बिलकुल समझ में नहीं आता कि उसे उपने माता - पिता या पत्नी के रिश्तों को कैसे संभालना है | हर बार 95 प्रतिशत अंक लेने वाले विद्यार्थी के जब 90 प्रतिशत मार्क्स आते हैं तो वह आत्म हत्या कर लेता है | तो बताओ क्या शिक्षा हो रही है ? शिक्षा जिंदगी की यथार्थ चुनौतियों का सामना करने में कोई मदद नहीं करती है | केवल यह व्यवस्था कुछ अटकलबाजियां सिखा देती जिसके द्वारा हजारों को पीछे धकेल कर कोई जना नौकरी पा जाता है | अभिनय स्कूल भी ठीक इसी तरह विद्यार्थी को सहयोगी कलाओं और और बाहरी नजर आने वाले मंच शिल्पों से भली भांति परिचित कराते हैं जो एक तरह से जरूरी हो सकते हैं | स्कूल हमें अभी तक जो संचित ज्ञान है उससे साक्षात्कार कराते हैं | लेकिन अभिनय के सूखे को खत्म करने के लिए कोई बाह्य उपक्रम काम नहीं आता है | जैसे व्याकरण पढ़ कर कोई भाषा नहीं सीख सकता वैसे ही स्कूल में अभिनय सिद्धांत पढ़ कर कोई अच्छा अभिनेता नहीं बन सकता है | अभिनय की यात्रा अंदर की यात्रा है | यह दूसरे के सुख दुःख से स्वानुभूति के स्तर पर अपने सुख दुःख को मिला कर एकात्म होने की अवस्था है | इसमें कोई बाह्य आडम्बर काम नहीं आता | यह तो खुद के अनुभवों के जमाखर्च विश्लेषण करने से ही संभव है | जो यह कर सकता है वही सहृदय बन सकता है | सहृदय बने बिना कोई अभिनेता नहीं बन सकता है | और सहृदय बनने के लिए वही जद्दोजहद चाहिए जो एक इंसान बनने के लिए होती है | आज नजर यह आ रहा है कि इंसान बनाना किसी भी स्कूल के एजेंडा में नहीं है | एक्टर बनने की पहली शर्त इंसान होना है चाहे वह स्कूल के बाहर बने या भीतर | जिस दिन इंसान पैदा करना हर स्कूल के एजेंडा में शामिल होगा और उस और कोशिश की जायेगी तब नसीरुद्दीन, ओम पुरी और अनुपम सरीखे लोग एन.एस.डी. या एफ.टी.आई. से नहीं किसी आम सरकारी स्कूल से निकलेंगे |
अब सवाल यह है कि अगर अभिनय जन्मजात है तो फिर अकादमियों और स्कूलों की क्या जरूरत है | दरअसल अपने सही माने में दोनों ही अपनी महत्व खो चुके हैं फिर चाहे वे अभिनय के स्कूल हो या औपचारिक शिक्षा देने वाले स्कूल | आज वर्तमान शिक्षा व्यवस्थ से निकलने वाला विद्यार्थी भारत - अमेरिका के सम्बन्धों पर तो विश्लेष्णात्मक सुझाव दे सकता है लेकिन उसे यह बिलकुल समझ में नहीं आता कि उसे उपने माता - पिता या पत्नी के रिश्तों को कैसे संभालना है | हर बार 95 प्रतिशत अंक लेने वाले विद्यार्थी के जब 90 प्रतिशत मार्क्स आते हैं तो वह आत्म हत्या कर लेता है | तो बताओ क्या शिक्षा हो रही है ? शिक्षा जिंदगी की यथार्थ चुनौतियों का सामना करने में कोई मदद नहीं करती है | केवल यह व्यवस्था कुछ अटकलबाजियां सिखा देती जिसके द्वारा हजारों को पीछे धकेल कर कोई जना नौकरी पा जाता है | अभिनय स्कूल भी ठीक इसी तरह विद्यार्थी को सहयोगी कलाओं और और बाहरी नजर आने वाले मंच शिल्पों से भली भांति परिचित कराते हैं जो एक तरह से जरूरी हो सकते हैं | स्कूल हमें अभी तक जो संचित ज्ञान है उससे साक्षात्कार कराते हैं | लेकिन अभिनय के सूखे को खत्म करने के लिए कोई बाह्य उपक्रम काम नहीं आता है | जैसे व्याकरण पढ़ कर कोई भाषा नहीं सीख सकता वैसे ही स्कूल में अभिनय सिद्धांत पढ़ कर कोई अच्छा अभिनेता नहीं बन सकता है | अभिनय की यात्रा अंदर की यात्रा है | यह दूसरे के सुख दुःख से स्वानुभूति के स्तर पर अपने सुख दुःख को मिला कर एकात्म होने की अवस्था है | इसमें कोई बाह्य आडम्बर काम नहीं आता | यह तो खुद के अनुभवों के जमाखर्च विश्लेषण करने से ही संभव है | जो यह कर सकता है वही सहृदय बन सकता है | सहृदय बने बिना कोई अभिनेता नहीं बन सकता है | और सहृदय बनने के लिए वही जद्दोजहद चाहिए जो एक इंसान बनने के लिए होती है | आज नजर यह आ रहा है कि इंसान बनाना किसी भी स्कूल के एजेंडा में नहीं है | एक्टर बनने की पहली शर्त इंसान होना है चाहे वह स्कूल के बाहर बने या भीतर | जिस दिन इंसान पैदा करना हर स्कूल के एजेंडा में शामिल होगा और उस और कोशिश की जायेगी तब नसीरुद्दीन, ओम पुरी और अनुपम सरीखे लोग एन.एस.डी. या एफ.टी.आई. से नहीं किसी आम सरकारी स्कूल से निकलेंगे |
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दलीप वैरागी
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