Monday, August 15, 2011

एक रोडवेज कंडेक्टर की अन्नागिरी

anna hazare भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत lokpal bill के लिए आंदोलन कर रहे है। पूरा देश अन्ना का समर्थन कर रहा है। हमारा समर्थन भी उनके साथ है। लेकिन हम ज़िंदगी भर किसी अन्ना  का इंतजार क्यो करते है। जबकि रोज़मर्रा की जिंदगी मे अन्ना बनने के मौके आते रहते हैं। वो सही समय होता है अन्नागिरी दिखाने का। जैसा उस रोडवेज के कंडक्टर ने दिखाई। यह लेख मैंने अप्रेल 11 को अपने दूसरे ब्लॉग बतकही पर लिखा था। 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस के अवसर पर मैंने डैशबोर्ड के आर्काइव से निकाल कर फिर पोस्ट किया है।
यह सर्दियों की एक शाम थी |मैं राजस्थान रोडवेज की लो फ्लोर बस से सिंधी कैंप जा रहा था | बस लगभग भरी हुई थी | रस्ते में रामबाग सर्किल से एक पुलिस वाला बस में चढ़ा | यहाँ राजस्थान में यह आम बात है कि पुलिसवाले बिना टिकट ही यात्रा करते हैं | यह बात इतनी आम है कि कंडक्टर भी उनसे टिकट नहीं मांगते हैं | कंडक्टर गैलरी में टिकट काट रहा था और मैं सोच रहा था कि कंडेक्टर आगे बढ़ जायेगा | कंडेक्टर ने ये क्या कर दिया " टिकट प्लीज़ ' पुलिसवाले से टिकट मांग लिया ! बकायदा | पुलिस वाले ने अनदेखा कर दिया | हमने सोचा कंडेक्टर अब समझ गया होगा कि इन तिलों में तेल नहीं है | कंडेक्टर २५ साल का युवक , शायद दो महीने पहले ही नौकरी लगी हो |क्यों कि सरकार ने दो महीने पहले ही लो फ्लोर चलाई थीं | कंडेक्टर ने फिर कहा " मैं आपसे कह रहा हू साहब| " "हमारा टिकट नहीं लगता |" पुलिसवाले ने अधिकारपूर्ण लहजे में कहा | "बस में बैठे हो तो टिकट लो " कंडेक्टर ने जिद पकड़ ली | पुलिसवाला बोला ," तुम ऐसा करो कि अपने मैनेजर से कहो कि वो हमारे बड़े साब से बात करे तब हम टिकट ले लेंगे " कंडेक्टर की आवाज़ में गर्मी आ गयी ,"न मैं तम्हे जनता हू और न तुम्हारे बड़े साब को मैं तो यह जनता हूँ कि मेरी ड्यूटी क्या है ; तूम टिकट लेटे हो कि नहीं?" पुलिसवाले ने धोंस जमाई, " तम्हें नहीं पता तुम क्या कर रहे हो ?" कंडेक्टर बोला " यह.... मेरा नाम है , यह...... मेरा मोबइल नम्बर है और सांगानेर में रहता हूँ , तुम्हे जो करना है कर लेना फ़िलहाल बस से नीचे उतरो " ड्राइवर को कह कर बस रुकवा दी |शायद पुलिसवाला इस बात की उम्मीद नहीं कर रहा था | इतने में बाकी लोगों का भी कर्तव्यबोध जागा और अब कंडेक्टर की आवाज अकेली नहीं थी | बाकी का काम लोगों ने कर दिया और ठेलते हुए सिपाही को निकास द्वार के ठीक सामने ला दिया | अब उतरना लाजमी था | उस वक़्त उस कंडेक्टर के काम से मैं अपने को बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा था |आज जब मै भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे कि मुहीम को देख रहा हू तो उस कंडेक्टर के लिए मेरे दिल में इज्जत और बढ़ गई है | अन्ना जहाँ देश को रीढ़ से दुरुस्त करने में लगे है वही यह युवक सबसे नीचे कि कड़ी को ठीक करने में लगा है| मुझे वह अन्ना का भविष्य का संस्करण लग रहा है |

पड़ौसी की आग से बीड़ी और चूल्हा तो जल सकते हैं लेकिन लट्टू नहीं...

दुष्यंत कुमार की मशहूर लाइनें हैं -
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में,
रोशनी वो गाँव तक पहुंचेगी कितने साल में ?
आजादी के 64 साल बाद भी 'रोशनी' बहुत सारे लोगों के लिए मरीचिका बनी हुई है।  दुष्यंत जी अपनी कविता मे रोशनी गाँव तक ही पहुँचने की  बात कर रहे हैं। क्योंकि वो जानते थे कि भारत की संस्कृति में अगर रोशनी गाँव तक पहुँच जाती है तो लोग पड़ौसी के चिराग से अपने घर का चिराग रोशन कर लेते हैं । शायद इसीलिए गुलज़ार साहब कंपकपाती सर्दी में 'पड़ौसी का लिहाफ़' मांगने की बात अपने गाने में कहते हैं ओर न बात बने तो ' पड़ौसी के चूल्हे  की आग लई ले ... ' यह बात सोलह आने दुरुस्त है कि पड़ौसी की आग से बीड़ी भी सुलगाई जा सकती है और चूल्हा भी । लेकिन पड़ौसी की बिजली से अपने घर का लट्टू नहीं टिमटिमाया जा सकता है । ऐसा करना भारतीय दंड संहिता मे जुर्म है । लट्टू जलाने के लिए घर के बाहर खंभा ओर भीतर मीटर लगाना होगा। 
मुझे लगता है कि दुष्यंत जी व गुलजार साहब अपने गीतों मे जिन गांवों का जिक्र करते हैं उनकी अवधारणा मे कहीं यूपी या हरियाणा के गाँव हैं। वो गाँव जहां 100-200 घरों की बसावट एक जगह पर होती है। दो घरों के बीच मे एक दीवार होती है । वही दीवार जिसके 'कान होते हैं', हाथ और ज़बान भी होती है।  दरअसल इस भूमिका के मध्यम से मैं देश के उन गांवो की बात करना चाहता हूँ जो न तो कविता में मे ही आ पाते है और नहीं विकास  धारा मे ही फिट बैठ पाते हैं ।  
पिछले महीने राजस्थान के जोधपुर जिले के फलोदी क्षेत्र को देखने का अवसर मिला। यहाँ किशोरों, बच्चों, बड़ों सबसे मिला। शहर, सड़क, खेत, टीले सब देखे लेकिन गाँव कहीं दिखाई नहीं दिया। यहाँ गाँव आपको कागजों सरकारी रिकॉर्ड ओर नक्शों मे तो मिल जाएगा लेकिन हक़ीक़त मे वहाँ जाएंगे तो गाँव कहीं नहीं हैं। यहाँ आपको धोरों के बीच मे एक घर मिलेगा और इस घर के चारो तरफ अंतहीन-सा क्षितिज ही दिखाई देता है । अगर आपको कोई दूसरा घर देखना है तो 3-4 किलोमीटर चलना होगा। इस तरह की बसावट के साथ आपको वहाँ 12-13 किलोमीटर रेडियस के गाँव मिलेंगे। जितनी दूरी तय करके यहाँ एक गाँव को देखा जा सकता उतनी या उससे कम दूरी तय करके हमारे यहाँ किसी भी विकास खंड कि सीमांत से चल कर विकास खंड मुख्यालय तक पहुंचा जा सकता है। इन ज़्यादातर गांवो में आज़ादी के 64 साल बाद भी बिजली नहीं है। पानी भी नहीं । क्योंकि सरकार का गाँव मे बिजली लगाने का एक तरीका है कि गाँव मे एक खंभा गाड़ो और उसके पास के 5-6 घरों मे उसी से तार डाल दो ।   10-12 खंभे लगाओ और हो गया पूरे गाँव का विद्युतीकरण । लेकिन वहाँ कैसे हो पाएगा जहां गाँव नाम की कोई अवधारणा ही नहीं है ? जहां सबसे पड़ौस का घर 2 या 3 किलोमीटर दूरी पर है । यहाँ प्रत्येक घर को बिजली देने के लिए 20-25 खंभों की ज़रूरत होगी । इन घरों को बिजली देने के लिए 25 खंभे देने की सरकार की क्या तैयारी है ? जबकि सरकार अपने बिजली महकमे को प्राइवेट लिमिटेड बना चुकी है। पानी  का नल इन घरों तक पहुंचाना तो वहाँ भागीरथ ही कर सकता है । खैर यहाँ पानी का प्रबंधन नायाब है । पानी का इस्तेमाल की यहाँ के लोगों को जबर्दस्त तमीज़ है । वर्षा के पानी को वर्ष भर कैसे चलाना है, ये लोग अच्छी तरह जानते हैं ।
अब देखिए हमारे यहाँ विकास के क्षेत्र मे कुछ वाक्य बहू प्रचलित हैं । "प्रत्येक गाँव मे एक किलोमीटर पर एक स्कूल होना चाहिए। " " प्रत्येक गाँव मे अस्पताल होना चाहिए..." "अपने गाँव की ग्राम सभा मे हर ग्रामीण को भाग लेना चाहिए..."  अब आप ही बताइए इन वाक्यों के इस क्षेत्र के संदर्भ मे क्या माने रह जाते हैं ?  वाक्य सार्थक हो सकते हैं अगर गाँव की जगह घर शब्द का प्रयोग किया जाए।
आज़ादी के बाद विकास के जिस मॉडल को अपनाया गया खामी उसी मे है । इस मॉडल मे यूनिट ऑफ परसेप्श्न गाँव है। सारी विकास की योजनाएँ गाँव को इकाई मान कर बनाई जाती हैं। जो यहाँ आकर फेल हो जाती हैं । क्योंकि नीति निर्धारक दिल्ली में बैठ कर गाँव के जिस चेहरे को देखते हैं दरअसल वो यहाँ है ही नहीं । अगर वास्तव मे विकास को इस क्षेत्र तक पहुंचाना है तो देखने की इकाई को बदलना होगा । इकाई को गाँव की जगह परिवार या व्यक्ति को करना होगा । यह कोई नई अवधारणा नहीं है । गांधी जी तो यही कहते थे कि जब भी कोई नीति बनाओ उस आखिरी आदमी के चेहरे को देख लो ।    

Wednesday, August 10, 2011

एक बातचीत

आज अपने पुराने और सीनियर साथी ओमपाल डुमोलिया से facebook पर चैट की ।  दरअसल ओमपाल जी ने मेरे पिछले ब्लॉग पोस्ट भाषा शिक्षण और विज्ञान  पर टिप्पणी करके अपनी राय दी थी। सारा वार्तालाप इसी के इर्द गिर्द है। मैं सारे वार्तालाप को यही कॉपी करके ज्यों का त्यों पेस्ट कर रहा हूँ। इस वार्तालाप से यह नया विमर्श खुल रहा है । दोस्त लोग अपनी बात से इसे आगे बढ़ा सकते हैं। ओमपाल जी की टिप्पणी इस प्रकार है -
Ompal Dumoliya lekhak shahb lekh bhut hi accha h is trah ke lekhon se pdhne walon ke chkshu kulenge.do baat khna chahta hoon - treeka koi bhi ho skta h yadi kaam kiya jaye, dusri baat bhasha to sandrbh me sekhne ki baat bhi krte h is pr bhi thoda vichar krke baat me kuch jodo bhai taaki hum jaise logon ko bhi nya anubhav mil skega
 ओमपाल डुमोलिया kya haal h bhai
 दलीप वैरागी अच्छा है आप कैसे हैं?
ओमपाल डुमोलिया fine… tu accha likhata h. hame bhi sikha de yaar
दलीप वैरागी कोशिश करता हूँ।  आप लोगों से ही सीखा है ?
ओमपाल डुमोलियाye to bekaar ki baat hai teri mehnat ne yaha tak pahuchaya hai।
दलीप वैरागी ये सब एल लंबे सिलसिले का परिणाम है जो 1994 से 2/519 अरावली विहार अलवर से शुरू हुआ था । जिसका आप सब महत्वपूर्ण हिस्सा हो ।
अभी तो मैं अजमेर हूँ।
ओमपाल डुमोलियाok jab aaye tb batana phon NO 9413688925
दलीप वैरागी मेरा नंबर 9928986983
दलीप वैरागी मैंने मेरे ब्लॉग पोस्ट पर  आपकी टिप्पणी पढ़ी है। आप भाषा को किस संदर्भ मे सीखने की बात कह रहे हैं?
ओमपाल डुमोलियाshabd pddhti vआ sandarbh pddhti me kuch fark hai ya nahi ?
दलीप वैरागी मुझे तो नहीं लगता है ।
ओमपाल डुमोलियाkahani se va shabd se seekhna samaan hai ?
दलीप वैरागी वैसे मैं पहली बार संदर्भ पद्धति के बारे सुन रहा हूँ ? इससे पहले मैंने शैक्षणिक डिसकोर्स मे यह नाम नहीं सुना।
ओमपाल डुमोलिया 'sona' ka arth kya hai ?  gold ya sleep ya kisi ka naam
 दलीप वैरागी 'सोना' के दोनों तीनों अर्थ तो बहुत contrast है । लेकिन एक  ही शब्द जिसका मतलब same सा दिखाई देता है उसके भी संदर्भ गहराई से अलग हो सकते हैं । जैसे 'भूख' शब्द का मतलब एक गरीब व्यक्ति जिसको मुश्किल से दो वक़्त का खाना मिलता  और होगा तथा   डोमिनो या पिज्जा हट मे बैठ कर पिज्जा के लिए बेकरार अमीर के लिए अलग मतलब होगा । 
 ओमपाल डुमोलियाtumne sahi samjha hai ye hi to sandrbh hai. shabd se jyada arth pure vakya me hota hai .
दलीप वैरागी  संदर्भ के बिना शब्द निरा जग का जंजाल है । शब्द अपने आप मे कुछ नहीं होता है। शब्द तिजोरी में रखे सोना या जवाहरात हैं जिंका अपना मुली भी होता है और चमक भी होती है लेकिन उसकी सार्थकता आभूषण में जड़ कर धारण करने में ही होती है।  
ओमपाल डुमोलियाsandarbh shabd hai ya vakya bas yhi mera matlab tha jo tumne kah diya .
दलीप वैरागी  वाक्य भी अधूरा है । पूर्णता तो कहने वाले के आशय को स्पष्ट कर देने वाली उक्ति मे है । वह अनुच्छेद, वाक्य, शब्द या फिर कोई संकेत भर  भी हो सकती है ।
ओमपाल डुमोलियाisliye mai khani ki baat kar raha hun.
 दलीप वैरागी आप सही कह रहे हैं। लेकिन सिर्फ कहानी कह देने से हम कहीं दूसरी विधाओं को नज़रअंदाज़ कर देते हुए लगते हैं । कई बार हमारी विषय वस्तु उनके लोक गीत, ओर उनकी तुकबंदियाँ भी होती हैं।
ओमपाल डुमोलियाyes ho skti hai. keval khani i ki baat nhi aur bhi kuch ho skta h jo tum kh rhe ho.
दलीप वैरागी 22:22 pm
सर मैं खाना खाने जा रहा हु । बाद मे बात करता हूँ।
ओमपाल डुमोलियाok bye ...  acha lga ... thanks ... gud night
दलीप वैरागी गुड नाइट

Tuesday, August 9, 2011

भाषा शिक्षण और विज्ञान


जब बच्चे को पहली बार किताब पढ़ना सिखाने की बात होती है तो हमारे यहाँ शिक्षण विमर्श में दो तरह की शिक्षण पद्धतियों का जिक्र होता है| एक वर्ण शिक्षण पद्धति ‘दूसरी शब्द शिक्षण पद्धति | पहले वाली वर्ण शिक्षण पद्धति हमारे यहाँ पुराने समय से प्रचलन में है | इस पद्धति से पढ़ना सीखने में बच्चों की अपनी मुश्किलें हैं | अर्थात इस तरीके से बच्चे आसानी से सीख नहीं पाते |इसकी जगह पर दूसरी शब्द शिक्षण पद्धति को केंद्र में लाने के प्रयास पिछले दो दशक से हो रहे हैं | इस पद्धति की भी अपनी मुश्किल है कि यह टीचर के समझ में नहीं आती है| आज स्कूल में पढ़ाने वाला हर टीचर इस पद्धति के लिए प्रशिक्षित हो चुका है | हर साल के शिक्षक प्रशिक्षण में शब्द पद्धति से पढ़ना सिखाने के तरीकों पर बात होती है| बावजूद इसके देखने में आता है कि सभी स्कूलों में नए पुराने शिक्षक बोर्ड पर पहले वर्णमाला रटाना , फिर उनकी एक –एक कि बारहखड़ी बनवाना और यदि इस सारी कवायद में बच्चा कुछ ध्वनियों को पहचान जाता है तो फिर उन ध्वनियों को मिलाकर शब्दों कि घुट्टी बनाकर पहली बार पिलाई जाती है | यह कड़वी डोज जो बच्चा आसानी से गुटक जाता है; वह पढते वक़्त हिज्जे करते, उँगलियों पर बारहखड़ी का हिसाब लगाते थोडा आगे बढ़ जाता है और ताउम्र वर्तनी की गलती करता है |यह कभी नहीं समझ पता कि यह हृस्व और दीर्घ मात्राओं का भाषा में हकीक़त से क्या लेना देना है| बाकी बहुत से बच्चे इस प्रक्रिया में पीछे छूट जाते हैं और पाँचवीं जमात तक पढ़ना नहीं सीख पाते हैं| 
कई बार यह सोच कर हैरानी होती है कि क्या कारण है कि इतनी कवायद के बाद टीचर पुरानी परिपाटी को बदलना नहीं चाहते हैं ? क्या इसके पीछे परम्परावादी सोच है? कुछ नया न कर पाने कि प्रवृति है? या अज्ञान ? अज्ञान कहना तो हिमाकत ही होगी| तो अगर इसकी रूट में अज्ञान नहीं तो क्या विज्ञान ? इंसान किसी काम को पूरी निष्ठा से तभी करता है जब वह धर्म सम्मत हो या विज्ञान सम्मत | धर्म अर्थात आस्था; विज्ञान मतलब बुद्धि ,विवेक तर्क | लब्बोलुबाव यह कि काम का प्रेरण भाव से होता है और भाव का उत्स आस्था , विश्वास या तर्क ,बुद्धि में | तो क्या भाषा शिक्षण की इस पहेली में विज्ञान और भाषा का कोई उलट फेर तो नहीं |मुझे लगता है कि इस उलट फेर को पकड़ने के लिए भाषा का स्ट्रेक्चर और विज्ञान का अप्रोच और दोनों के अंतर्संबंध के समीकरण को समझना होगा |कोई चीज़ इस जगत में है तो उसकी उत्पत्ति को समझने के दो तरीके हैं |एक उसके ऐतिहासिक क्रमिक विकास को समझना | जो कि एक क्षणिक घटना नहीं है |किसी चीज़ को धरती पर बनने में करोड़ों साल का वक्त लगा है| दूसरा तरीका है प्रयोगशाला में किसी द्रव्य का रसायन शास्त्रीय तात्विक विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकला कि यह चीज़ अमुक –अमुक तत्वों से मिल कर बनी है |जैसे रसायन शास्त्र पानी का तात्विक विश्लेषण करके यह बताता है कि हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन का एक परमाणु मिलकर पानी बनता है |(जबकि स्थापना यह होनी चाहिए कि पानी में हाइड्रोजन के दो तथा ऑक्सीजन का एक परमाणु होते हैं ) मुश्किल तब होती है जब हम विज्ञान के इस निर्णय की स्थापना को लेकर बैठ जाते हैं| रासायनिक विश्लेषण के लिए तो इसमें कोई दिक्कत नहीं मगर इस स्थापना को लेकर चलें तो कुछ ज्यादा हाथ नहीं आएगा | अगर ऐसे पानी बनता तो क्या बात थी | धरती पर हाइड्रोजन और ऑक्सीजन तो बहुत है |लेकिन पानी के असली स्वाद के लिए तो उसी पानी की और ही देखना होगा जो कुदरत की करोड़ों वर्षों की मेहनत का प्रतिफल है | ऐसा ही कुछ भाषा के साथ है | भाषा भी उतने ही समय से धरती पर है जितना कि इंसान | भाषा भी व्यक्त संकेतों शब्द, वाक्यों, छंदों में ही रहती आयी है | लेकिन भाषा विज्ञान जब किसी भाषा का विश्लेषण करता है तो उसे इस प्रकार तोड़ कर समझता है – ध्वनि संकेत मिल कर शब्द बनते हैं और शब्द-शब्द मिलकर वाक्य तथा वाक्य दर वाक्य बात | यह भाषा के तात्विक रूप को समझने का तरीका तो है लेकिन वास्तविक सत्य नहीं | किसी भी ‘समग्र’ को समझने के लिए टुकड़ों में तोड़ कर देखना विज्ञान हो सकता है लेकिन यह समझ लेना कि ‘समग्र’ टुकड़ों से मिल कर बना है निरा अज्ञान ही कहलायेगा | विज्ञान एक प्रक्रिया है | उसे परिणति समझ लेना गडबडझाला खड़ा करता है |भाषा शिक्षण के संदर्भ में ऐसा ही कुछ गडबडझाला हमारे सामूहिक अवचेतन में चलता है और हम मान लेते हैं कि शब्द ध्वनियों से मिलकर बने हैं इसलिए सबसे पहले ध्वनि सिखाना जरूरी है, ध्वनि सीखने के बाद शब्द | जबकि भाषा कुछ अलहदा व्यवहार करती है| हमारे यहाँ शब्द ब्रह्म है उसे तोड़ कर देखा जा सकता है लेकिन तोड़ा नहीं जा सकता | वह तो अजर है, अक्षर है , अविनाशी है | सीखने के लिए उसे पूरा ही सीखना होगा , अधूरा नहीं | इस लिए वर्ण पद्धति से शिक्षण दुरूह हो जाता है| उस तरह से प्रवाहमय नहीं जैसी कि भाषा कि तबियत होती है | ऐसा दूसरी कलाओं के साथ भी होता है| शास्त्रीय संगीत और नृत्यों को ही लें इनको सीखना कितना श्रम व समय साध्य होता है | पहले बाहर से चेष्टाओं और मुद्राओं को स्वर लिपियों को रटना| शुरू में ये निष्प्रयोजन जन पड़ती हैं और काफी अभ्यास के बाद विद्यार्थी स्वयम् रस दशा तक पहुंच पता है| जबकि लोक गीत और लोक नृत्य में पहली बार में ही रसानुभूति खुद भी करता है और दूसरों को भी करवाता है | क्यों कि लोकसंगीत का संस्कार उसके अवचेतन में है | दोनों ही रास्ते एक ही जगह पर पहुँचते हैं लेकिन फर्क मार्ग कि कठिनाई और सरलता का है | यहाँ आकर लगता है कि विज्ञान सम्मत व्यवाहर करने कि जो हमारी नैसर्गिक आदत होती है उसी के फलस्वरूप शिक्षक वर्ण पद्धति को छोड़ नहीं पाता | क्योंकि ऊपर से उसे यह विज्ञान सम्मत जान पड़ता है| इसके रूट में कहीं हमारा विज्ञान को देखने का नज़रिया भी है | कुछ इसे भी ठीक करने की जरूरत है|सारांशतः यह कहा जा सकता है कि शब्द शिक्षण पद्धति एक तरह की लोक गीत कि तान सा है और वर्ण पद्धति शास्त्रीयता की सी अनवरत कवायद | मार्ग एक ही सत्य को पकड़ने के हैं | तय राहगीर को करना है|

Monday, August 8, 2011

सिर्फ़ सेकुलर होना ही काफी नहीं सेकुलर दिखना भी चाहिए।

पिछले महीने हम  फलोदी (जोधपुर) के गांवों मे किशोर-किशोरियों का साक्षात्कार कर रहे थे। हम जब एक किशोरी के घर गए तब बाहर चारपाई डालकर लड्की के पिता और गाँव का ही कोई अन्य बुजुर्ग बैठे हुए थे। हमारे लिए कुर्सियाँ लगाई गईं। हमने बैठ कर बात चीत शुरू की और अपने आने का प्रयोजन बताया गया। हम तीन साथी थे। यह घर जनजातीय परिवार का था। मैं पहले ही यह बता देना चाहता हूँ की हमारा कोई भी साथी जाति भेद नहीं रखता है। सबका ग्रामीण लोगों के साथ काम करने का अच्छा खासा अनुभव है। सबकी संवैधानिक मूल्यों मे जबरदस्त आस्था है । काम करने के तरीके पारदर्शिता वाले और लोकतान्त्रिक हैं ।   हमारे वहाँ बैठते ही लड़की स्टैनलेस स्टील के चमचमाते गिलासो को एक ट्रे मे सजाकर पानी लेकर आई। हमारे दो साथियों ने गिलास उठा कर पानी पिया  जबकि एक साथी को प्यास नहीं होगी इसलिए उसने पानी नहीं पिया। मैं अपने साथी के लिए पूरी तरह विश्वस्त हूँ की इसके अलावा कोई दूसरा कारण नहीं होगा। साक्षात्कार शुरू किया हमारा यही साथी लड़की से सवाल पूछ रहा था और मैं जवाबों को  लिख रहा था । समान्यतया एक व्यक्ति ही साक्षात्कार करता है चूंकि यह दिन का आखिरी था इसलिए सहूलियत के लिए दो जने कर रहे थे। यह साक्षात्कार लगभग दो घंटे तक चला । साक्षात्कार के बीच में  हमारे साथी को प्यास लगी तो गाड़ी में से पानी की बोतल लेकर पानी पी लिया। इसके बाद संयोग या दुर्योग जो सवाल पूछा जाना था वो यूं था -  "क्या आप अपने आसपास किसी तरह का भेदभाव होते हुए देखती हैं ?" लड़की जवाब देने से पहले सोच रही थी लेकिन लड़की के पिता ने सोचने मे बिलकुल भी वक़्त ज़ाया नहीं किया " क्या बात करते हैं आप, फिजूल की बाते हैं ... आप खुद ही भेदभाव कर रहे हैं । अभी आपने मेरे घर का पानी नहीं पिया ... अपनी गाड़ी से बोतल लेकर पानी पिया ... । " इसके बाद हमारी स्थिति ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं। यूं तो उनको समझाने और संतुष्ट करने की तर्क और दलीले हज़ार थी और वे समझे भी लेकिन हमारा दिल जानता है कि अब हमारी बात मे असर कितना रह गया था ? इस घटना से ज़िंदगी का बहुत बड़ा सबक सीखा । आप भले दिल से बहुत सेकुलर हो लेकिन अगर लोगों के बीच सेकुलर दिखाई नहीं देते है तो कभी आपकी बात मे असर नहीं आएगा। लोगों को आपके प्रति विभ्रम ही होगा।

Sunday, August 7, 2011

"इनबॉक्स" भी पाठ्य सामग्री हो तो...

 कल अजमेर ज़िले के पिसांगन ब्लॉक के गांवों मे कुछ किशोरों के साक्षात्कार कर रहे थे। इनमे एक किशोर बीरम था । बीरम 19 साल का है।  साक्षात्कार के दरम्यान ही जब बीरम को एक हिन्दी मे लिखा अनुच्छेद पढ़ने को दिया तो उसको देखकर बीरम ने ऐसी अरुचि दिखाई " मैं नहीं पढ़ सकता ... मेरा पढ़ने मे दिमाग ही नहीं लगता है" हालांकि उसने हिसाब के अधिकतर सवाल हल कर दिये। हमने उसे कहा चलो हम कुछ बोलते हैं और तुम लिखो । उसने कुछ भी लिखने से मना कर दिया।
खैर हमने सवालों का सिलसिला आगे बढ़ाया । एक सवाल था ' आपके पास जब फुर्सत होती है तब क्या करते हो?' उसने झट से कहा " अपने मोबाइल मे गाने सुनता हूँ" इस जवाब ने हमारे अंदर सवालों की झड़ी लगा दी।
क्या बीरम को पढ़ना नहीं आता ?
क्या बीरम पढ़ना भूल चुका है ?
या बीरम को पढ़ने मे मज़ा नहीं आता है?
जवाब इनमे से कोई भी हो सकता है।
लेकिन एक बात है जो बीरम के बारे मे सभी कहते है वह यह कि उसके पास एक मल्टिमीडिया मोबाइल है जिसमे जिसमे वह मज़े से गाने सुनता है। उसने अपने मोबाइल की भाषा बदल कर हिन्दी कर रखी है। वह अपने मोबाइल पर एसएमएस लिख कर दोस्तों को भी भेजता है। ... लेकिन बीरम तो कहता है कि उसे पढ़ना नहीं आता है ... दरअसल मसला क्या है ? मसला सीधा यह है कि बिरम को जो पढ़ने के लिए दिया जाता है उसमे बीरम की कोई रुचि नहीं है । वह उसको अपना सा नहीं लगता ...  बीरम को किसमे रुचि है ? यह कोई नहीं जनता ... शायद बीरम ... पक्का पता नहीं ... क्या बीरम की मोबाइल मे रुचि है ... तो बीरम कहता क्यों नहीं?  शायद रुचियाँ बताने की जो परंपरागत लिस्ट में है, उसमे उसकी रुचि का शुमार नहीं है .... यह बात पक्की है कि बीरम को मोबाइल से खेलने मे मज़ा  आता है ...
क्या बीरम पढ़ सकता है । बीरम को और मौके मिल सकते हैं । मौके उसकी तलाश मे हैं । पहुँच मे भी हैं। लेकिन क्या मौके मिलने से ही बीरम सीख जाएगा ?  जी हाँ ! बीरम जरूर सीखेगा अगर उसकी पढ़ाई का ककहरा मोबाइल से शुरू हो । उसकी पहली किताब पौथी न होकर मोबाइल का इनबॉक्स बने तो कुछ बात बन सकती है । बीरम के लिए अभी सभी मौके चुके नहीं है । भले ही बीरम कहता हो कि उसका पढ़ाई मे दिमाग नहीं है । लेकिन मैंने कल बातों ही बातों मे उसके अंदर दबा के रखी पढ़ने कि इच्छा को पंजों के बल खड़े देखा है । इसलिए दोस्तो आप जब अगली बार बीरम से मिलें और उसको पढ़ने की बात करें तो उसके मोबाइल के बारे मे जरूर पूछे। क्योंकि उसकी प्रेरणा का उत्स वहीं पर है।

अलवर में 'पार्क' का मंचन : समानुभूति के स्तर पर दर्शकों को छूता एक नाट्यनुभाव

  रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंच...