इस लेख को नाट्य समीक्षा न समझा जाए तो ही सही होगा। क्योंकि
यह कहीं पर इतिहास है, कहीं पर इतिवृत, कहीं रिपोर्ट है, कहीं संस्मरण है, कहीं पर आत्मावलोकन है कहीं पर आत्मालोचन... खैर...
27 मार्च 2017, विश्व रंगमंच दिवस के मौक़े पर
अलवर में “कहानी रंगोत्सव” का सफलतापूर्वक आयोजन हुआ। यह कार्यक्रम कई मायनों में
सफल माना जा सकता है। इसमें पहला बिन्दु है – जिस प्रकार 4 अक्तूबर 2015 को रंग
संस्कार थियेटर व उसी से सम्बद्ध देशराज मीना ने जो सिलसिला शुरू किया था व अनवरत
चल रहा है। यदि मेरे स्मृति क्षीण नहीं हुई है तो इसकी शुरुआत एक दिवसीय हास्य
नाट्य उत्सव के रूप में प्रताप औडिटोरियम में हुई थी। उस समय तीन नाटकों का
प्रस्तुतीकरण हुआ, जिसमें एक मोलियर का नाटक बिच्छू, हरीशंकर परसाई का निठल्ले तथा
तीसरा नाटक प्रदीप कुमार का “उसके इंतज़ार में था”। शुरू के दोनों नाटकों में दिल्ली के रंगकर्मी मंच पर नज़र आए हालांकि
प्रदीप कुमार भी अलवर से हैं लेकिन उन दिनों वे गुजरात प्रवास पर थे। तब तमाम अच्छाइयों के बीच एक बात यह भी उठ
रही थी कि स्थानीय प्रतिनिधित्व नहीं है।
इसकी दूसरी आवृत्ती के रूप में 14 से 17 जनवरी 2016 को “अलवर नाट्य
महोत्सव के रूप में हुई।” अलवर के दर्शकों को देशभर के जाने माने कलाकारों से
विविधता भरे नाटकों का पाँच दिन तक फुल डोज़ मनोरंजन मिला। इसका तीसरा चरण 26 जनवरी
2017 एक दिवसीय नाट्य संध्या के रूप में आयोजित किया गया जिसमे दिल्ली और लखनऊ के
समूहों ने हास्य नाटको का प्रदर्शन किया। यद्यपि मैं इस कार्यक्रम को नहीं देख
पाया लेकिन देखने वालों ने बताया कि एक नाटक मे देशराज ने भी अभिनय किया था।
इस संक्षिप्त इतिहास का विवेचन इसलिए हो रहा है
क्योंकि यह एक गति को दर्शाता है। यह गति मात्रा, आवृत्ती व गुणवत्ता की ओर
उत्तरोत्तर बढ़ रही है। गुणवत्ता के आशय यहाँ बहु आयामी हैं। एक आशय यह भी है कि इसकी
प्रस्तुतियों ने एक समन्वित प्रभाव छोड़ा
है। दस साल के निर्वात को भरा है। प्रभाव को इस रूप में देखा जा सकता है। आज अलवर
में अलग अलग रंग मंडलियों में सक्रियता देखी जा रही है भले ही ज्यादरतर प्रस्तुतियाँ मंच तक नहीं
पहुँच पाई हैं लेकिन रिहर्सल तक सक्रियता रंगमंच में जुंबिश तो है। हालांकि किसी भी
बदलाव के लिए एक ही कारण जिम्मेदार नहीं होता लेकिन बदलाव दृष्टिगोचर है। नाटकों
के मंच तक न पहुँच पाने के कारण भी हैं। उन पर भी बात होनी चाहिए तथा वे नाटक किन
कारणो से दलदल में धँसे हैं, हो सके तो वहाँ भी इनपुट दिये जाने चाहिए।
खैर, “कहानी रंगोत्सव” की मार्फत रंग संस्कार थियेटर ने
एक और सोपान तय किया है। वह है कि इस बार प्रस्तुतियों में 50 प्रतिशत नाटक अलवर
की मिट्टी में ही उगे और खड़े हुए। कहानियों में दलीप वैरागी (यानि मेरे द्वारा )
रवि बुले की कहानी “हीरो एक लव स्टोरी”, नीलाभ पंडित द्वारा माई द पोसा की कहानी “उन्मादी”
तथा प्रदीप कुमार द्वारा स्वलिखित कहानी “उसके इंतज़ार में” ये तीन कहानियाँ अलवर
के रंगकर्मियों द्वारा प्रस्तुत की गईं।
दरअसल यह गतिविधि मेरे रंगकर्म में एक मील का पत्थर
साबित हुई। अलवर के किसी भी मंच पर मैं लगभग डेढ़ दशक बाद दिखाई दिया हूँ। ‘हीरो एक लव स्टोरी’ ने आज वही जोश व उमंग अंदर भर दी
है, जैसा उस वक्त महसूस किया करता था।
यह कहानी 2000 के आस पास इडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी में छपी थी। एक किशोर को
केंद्र में रखकर लिखी गई इस कहानी को जब पहली बार पढ़ा तब मैं भी लगभग किशोर था। यह
कहानी कहीं उम्र के मूक प्रश्नो को आवाज
देती लगी। तब नाटक का मंच इतनी पकड़ में नहीं था कि कहानी की रंग परिकल्पना की जाए।
नाटक का सिलसिला चलता रहा। अंतराल बाद चार-पाँच नाटक निर्देशित करने के बाद भी कहानी
तसव्वुर में थी लेकिन हाथ से चली गई। तब विनय मिश्र जी हमें पढ़ाते थे तो उनसे
साहित्य वार्षिकी का अंक लिया। लेकिन कॉलेज के बाद दुनियादारी के दलदल में कुछ इस
तरह धंस गए कि किशोरावस्था से युवावस्था के रांगडपाने का सफर तय कर लिया पता ही नहीं
चला,
लेकिन कहानी अभी तक कंधों पर सवार
थी। रवि बुले के दोनों कहानी संग्रह भी पढ़ डाले। पिछले साल नरेंद्र को लेकर कहानी
की उसके साथ रिहर्सल शुरू की लेकिन कुछ दिन रिहर्सल के बाद बात नहीं बनी। कहानी
छूट गई। अभी दो सप्ताह पहले देशराज ने लगभग आदेश भरे स्वर में कहा, “तुम 27 मार्च को एक कहानी का
मंचन करने वाले हो।”
मैंने कहा,
“भाई कहानी भी बता दो... ”
“रवि बुले की – हीरो : एक लव स्टोरी।”
मुझे लगा कि ईश्वर को यही मंजूर है। कहानी का मंचन
होने के बाद मेरे पास दोस्तों के फोन और संदेश आए। वे सब मुझे पुराने अंदाज़ में
देख पर खुश लग रहे थे। ये कहानी ही मेरा अटका हुआ प्रोजेक्ट नहीं है बल्कि ऐसे
बहुत से नाटक हैं जो अभी तक मंच तक नहीं पहुंचे है। एक बात तो समझ आई कि रिहर्सलों
की भी एक्सपयरी डेट तो होनी चाहिए। अभ्यासों का गुणवत्ता के साथ रिश्ता तो है
लेकिन अनंत अभ्यासों के साथ बुलकुल भी नहीं है। नाटक के विचार के कंसीव के बाद
प्रस्तुति को एक निश्चित समय तक मंच पर आना ही चाहिए। माँ भी 9 महीने के बाद बच्चे
को प्रसव कर देती है। अब चाहे वह किसान बने,डॉक्टर बने या चोर। सबको 9 महीने
ही गर्भ में रखती है।
बहरहाल कहानी एक नई ऊर्जा का संचार कर के गई है।
कहानी में गीतों व ध्वनियों के प्रयोग से
अविनाश ने इसकी प्रभावोत्पादकता को और बढ़ा दिया। प्रकाश परिकल्पना भी अविनाश की
रही। मंच के परे सचिन, राजेश महीवाल व नरेंद्र सेन का सहयोग उल्लेखनीय रहा। कोशिश है कि किसी न
किसी तरह उस ऊर्जा के सहारे मंच पर उपस्थिति को बनाए रखने की कोशिश हो।
दूसरी कहानी हरीशंकर परसाई का प्रसिद्ध व्यंग्य।, “भोलारम का जीव ” थी। इसे अंकुश
शर्मा ने निर्देशित किया था। अभिनेता के रूप में कृष सारेश्वर, मदन मोहन, चित्रा सिंह व अंकुश शर्मा थे। वे
एक कर्मचारी की रुकी हुई पेंशन को पाने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटते ईश्वर को
प्यारे हुए भोलारम के जीव की दास्तान है। इस कहनी मे परसाई जी यमराज के मिथक को कहानी से जोड़ देते है। हालांकि अब जैसा माहौल है उसमे मिथकों
से काम लेना कम खतरे का काम नहीं। इस कहानी में नारद है, यमराज है, चित्रगुप्त है। अंकुश शर्मा इस मिथक में भी कल्पना की छूट लेते
हुए यमलोक में भी डिजिटल क्रांति के मॉडल को दर्शा देते हैं वही नारद से वीणा की
जगह हारमोनियम पर पॉप म्यूजिक बजवा देते हैं। ये प्रयोग काम करते हैं और दर्शकों
को इस लगभग सभी की एक बार पढ़ी कहानी में भी नवीन मनोरंजन परोस देते हैं। सभी कलाकारों
का अभिनय बहुत उम्दा था।
तीसरी कहानी माई द पोसा की कहानी “उन्मादी ” थी। यह
एक फ्रेंच भाषा की कहानी है जिसके हिन्दी अनुवाद को वरिष्ठ रंगकर्मी नीलाभ पंडित
ने प्रस्तुत किया। इस कननी का प्रस्तुतीकरण अन्य कहानियों से जुदा रहा। नीलाभ
पंडित जी इस कहानी को दर्शकों को वाचन शैली में सुना रहे थे। निसंदेह वाचन भी कहानी
के प्रस्तुतीकरण का एक प्रभावी रूप है। किन्तु जब पूर्व में एक कहानी को दर्शक
ड्रामा के रूप में मंच पर चार छ: पात्रों के रूप में जीवंत देख लें तो उनके मन में किस्सागो
से कुछ अलग अपेक्षाएँ बन जाती हैं, शायद । शायद इस वजह से दर्शक वाचन के दौरान अंत तक
कहानी के साथ जोड़े नहीं रख पाए। कहानी का विषय भी मनोवैज्ञानिक गाम्भीर्य लिए हुए
था। मुझे लगता है कि यह कहानी क्रम में प्रथम कहानी के रूप मे आती तो बेहतर होता। कहानी
का चयन भी इसमे एक कारण हो सकता है।
चौथी कहानी फिर से अंकुश शर्मा द्वारा निर्देशित तथा
गुलजार द्वारा लिखित कहानी “रावी पार थी।” यह कहानी 1947 के विभाजन में निर्वासन
का दंश झेले एक परिवार की त्रासदी है। कहानी का पहला संवाद है – “पता नहीं
दर्शन सिंह क्यों पागल नहीं हो गया ? बाप घर पे मर गया। माँ उस
बचे-खुचे गुरद्वारे में गुम हो गई। शाहनी ने एक साथ दो जुड़वां बेटे जन दिये। उसे
समझ नहीं आता था कि हँसे या रोए! इस हाथ ले उस हाथ दे का सौदा किया था किस्मत
ने... ”
सामन्यात: वेदना और संत्रास के जिस बिन्दु पर चढ़ कर कहानियाँ
समाप्त होती हैं। ये कहानी दर्शन सिंह की इस अजीब स्थिति से शुरू होती है। उपरोक्त
संवाद बोलने में जितना जीभ को सर्द और
सुन्न कर देने वाला है इसे अभिनेता का अपने शरीर पे धारण करना शोलों को धारण करने
जैसा है। अंकुश शर्मा जैसे ही किस्सागो की जगह बैठ कर इस संवाद को उच्चारित करते
हैं। विंग से बाहर दर्शन सिंह के रूप में कृष सारेश्वर की पथराई हुई चाल दिखाई
देती है। चाल ऐसी जिसे देख कर प्रतीत होता है कि कदम कहीं नहीं पहुँचना चाहते
लेकिन चलना चाहते है। उसके साथ अनुगामी
चित्रा सिंह है शाहनी के रूप में। मंच के बीच आकार बैठ जाते हैं। कहानी का यह पहला
वाक्य अब कृष सारेश्वर के सारे वजूद में नुमाया हो उठता है उसकी यह अजीब सी कैफियत
आँखों के फट कर बाहर आ जाने को झाँकती है। कहानी के पहले वाक्य पर दर्शन सिंह के
अभिनय ने दर्शकों के दिमाग में इस तरह से पैठ बनाई दर्शक अपलक पूरी कहानी को देखते
चले गए। मदन मोहन कहानी मे संगीत के संपुट लगा रहे थे। अंकुश किस्सागो के अंदाज
में बोल कर घटनाओं को बोल कर बता रहे थे। और वह जो सब बोला नहीं जा सकता उसे कृष सारेश्वर
और चित्रा सिंह बकायदा अपनी मूक छवि से
बता रहे थे।
पाँचवी कहानी “उसके इंतज़ार में” प्रदीप कुमार लिखित व
अभिनीत थी। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि यह कहानी उनके पूर्व में किए गए नाटक “उसके
इंतज़ार में ” से बुनियादी रूप से अलग है। उसके इंतज़ार में एक युवक की कहानी है। जो
प्रेम करता है, प्रेमिका
से, देश से, हुनर से, कला से, भाषा से व शौक से। बाधाएँ भी है और
संघर्ष भी है। उसे इंतज़ार है समाज बदलने
का, वह सब कुछ आने का। प्रदीप कुमार
की लिखी कहानी में कथा क्षीण है लेकिन सूत्र बहुत हैं कथा से लोगों को जोड़ने के।
कहनी में घटनाओं का अभाव है और विमर्श ज्यादा हैं। प्रदीप कुमार एक मंझे हुए
अभिनेता हैं। वे अपने जबर्दस्त अभिनय से कहानी को सफलता पूर्वक निकाल ले गए। अगर
किसी प्रस्तुति में दर्शक सबसे ज्यादा जुड़े हुए दिखाई दिये वो इस कहानी में। यहाँ
प्रदीप कुमार का मंच कवि भी उनके साथ आ खड़ा
होता है। वे अपनी कहानी की एक-एक सींवन मंच पर खड़े होकर खोलते जाते हैं और धागे
निकाल निकाल-निकाल कर दर्शकों में थमाते जाते हैं। वे कहानी के साथ दर्शकों पर एक
अदृश्य जाल सा बुनते जाते हैं। वह जाल दर्शकों को गुदगुदता प्रतीत होता है किन्तु
प्रदीप गहरी चोट भी करते जाते है। चाहे वह डिजिटल क्रांति के नाम पर जियो
के सहारे जियो जीवन हो या राजनैतिक
परिदृश्य हो,
सुविधाओं के नाम पर बुनियादी चीजों को बाजार से लगभग एक साजिश के तहत गायब करके
गैर जरूरी चीजों के थोपने की बात हो। शिक्षा व्यवस्था के दोहरेपन पे भी वे गम्भीरे
चोट करते हैं। इस कहानी में जो सबसे महत्वपूर्ण बात लगी वह है दर्शकों की सक्रिय
सी दिखने वाली भागीदारी। परंपरागत किस्सागो जिस तरह हुंकारा भरवाए बिना आगे नहीं
बढ़ता,
वैसे ही प्रदीप कुमार दर्शक के चेहरे का रेस्पोंस जाँचे बिना आगे नहीं बढ़ते। यह एक
अद्भुत कौशल है।
छठी व अंतिम कहानी थी कारेल चापेक की कहानी “टिकटों का
संग्रह”। कहानी का अनुवाद निर्मल वर्मा का किया हुआ है। कहानी का अभिनय दिनकर शर्मा ने किया। दिनकर शर्मा झारखंड में
रहते हैं व एकल प्रस्तुतियों के लिए सिद्धस्त अभिनेता हैं। यह कहानी एक बच्चे की कहानी
है जिसे टिकटों का संग्रह करने का शौक है लेकिन यह शौक उसके पिता को बिलकुल पसंद नहीं
है। एक दिन बच्चे को पता चलता है कि उसका संग्रह किया हुआ खजाना चोरी हो चुका है। बाहर
से यह एक छोटी सी चोरी है लेकिन उस बच्चे के भीतर से बहुत कुछ सिरे से गायब कर जाती
है – उसका व्यक्तित्व। वह अपने दोस्त से नफरत करने लगता है। अपनी पत्नी से जीवन भर
प्यार नहीं कर पता है। उसका पूरा जीवन कड़वाहट का इतिहास बन कर रह जाता है। आखिर में
जब उसे पता चलता है कि उसके पिता ने .... तो वह फिर से टिकटों का संग्रह शुरू कर देता
है... इस कहानी को दिनकर शर्मा बहुत सहजता से धीमी आवाज में शुरू करते हैं। धीरे धीरी
अपने सहज सधे हुए अभिनय से वे दर्शकों को कहानी
की दुनिया की सैर पर ले जाने में कामयाब हो जाते हैं। उन्होने बहुत ही सात्विक अभिनय
किया ऐसे बहुत से स्थान कहानी में आते हैं जहां वे अपने सात्विक अश्रुधारा में दर्शकों
को भी नम व सराबोर कर जाते हैं। कहानी के अंतर्निहित संदेश कि छोटी से छोटी घटनाएँ
बच्चों की ज़िंदगी बदल देती है। अत: उन्हे दुनिया को अपनी निगाहों से देखने समझने दिया
जाए। दूसरा संदेश या कि जिंदगी के किसी भी मोड पर सपनों को पंख दिये जा सकते हैं। संदेश दर्शकों तक सटीकता से पहुंचे।
इस कार्यक्रम का दूसरा आकर्षण रहा रंगकर्मियों का सम्मान
समारोह। इसके तहत रंगकर्म में उल्लेखनीय योगदान के लिए रंगकर्मियों का शॉल व सम्मान
पत्र भेंट कर सम्मान किया, जिसमे पुराने व नए सभी प्रकार के रंगकर्मी शामिल थे। एक
तरफ जहां यह रंग संस्कार थियेटर ग्रुप की अनूठी पहल है वही यह पहल देशराज को कुछ दिन परेशान
भी करेगी। क्योंकि इतने बड़े जिले में कुछ नामों का छूटना अवश्यंभावी है। उन सवालों
का सामना देशराज को शायद करना पड़े। खैर यह पहल अच्छी है। इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
हर साल रंगकर्म में उत्कृष्ट कार्य के लिए एक दो रंगकर्मियों का सम्मान होना चाहिए
ताकि लोगों का उत्कृष्टता के लिए आग्रह भी हो। उसकी चयन प्रक्रिया भी निर्धारित होनी
चाहिए।
इस कार्यक्रम के सूत्रधार देशराज के लिए जितना कहा जाए
कम है। बस इतना ही कहना है कि उनका जज्बा और होसला बना रहे। इसी शिद्दत के साथ वह रंगकर्म
में सलग्न रहे। अपनी विनम्रता को बनाए रखे। क्योंकि सफलता सबसे पहले विनम्रता को चाटती
है। विनम्रता के साथ ही व्यक्ति स्थायी रूप से सफलता के शिखर पर बैठ सकता है। इस कार्यक्रम
में नेपथ्य से चार लोगों का योगदान साफ दृष्टिगोचर हो रहा था – अमित गोयल, नीलाभ ठाकुर, संदीप शर्मा, अविनाश और सचिन।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरी नाट्यकला व लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
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