नाटक केवल
परफॉर्मेंस (Product) मात्र नहीं होता है। वह प्रक्रिया ज्यादा
होता है। इसके आउटकम दोहरे होने चाहिए। एक दर्शक के स्तर पर और दूसरे अभिनेता के
स्तर पर भी। अभिनेता दर्शक तक रस को प्रवाहित करने वाली वाहिनी मात्र नहीं है। वह
मधुमक्खी की तरह है, जो महीनों की मेहनत व कवायद के बाद छत्ते में मधु एकत्र करता
है। और इस सारी प्रक्रिया में उसकी जिंदगी गहरे से प्रभावित होती है। समीक्षक का
धर्म बनता है कि वह यह भी देखने का प्रयास करे कि मधुकोश में मधु इकट्ठा करने की
प्रक्रिया क्या रही है। क्या मधुमक्खी बार-बार हलवाई की चासनी के थाल पर जाकर बैठी
है या फिर उसने फूल दर फूल घूम कर उनके अंकुरण परागण को देखकर रस एकत्र किया है?
किस्सा मुख़्तसर यह है कि नाटक अगर लोक शिक्षण करता है तो अभिनेता भी
दर्शक से ज्यादा बड़ा बेनिफिशियरी है। नाटक के दर्शक पर प्रभाव का तो आकलन होता है
लेकिन वह अभिनेता को कहाँ तक छू गया है यह चुनौती है समीक्षक के लिए और सीमा भी।
इस तरह केवल
नाटक की प्रस्तुति पर राय देने और प्रक्रिया की अनदेखी से क्या समग्र मूल्यांकन हो
सकेगा? हमारे यहाँ रंगप्रक्रियाओं के लिए कुछ समय से ‘प्रोडकशन’ शब्दावली का प्रयोग बहुत होने लगा
है। यद्यपि प्रोडक्शन शब्द भाषा की दृष्टि से क्रिया (प्रक्रिया) का द्योतक है
किंतु, प्रोडक्शन शब्दावली शायद इंडस्ट्री से आती है। जो
शब्द जिस क्षेत्र से आता है वहां का मूल्यबोध भी साथ लेकर आता है। उत्पाद व
उत्पादन का जो नवीन अर्थशास्त्र अन्तिंम रूप से प्रोडक्ट के इर्दगिर्द केंद्रित हो
जाता है, प्रक्रिया को कोई नहीं पूछता, वह कोई भी हो सकती है, असेंबलिंग, आउटसोर्सिंग...येन केन प्रकारेण। जो हमारी वर्तमान सांस्कृतिक मूल्यों का भी
द्योतक है। जिस प्रकार हमारी अधिकतर प्राचीन शब्दावली युद्धों से प्रभावित है। क्योंकि
इतिहास रक्तरंजित रहा है। साहस, वीरता, लक्ष्य, रणनीति आदि शब्दावली के साथ हमारे जेहन में
कोई समुराई ही आता है, कोई लंगोटी वाला नहीं आता जो सत्य के
लिए जीवट के साथ खड़ा होता है।
बहरहाल,
अगर उपरोक्त नाटक के प्रस्तुति (प्रोडक्ट) पर कुछ कहना हो तो एक
लाइन में कह कर समाप्त किया जा सकता कि 50 फीसदी नाटक
दर्शकों तक पहुंचा ही नहीं। यह अतिशयोक्ति लग सकती है। लेकिन यह भी सच है कि प्रथम
पंक्ति में बैठे लोगों को भी बहुत प्रयास करने पर संवाद सुनाई पड़ रहे थे।
इसका मतलब यह
कतई नहीं कि नाटक का कलापक्ष कमज़ोर था। इस सम्प्रेषणीयता की समस्या के लिए अभिनेता
बिलकुल जिम्मेदार नहीं। इसके पीछे तकनीकी पक्ष है। नाटक महीनों की अथक मेहनत से
तैयार किया गया था। यह नाटक एक नाट्यप्रशिक्षण कार्यशाला में तैयार हुआ था। नाटक
के युवा निर्देशक खेमचंद वर्मा अलवर रंगमंच पर नया नाम है। खेमचंद ने राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय की सिक्किम इकाई से नाट्यकला का प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
सितम्बर माह में खेमचंद ने अलवर के युवाओं के साथ एक कार्यशाला की शुरुआत की।
उन्होंने पेशेवर तरीके से इसे किया। उद्घाटन के वक़्त खेमचंद ने अलवर के समस्त नए
पुराने रंगकर्मियों को आमंत्रित किया था। उसका यह विनम्र जेश्चर उनके बारे में
सकारात्मक माहौल बनाने में मददगार रहा। खेमचंद की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी
चाहिए कि जहाँ अलवर में नाटक के लिए चार लोग जुटाने में बड़े बड़ों को पसीने आते हैं, वहीं इस नवयुवक ने 10-12 लोगों की एक ऐसी टीम
तैयार कर ली, जो फीस चुकाकर सीखना चाहते हैं। उससे भी महत्वपूर्ण है, उस टीम को चार महीने तक जोड़े रखना और उसे प्रस्तुति तक ले जाना। टीम के
जुड़ाव व ठहराव के पीछे कार्यशाला का सही नियोजन है। वैविध्यपूर्ण गतिविधियाँ
आधारित कार्यशाला उनकी रंगमंच में प्रशिक्षित होने का द्योतक है। इस कार्यशाला के
दौरान उन्होंने लगभग हर सप्ताह शहर के किसी वरिष्ठ रंगकर्मी का संवाद कार्यशाला के
संभागियों से करवाया। किसी भी कार्यशाला के आयोजन के लिए स्थान मिलना बहुत ही
मुश्किल काम है। ऐसे में खेमचंद ने रघु कोम्पेक्स के बेसमेंट को अपने स्टूडियो के
लिए सुसज्जित किया है, जिसे देखकर उनकी लंबी प्लानिंग के
सूचक नज़र आते हैं।
यूँ तो खेमचंद
नए पुराने रंगकर्मियों के संपर्क में सतत रूप से इस दौरान रहा फिर भी मंचन के लिए
कला भारती रंगमंच को चुनने का निर्णय सूझबूझ का नहीं रहा। यह सभी रंगकर्मी अच्छे
से जानते हैं कि कलाभारती का मंच नाटक के लिए नहीं है। इसमें साउंड की ईको (गूंज) की
ज़बरदस्त समस्या है। नाटक में नाट्यशाला का अपना महत्व है। नाट्यशाला का रूपाकार नाटक
की संप्रेषणीयता को गहरे प्रभावित करता है। यदि ऐसा न होता तो क्या जरूरत थी कि आज
से हजारों साल पहले भरतमुनि नाट्यशास्त्र में रंगशाला के प्रकार व उसकी पैमाइश
लिख रहे थे।
यद्यपि अलवर शहर
में आधुनिक सुविधाओं से युक्त प्रताप ऑडिटोरियम बनकर तैयार है लेकिन उसकी ऊँची
दरें रंगकर्मियों के लिए अफोर्डेबल नहीं हैं, यह सब
जानते हैं। जब नाटक बिना टिकट के ही दिखाना हो तो सूचना केंद्र के मुक्ताकाशी
रंगमंच का कोई जवाब नहीं। मैंने अपने अधिकतर नाटक इसी
मंच पर खेले हैं। वैसे भी यह मंच सबके लिए निशुल्क उपलब्ध है। दूसरा मंच राजर्षि
अभय समाज का मंच है। यह भी लगभग कलाभारती जितना मूल्य चुकाने पर उपलब्ध है। तीसरा
विकल्प है नगरपालिका का टाउन हॉल। यहाँ अभिनय स्थल पर छत है और सामने का आँगन खुला
हुआ है। हालाँकि यहाँ पिछले 15 साल से कोई नाटक नहीं खेला
गया। नगरपालिका की ईमारत के प्रथम तल पर जो हॉल है उसका भी सीमित दर्शकों के लिए
उपयोग किया जा सकता है। आज से लगभग 10 साल पहले जेडी
अश्वत्थामा ने इस हॉल का अपने नाटकों के मंचन के लिए बहुत इन्नोवेटिव तरीके से
प्रयोग किया था। इसी प्रकार डेढ़ दशक पहले नीलाभ पंडित जी ने हम युवाओं को लेकर
सैनिक स्कूल के रंगमंच पर कोर्टमार्शल नाटक खेला था। मेरी स्मृति में आज भी
याद ताज़ा है कि किस प्रकार दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड और कोहरे में दर्शक मुक्ताकाशी
प्रांगण में जमे रहे थे।
इस इतिवृत्त को
दोहराने के पीछे आशय महज़ इतना है कि रंगमंच में अभाव को नकारात्मक संज्ञा नहीं
माना जाता। अभाव हमें रोकता नहीं हैं बल्कि अपनी सीमाओं को विस्तार देने को
प्रेरित करता है। अभाव की वजह से ही अलवर रंगमंच में नवाचारी प्रयोग हो सके।
थोडा सा अभिनय
के बारे में
नाटक में स्वयं खेमचंद लेखक की
भूमिका में थे। उन्होंने जीवन की जटिल परिस्थितियों में फंसे लेखक की भूमिका से
पूरा न्याय किया। उनकी पत्नी की भूमिका में अनामिका अपनी उपस्थिति मंच पर और
दर्शकों के ज़ेहन में दर्ज करवा गई। अनामिका अपेक्षकृत मंच पर नई हैं। उनके अभिनय
में बहुत निखार है। उन्होंने अलवर रंगमंच पर अपनी जगह बना ली है। पत्रकार के रूप
में निधि चौहान ने सहज अभिनय किया। उनके साथ फोटोग्राफर के रूप में हिमांशु ने
अपनी छरहरी काया से परिस्थितिजन्य हास्य बखूबी पैदा किया। नौकरानी के रूप में पराग
शर्मा की हर एंट्री कहकहा पैदा कर जाती थी। मोहन छाबड़ा रंगमंच पर पुराने हैं। उनके
अभिनय पर फ़िल्मी प्रभाव ज्यादा नज़र आता है। लेखक की माँ के रूप में जयशिला एम ने बहुत
ही संतुलित अभिनय किया। उनमे बहुत संभावनाएँ नज़र आती हैं। उन्हें और अभिनय के अवसर
मिलने चाहिए। विशाल शर्मा बहुत उम्दा अभिनेता हैं। वे पूरे शारीर से बोलते हैं। वो
शरीर से लाउड हैं और वाणी से धीमे। उन्हें अपनी आवाज़ पर और काम करने की जरुरत है।
वे जरुरत से ज्यादा धीमा बोलते हैं। अमित सोनी ने इन्स्पेक्टर के रूप में अपनी
नाटकीयता से क्लाइमेक्स पर द्वंद्व को रचने में मदद की। इसके आलावा साज़िद और मंजू
सैनी ने भी स्टेज पर थे।
हास्य नाटक में दर्शकों के
कहकहे सफलता का सूचक होते हैं। क़हक़हों को भी अपने अभ्यासों में पूर्वानुमानों कर नियोजित करना होता है। जब दर्शक लंबे क़हक़हों में चले जाते हैं तो अभिनेता को उनके
लौटने का इंतज़ार करना होता है। अगर ऐसा न हो तो दर्शक के हाथ से कथा की डोर छूट
जाती है। संगीत या ग़ज़ल के कार्यक्रम में इसे नियोजित करने की जरूरत नहीं होती है।
जब किसी जगह पर दर्शक की दाद मिलती है तो गायक रुकता नहीं बल्कि अगले सम पर जाकर
उसमे और खुशबू घोल कर पुनरावृत्ति कर देता है। कई बार तीन-चार पुनरावृत्तियाँ भी
चमत्कार पैदा कर देती हैं.... लेकिन अभिनेता इतना खुशनसीब नहीं होता उसे ठहरना ही
पड़ता है और उसी छूटे हुए सूत्र को दर्शक को वहीं से पकड़ना पड़ता है। इस नाटक में यह
सूत्र कई बार फिसला।
कुछ खास बातें
- मुझे लगता है कि इस नाटक का शीघ्र ही एक मंचन और होना चाहिए।
इसके लिए कलाभारती के आलावा जगह को चुना जा सकता है।
- इस कार्यशाला में एक बहुत ही उत्साही और नए कलाकारों
की टीम निकल कर आई है। निःसंदेह ये ऊर्जा से भरे हुए हैं। ये टूट कर बैठ नहीं
जाएं इनके साथ खेमचंद को कोई फॉलोअप प्लान करना चाहिए।
- शहर की अन्य संस्थाओं के निर्देशक भी इस टीम को लेकर
कोई गतिविधि शुरू कर सकते हैं।
- खेमचंद ने बहुत सुरुचिपूर्ण तरीके से अपना स्टूडियो
तैयार किया है। यदि वह अन्य संस्थाओं के लिए उपलब्ध हो जाए तो रिहरसल की जगह
की समस्या का हल हो सकता है।
खेमचंद से अलवर रंगजगत को बहुत
उम्मीद है। यह सिलसिला रुकना नहीं चाहिए।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरी नाट्यकला व लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
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दलीप वैरागी
09928986983
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