20 फरवरी 2020 को Anubhav
Sinha द्वारा निर्देशित फिल्म की स्पेशन
स्क्रीनिंग जयपुर INOX में देखने का अवसर मिला। फिल्म के प्रमोशन के लिए अनुभव
सिन्हा व फिल्म की नायिका Tapsi
Pannu व Hansal Mehta जयपुर आए थे। उन्होंने स्क्रीनिंग के पश्चात दर्शकों से बातचीत की।
मुझे पहली बार इस प्रकार के आयोजन में जाने का सौभाग्य मिला। यह बेहतरीन फिल्म है।
फिल्म के बारे में लिखने से खुद को रोक न सका।
‘थप्पड़’ फिल्म का कथानक एक थप्पड़ के इर्दगिर्द बुना गया है। फिल्म
में यह थप्पड़ भौतिक रूप से एक पति द्वारा पत्नी को मारा जाता है। लड़की (तापसी पन्नु)
द्वारा इस थप्पड़ पर लिया गया स्टैंड, “पहली बार ही सही, पर नहीं मार सकता” इस थप्पड़
को बहुविध रूपों में परिवर्तित कर देता है। पर्दे से निकल कर यह दर्शक दीर्घा में बैठे
लोगों के पितृसत्तात्मक अहम पर आखिर तक पड़ता रहता है, वहीं यह
‘थप्पड़’ उसी पितृ सत्ता से पोषित दर्शक को अपनी परंपरागत सौंदर्यबोध
की सीमाओं से बाहर निकल कर देखने के लिए झटका भी देता रहता है। फिल्म के निर्देशक अनुभव
सिन्हा ने कहानी व शिल्प दोनों स्तर पर फिल्म को खूबसूरती से गढ़ा है। फिल्म देखते हुए
कई बार लगता है कि वे स्क्रीन पर कविता लिख रहे हैं। जैसे कविता में काफिया या तुक
निश्चित समय पर आवृत्ति करता है वैसे ही फिल्म में बहुत से फ्रेम रिपिट होते हैं बिलकुल
काफिये की तरह नवीन आयाम लिए हुए। अलार्म बजना, उसे तुरंत बंद कर देना ताकि
सोये पति की नींद में खलल न पड़े, आँगन से अख़बार व दूध की बोतल उठा कर लाना, ऑफिस जाते
पति के समान टिफिन, पर्स, बैग इत्यादि लेकर बाहर कार में बैठते पति को पकड़ना इत्यादि।
ये फ्रेम बार बार रिपिट होते हैं जो जो समाज में स्त्री और पुरुष के भूमिका विभाजन
को और उसमें हद दर्जे की यांत्रिकता को प्रभावी तरीके से सामने रखते हैं। सामान्यता
तलाक को दो परिवारों में तलाक माना जाता है। लेकिन यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ दो व्यक्तियों
में द्वंद्व है दो परिवारों में नहीं, अलगाव के पश्चात भी बहू सास से मिलती रहती है और उसे
संभाल भी जाती है। यहाँ सास धारावाहिकों वाली सास नहीं तो माँ भी वैसी नहीं, पिता, भाई भाभी
सब रिश्ते आपको एक नया दृष्टिकोण प्रदान करते हैं जो आपको परंपरागत सोच से निकलते हैं।
यह फिल्म आपको व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व परिवार में से एक को चुनने की बाइनरी चॉइस आपके
सामने नहीं रखती। इसलिए फिल्म की नायिका पति से तलाक के मुकदमे पश्चात सास भी सास की
बीमारी में उसे संभालती है। शहर की नामी वकील पति से अलगाव के पश्चात भी व्हील चेयर
पर बैठे ससुर के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझती है। ये ज़िम्मेदारियाँ भावनात्मक स्तर
पर हैं, उनकी चॉइस हैं न की समाज द्वारा थोपी हुई।
यह फिल्म ‘सिर्फ एक
थप्पड़!’ केवल ‘सिर्फ’ नहीं होता
बल्कि शुरुआत होती है उस ‘अनफ़ेयर’ की जो उत्तरोत्तर बढ़ता है और जिसे ताउम्र बर्दाश्त करना
एक स्त्री की नियति बन जाती है। इसे हम घर में काम करने वाली महिला के किरदार से समझ
सकते हैं। ‘थप्पड़’ निम्न, मध्यम व उच्च तीनों वर्गों में स्त्री पुरुष सम्बन्धों
में द्वंद्वात्मकता को सबके सामने रखता है। अपने कथ्य में यह फिल्म व्यक्ति को सबसे ऊपर रखती है। परिवार व समाज है लेकिन उसके बाद में। ‘थप्पड़’ खूबसूरत फिल्म है। खुद भी देखें और उन युवाओं भी
देखने के लिए प्रेरित करें।