ट्रेन
के सेकंड क्लास डब्बे में बैठा हूँ। पूरे कम्पार्टमेंट में हर तीसरे व्यक्ति ने
कानों में हैडफोन लगा रखा है। बगल में बैठी युवती ने हैडफोन के साथ-साथ एक हल्की
सी मुस्कुराहट को भी मेंटेन कर रखा है। एक सामने बैठे नवयुवक की उँगलियाँ स्क्रीन
पर ऐसे चल रही हैं जैसे किसी मजदूर की
बलिष्ठ पैरों की पिंडलियाँ गारा तैयार करते हुए तेज़ी से चलती हैं। उसके चेहरे पर
भाव आ जा रहे हैं। ऊपर की बर्थ पर अधलेटे अधेड़ भी हैडफोन लगाकर कुछ सुन रहा है।
अचनाक उसके मुह से निकलता है, “वाह! क्या बात
है...”
ट्रेन
का डब्बा, बस, रेलवे स्टेशन या कहीं और
हम एक दृश्य के गवाह ज़रूर बनते हैं। कानों में हैडफ़ोन लगाकर कोई कोई न कोई बैठे हुए संगीत सुनने में मग्न ( ? ) हैं। अचानक उनमें कोई झूम उठता है या या अधिक तरन्नुन में आकर
"वाह ! क्या बात है" कह कर दाद दे
बैठता है। पास में बैठा हुआ व्यक्ति इस आनंद से बिलकुल निर्लिप्त रहता है। कैसी
विडम्बना है कि कोई संगीत के झरने में नहा रहा है और पड़ौसी पर कोई बूँद नहीं गिरती
है। यहाँ मेरी चिंता पड़ौसी की संगीत से वंचितता की नहीं बल्कि सुनने वाले की
बेचारगी की है। पास खड़ा व्यक्ति उसकी वाह कि ध्वनि से इतना भी अंदाज़ा नहीं लगा पता
कि यह दाद 'मुन्नी की बदनानामी', 'शीला
की जवानी' को मिली है या भीमसेन या पंडित जसराज की क्लासिलकल
गिरारियों को समर्पित है। आमतौर पर यह श्रीमान यो-यो की 'गीत
वाचन' शैली के इस्तकबाल में होती है।
जो
लोग सत्तर - अस्सी के दशक में या उससे पहले पैदा हुए उन्हें यह दृश्य जरूर फ्लैश
बैक में ले जाता होगा जब संगीत का आनंद लेने के लिए इकलौता साधन रेडियो हुआ करता
था। कुछ मायनों में मोहल्ले भर का इकलौता। यूँ तो प्रायः हर घर में रेडियो होता ही
था। लेकिन बजता एक ही था। जब पड़ौसी के रेडियों से स्वर लहरी मद्धिम सी सुनाई पड़ती
और हम अपना रेडियो सेट ओन करने की कोशिश करते तो माँ कहती,
"क्यों फालतू में सेल फूंकते हो आवाज़ आ तो रही है।"
बात में दम भी होता था। यदि यहाँ भी बजता तो वही रेडियो स्टेशन ही।
दूसरी जगह खबरें और वार्ताएं सुनने में तब मन कहाँ लगता था।
एक
बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि रेडियों के संगीत या मनोरंजन ने व्यक्ति की
कार्यकुशलता व उत्पादकता को कभी कम नहीं किया। छुट्टियां लेकर या ऑफिस से गोता
मारकर वर्ल्ड कप के क्रिकेट मैच देखने की कामचोर व निठल्लेपन की संस्कृति बहुत
पुरानी नहीं है। यह टेलीविजन की देन है। जिसमें दृश्य तो हैं लेकिन 'विज़न' सिरे से गायब है। रेडियो में स्वर कान के
रास्ते जरूर आते हैं लेकिन दृश्य आँखों के सामने नहीं बल्कि पीछे मन में बनते हैं
बिलकुल आजकल की ऐचडी व थ्री डी तकनीक से भी गहरे, उजले,
रंगीन व स्पष्ट। इस लेख का उद्देश्य आधुनिक तकनीक मोबाईल या
टेलीविजन को कमतर बताना बिलकुल नहीं। इनकी ज़बरदस्त मज़बूतियाँ है। मैं चाहता हूँ कि
कोई इनके बारे में भी लिखे।
एक
बात पक्की है कि जब भी किसी नौजवान को हैडफ़ोन लगाकर भीड़ में भी अकेलापन खोजते
देखता हूँ तो गांव का वह दृश्य जरूर आँखों के सामने जीवित हो जाता है। सर्दी का मौसम
है। खेत में गेहूं की फसल की सिचाई हो रही है। हरी-हरी पत्तियों की नोक से चू कर
पिंडलियों को स्पर्श करती सर्द ओस की बूँदें सुन्न करने का अहसास करवाती थीं।
पृष्ठभूमि में ट्यूबवैल के इंजन का खटर-पटर का नाद होता था। क्यारी की मेड पर रखा
रेडियो अचानक बोल उठता, " ये आकाशवाणी है और अब सुनिए आपकी फरमाइश के
गाने..." और इस आवाज के सुनाई देने के बाद नुकीली
पत्तियों की सरसराहट, ओस की बूंदों सर्द चुभन व इंजन की
खड़खड़ाहट पृष्ठभूमि में विलीन हो जाती। बस ध्यान में एक ही स्वर रह जाता,
" ...अब सुनिए मोहम्मद रफ़ी की आवाज में यह गाना, जिसे सुनने के लिए फरमाइश की है..." इतने में
ही पास के खेत में से किसी दूसरे किसान का स्वर उभरता, " भई... रेडिया की आवाज ऊँची कर... मेरा लड़का भी रेडियो में चिट्ठी लिखता
है। ज़रा सुने तो क्या फरमाइश की है..." यहीं से यह
वैयक्तिक गतिविधि अनायास ही संगीत के आनंद व उसकी अभिव्यक्ति का सामूहिक आयोजन बन जाती। आमतौर से बजने वाले गाने अनायास महत्वपूर्ण बन
जाते। उनसे तादात्म्य स्थापित हो जाता। स्मृतियों में अमिट इबारत बन जाते। कला के
आनंद की अनुभूति व्यक्ति के मन में स्थित भले ही हो लेकिन उसकी अभिव्यक्ति में एक
सामाजिक साझा अनिवार्य होता है। न केवल साथ सुनना व गाना बल्कि एप्रिसिएशन में भी
एक तरह से सामाजिक सौंदर्यबोध से संगति की दरकार रहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो ये
कहावत अस्तित्व में नहीं आती कि रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था।
निसंदेह कहावत का सन्दर्भ अलग हो।
आज
मोबाईल ने संगीत को बहुत सुलभ बना दिया है लेकिन सुगम नहीं। रिवर्स,
फॉरवर्ड और पॉज बटन ने गीतों के प्राण निकल दिए हैं। गीत, संगीत, शब्दों व भावों की एक इकाई होते हैं। सुनने
वाले के लिए एक पैकेज, लेकिन इन तीन बटनों ने इसे तहस नहस
किया है। सुलभ संगीत सुगम नहीं हो पाया इसका यही प्रमाण है - संगीत के उस्ताद कहते
रहे हैं कि अगर सुर पकड़ना है तो जितना हो सके उतना अच्छा संगीत सुनो। यहाँ हाल यह
है कि हर तीसरे व्यक्ति के कानों में हैडफ़ोन की तार ठुंसी हुई है, ज्यादातर समय, लेकिन सुरीलों की संख्या में कोई
उल्लेखनीय इज़ाफ़ा नहीं हुआ है। अगर मैं कहूँगा कि कमी हुई है तो अतिशयोक्ति हो सकती
है। इसलिए मैं इस विवाद की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। ये तो संगीत के उस्ताद
बताएँ तो बेहतर है।
मुझे
लगता है, इसका एक कारण है, गाना सीखने
के लिए सुनने के साथ गुनगुनाना भी जरुरी होता है। मैं ऐसे कितनों को जनता हूँ जो
रेडियो के साथ गुनगुना कर गायक बन गए। लेकिन ये जो यत्र-तंत्र हैडफ़ोन संस्कृति है, यह हमें साथ गाने की छूट नहीं देती। ऐसा क्यों? इसका
कारण है। जब हैडफ़ोन लगाकर हमारे द्वारा दी हुई दाद हास्यास्पद लग सकती है तो गायकी पास वाले के लिए कम मारक साबित नहीं होगी।
रेडियो व् दूसरे माध्यमों के साथ गुनगुनाने में आपको छूट मिल जाती है। ओरिजनल गाने
के संगीत की चासनी में लिपटी आपकी अप्रशिक्षित आवाज श्रोता के लिए काबिले बर्दाश्त
हो जाती है, जो आपको भी होंसला देती है। लेकिन हैडफ़ोन लगाकर
हम अपना ही सुर दागते हैं असली सुर तो तारों की जकदबंदी में फंस कर हमारे पास ही
रह जाता है। पड़ौसी के पास क्या जाता है अंदाज़ा लगाएं...
हैडफोन वाला संगीत-श्रवण एक पल को आनंद तो दे जाता है लेकिन गुनगुनाने का होंसला नहीं।
यह लेख
अनुभव पर आधारित है। शास्त्र पढ़े हुए दोस्त माफ करेंगे व मार्गदर्शन भी।
(कृपया अपनी टिप्पणी अवश्य दें। यदि यह लेख आपको पसंद आया हो तो शेयर ज़रूर करें। इससे इन्टरनेट पर हिन्दी को बढ़ावा मिलेगा तथा मेरी नाट्यकला व लेखन को प्रोत्साहन मिलेगा। )
दलीप वैरागी
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