रविवार, 13 अगस्त 2023 को हरुमल तोलानी ऑडीटोरियम, अलवर में मानव कौल लिखित तथा युवा रंगकर्मी हितेश जैमन द्वारा निर्देशित नाटक ‘पार्क’ का मंचन हुआ। यह नाटक रंगसंस्कार थियेटर ग्रुप की प्रस्तुति थी।
पार्क नाटक की इस प्रस्तुति पर क्यों लिखा जाना चाहिए, इसकी कुछेक वजह हैं जो लिखने को प्रेरित करती हैं। पहला कारण तो यह है कि पिछले दिनों इसी रंगमंच पर 75 दिवसीय थियेटर फेस्टिवल अलवररंगम आयोजित हुआ था। जनवरी मध्य में शुरू हुआ यह आयोजन मार्च के अंत में समाप्त हुआ। इस आयोजन ने देशभर में अलवर थियेटर को एक विशिष्ट पहचान दी और अलवर के दर्शकों के लिए लगभग 90 विविधतापूर्ण नाटकों से रूबरू करवाया। यह सीधा-सीधा एक उपलब्धि के तौर पर देखा जा सकता है। यह निर्विवाद है कि यह आयोजन एक मात्र व्यक्ति देशराज मीणा के प्रयासों से संभव हो पाया।
लेकिन पार्क की इस प्रस्तुति को ‘अलवररंगम’ के बाई प्रोडक्ट के रूप में देखा जा सकता है। क्यों कि इस लंबी अवधि के आयोजन ने अलवर रंगमंच के वातावरण में जो ऊष्मा पैदा की थी, उस ऊष्मा से यह उम्मीद की जा रही थी कि वह युवा रंगकर्मियों में एक कलात्मक बेचैनी अवश्य पैदा करेगी। यह उसी बेचैनी भरी ऊष्मा से प्रस्फुटित पहला मशरूम जमीन तोड़ कर बाहर निकल कर बाहर आया है। यह प्रस्तुति अपने आप में पूर्णतया ऑर्गैनिक है, जिसे हवा पानी मिले तो यह रचनात्मता कुछ ही दिनों में लहलहाएगी। दूसरी वजह है कि हितेश जैमन पिछले चार - पांच वर्षों से रंगमंच पर सक्रिय हैं। एक अभिनेता के रूप में हितेश जैमन ने बहुत ही उल्लेखनीय भूमिकाएं निभाई हैं लेकिन पार्क नाटक के माध्यम से पहली बार निर्देशन में हाथ आजमा रहे हैं। हितेश जैमन की रंगकर्म को लेकर गंभीरता को देखते हुए लगता है कि उनसे अभी और प्रयासों की उम्मीद की जा सकती है। इसलिए जरूरी है कि इन प्रयासों का मूल्यांकन समीक्षकों द्वारा किया जा सके।
‘पार्क’ साधारण से कथानक के कलेवर में असाधारण नाटक है। एबसर्ड नाटकों की तरह इस नाटक की शुरुआत एक साधारण से पार्क की तीन बेंचों के इर्दगिर्द होती है तथा इसी सेटिंग पर नाटक समाप्त भी होता है। तीन किरदार अपनी पसंद की बेंच पर एक गैर वाजिब सी लगने वाली बहस करते दिखाई देते हैं। लगभग लगभग एक घंटे की अवधि का यह नाटक अपनी अभिधा और व्यंजना दोनों स्तर पर दर्शकों से मुखातिब होता है। नाटक शुरू में मनोविज्ञान के गहरे सिद्धांतों, मनोग्रंथियों तथा समस्याओं को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करते हुए एक जमीन तैयार करता है और अचानक वहाँ से टेक ऑफ करते हुए उड़ान भरता है और देश दुनिया के हालत पर नजर डालता चलता है।
नाटक का प्रारंभ ही मनोवैज्ञानिक धरातल पर होता है। फ्रायड में जब साइकोएनलिसिस के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और मानोविश्लेषणात्मक पद्धति से वह मनोरोगियों का इलाज करते थे। इससे मरीज ठीक तो हो जाता था लेकिन वह अपने डॉक्टर के साथ अलग तरह का जुड़ाव महसूस करने लगता था। बिल्कुल इसी परिघटना को इस नाटक के पहले दृश्य में दर्शाया गया है । उदय पार्क में बैठ कर डॉक्टर की प्रतीक्षा कर रहा है। डॉक्टर कहती है कि अब आपको मेरी जरूरत नहीं है दरअसल आप ठीक होना ही नहीं चाहते हैं। आप मेरे मरीजों में अपने आपको विशिष्ट महसूस करना चाहते चाहते हैं। इसके अलावा वे मतिभ्रम, ओसीडी यानी ऑबसेसिव कॉम्पलशन डिसॉर्डर की बात करते हैं जिसके एक प्रकार में व्यक्ति के मन में आराध्य की मूर्तियों के प्रति अजीब- अजीब विचार आते हैं। नाटक के क्लाइमेक्स में 15 वर्षीय मानसिक विमंदित बच्चे का दृश्य बहुत मार्मिक है। जिसमें हुसैन एक पांचवी कक्षा का विद्यार्थी है और आज वह परीक्षा देने आया हुआ है। हुसैन और उसके पिता पिछले कई सालों से उसके पांचवी पास होने की कोशिश कर रहे हैं। यह बताता है कि आज किस प्रकार विकलांगता से युक्त बच्चों के साथ किस प्व्यवहार किया जाता है। असंवेदनशील व्यवहार इन विशेष बच्चों को समावेशित होने से रोक देता है, जिससे उन्हें विशेष विद्यालयों पर निर्भरता के लिए मजबूर करता है। इससे समावेशी शिक्षा का सपना पीछे छूट जाता है।
नाटक विस्थापन के मुद्दे को बैंचों की अदला बदली के रूपक से बखूबी बयान करता है। केवल कहने के स्तर पर नहीं बल्कि समानुभूति के स्तर पर। काफी जद्दोजहद के बाद नवाज जब अपनी बेंच मदन के लिए छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है जब उससे विनम्रता से उठने का आग्रह करता है। लेकिन उदय अपनी बेंच खाली करने को तैयार नहीं होता। वह कहता है कि उठाना महत्वर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है उठाया जाना, आप उन्हें थोड़ा गुस्से से उठाइए। इस प्रकार मदन यकायक नवाज का गिरेबान पकड़ कर झटके से उठा देता है। पूरा प्रेक्षागृह स्तब्ध रह जाता है। सहज ही दर्शक आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने के दर्द को समानुभुति के स्तर पर महसूस कर लेते हैं। अपने कथ्य तथा शिल्प की इन्हीं विशेषताओं के कारण यह नाटक बहुमंचित नाटकों में शुमार है।
इस मंचन के अभिनेताओं की रंगमंच पर उपाथिति पिछले एक दो वर्ष से है। सभी में ताजगी है। निखिल कुमार , हरीश और राहुल गुप्ता नाटक की मुख्य भूमिकाओं में थे। तीनों ही पिछले दिनों से मंच व मंच पार्श्व की भूमिकाओं में रंगसंस्कार के देशराज मीणा के साथ सक्रिय है। इनके साथ मंच पर डॉक्टर की भूमिका में दीक्षा सोनी थीं। दीक्षा नई हैं और उन्होंने अपनी छोटी भूमिका में भी उपस्थिति दर्ज कराई। बाल कलाकार के रूप में सुहास बत्रा ने दर्शकों का ध्यान अपनी ओर बखूबी खींचा। उदय की भूमिका में हरीश को टेक ऑफ करने में थोड़ा व्यक्त जरूर लगा लेकिन वे जब गति पकड़ते हैं अपने अभिनय से नाटक को अंत तक बांधे रखते हैं। राहुल सोनी का अभिनय प्रभावशाली रहा। उनकी भूमिका की बुनावट ही ऐसी है कि वह गुदगुदाता भी है और गहरी बात भी कहता है। यह राहुल का अभिनय में पहला प्रयास था। मदन के चरित्र को निखिल ने बखूबी निभाया। उनके अभिनय में परिपक्वता दिखाई देने लगी है। यद्यपि वे क्लाइमेक्स वाले दृश्य में, जिसमे वे कहते हैं, “... आप लोगों ने सब कुछ खत्म कर दिया॥” इस दृश्य में उनका दर्द और फूट कर सामने आ सकता था। सभी अभिनेताओं को इस तरह की गंभीर भूमिकाओं के और अवसर मिलने चाहिए।
हितेश जैमन का निर्देशन में यह पहला प्रयास बहुत उम्दा था। पूरी प्रस्तुति में कसावट और गति थी। वे पहले भी इस नाटक में बतौर अभिनेता काम कर चुके हैं। यह बहुत मुश्किल होता है कि पूर्व अनुभव को अपने व अपने अभिनेताओं पर हावी न होने देना। उन्होंने सेट व संगीत में भी अभिनव प्रयोग किए। इसलिए उनकी प्रस्तुति में ताजगी दिखाई देती है। यद्यपि नाटक के कलैमेक्स वाले सीन में जहां मदन और उदय बैंच हासिल करने के लिए गुत्थम गुत्था होते हैं, वह दृश्य थोड़ा लाउड हो गया था। इससे नाटक के चरम बिन्दु पर नाटक की दार्शनिक गंभीरता थोड़ा समय के लिए बाधित होती है। यदि समेकित टिप्पणी करें तो नाटक संतुलित था और वे अपने पहले प्रयास में सफल दिखाई देते हैं। देशराज मीणा की प्रकाश व्यवस्था ने इस चा क्षुस अनुभव को और रमणीय बनाया। विनीत भारती व दिनेश चंदनानी की मंच व्यवस्था सराहनीय थी। दीक्षा सोनी की वस्त्र और रूप सज्जा ने मदन के चरित्र को रूपायित करने में बहुत मदद की ।
लेखन : दलीप वैरागी
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