Monday, July 2, 2012

थिएटर ज़िंदगी के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना मॉर्निंग वॉक या वर्जिश

किशोर–किशोरियों के साथ अकसर जीवन कौशल के मुद्दों पर काम करने के मौके मिलते रहते हैं। उनके साथ जिन बुनियादी कौशलों पर काम किया जाता है उनमे से एक है – सम्प्रेषण का कौशल। ये ऐसा कौशल है जिसको साधने से इंसान के सब सामाजिक रिश्ते सध जाते हैं। पर ये कौशल आसानी से सधता नहीं है। प्रशिक्षणों में किशोरों के साथ इस कौशल पर काम करते तो हैं लेकिन दिल को संतुष्टि नहीं होती। कम्यूनिकेशन की जो गतिविधियां अकसर की जाती हैं, वे महज अटकलबाज़ी भर होती हैं जिनसे सामने वाले को थोड़ा चमत्कृत करके सम्प्रेषण के मुद्दे पर लाना और उसके महत्व को बताना भर होता है। बात कोई जमती नहीं। सब ऊपरी तौर से होता है, खोखला! कौशल पकड़ में नहीं आता। कौशल के स्तर पर वैक्यूम ही रह जाता है। इसमें सबसे हास्यास्पद स्थिति यह होती है कि यह वैक्यूम दोनों तरफ होता है, ट्रेनी में और ट्रेनर में भी।
clipart_communicationकिशोर उम्र में हमारी परंपरा से ही रिश्तों में एक लिमिट तक ही संवाद की गुंजाइश होती है। माँ – बाप के साथ आदेशों, हिदायतों और जरूरतों तक ही संवाद होता है। कुछ मुद्दों पर बात करने की सख्त मनाही है। एक दोस्ती का रिश्ता ऐसा होता है जहा बराबरी के स्तर पर दो तरफा संवाद होता है। इसमे भी जरा सी चूक हो जाने पर रिश्तों के दरम्यान अबोला आ बैठता है। बहुत गहरे यारानों में भी देखने में आया है कि बातचीत ऐसी टूटी कि फिर ताउम्र जुड़ ही नहीं पाई। ऐसा नहीं कि ये अबोला सिर्फ दोस्तों में ही होता है। यह खून के रिश्तों में भी होता है। मेरे कॉलेज के दिनों में मेरे एक दोस्त की अपनी माँ से साल डेढ़ साल तक बातचीत बिलकुल बंद रही। ऐसी संवादहीनता कि स्थिति में मुश्किल यह होती है कि लंबी अवधि तक बातचीत बंद रहने से अबोले का इतना अभ्यास हो जाता है कि जिन स्थितियों की वजह से बातचीत टूटी थी उन के खत्म हो जाने पर भी वह सूत्र नज़र नहीं आता, जिससे दुबारा जोड़ा जाए। कौन शुरू करे ? कहाँ से शुरू करें? इसी ऊहापोह में सारी ज़िंदगी अबोले में ही कट जाती है। अबोला सब स्तर पे है। दो इन्सानों में, दो कुनबों में और दो पीढ़ियों में भी। दो मुल्कों मे जब बातचीत रुकती है तो सिर्फ गोलियां और शमशीरें चलती हैं और रेल, बसें, जहाज़ बहुत कुछ है जो थम जाते है। बरसों तक सब कुछ थमा रहता है और हम बोलचाल शुरू होने के लिए इंतज़ार करते हैं एक गैरवाजिब सी वजह का, जब कोई भूकंप, सुनामी या कोई आपदा आती है तो फिर मदद के लिए हाथ बढ़ते हैं। बात भी शुरू होती है। इसमें बुरा कुछ नहीं लेकिन इस बातचीत की पहल शांति काल में भी हो सकती है लेकिन इस तरह का अभ्यास नहीं है।
हमारी ज़िंदगी की ज़्यादातर मुश्किले सम्प्रेषण से जुड़ी हुई हैं। लेकिन हमारी पूरी शिक्षा में इसको साधने की कोई कोशिश दिखाई नहीं देती है। शिक्षा व्यवस्था में जो कोई भी कम्यूनिकेशन की ट्रेनिग के प्रयास हैं उनका मतलब अँग्रेजी भाषा बोलने और इसके साथ-साथ एक खास तरह की कृत्रिमता औढने से ही लिया जाता है। प्रभावी सम्प्रेषण के मायने ये हैं कि कौन किसको कितनी आसानी से साबुन या टूथपेस्ट बेच सकता है। सम्प्रेषण का कौशल अपनी ही बात कहने से कुछ ज्यादा होता है। यह दो के बीच का मसला है। इसलिए दूसरे के नजरिए से भी देखने की जरूरत होती है। दूसरे के नजरिये से देखना हम कहाँ सीखते हैं?
हमारी विडम्बना यह है कि यहाँ ज़िंदगी और शिक्षा अलग-अलग पटरी पर चलती हैं। रिश्ते तो ज़िंदगी का विषय हैं तो सम्प्रेषण की समस्याओं के समाधान के लिए कोई ऐसा शिक्षा का माध्यम चाहिए जो ज़िंदगी की तरह ही जिंदा और सच्चा हो। जो ज़िंदगी के साथ गलबहियाँ डाल कर चले। जहां सब कुछ रुक जाए लेकिन बातचीत नहीं रुके।
निसंदेह ऐसा माध्यम है रंगमंच। लेकिन इसकी ताकत को पूरी तरह से नहीं पहचाना गया। यहाँ ज़िंदगी तो है लेकिन यह शिक्षा व्यवस्था से बहिष्कृत है। वो लोग जो शिक्षण प्रक्रियाओं के नवाचरों से जिनका वास्ता रहता है या एनजीओ सेक्टर से हैं वहाँ रंगमंच के माध्यम के प्रयोग नुक्कड़ नाटक के रूप में दिखाई देते हैं। यहाँ भी फोकस अपनी बात कहने पर ही होता है। इसके अलावा कुछ उत्साही शिक्षक अपने रोज़मर्रा के शिक्षण कर्म में विषयवस्तु को बेहतर तरीके से समझने के टूल के रूप में थियेटर के प्रयोग करते दिखाई देते हैं। बेशक यह बहुत ही नवाचारी व विद्वत्तापूर्ण काम है लेकिन रंगमंच का वह रूप, जो कि उसका असली रूप है, वह हजारों सालों से होता हुआ हम तक पहुंचा है। वह उपेक्षित दिखाई देता है। इंसान में सामाजिक कौशल विकसित करने में अगर कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है वह है - फॉर्मल थिएटर। यूं तो फॉर्मल थिएटर का फोकस फाइनल प्रोडक्ट पर रहता है। ऑडिएंस के सामने जो प्रस्तुति जाती है उसमें कोई कमी नहीं होनी चाहिए। प्रस्तुति के प्रति ये जो जवाबदेही आती है वह हमारे कला के प्रति पेशेवरना रुख से आती है। और यह दर्शक के प्रति उत्तरदायित्व बोध इस रंगमंच की प्रक्रिया को बहुत महत्वपूर्ण बना देता है। अगर इसके निर्माण की प्रक्रिया पर गौर किया जाए तो इसमें जुड़े हर कलाकार के इंसान बनने में यह महत्वपूर्ण रोल अदा करती है।
सम्प्रेषण के संदर्भ में सिर्फ इतना कहना भर ही काफी नहीं कि थिएटर में कहने-सुनने की बहुत सारी तकनीकें और अभ्यास हैं। जिनको सीख कर सम्प्रेषण में धार आ जाएगी। इस मुगालते से निकलना जरूरी है। जो लोग रंगमंच से जुड़े हैं उनके सामने यह बात अक्सर आती है कि “फलां व्यक्ति के बोलने की पिच ठीक नहीं, उच्चारण साफ नहीं... तुम कुछ एक्सर्साइज़ करवाओ इनकी आवाज़ ठीक करने के लिए।” शुरू-शुरू में मैंने बीड़ा उठा लिया था दोस्तों के उच्चारण को ठीक करने का। लगा उनको बताने कि आप कहाँ ‘स’ और ‘श’ के उच्चारण का घपला करते हैं। और शुरू हो गया ध्वनियों का खालिस अभ्यास। इसका उल्टा असर हुआ। दोस्त लोग उन शब्दों में भी गफलत करने लगे जिन्हें वे पहले आसानी से उच्चरित करते थे। इसकी वजह थी ध्वनियों के प्रति सावचेती का अतिरिक्त आग्रह। जल्दी ही समझ में आ गया की भाषा का मसला जिंदा भाषा मे ही हल हो सकता है। मतलब शब्दों में, वाक्यों के अंदर न कि निरपेक्ष रूप से ध्वनियों की निरर्थक कवायद। मर्ज तो पकड़ में आ गया।लेकिन समाधान का रास्ता कहाँ है? समाधान के रास्ते अनवरत अभ्यास में होकर जाते हैं। और हमारी ज़िंदगी में रंगमंच के अलावा कोई लाइव मंच नहीं जहा इस तरह के अभ्यास के पर्याप्त मौक़े हों।
नाटक में ही इतनी फुर्सत होती है जहां आप एक ही पंक्ति को बोलने के सैकड़ों अभ्यास कर सकते हैं। एक ही संवाद को अलग-अलग अंदाज़ से बोल कर देख सकते है। तब तक जब तक आपके चरित्र और भाव के मुताबिक न हो ओर उसके सहयोग मे आपके शरीर के अन्य अंग भी एक सुर होकर जुट जाते हैं। इसमें यह प्रभावी तरीके से इस लिए भी हो जाता है कि इसमे आप अपने आप से निकल कर खुद को देखते हैं। खुद से तभी निकला जा सकता है जब आप पहले खुद को तटस्थ भाव से देख सको। यह सम्प्रेषण का वह पहलू है जिसमें आप अपने बात कहने के औजारों को धार दे सकते हैं। और ये अभ्यास किसी स्पीकिंग क्लास की निरर्थक ड्रिल के जैसे नीरस नहीं होते। यह नाटक मे एक समझ को लेकर होते हैं। और इसमें नाटक की प्रस्तुति के सुख का जबरदस्त मोटीवेशन और रसास्वादन भी जुड़ जाता है।
सम्प्रेषण का दूसरा और महत्वपूर्ण पहलू होता है सामने वाले को सुनना। कोई भला दूसरे को क्यों सुने? दूसरे को सुनने के लिए यह ज़रूरी है सामने वाले का रेस्पेक्ट हो। हम किसी का रेस्पेक्ट कब करते हैं? जब हम खुद को सामने वाले की जगह पर रख कर देखते हैं। नाटक या अभिनय का बीज तत्व ही दूसरे की जगह खुद को रखना ही होता है। दूसरे की जगह पर खुद को रखने की पहली शर्त होती है खुद से मुक्त होना यानि अहम से मुक्त होना। अभिनय का संस्कार हमें संवेदनशील बनाता है। सिर्फ अहसास के स्तर पर ही नहीं सामने वाले को सुनने के बारीक अभ्यास रंगमंच निर्माण प्रक्रिया में हैं, जो कि इसकी कथोपकथन की बुनियादी परिकल्पना में ही शामिल है। नाटक में आप अपना संवाद बोल ही नहीं सकते जब तक कि आप अपने सामने वाले अभिनेता सुनते नहीं। सामने वाले की लाइन खत्म किए बिना आप अपनी लाइन नहीं बोल सकते। यही बुनियादी अभ्यास जो रंगमंच निर्माण प्रक्रिया में आद्यांत अनवरत चलते हैं। यही जबरदस्त अनुशासन सामने वाले में आस्था व सम्मान का बीज डालता है। यही अनुशासन हममें विरोधी विचार को भी सुनने की तमीज़ व शिष्टाचार विकसित करता है। जब हम रंग प्रक्रिया में अनायास जुड़े होते हैं तब ये संस्कार हमारे अवचेतन पर अंकित हो रहे होते हैं।
यह संस्कार एक अभ्यास से नहीं आएगा, यह थियेटर की एक वर्कशॉप से नहीं आएगा, एक प्रोडक्शन से भी नहीं आएगा, एक महीने या साल में भी शायद न आए... रंगमंच कोई एक घटना भर नहीं है जो एक बार घट गई और खत्म। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। वैसे ही जैसे शिक्षा निरंतर चलती है। जैसे जिंदगी निरंतर चलती है। जैसे ज़िंदगी के रास्ते पर हम निकलते हैं तो शरीर को साधने की बेहतर तैयारी के लिए मॉर्निंग वॉक पर रोज़ सुबह निकलते हैं, जिम जाते हैं, वैसे ही थियेटर हमारे लिए जरूरी है। हमारे सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों को संभालने की तैयारी में। क्योंकि थियेटर ही एक ऐसी जगह है जहां किसी भी स्थिति में बातचीत नहीं रुकती। क्यों कि नाटक नहीं रुक सकता.... शायद ज़िंदगी भी....
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दलीप वैरागी 
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