दिनांक : 8/ 12/ 2016
मैंने कक्षा में जाते ही कुछ वाहियात किस्म के सवाल
पूछे,
जैसे - “आप क्या पढ़ रहे हैं?” लड़कियों का स्वाभाविक सा जवाब था, “सामाजिक ज्ञान।” मेरे हाथ क्या
लगा?
सवाल इसलिए व्यर्थ था चूंकि इसके
पीछे कुछ जाने की इच्छा थी ही नहीं। लड़कियां अर्द्धवार्षिक परीक्षा की तैयारी कर
रही थीं। यह मुझे पता था। मैं कुर्सी में धंसकर
आगे की तरतीब सोचने लगा। जवाब का सिरा थाम के वार्तालाप का सेतु बांधने की
कोशिश की,
“आपको सामाजिक ज्ञान पढ़ने में यानि समझने में कोई दिक्कत हो तो बताएँ।” मुझे लगता
है सवाल से ज्यादा अहम संप्रेषित हुआ। लिहाजा लड़कियों ने या तो सवाल सुना ही नहीं
या जवाब देना उचित नहीं समझा। बातचीत के लिए जमीन अभी समतल नहीं हुई थी। मेरे
सामने शेरगढ़ कस्तूरबा विद्यालय की कक्षा 6 की लड़कियां बैठी हैं। कक्षा का विभाजन व
बैठक व्यवस्था दो समूहों में है – एक समूह जो शिक्षिकाओं के मापदण्डों के आधार पर कक्षा
6 की दक्षताओं के अनुरूप हैं। दूसरा समूह उन लड़कियों का है जो पढ़ने – लिखने के
बुनियादी कौशलों को हासिल करने में अभी संघर्षरत हैं। इन्हे कक्षा दो के स्तर की
पुस्तकें दी हुई हैं। अभी पिछले माह की गई बेसलाइन मूल्यांकन की रिपोर्ट के अनुसार
ज़्यादातर लड़कियां अभी पढ़ना नहीं जानती हैं।
मैं कमरे को निहार रहा था और बातचीत के सूत्र तलाश
रहा था। मुझे लगता है कि किसी भी कक्षा में शुरू के पाँच मिनट शिक्षक के लिए बहुत
आसान नहीं होते हैं। मेरे मामले में तो हमेशा ही ऐसा होता है चाहे बच्चे परिचित
हों या अपरिचित। इन लड़कियों से मैं पहली बार मिल रहा था। मैंने नाम बताया और अपने
बारे में संक्षिप्त परिचय दिया। इस बार फिर मैंने एक और ऐसा सवाल किया जिसका जवाब मुझे
पहले ही पता था,
“कहानी किस-किसको पसंद हैं।” जवाब में आवाज़ नहीं हाथों हा हवा में लहराना हुआ। इस
सवाल के जवाब में मुझे एक और सवाल एक
अंकुर फूटता दिखा... मैंने कहा, “ये कहानियाँ आती कहाँ से हैं?”
“किताब से... ”
“लाइब्रेरी से... ”
“नानी से... ”
दादी से... मम्मी से ... टीवी से .... रेडियो से ... अखबार से .... दोस्त
से... सहेली से... पड़ौसी से......
निरर्थक से सवालों के बीज इतनी जल्दी बातचीत की फसल
के रूप में लहलहा उठेंगे यकीन न था। लड़कियां उमंग के साथ बातचीत में जुट गईं। अब मेरे पैर भी सख्त मिट्टी पे खड़े थे मैंने
पूर्व प्रश्न की बुनियाद पर ही दूसरी ईंट रखी, “अच्छा ये बताओ कि कहानी किस –
किस पर बन सकती है?”
एक झटके में हाथों की फसल फिर कमरे में लहलहा उठी।
हाथों की गिनती से मुझे समझ आ गया कि अब हम किधर की दिशा ग्रहण करने वाले हैं। लड़कियों
की शब्दावली का जायजा लेने के लिए मैंने उन्हें कहा कि आप बारी-बारी से बोलते जाएँ
और मैं ब्लैक बोर्ड पर उन्हें लिखता जाऊंगा। निम्नलिखित शब्द बोर्ड आकार लेने लगे। जो याद रह गए वे हैं -
बकरी
|
नाना
|
नानी
|
हाथी
|
मक्की
|
किसान
|
शेर
|
कुत्ता
|
दादा
|
रानी
|
कौआ
|
मक्खी
|
चिड़िया
|
मोर
|
पत्ता
|
दादी
|
पानी
|
औरत
|
हिरण
|
कबूतर
|
चोर
|
राजा
|
मैं शब्दों को बोर्ड पर जहां-तहां छितरा कर लिख रहा
था। इसके पीछे था आज का उद्देश्य – शब्द पठन। जब बोर्ड पर चार-पाँच शब्द आते हैं
तो शिक्षक के मन में उनको लेकर कई वर्गीकरण के विचार उभरने लगते हैं। जैसे सजीव – निर्जीव, जानवर-पक्षी या मनुष्य इत्यादि।
मैंने इन वर्गीकरन के आधार पर इन शब्दों को बोर्ड पर न लेकर आगे की गतिविधियों के
लिए स्थगित कर दिया। चूंकि इन लड़कियों के साथ पढ़ना सीखने के साथ काम किया जाना है
इसलिए मैं एक जैसी ध्वनि वाले, शब्द मैत्री वाले या फिर जिनमें मात्राओं का कोई
पैटर्न दिखाई दे, उन्हें एक जगह, पास-पास लिखना शुरू कर दिया। ताकि लड़कियों को पढ़ने
में, अंदाजा लगाकर शब्द को पहचानने में
मदद मिल सके।
बोर्ड के शब्दों से भर जाने के बाद यह बात भी स्पष्ट को गई कि कहानी में दुनिया की कोई
बी शै आ सकती है। थोड़ी सी चर्चा के बाद ग्रुप इस निष्कर्ष पर भी पहुँच गया कि
कहानी कोई भी बना सकता है चाहे वह पढ़ा-लिखा या या न हो। यह भी तय किया कि आज हम
मिलकर एक कहानी भी लिखेंगे।
अभी तय यह हुआ कि पहले कोई लड़की बोर्ड के पास आकार इन
सभी शब्दों को पढ़ के बताए। एक साथ चार हाथ हवा में लहराए। एक को बुलाया गया जिसे
अच्छे से पढ़ना आता है। लड़की ने एक-एक करके सारे शब्दों को पढ़ दिया। फिर मैंने कहा
कि कोई लड़की शब्दों पर उंगली रख कर एक बार पढ़ो। एक और लड़की ने आकर शब्दों पर उंगली
रख कर वाचन किया। इसमें कोशिश यह थी कि
जिन लड़कियों के लिए यह उक्ति प्रचलित है कि “वे नहीं पढ़ सकती .... या इन्हें तो
कुछ नहीं आता” वे इस सहभागी वचन प्रक्रिया में बोर्ड के शब्द जाल में से ध्वनियों
व आकारों का तारतम्य व पैटर्न पकड़ पाएँ और उनके दरम्यान कोई संबंध समझकर अपने मन
की छवियों को इन इबरतों के साथ रख कर देख लें। ये वो लड़कियां नहीं हैं
जिन्हें बिलकुल भी अक्षरों का एक्सपोजर न
हो। बल्कि इनमे से अधिकतर तो 5- 6 सालों से अक्षरों के महासागर के भंवर में डोल
रही हैं। बस इनके हाथ नहीं लगता है तो अर्थ रूपी किनारा।
तीन-चार बार लड़कियों (जो पहले से पढ़ सकती हैं) पढ़वाने
के बाद मेरा लक्ष्य अब वे लड़कियां थीं जिनके बारे में यह प्रचलित था कि वे
“पढ़ नहीं सकती”। अब मैंने इसे हल्का सा खेल का रूप दे दिया- दोना समूह से बारी
बारी से एक लड़की आएगी और पढ़ेगी। इस बार बारी थी दूसरे वाले ग्रुप की। थोड़े संकोच
के साथ आकर बोर्ड पर खड़ी हुई, मैंने कहा, “आपके लिए छूट है कि आप कहीं से भी पढ़ सकती हैं।”
लड़की ने शुरू से शुरू किया जैसे ही उसने दो शब्दों को पढ़ा पीछे से दो लड़कियों के
ताली बजने की आवाज़ आई। इन तालियों का समर्थन बाकी लड़कियो की नजरों में दृश्यमान
था। यह वह लड़की थी जिसके बारे में प्रचलित
है, “वह नहीं पढ़ सकती।” अब वह उंगली
बोर्ड कि और इंगित किए धीमें- धीमे पढ़ रही है अगले शब्द पर जाने से पहले पिछले को
देखती है,
मन मे बुदबुदाती है फिर मुखर होती है। आवाज़ बहुत धीमी है। उसकी आवाज को सुनने के
लिए कमरे के शोर ने भी अपने आप को उसी कि फ्रिक्वेंसी पर ट्यून कर लिया है। वह पढ़
रही है। शब्द दर शब्द। आखिर जैसे ही बोर्ड पर का आखिरी शब्द उच्चरित किया तो उसकी
ध्वनि से करतल ध्वनि शुरू हुई और पूरा हाल गुंजाएमान हो गया। लड़की के लिए इल्म का
एक तिलिस्म खुलने के लिए बाकी आलिम लड़कियों का अहतराम था।
इस तरह दोनों समूहों से अनवरत क्रम चलता रहा। सबने
पढ़ा। मज़े से पढ़ा। उत्साह से पढ़ा। इस गतिविधि में कोई नहीं थी जो निरक्षर थी। उनकी टीचर कि नज़रें भी आश्चर्यचकित थीं।
किसी ने कहा, “सर कहानी तो अभी बाकी है।”
मैंने कहा, “कहानी किस पर बनाएँ ?”
लड़कियाँ बोलीं, “कहानी तो किसी पर भी बन सकती
है।”
मैंने कहा, “इतने सारे नाम लिखे हैं, तय करके बताओ इनमें से किस पर
लिखें?”
“मोर”
“बिल्ली”
“शेर.... चूहा .... खरगोश....... ” खूब सारी आवाज़ें आने लगीं।
एक लड़की बोली, “सर, जानवरों की नहीं हम इंसान की
कहानी बनाएँ।”
दूसरी लड़की – “किसान की कहानी बनाते हैं।”
किसान पर सबकी सहमति बन गई।
कमरे की पिछली दीवार पर एक और ब्लैक बोर्ड बना हुआ
था। चूंकि सामने वाले बोर्ड पर शब्द लिखे हुए थे उसे हमने मिटाना उचित नहीं समझा। हमने
तय किया पीछे वाले बोर्ड का प्रयोग करते हैं। सब लड़कियाँ उस और घूम गईं।
मैंने लड़कियों से कहा कि कहानी का शुरू का वाक्य मैं लिख
देता हूँ,
बाकी की कहानी आपको वाक्य दर वाक्य पूरी करनी है। मैंने वाक्य लिखा –
एक किसान था।
मेरे लिए पहला वाक्य लिखना आसान था। लिकिन कहानी में
पहला वाक्य जितना आसान होता है दूसरा वाक्य उतना ही मुश्किल होता है। क्योंकि वह
किसी अज्ञात घटना में धंसा हुआ होता है जिसे अभी कल्पित कियाया जाना बाकी है।
दूसरे वाक्य के अवतरित होने से पहले सोचने वाले के मस्तिष्क में कहानी की एक
रूपरेखा होना लाज़मी होती है। भाषण में शायद इसके उलट होता है वहाँ पहला वाक्य एक
बड़ी चट्टान होती है। मैंने लड़कियों से कहा इसका दूसरा वाक्य सोचिए। लड़कियां एक
दूसरे की तरफ ताकने लगीं। कुछ लड़कियों के सिर्फ बुदबुदाने का स्वर है लेकिन कोई
मुखर नहीं हुई। फिर मैंने कहा कि आपका कोई भी बोला वाक्य इस कहानी का दूसरा वाक्य
हो सकता है। देखें कौन लड़की अपना पहला वाक्य कहानी में जोड़ती है, मेरे ऐसा कहने पर उषा खड़ी हुई और
बोली-
“वह इधर – उधर घूम रहा था। ”
उषा वही लड़की है जिसके बारे में पूर्व धारणा है कि वह
पढ़ नहीं सकती। लेकिन उसके पास भाषा है, एक जिंदा भाषा। जिसके साथ वह सोचने का काम करती है।
जिसके माध्यम से वह दुनिया से जुड़ती है। वह कल्पनाएँ करती है , सपने देखती है और उन्हें सहेजकर
स्मृति में रखती है। उसी कोश में से एक वाक्य इठला कर अब श्यामपट्ट पर जा चिपका
है। बोर्ड का पाठ अब उसी रंग और शक्ल का है जो उसकी स्मृतियों मे बंदनवार सा
आच्छादित है। अब उसके लिए पाठ और उसके शब्द सहोदर से हैं। शायद इसे ही तो पढ़ना कहते है।
उषा के लिए एक बार कमरा फिर तालियों से गुंजाएमन हुआ।
अब तीसरे वाक्य के लिए जद्दोजहद शुरू हो गई। मैंने
कहा, “उषा का किसान कुछ आवारा किस्म का
व्यक्ति लग रहा है। क्या आप उसके घूमने को कोई उद्देश्य देना चाहते हो? उषा की ही तरह संतोष, दरियाव पूजा जैसी लड़कियां हैं जिन्हें
पढ़ने में दिक्कत है। इस बार दरियाव खड़ी हुई और बोली –
“वह खाने के लिए चीजें तलाश रहा
था।”
दरियाव ने किसान की आवारगी को एक मक़सद देकर उसे अपने
गाँव के ही किसी दुनियादार व्यक्ति की शक्ल दे डाली जो सुबह से शाम तक खाने के
जुगाड़ में लगा रहता है। ज़िंदगी भर प्रेमचंद के होरी की तरह रोटी
की मरीचिका के पीछे भटकता रहता है।
एक और लड़की ने जैसे होरी की विडम्बना को भाँप
लिया और चौथे वाक्य के रूप में उसकी नियति को तय कर दिया और बोली –
“उसके पास खाने की चीज़ें खरीदने के
लिए पैसे नहीं थे।”
अब तक कहानी घुटनों के बल चल रही थी लेकिन इस वाक्य
के बाद उसमें पहिये लग गए। एक साथ कई लड़कियों के हाथ खड़े हुए वाक्य जोड़ने के लिए।
एक हाथ बाकायदा उषा का भी है। इस बार मौका मिला कक्षा 6 के स्तर की लड़की को। उसने
वाक्य दर्ज़ करवाया – “वह अपने भाई के पास गया और बोला कि मुझे कुछ पैसे उधार चाहिए।”
मैंने और तफसील के लिए लड़की से सवाल किया कि वह कौनसे भाई के पास गया, छोटे या बड़े? शायद वह अपने अनुभव में गई या यूं
ही तुक्का लगाया और वाक्य को यूं फिर से लिखवाया-
“वह अपने बड़े भाई के पास गया और
बोला कि मुझे कुछ पैसे उधार चाहिए।”
झट से एक लड़की खड़ी हुई और बोली, सर लिखो –
“उसके भाई ने कहा कि मेरे पास पैसे
नहीं हैं।”
ईश्वर जाने यह वाक्य अनुभव की तल्खी से जन्मा या फिर
उसने बड़ी चतुराई से घटना में नया मोड दे दिया। लेकिन वाक्य बोर्ड की इबारत में
दर्ज़ हो चुका था। अब कुछ लड़कियों की शून्य में सोचते हुए थीं और कुछ लड़कियों के सिर हल्की गुफ्तगू के किए जुड़े और एक
अंतराल बाद एक वाक्य किसान के लिए उम्मीद सरीखा कमरे की चुप्पी में उग आया –
“वह अपने दोस्त के पास गया और बोला
कि मुझे कुछ पैसों की जरूरत है।”
इस वाक्य ने जहां कहानी में एक उम्मीद जगाई वहीं एक
पूर्वाभास ने मुझे चिंतित भी कर दिया कि अब कहीं कोई लड़की उठ कर किसान की इस
उम्मीद को भी समाप्त न कर दे। और कह दे कि भाई ने भी मना कर दिया। मैंने भी सोच
लिया था कि यदि ऐसा हुआ तो मैं लड़कियों से सवाल जवाब करूंगा कि ऐसा क्यों किया
आपने। लेकिन लड़कियां प्रेमचंद की तरह निर्दयी नहीं निकलीं उन्होने प्रेमचंद की तरह
होरी को तिल-तिल नहीं रुलाया। उसके लिए यह विकल्प खुला रखा लेकिन सस्पेंस
बनाए रखा। अब नया वाक्य था-
“दोस्त ने पूछा कि आपको कितने
पैसों की जरूरत है?”
इस वाक्य का अगला वाक्य भी लगभग तय सा है। जो एक
गणितीय संख्या होगा। बस लड़कियों को किसान
के अर्थशास्त्र का थोड़ा जायजा लेना है और हल्का सा मानसिक गणितीय आकलन करना है। जो
भी, अब किसान ने कहा –
“मुझे पाँच सौ रुपयों की जरूरत
है।”
वाह री लड़कियों, गज़ब आपकी बराबरी व न्याय की
अवधारणा है आपकी ! आपने दोस्त की जेब भी किसान के ही नाप की सिल डाली। आखिर दोस्त
से कहलवा ही दिया –
“इतने रुपये तो मेरे पास नहीं
हैं।”
समझती क्या हैं ये लड़कियाँ ! पाँच सौ कोई बड़ी रकम तो
नहीं थी, दिलवा
देतीं तो क्या बिगड़ जाता दोस्त का? दोस्ती की सच्चाई पर संदेह अब लाज़मी हो गया है। आखिर
लड़कियों के मन में क्या है? क्या कोई संभावना बची है? एक लड़की ने उठ कर संभावना को
दोस्त में से ही निकाला। अब दोस्त आगे बढ़ कर पूछता है-
“आप इन पैसों का क्या करेंगे?”
लड़कियां भलीभाँति जानती हैं कि किसान की सबसी बड़ी
जरूरत वही चीज़ होती है जिसे वह सबसे ज्यादा उपजाता है और खेत – खलिहान से घर तक का
सफर तय करने तक वह चीज़ सबसे कम बचती है। एक लड़की अब किसान की बात को अगले वाक्य
में रखती है-
“इन पैसों से मैं बाजरा ख़रीदूँगा।”
ब्लैक बोर्ड की सीमाएं निर्धारित हैं लेकिन सृजनशीलता
की नहीं,
यदि दो वाक्यों में बात खत्म न हुई तो दूसरे बोर्ड की इबारत को मिटाना होगा।
लड़कियों ने इसे भी भाँप लिया और और दोस्त के एक वाक्य में कहानी को सुखांत बनवा
दिया –
“आप अपनी जरूरत के जितना बाजरा
मेरे घर से ले जाओ।”
इस एक वाक्य में लड़कियों ने न केवल कहानी को खत्म
किया बल्कि समाज में लगभग खत्म होती इस तरह की विनिमय की परंपरा का मुजाहिरा भी
करा दिया। अब किसान से औपचारिकता का वाक्य कहलवा कर घर भेज दिया।
कहानी बोर्ड पर आ चुकी थी। अब मेरा शिक्षक फिर जाग
गया। मैंने लड़कियों से कहा कि जरा पढ़कर तो देखो कि अपनी कहानी कैसी बनी नहीं। अपनी
कहानी पद लड़कियों को जहां बोर्ड पर
लिखी इबारत से तदात्मय स्थापित करने में मदद करता है वहीं कहानी बनी पद उन्हे सफलता का अहसास कराता है। जो कि हमारी
परंपरागत शिक्षण प्रक्रियाओं में दुर्लभ सा है। सभी लड़कियाँ अपनी कहानी पढ़ने को आतुर थीं। इसमें भी पूर्व की शब्द पठन
की प्रक्रिया की तरह ही कहानी को पढ़ा गया। सभी लड़कियों ने कहानी को पढ़ा। हाँ, उषा ने भी पढ़ा। सफलता व अपनापे के
अहसास के साथ।
दूसरी कहानियों पर सवाल जवाब हो सकते हैं तो क्या इस
पर भी लड़कियां बातचीत कर सकती हैं? मैंने कुछ सवाल किए भी जैसे -
“भाई ने किसान को पैसों के लिए क्यों मना किया होगा?”
लड़कियों ने चर्चा में बताया कि “ऐसा नहीं कि भाई के
पास पैसे नहीं थे, वह पैसे देना ही नहीं चाहता था।”
मैंने पूछा, “इसका क्या सबूत है कहानी में?”
लड़कियां – “इसका सबूत यह है कि जब किसान पैसे मांगने
गया तो भाई ने शुरू में ही मना कर दिया यह जाने बिना कि उसे कितने पैसे चाहिए।
इससे साबित होता है कि वह पैसे देना ही नहीं चाहता था। जैसे दोस्त ने पैसों के लिए
तब मना किया जब उसने जान लिया कि किसान को कितने पैसों की जरूरत है। इससे पता चलता
है कि सच में ही दोस्त के पास पैसे नहीं थे।”
बोर्ड और कालांश की सीमाओं में जकड़ी इस इबारत को हो
सकता है आप कहानी न माने। लेकिन एक कहानी आज शुरू हो चुकी है जो इस बोर्ड से
भविष्य के क्षितिज तक जाएगी। लड़कियां की इस इबारत में हो सकता है कहानी न हो लेकिन
लड़कियों के लिए अनंत संभावना है सृजनशीलता के मुस्तकबिल तथा एक शिक्षक के लिए
शिक्षण की। तत्काल मुझे एक संभावना नजर आई । मैंने लड़कियों से कहा कि पहले वाले
बोर्ड पर जो शब्द लिखे हुए हैं उन्हे अपनी नोटबुक में लिख लो लेकिन उन्हे जैसे के
तैसा नहीं लिखना है। इस शब्दों में कई तरह के समूहों मे रख कर देख सकते हैं। मैंने
लड़कियों से इस शब्दों को वर्गिकरण करके तालिकाबद्ध करने के लिए कहा।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरे लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
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